वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 2 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 2
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
द्वितीयः सर्गः (सर्ग 2)
वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता पर विराध का आक्रमण
कृतातिथ्योऽथ रामस्तु सूर्यस्योदयनं प्रति।
आमन्त्र्य स मुनीन् सर्वान् वनमेवान्वगाहत॥१॥
रात्रि में उन महर्षियों का आतिथ्य ग्रहण करके सबेरे सूर्योदय होने पर समस्त मुनियों से विदा ले श्रीरामचन्द्रजी पुनः वन में ही आगे बढ़ने लगे॥१॥
नानामृगगणाकीर्णमृक्षशार्दूलसेवितम्।
ध्वस्तवृक्षलतागुल्मं दुर्दर्शसलिलाशयम्॥२॥
निष्कूजमानशकुनिं झिल्लिकागणनादितम्।
लक्ष्मणानुचरो रामो वनमध्यं ददर्श ह॥३॥
जाते-जाते लक्ष्मणसहित श्रीराम ने वन के मध्यभाग में एक ऐसे स्थान को देखा, जो नाना प्रकार के मृगों से व्याप्त था। वहाँ बहुत-से रीछ और बाघ रहा करते थे। वहाँ के वृक्ष, लता और झाड़ियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गयी । थीं। उस वनप्रान्त में किसी जलाशय का दर्शन होना कठिन था। वहाँ के पक्षी वहीं चहक रहे थे। झींगरों की झंकार गूंज रही थी॥२-३॥
सीतया सह काकुत्स्थस्तस्मिन् घोरमृगायुते।
ददर्श गिरिशृङ्गाभं पुरुषादं महास्वनम्॥४॥
भयंकर जंगली पशुओं से भरे हुए उस दुर्गम वन में सीता के साथ श्रीरामचन्द्रजी ने एक नरभक्षी राक्षस देखा, जो पर्वतशिखर के समान ऊँचा था और उच्चस्वर से गर्जना कर रहा था॥ ४॥
गभीराक्षं महावक्त्रं विकटं विकटोदरम्।
बीभत्सं विषमं दीर्घ विकृतं घोरदर्शनम्॥५॥
उसकी आँखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा, आकार विकट, और पेट विकराल था। वह देखने में बड़ा भयंकर, घृणित, बेडौल, बहुत बड़ा और विकृत वेश से युक्त था॥५॥
वसानं चर्म वैयाघ्रं वसाइँ रुधिरोक्षितम्।
त्रासनं सर्वभूतानां व्यादितास्यमिवान्तकम्॥६॥
उसने खून से भीगा और चरबी से गीला व्याघ्रचर्म पहन रखा था। समस्त प्राणियों को त्रास पहुँचाने वाला वह राक्षस यमराज के समान मुँह बाये खड़ा था॥ ६॥
त्रीन् सिंहांश्चतुरो व्याघ्रान् द्वौ वृकौ पृषतान् दश।
सविषाणं वसादिग्धं गजस्य च शिरो महत्॥७॥
अवसज्यायसे शूले विनदन्तं महास्वनम्।।
वह एक लोहे के शूल में तीन सिंह, चार बाघ, दो भेड़िये, दस चितकबरे हरिण और दाँतों सहति एक बहुत बड़ा हाथी का मस्तक, जिसमें चर्बी लिपटी हुई थी, गाँथ कर जोर-जोर से दहाड़ रहा था॥ ७ १/२॥
स रामं लक्ष्मणं चैव सीतां दृष्ट्वा च मैथिलीम्।
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धः प्रजाः काल इवान्तकः॥ ८॥
स कृत्वा भैरवं नादं चालयन्निव मेदिनीम्॥९॥
श्रीराम, लक्ष्मण और मिथिलेशकुमारी सीता को देखते ही वह क्रोध में भरकर भैरवनाद करके पृथ्वी को कम्पित करता हुआ उन सबकी ओर उसी प्रकार दौड़ा, जैसे प्राणान्तकारी काल प्रजा की ओर अग्रसर होता है।
अङ्केनादाय वैदेहीमपक्रम्य तदाब्रवीत्।
युवां जटाचीरधरौ सभार्यो क्षीणजीवितौ॥१०॥
प्रविष्टौ दण्डकारण्यं शरचापासिपाणिनौ।
वह विदेहनन्दिनी सीता को गोद में ले कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया। फिर उन दोनों भाइयों से बोला ‘तुम दोनों जटा और चीर धारण करके भी स्त्री के साथ रहते हो और हाथ में धनुष-बाण और तलवार लिये दण्डकवन में घुस आये हो; अतः जान पड़ता है, तुम्हारा जीवन क्षीण हो चला है॥ १० १/२॥
कथं तापसयोर्वां च वासः प्रमदया सह ॥११॥
अधर्मचारिणौ पापौ कौ युवां मुनिदूषको।
‘तुम दोनों तो तपस्वी जान पड़ते हो, फिर तुम्हारा युवती स्त्री के साथ रहना कैसे सम्भव हुआ? अधर्मपरायण, पापी तथा मुनिसमुदाय को कलङ्कित करने वाले तुम दोनों कौन हो? ॥ ११ १/२ ॥
अहं वनमिदं दुर्गं विराधो नाम राक्षसः॥१२॥
चरामि सायुधो नित्यमृषिमांसानि भक्षयन्।
‘मैं विराध नामक राक्षस हूँ और प्रतिदिन ऋषियों के मांस का भक्षण करता हुआ हाथ में अस्त्रशस्त्र लिये इस दुर्गम वन में विचरता रहता हूँ॥ १२ १/२॥
इयं नारी वरारोहा मम भार्या भविष्यति॥१३॥
युवयोः पापयोश्चाहं पास्यामि रुधिरं मृधे।
‘यह स्त्री बड़ी सुन्दरी है, अतः मेरी भार्या बनेगी और तुम दोनों पापियोंका मैं युद्धस्थलमें रक्त पान करूँगा’॥
तस्यैवं ब्रुवतो दुष्टं विराधस्य दुरात्मनः॥१४॥
श्रुत्वा सगर्वितं वाक्यं सम्भ्रान्ता जनकात्मजा।
सीता प्रवेपितोद्वेगात् प्रवाते कदली यथा॥१५॥
दुरात्मा विराध की ये दुष्टता और घमंड से भरी बातें सुनकर जनकनन्दिनी सीता घबरा गयीं और जैसे तेज हवा चलने पर केले का वृक्ष जोर-जोर से हिलने लगता है, उसी प्रकार वे उद्वेग के कारण थरथर काँपने लगीं ॥ १५॥
तां दृष्ट्वा राघवः सीतां विराधाङ्कगतां शुभाम्।
अब्रवील्लक्ष्मणं वाक्यं मुखेन परिशुष्यता॥१६॥
शुभलक्षणा सीता को सहसा विराध के चंगुल में फँसी देख श्रीरामचन्द्र जी सूखते हुए मुँह से लक्ष्मण को सम्बोधित करके बोले- ॥ १६ ॥
पश्य सौम्य नरेन्द्रस्य जनकस्यात्मसम्भवाम्।
मम भार्यां शुभाचारां विराधाङ्के प्रवेशिताम्॥ १७॥
‘सौम्य! देखो तो सही, महाराज जनक की पुत्री और मेरी सती-साध्वी पत्नी सीता विराध के अङ्क में विवशतापूर्वक जा पहुँची हैं॥ १७ ॥
अत्यन्तसुखसंवृद्धां राजपुत्रीं यशस्विनीम्।
यदभिप्रेतमस्मासु प्रियं वरवृतं च यत्॥१८॥
कैकेय्यास्तु सुसंवृत्तं क्षिप्रमद्यैव लक्ष्मण।
या न तृष्यति राज्येन पुत्रार्थे दीर्घदर्शिनी॥१९॥
‘अत्यन्त सुख में पली हुई यशस्विनी राजकुमारी सीता की यह अवस्था! (हाय! कितने कष्टकी बात है!) लक्ष्मण! वन में हमारे लिये जिस दुःख की प्राप्ति कैकेयी को अभीष्ट थी और जो कुछ उसे प्रिय था, जिसके लिये उसने वर माँगे थे, वह सब आज ही शीघ्रतापूर्वक सिद्ध हो गया। तभी तो वह दूरदर्शिनी कैकेयी अपने पुत्र के लिये केवल राज्य लेकर नहीं संतुष्ट हुई थी॥ १८-१९॥
ययाहं सर्वभूतानां प्रियः प्रस्थापितो वनम्।
अद्येदानीं सकामा सा या माता मध्यमा मम॥ २०॥
‘जिसने समस्त प्राणियों के लिये प्रिय होने पर भी मुझे वन में भेज दिया, वह मेरी मझली माता कैकेयी आज इस समय सफलमनोरथ हुई है॥ २० ॥
परस्पर्शात् तु वैदेह्या न दुःखतरमस्ति मे।
पितुर्विनाशात् सौमित्रे स्वराज्य हरणात् तथा॥ २१॥
‘विदेहनन्दिनीका दूसरा कोई स्पर्श कर ले, इससे बढ़कर दुःख की बात मेरे लिये दूसरी कोई नहीं है। सुमित्रानन्दन! पिताजी की मृत्यु तथा अपने राज्य के अपहरण से भी उतना कष्ट मुझे नहीं हुआ था, जितना अब हुआ है’ ॥ २१॥
इति ब्रुवति काकुत्स्थे बाष्पशोकपरिप्लुतः।
अब्रवील्लक्ष्मणः क्रुद्धो रुद्धो नाग इव श्वसन्॥ २२॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर शोक के आँसू बहाते हुए लक्ष्मण कुपित हो मन्त्र से अवरुद्ध हुए सर्प की भाँति फुफकारते हुए बोले- ॥२२॥
अनाथ इव भूतानां नाथस्त्वं वासवोपमः।
मया प्रेष्येण काकुत्स्थ किमर्थं परितप्यसे॥२३॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण! आप इन्द्र के समान समस्त प्राणियों के स्वामी एवं संरक्षक हैं। मुझ दास के रहते हुए आप किसलिये अनाथ की भाँति संतप्त हो रहे हैं?॥
शरेण निहतस्याद्य मया क्रुद्धेन रक्षसः।
विराधस्य गतासोर्हि मही पास्यति शोणितम्॥ २४॥
‘मैं अभी कुपित होकर अपने बाण से इस राक्षस का वध करता हूँ। आज यह पृथ्वी मेरे द्वारा मारे गये प्राणशून्य विराध का रक्त पीयेगी।॥ २४॥
राज्यकामे मम क्रोधो भरते यो बभूव ह।
तं विराधे विमोक्ष्यामि वज्री वज्रमिवाचले॥ २५॥
‘राज्य की इच्छा रखने वाले भरत पर मेरा जो क्रोध प्रकट हुआ था, उसे आज मैं विराध पर छोडूंगा। जैसे वज्रधारी इन्द्र पर्वत पर अपना वज्र छोड़ते हैं॥ २५ ॥
मम भुजबलवेगवेगितः पततु शरोऽस्य महान् महोरसि।
व्यपनयतु तनोश्च जीवितं पततु ततश्च महीं विघूर्णितः॥२६॥
‘मेरी भुजाओं के बल के वेग से वेगवान् होकर छूटा हुआ मेरा महान् बाण आज विराध के विशाल वक्षःस्थल पर गिरे इसके शरीर से प्राणों को अलग करे। तत्पश्चात् यह विराध चक्कर खाता हुआ पृथ्वी पर पड़ जाय’ ॥ २६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे द्वितीयः सर्गः ॥२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ॥२॥
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