वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 21 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 21
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकविंशः सर्गः (सर्ग 21)
शूर्पणखा का खर के पास आकर उन राक्षसों के वध का समाचार बताना और राम का भय दिखाकर उसे युद्ध के लिये उत्तेजित करना
स पुनः पतितां दृष्ट्वा क्रोधाच्छूर्पणखां पुनः।
उवाच व्यक्तया वाचा तामनर्थार्थमागताम्॥१॥
शूर्पणखा को पुनः पृथ्वी पर पड़ी हुई देख अनर्थ के लिये आयी हुई उस बहिन से खर ने क्रोधपूर्वक स्पष्ट वाणी में फिर कहा- ॥१॥
मया त्विदानीं शूरास्ते राक्षसाः पिशिताशनाः।
त्वत्प्रियार्थं विनिर्दिष्टाः किमर्थं रुद्यते पुनः॥२॥
‘बहिन ! मैंने तुम्हारा प्रिय करने के लिये उस समय बहुत-से शूरवीर एवं मांसाहारी राक्षसों को जाने की आज्ञा दे दी थी, अब फिर तुम किसलिये रो रही हो? ॥२॥
भक्ताश्चैवानुरक्ताश्च हिताश्च मम नित्यशः।
हन्यमाना न हन्यन्ते न न कुर्युर्वचो मम॥३॥
‘मैंने जिन राक्षसों को भेजा था, वे मेरे भक्त, मुझमें अनुराग रखने वाले और सदा मेरा हित चाहने वाले हैं। वे किसी के मारने पर भी मर नहीं सकते। उनके द्वारा मेरी आज्ञा का पालन न हो, यह भी सम्भव नहीं है।
किमेतच्छोतुमिच्छामि कारणं यत्कृते पुनः।
हा नाथेति विनर्दन्ती सर्पवच्चेष्टसे क्षितौ॥४॥
‘फिर ऐसा कौन-सा कारण उपस्थित हो गया, जिसके लिये तुम ‘हा नाथ’ की पुकार मचाती हुई साँप की तरह धरती पर लोट रही हो। मैं उसे सुनना चाहता हूँ॥४॥
अनाथवद् विलपसि किं नु नाथे मयि स्थिते।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ मा मैवं वैक्लव्यं त्यज्यतामिति॥५॥
‘मेरे-जैसे संरक्षक के रहते हुए तुम अनाथ की तरह विलाप क्यों करती हो? उठो! उठो!! इस तरह लोटो मत घबराहट छोड़ दो’ ॥ ५॥
इत्येवमुक्ता दुर्धर्षा खरेण परिसान्त्विता।
विमृज्य नयने साने खरं भ्रातरमब्रवीत्॥६॥
खर के इस प्रकार सान्त्वना देने पर वह दुर्धर्षराक्षसी अपने आँसू भरे नेत्रों को पोंछकर भाई खर से बोली-॥
अस्मीदानीमहं प्राप्ता हतश्रवणनासिका।
शोणितौघपरिक्लिन्ना त्वया च परिसान्त्विता॥ ७॥
‘भैया मैं इस समय फिर तुम्हारे पास क्यों आयी हूँ —यह बताती हूँ, सुनो-मेरे नाक-कान कट गये और मैं खून की धारा से नहा उठी, उस अवस्था में जब पहली बार मैं आयी थी, तब तुमने मुझे बड़ी सान्त्वना दी थी॥७॥
प्रेषिताश्च त्वया शूरा राक्षसास्ते चतुर्दश।
निहन्तुं राघवं घोरं मत्प्रियार्थं सलक्ष्मणम्॥८॥
ते तु रामेण सामर्षाः शूलपट्टिशपाणयः।
समरे निहताः सर्वे सायकैमर्मभेदिभिः॥९॥
‘तत्पश्चात् मेरा प्रिय करने के लिये लक्ष्मणसहित राम का वध करने के उद्देश्य से तुमने जो वे चौदह शूरवीर राक्षस भेजे थे, वे सब-के-सब अमर्ष में भरकर हाथों में शूल और पट्टिश लिये वहाँ जा पहुँचे, परंतु राम ने अपने मर्मभेदी बाणों द्वारा उन सबको समराङ्गण में मार गिराया॥ ८-९॥
तान् भूमौ पतितान् दृष्ट्वा क्षणेनैव महाजवान्।
रामस्य च महत्कर्म महांस्त्रासोऽभवन्मम॥१०॥
‘उन महान् वेगशाली निशाचरों को क्षणभर में ही धराशायी हुआ देख राम के उस महान् पराक्रमपर दृष्टिपात करके मेरे मन में बड़ा भय उत्पन्न हो गया।
सास्मि भीता समुद्विग्ना विषण्णा च निशाचर।
शरणं त्वां पुनः प्राप्ता सर्वतो भयदर्शिनी॥११॥
‘निशाचरराज! मैं भयभीत, उद्विग्न और विषादग्रस्त हो गयी हूँ। मुझे सब ओर भय-ही-भय दिखायी देता है, इसीलिये फिर तुम्हारी शरण में आयी हूँ॥११॥
विषादनक्राध्युषिते परित्रासोर्मिमालिनि।
किं मां न त्रायसे मग्नां विपुले शोकसागरे॥ १२॥
‘मैं शोक के उस विशाल समुद्र में डूब गयी हूँ, जहाँ विषादरूपी मगर निवास करते हैं और त्रास की तरङ्गमालाएँ उठती रहती हैं। तुम उस शोक सागर से मेरा उद्धार क्यों नहीं करते हो? ॥ १२ ॥
एते च निहता भूमौ रामेण निशितैः शरैः।
ये च मे पदवी प्राप्ता राक्षसाः पिशिताशनाः॥ १३॥
‘जो मांसभक्षी राक्षस मेरे साथ गये थे, वे सब-के सब राम के पैने बाणों से मारे जाकर पृथ्वी पर पड़े हैं।
मयि ते यद्यनुक्रोशो यदि रक्षःसु तेषु च।
रामेण यदि शक्तिस्ते तेजो वास्ति निशाचर॥ १४॥
दण्डकारण्यनिलयं जहि राक्षसकण्टकम्।
‘राक्षसराज! यदि मुझपर और उन मरे हुए राक्षसों पर तुम्हें दया आती हो तथा यदि राम के साथ लोहा लेने के लिये तुम में शक्ति और तेज हो तो उन्हें मार डालो; क्योंकि दण्डकारण्य में घर बनाकर रहने वाले राम राक्षसों के लिये कण्टक हैं॥ १४ १/२ ॥
यदि रामममित्रघ्नं न त्वमद्य वधिष्यसि॥१५॥
तव चैवाग्रतः प्राणांस्त्यक्ष्यामि निरपत्रपा।
‘यदि तुम आज ही शत्रुघाती राम का वध नहीं कर डालोगे तो मैं तुम्हारे सामने ही अपने प्राण त्याग दूंगी; क्योंकि मेरी लाज लुट चुकी है। १५ १/२॥
बुद्ध्याहमनुपश्यामि न त्वं रामस्य संयुगे॥१६॥
स्थातुं प्रतिमुखे शक्तः सबलोऽपि महारणे।
‘मैं बुद्धि से बारंबार सोचकर देखती हूँ कि तुम महासमर में सबल होकर भी राम के सामने युद्ध में नहीं ठहर सकोगे॥ १६ १/२॥
शूरमानी न शूरस्त्वं मिथ्यारोपितविक्रमः॥१७॥
अपयाहि जनस्थानात् त्वरितः सहबान्धवः।
जहि त्वं समरे मूढान्यथा तु कुलपांसन॥१८॥
‘तुम अपने को शूरवीर मानते हो, किंतु तुम में शौर्य है ही नहीं। तुमने झूठे ही अपने-आप में पराक्रम का आरोप कर लिया है। मूढ़ ! तुम समराङ्गण में उन दोनों को मार डालो अन्यथा अपने कुल में कलङ्क लगाकर भाई-बन्धुओं के साथ तुरंत ही इस जनस्थान से भाग जाओ॥ १७-१८॥
मानुषौ तौ न शक्नोषि हन्तुं वै रामलक्ष्मणौ।
निःसत्त्वस्याल्पवीर्यस्य वासस्ते कीदृशस्त्विह॥ १९॥
‘राम और लक्ष्मण मनुष्य हैं, यदि उन्हें भी मारने की तुममें शक्ति नहीं है तो तुम्हारे-जैसे निर्बल और पराक्रमशून्य राक्षस का यहाँ रहना कैसे सम्भव हो सकता है ? ॥ १९॥
रामतेजोऽभिभूतो हि त्वं क्षिप्रं विनशिष्यसि।
स हि तेजःसमायुक्तो रामो दशरथात्मजः॥२०॥
भ्राता चास्य महावीर्यो येन चास्मि विरूपिता।
‘तुम राम के तेज से पराजित होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे; क्योंकि दशरथकुमार राम बड़े तेजस्वी हैं। उनका भाई भी महान् पराक्रमी है, जिसने मुझे नाक कान से हीन करके अत्यन्त कुरूप बना दिया’ ॥ २० १/२॥
एवं विलप्य बहुशो राक्षसी प्रदरोदरी॥२१॥
भ्रातुः समीपे शोकार्ता नष्टसंज्ञा बभूव ह।
कराभ्यामुदरं हत्वा रुरोद भृशदुःखिता॥२२॥
इस प्रकार बहुत विलाप करके गुफा के समान गहरे पेटवाली वह राक्षसी शोक से आतुर हो अपने भाई के पास मूर्च्छित-सी हो गयी और अत्यन्त दुःखी हो दोनों हाथों से पेट पीटती हुई फूट-फूटकर रोने लगी। २१-२२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकविंशः सर्गः॥२१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२१॥
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