वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 18 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 18
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः (सर्ग 18)
श्रीराम के टाल देने पर शूर्पणखा का लक्ष्मण से प्रणययाचना करना, फिर उनके भी टालने पर उसका सीता पर आक्रमण और लक्ष्मण का उसके नाक-कान काट लेना
तां तु शूर्पणखां रामः कामपाशावपाशिताम्।
स्वेच्छया श्लक्ष्णया वाचा स्मितपूर्वमथाब्रवीत्॥
श्रीराम ने कामपाश से बँधी हुई उस शूर्पणखा से अपनी इच्छा के अनुसार मधुर वाणी में मन्द-मन्द मुसकराते हुए कहा- ॥१॥
कृतदारोऽस्मि भवति भार्येयं दयिता मम।
त्वद्विधानां तु नारीणां सुदुःखा ससपत्नता॥२॥
‘आदरणीया देवि! मैं विवाह कर चुका हूँ। यह मेरी प्यारी पत्नी विद्यमान है। तुम-जैसी स्त्रियों के लिये तो सौत का रहना अत्यन्त दुःखदायी ही होगा। २॥
अनुजस्त्वेष मे भ्राता शीलवान् प्रियदर्शनः।
श्रीमानकृतदारश्च लक्ष्मणो नाम वीर्यवान्॥३॥
अपूर्वी भार्यया चार्थी तरुणः प्रियदर्शनः।
अनुरूपश्च ते भर्ता रूपस्यास्य भविष्यति॥४॥
‘ये मेरे छोटे भाई श्रीमान् लक्ष्मण बड़े शीलवान्, देखने में प्रिय लगने वाले और बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं। इनके साथ स्त्री नहीं है। ये अपूर्व गुणों से सम्पन्न हैं। ये तरुण तो हैं ही, इनका रूप भी देखने में बड़ा मनोरम है। अतः यदि इन्हें भार्या की चाह होगी तो ये ही तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य पति होंगे॥ ३-४॥
एनं भज विशालाक्षि भर्तारं भ्रातरं मम।
असपत्ना वरारोहे मेरुमर्कप्रभा यथा॥५॥
‘विशाललोचने! वरारोहे! जैसे सूर्य की प्रभा मेरुपर्वत का सेवन करती है, उसी प्रकार तुम मेरे इन छोटे भाई लक्ष्मण को पति के रूप में अपनाकर सौत के भयसे रहित हो इनकी सेवा करो’ ॥ ५॥
इति रामेण सा प्रोक्ता राक्षसी काममोहिता।
विसृज्य रामं सहसा ततो लक्ष्मणमब्रवीत्॥६॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर वह काम से मोहित हुई राक्षसी उन्हें छोड़कर सहसा लक्ष्मण के पास जा पहुँची और इस प्रकार बोली- ॥६॥
अस्य रूपस्य ते युक्ता भार्याहं वरवर्णिनी।
मया सह सुखं सर्वान् दण्डकान् विचरिष्यसि॥ ७॥
‘लक्ष्मण! तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य मैं ही हूँ, अतः मैं ही तुम्हारी परम सुन्दरी भार्या हो सकती हूँ। मुझे अङ्गीकार कर लेने पर तुम मेरे साथ समूचे दण्डकारण्य में सुखपूर्वक विचरण कर सकोगे’ ॥ ७॥
एवमुक्तस्तु सौमित्री राक्षस्या वाक्यकोविदः।
ततः शूर्पनखीं स्मित्वा लक्ष्मणो युक्तमब्रवीत्॥ ८॥
उस राक्षसी के ऐसा कहने पर बातचीत में निपुण सुमित्राकुमार लक्ष्मण मुसकराकर सूप-जैसे नखवाली उस निशाचरी से यह युक्तियुक्त बात बोले- ॥ ८॥
कथं दासस्य मे दासी भार्या भवितुमिच्छसि।
सोऽहमार्येण परवान् भ्रात्रा कमलवर्णिनि॥९॥
‘लाल कमल के समान गौर वर्णवाली सुन्दरि! मैं तो दास हूँ, अपने बड़े भाई भगवान् श्रीराम के अधीन हूँ, तुम मेरी स्त्री होकर दासी बनना क्यों चाहती हो?॥९॥
समृद्धार्थस्य सिद्धार्था मुदितामलवर्णिनी।
आर्यस्य त्वं विशालाक्षि भार्या भव यवीयसी॥ १०॥
‘विशाललोचने! मेरे बड़े भैया सम्पूर्ण ऐश्वर्यों (अथवा सभी अभीष्ट वस्तुओं) से सम्पन्न हैं। तुम उन्हीं की छोटी स्त्री हो जाओ। इससे तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध हो जायँगे और तुम सदा प्रसन्न रहोगी। तुम्हारे रूप-रंग उन्हीं के योग्य निर्मल हैं॥ १० ॥
एतां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम्।
भार्यां वृद्धां परित्यज्य त्वामेवैष भजिष्यति॥ ११॥
‘कुरूप, ओछी, विकृत, धंसे हुए पेटवाली और वृद्धा भार्या को त्यागकर ये तुम्हें ही सादर ग्रहण करेंगे* ॥ ११॥
* यहाँ लक्ष्मण ने उन्हीं विशेषणों को दुहराया है, जिन्हें शूर्पणखा ने सीता के लिये प्रयुक्त किया था। शूर्पणखा की दृष्टि से जो अर्थ है, वह ऊपर दे दिया है; परंतु लक्ष्मण की दृष्टि में वे विशेषण निन्दापरक नहीं, स्तुतिपरक है, अतः उनकी दृष्टि से उन विशेषणों का अर्थ यहाँ दिया जाता है—विरूपा—विशिष्टरूपवाली त्रिभुवनसुन्दरी। असती—जिससे बढ़कर दूसरी कोई सती नहीं है ऐसी। कराला–शरीर की गठन के अनुसार ऊँचे-नीचे अङ्गोंवाली निर्णतोदरी-निम्न उदर अथवा क्षीण कटि-प्रदेशवाली। वृद्धाज्ञान में बढ़ी-चढ़ी अर्थात् तुम्हें छोड़कर उक्त विशेषणों वाली सीता को ही वे ग्रहण करेंगे।
को हि रूपमिदं श्रेष्ठं संत्यज्य वरवर्णिनि।
मानुषीषु वरारोहे कुर्याद भावं विचक्षणः॥१२॥
‘सुन्दर कटिप्रदेशवाली वरवर्णिनि! कौन ऐसा बुद्धिमान् मनुष्य होगा, जो तुम्हारे इस श्रेष्ठ रूप को छोड़कर मानवकन्याओं से प्रेम करेगा?’ ॥ १२ ॥
इति सा लक्ष्मणेनोक्ता कराला निर्णतोदरी।
मन्यते तद्वचः सत्यं परिहासाविचक्षणा॥१३॥
लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर परिहास को न समझने वाली उस लंबे पेटवाली विकराल राक्षसी ने उनकी बात को सच्ची माना॥ १३॥ ।
सा रामं पर्णशालायामुपविष्टं परंतपम्।
सीतया सह दुर्धर्षमब्रवीत् काममोहिता॥१४॥
वह पर्णशाला में सीता के साथ बैठे हुए शत्रुसंतापी दुर्जय वीर श्रीरामचन्द्रजी के पास लौट आयी और काम से मोहित होकर बोली- ॥१४॥
इमां विरूपामसती कराला निर्णतोदरीम्।
वृद्धां भार्यामवष्टभ्य न मां त्वं बह मन्यसे॥१५॥
‘राम! तुम इस कुरूप, ओछी, विकृत, धंसे हुए पेटवाली और वृद्धाका आश्रय लेकर मेरा विशेष आदर नहीं करते हो॥ १५ ॥
अद्येमां भक्षयिष्यामि पश्यतस्तव मानुषीम्।
त्वया सह चरिष्यामि निःसपत्ना यथासुखम्॥ १६॥
‘अतः आज तुम्हारे देखते-देखते मैं इस मानुषी को खा जाऊँगी और इस सौत के न रहने पर तुम्हारे साथ सुखपूर्वक विचरण करूँगी’॥ १६ ॥
इत्युक्त्वा मृगशावाक्षीमलातसदृशेक्षणा।
अभ्यगच्छत् सुसंक्रुद्धा महोल्का रोहिणीमिव॥ १७॥
ऐसा कहकर दहकते हुए अंगारों के समान नेत्रोंवाली शूर्पणखा अत्यन्त क्रोध में भरकर मृगनयनी सीता की ओर झपटी, मानो कोई बड़ी भारी उल्का रोहिणी नामक तारे पर टूट पड़ी हो ॥१७॥
तां मृत्युपाशप्रतिमामापतन्तीं महाबलः।
विगृह्य रामः कुपितस्ततो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ १८॥
महाबली श्रीराम ने मौत के फंदे की तरह आती हुई उस राक्षसी को हुंकार से रोककर कुपित हो लक्ष्मण से कहा— ॥१८॥
क्रूरैरनार्यैः सौमित्रे परिहासः कथंचन।
न कार्यः पश्य वैदेहीं कथंचित् सौम्य जीवतीम्॥ १९॥
‘सुमित्रानन्दन! क्रूर कर्म करने वाले अनार्यों से किसी प्रकार का परिहास भी नहीं करना चाहिये। सौम्य! देखो न, इस समय सीता के प्राण किसी प्रकार बड़ी मुश्किल से बचे हैं॥ १९॥
इमां विरूपामसतीमतिमत्तां महोदरीम्।
राक्षसी पुरुषव्याघ्र विरूपयितुमर्हसि ॥२०॥
‘पुरुषसिंह! तुम्हें इस कुरूपा, कुलटा, अत्यन्त मतवाली और लंबे पेटवाली राक्षसी को कुरूप किसी अङ्ग से हीन कर देना चाहिये’ ॥ २० ॥
इत्युक्तो लक्ष्मणस्तस्याः क्रुद्धो रामस्य पश्यतः।
उद्धृत्य खड्गं चिच्छेद कर्णनासे महाबलः॥ २१॥
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार आदेश देने पर क्रोध में भरे हुए महाबली लक्ष्मण ने उनके देखते-देखते म्यान से तलवार खींच ली और शूर्पणखा के नाक कान काट लिये॥ २१॥
निकृत्तकर्णनासा तु विस्वरं सा विनद्य च।
यथागतं प्रद्राव घोरा शूर्पणखा वनम्॥२२॥
नाक और कान कट जाने पर भयंकर राक्षसी शूर्पणखा बड़े जोर से चिल्लाकर जैसे आयी थी, उसी तरह वन में भाग गयी॥ २२ ॥
सा विरूपा महाघोरा राक्षसी शोणितोक्षिता।
ननाद विविधान् नादान् यथा प्रावृषि तोयदः॥ २३॥
खून से भीगी हुई वह महाभयंकर एवं विकराल रूप वाली निशाचरी नाना प्रकार के स्वरों में जोर-जोर से चीत्कार करने लगी, मानो वर्षाकाल में मेघों की घटा गर्जन-तर्जन कर रही हो॥ २३॥
सा विक्षरन्ती रुधिरं बहधा घोरदर्शना।
प्रगृह्य बाहू गर्जन्ती प्रविवेश महावनम्॥२४॥
वह देखनेमें बड़ी भयानक थी। उसने अपने कटे हुए अङ्गोंसे बारंबार खूनकी धारा बहाते और दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर चिग्घाड़ते हुए एक विशाल वनके भीतर प्रवेश किया॥२४॥
ततस्तु सा राक्षससङ्गसंवृतं खरं जनस्थानगतं विरूपिता।
उपेत्य तं भ्रातरमुग्रतेजसं पपात भूमौ गगनाद् यथाशनिः॥२५॥
लक्ष्मण के द्वारा कुरूप की गयी शूर्पणखा वहाँ से भागकर राक्षस समूह से घिरे हुए भयंकर तेजवाले जनस्थान-निवासी भ्राता खर के पास गयी और जैसे आकाश से बिजली गिरती है, उसी प्रकार वह पृथ्वी पर गिर पड़ी॥
ततः सभार्यं भयमोहमूर्च्छिता सलक्ष्मणं राघवमागतं वनम्।
विरूपणं चात्मनि शोणितोक्षिता शशंस सर्वं भगिनी खरस्य सा॥२६॥
खर की वह बहन रक्त से नहा गयी थी और भय तथा मोह से अचेत-सी हो रही थी। उसने वन में सीता और लक्ष्मण के साथ श्रीरामचन्द्रजी के आने और अपने कुरूप किये जाने का सारा वृत्तान्त खर से कह सुनाया।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डेऽष्टादशः सर्गः॥१८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१८॥
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