वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 19 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 19
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकोनविंशः सर्गः (सर्ग 19)
शूर्पणखा के मुख से उसकी दुर्दशा का वृत्तान्त सुनकर क्रोध में भरे हए खर का श्रीराम आदि के वध के लिये चौदह राक्षसों को भेजना
तां तथा पतितां दृष्ट्वा विरूपां शोणितोक्षिताम्।
भगिनीं क्रोधसंतप्तः खरः पप्रच्छ राक्षसः॥१॥
अपनी बहिन को इस प्रकार अङ्गहीन और रक्त से भीगी हुई अवस्था में पृथ्वी पर पड़ी देख राक्षस खर क्रोध से जल उठा और इस प्रकार पूछने लगा॥
उत्तिष्ठ तावदाख्याहि प्रमोहं जहि सम्भ्रमम।
व्यक्तमाख्याहि केन त्वमेवंरूपा विरूपिता॥२॥
‘बहिन उठो और अपना हाल बताओ। मूर्छा और घबराहट छोड़ो तथा साफ-साफ कहो, किसने तुम्हें इस तरह रूपहीन बनाया है ? ॥२॥
कः कृष्णसर्पमासीनमाशीविषमनागसम्।
तुदत्यभिसमापन्नमङ्गल्यग्रेण लीलया॥३॥
‘कौन अपने सामने आकर चुपचाप बैठे हुए निरपराध एवं विषैले काले साँप को अपनी अँगुलियों के अग्रभाग से खेल-खेल में पीड़ा दे रहा है? ॥३॥
कालपाशं समासज्य कण्ठे मोहान्न बुध्यते।
यस्त्वामद्य समासाद्य पीतवान् विषमुत्तमम्॥४॥
‘जिसने आज तुम पर आक्रमण करके तुम्हारे नाक-कान काटे हैं, उसने उच्चकोटि का विष पी लिया है तथा अपने गले में काल का फंदा डाल लिया है, फिर भी मोहवश वह इस बात को समझ नहीं रहा है। ४॥
बलविक्रमसम्पन्ना कामगा कामरूपिणी।
इमामवस्थां नीता त्वं केनान्तकसमागता॥५॥
‘तुम तो स्वयं ही दूसरे प्राणियों के लिये यमराज के समान हो, बल और पराक्रम से सम्पन्न हो तथा इच्छानुसार सर्वत्र विचरने और अपनी रुचि के अनुसार रूप धारण करने में समर्थ हो, फिर भी तुम्हें किसने इस दुरवस्था में डाला है; जिससे दुःखी होकर तुम यहाँ आयी हो? ॥ ५॥
देवगन्धर्वभूतानामृषीणां च महात्मनाम्।
कोऽयमेवं महावीर्यस्त्वां विरूपां चकार ह॥६॥
‘देवताओं, गन्धों , भूतों तथा महात्मा ऋषियों में यह कौन ऐसा महान् बलशाली है, जिसने तुम्हें रूपहीन बना दिया? ॥ ६॥
नहि पश्याम्यहं लोके यः कुर्यान्मम विप्रियम्।
अमरेषु सहस्राक्षं महेन्द्रं पाकशासनम्॥७॥
‘संसार में तो मैं किसी को ऐसा नहीं देखता, जो मेरा अप्रिय कर सके देवताओं में सहस्रनेत्रधारी पाकशासन इन्द्र भी ऐसा साहस कर सकें, यह मुझे नहीं दिखायी देता॥
अद्याहं मार्गणैः प्राणानादास्ये जीवितान्तगैः।
सलिले क्षीरमासक्तं निष्पिबन्निव सारसः॥८॥
‘जैसे हंस जल में मिले हुए दूध को पी लेता है, उसी प्रकार मैं आज इन प्राणान्तकारी बाणों से तुम्हारे अपराधी के शरीर से उसके प्राण ले लूँगा॥ ८॥
निहतस्य मया संख्ये शरसंकृत्तमर्मणः।
सफेनं रुधिरं कस्य मेदिनी पातुमिच्छति॥९॥
‘युद्ध में मेरे बाणों से जिसके मर्मस्थान छिन्न-भिन्न हो गये हैं तथा जो मेरे हाथों मारा गया है, ऐसे किस पुरुष के फेनसहित गरम-गरम रक्त को यह पृथ्वी पीना चाहती है ? ॥ ९॥
कस्य पत्ररथाः कायान्मांसमुत्कृत्य संगताः।
प्रहृष्टा भक्षयिष्यन्ति निहतस्य मया रणे॥१०॥
‘रणभूमि में मेरे द्वारा मारे गये किस व्यक्ति के शरीर से मांस कुतर-कुतरकर ये हर्ष में भरे हुए झुंडके-झुंड पक्षी खायँगे? ॥ १०॥
तं न देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
मयापकृष्टं कृपणं शक्तास्त्रातुं महाहवे॥११॥
‘जिसे मैं महासमर में खींच लूँ, उस दीन अपराधी को देवता, गन्धर्व, पिशाच और राक्षस भी नहीं बचा सकते॥
उपलभ्य शनैः संज्ञां तं मे शंसितमर्हसि।
येन त्वं दुर्विनीतेन वने विक्रम्य निर्जिता॥१२॥
‘धीरे-धीरे होश में आकर तुम मुझे उसका नाम बताओ, जिस उद्दण्ड ने वन में तुम पर बलपूर्वक आक्रमण करके तुम्हें परास्त किया है’ ॥ १२ ॥
इति भ्रातुर्वचः श्रुत्वा क्रुद्धस्य च विशेषतः।
ततः शूर्पणखा वाक्यं सबाष्पमिदमब्रवीत्॥ १३॥
भाई का विशेषतः क्रोध में भरे हुए भाई खर का यह वचन सुनकर शूर्पणखा नेत्रों से आँसू बहाती हुई इस प्रकार बोली- ॥ १३॥
तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ॥ १४॥
‘भैया ! वन में दो तरुण पुरुष आये हैं, जो देखने में बड़े ही सुकुमार, रूपवान् और महान् बलवान् हैं।उन दोनों के बड़े-बड़े नेत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानो खिले हुए कमल हों। वे दोनों ही वल्कल-वस्त्र और मृगचर्म पहने हुए हैं॥ १४॥
फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यास्तां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥१५॥
‘फल और मूल ही उनका भोजन है। वे जितेन्द्रिय, तपस्वी और ब्रह्मचारी हैं। दोनों ही राजा दशरथ के पुत्र और आपस में भाई-भाई हैं। उनके नाम राम और लक्ष्मण हैं।॥ १५॥
गन्धर्वराजप्रतिमौ पार्थिवव्यञ्जनान्वितौ।
देवौ वा दानवावेतौ न तर्कयितुमुत्सहे ॥१६॥
‘वे दो गन्धर्वराजों के समान जान पड़ते हैं और राजोचित लक्षणों से सम्पन्न हैं। ये दोनों भाई देवता अथवा दानव हैं, यह मैं अनुमान से भी नहीं जान सकती॥ १६॥
तरुणी रूपसम्पन्ना सर्वाभरणभूषिता।
दृष्टा तत्र मया नारी तयोर्मध्ये सुमध्यमा॥१७॥
“उन दोनों के बीच में एक तरुण अवस्था वाली रूपवती स्त्री भी वहाँ देखी है, जिसके शरीर का मध्यभाग बड़ा ही सुन्दर है। वह सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित है।
ताभ्यामुभाभ्यां सम्भूय प्रमदामधिकृत्य ताम्।
इमामवस्थां नीताहं यथानाथासती तथा॥१८॥
‘उस स्त्री के ही कारण उन दोनों ने मिलकर मेरी एक अनाथ और कुलटा स्त्री की भाँति ऐसी दुर्गति की है॥
तस्याश्चानृजुवृत्तायास्तयोश्च हतयोरहम।
सफेनं पातुमिच्छामि रुधिरं रणमूर्धनि॥१९॥
‘मैं युद्ध में उस कुटिल आचार वाली स्त्री के और उन दोनों राजकुमारों के भी मारे जाने पर उनका फेनसहित रक्त पीना चाहती हूँ॥ १९॥
एष मे प्रथमः कामः कृतस्तत्र त्वया भवेत्।
तस्यास्तयोश्च रुधिरं पिबेयमहमाहवे॥२०॥
‘रणभूमि में उस स्त्री का और उन पुरुषों का भी रक्त मैं पी सकूँ—यह मेरी पहली और प्रमुख इच्छा है, जो तुम्हारे द्वारा पूर्ण की जानी चाहिये॥२०॥
इति तस्यां ब्रुवाणायां चतुर्दश महाबलान्।
व्यादिदेश खरः क्रुद्धो राक्षसानन्तकोपमान्॥ २१॥
शूर्पणखा के ऐसा कहने पर खरने कुपित होकर अत्यन्त बलवान् चौदह राक्षसों को, जो यमराज के समान भयंकर थे, यह आदेश दिया— ॥२१॥
मानुषौ शस्त्रसम्पन्नौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ।
प्रविष्टौ दण्डकारण्यं घोरं प्रमदया सह ॥ २२॥
‘वीरो! इस भयंकर दण्डकारण्य के भीतर चीर और काला मृगचर्म धारण किये दो शस्त्रधारी मनुष्य एक युवती स्त्री के साथ घुस आये हैं ॥ २२ ॥
तौ हत्वा तां च दुर्वृत्तामुपावर्तितुमर्हथ।
इयं च भगिनी तेषां रुधिरं मम पास्यति॥२३॥
‘तुमलोग वहाँ जाकर पहले उन दोनों पुरुषों को मार डालो; फिर उस दुराचारिणी स्त्री के भी प्राण ले लो। मेरी यह बहिन उन तीनों का रक्त पीयेगी॥ २३ ॥
मनोरथोऽयमिष्टोऽस्या भगिन्या मम राक्षसाः।
शीघ्रं सम्पाद्यतां गत्वा तौ प्रमथ्य स्वतेजसा॥ २४॥
‘राक्षसो! मेरी इस बहिन का यह प्रिय मनोरथ है। तुम वहाँ जाकर अपने प्रभाव से उन दोनों मनुष्यों को मार गिराओ और बहिन के इस मनोरथ को शीघ्र पूरा करो॥
युष्माभिर्निहतौ दृष्ट्वा तावुभौ भ्रातरौ रणे।
इयं प्रहृष्टा मुदिता रुधिरं युधि पास्यति ॥२५॥
‘रणभूमि में उन दोनों भाइयों को तुम्हारे द्वारा मारा गया देख यह हर्ष से खिल उठेगी और आनन्दमग्न होकर युद्ध स्थल में उनका रक्त पान करेगी’ ॥ २५ ॥
इति प्रतिसमादिष्टा राक्षसास्ते चतुर्दश।
तत्र जग्मस्तया सार्धं घना वातेरिता इव ॥२६॥
खर की ऐसी आज्ञा पाकर वे चौदहों राक्षस हवा के उड़ाये हुए बादलों के समान विवश हो शूर्पणखा के साथ पञ्चवटी को गये॥२६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकोनविंशः सर्गः ॥१९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।१९॥
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