वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 22 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 22
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
द्वाविंशः सर्गः (सर्ग 22)
चौदह हजार राक्षसों की सेना के साथ खर-दूषण का जनस्थान से पञ्चवटी की ओर प्रस्थान
एवमाधर्षितः शूरः शूर्पणख्या खरस्ततः।
उवाच रक्षसां मध्ये खरः खरतरं वचः॥१॥
शूर्पणखा द्वारा इस प्रकार तिरस्कृत होकर शूरवीर खर ने राक्षसों के बीच अत्यन्त कठोर वाणी में कहा – ॥१॥
तवापमानप्रभवः क्रोधोऽयमतुलो मम।
न शक्यते धारयितुं लवणाम्भ इवोल्बणम्॥२॥
“बहिन! तुम्हारे अपमान के कारण मुझे बेतरह क्रोध चढ़ आया है। इसे धारण करना या दबा देना उसी प्रकार असम्भव है, जैसे पूर्णिमा को प्रचण्ड वेग से बढ़े हुए खारे पानी के समुद्र के जल को (अथवा यह उसी प्रकार असह्य है, जैसे घाव पर नमकीन पानी का छिड़कना) ॥२॥
न रामं गणये वीर्यान्मानुषं क्षीणजीवितम्।
आत्मदुश्चरितैः प्राणान् हतो योऽद्य विमोक्ष्यते॥ ३॥
‘मैं पराक्रम की दृष्टि से राम को कुछ भी नहीं गिनता हूँ; क्योंकि उस मनुष्य का जीवन अब क्षीण हो चला है। वह अपने दुष्कर्मों से ही मारा जाकर आज प्राणों से हाथ धो बैठेगा॥३॥
बाष्पः संधार्यतामेष सम्भ्रमश्च विमुच्यताम्।
अहं रामं सह भ्रात्रा नयामि यमसादनम्॥४॥
‘तुम अपने आँसुओं को रोको और यह घबराहट छोड़ो। मैं भाईसहित राम को अभी यमलोक पहुँचा देता हूँ॥४॥
परश्वधहतस्याद्य मन्दप्राणस्य भूतले।
रामस्य रुधिरं रक्तमुष्णं पास्यसि राक्षसि॥५॥
‘राक्षसी! आज मेरे फरसे की मार से निष्प्राण होकर धरतीपर पड़े हुए राम का गरम-गरम रक्त तुम्हें पीने को मिलेगा’॥ ५॥
सम्प्रहृष्टा वचः श्रुत्वा खरस्य वदनाच्च्युतम्।
प्रशशंस पुनौाद् भ्रातरं रक्षसां वरम्॥६॥
खर के मुख से निकली हुई इस बात को सुनकर शूर्पणखा को पड़ी प्रसन्नता हुई। उसने मूर्खतावश राक्षसों में श्रेष्ठ भाई खर की पुनः भूरि-भूरि प्रशंसा की।
तया परुषितः पूर्वं पुनरेव प्रशंसितः।।
अब्रवीद् दूषणं नाम खरः सेनापतिं तदा॥७॥
उसने पहले जिसका कठोर वाणी द्वारा तिरस्कार किया और पुनः जिसकी अत्यन्त सराहना की, उस खर ने उस समय अपने सेनापति दूषण से कहा-॥
चतुर्दश सहस्राणि मम चित्तानुवर्तिनाम्।
रक्षसां भीमवेगानां समरेष्वनिवर्तिनाम॥८॥
नीलजीमूतवर्णानां लोकहिंसाविहारिणाम्।
सर्वोद्योगमुदीर्णानां रक्षसां सौम्य कारय॥९॥
‘सौम्य! मेरे मन के अनुकूल चलने वाले, युद्ध के मैदान से पीछे न हटने वाले, भयंकर वेगशाली, मेघों की काली घटा के समान काले रंगवाले, लोगों की हिंसा से ही क्रीड़ा-विहार करने वाले तथा युद्ध में उत्साहपूर्वक आगे बढ़ने वाले चौदह सहस्र राक्षसों को युद्ध के लिये भेजने की पूरी तैयारी कराओ॥ ८-९॥
उपस्थापय मे क्षिप्रं रथं सौम्य धनूंषि च।
शरांश्च चित्रान् खड्गांश्च शक्तीश्च विविधाः शिताः॥१०॥
सौम्य सेनापते! तुम शीघ्र ही मेरा रथ भी यहाँ मँगवा लो। उस पर बहुत-से धनुष, बाण, विचित्रविचित्र खड्ग और नाना प्रकार की तीखी शक्तियों को भी रख दो॥ १० ॥
अग्रे निर्यातुमिच्छामि पौलस्त्यानां महात्मनाम्।
वधार्थं दुर्विनीतस्य रामस्य रणकोविद ॥११॥
‘रणकुशल वीर! मैं इस उद्दण्ड राम का वध करने के लिये महामनस्वी पुलस्त्यवंशी राक्षसों के आगे-आगे जाना चाहता हूँ’॥ ११॥
इति तस्य ब्रुवाणस्य सूर्यवर्ण महारथम्।
सदश्वैः शबलैर्युक्तमाचचक्षेऽथ दूषणः॥१२॥
उसके इस प्रकार आज्ञा देते ही एक सूर्य के समान प्रकाशमान और चितकबरे रंग के अच्छे घोड़ों से जुता हुआ विशाल रथ वहाँ आ गया दूषण ने खर को इसकी सूचना दी॥ १२॥
तं मेरुशिखराकारं तप्तकाञ्चनभूषणम्।
हेमचक्रमसम्बाधं वैदूर्यमयकूबरम्॥१३॥
मत्स्यैः पुष्पैर्दुमैः शैलैश्चन्द्रसूर्यैश्च काञ्चनैः।
माङ्गल्यैः पक्षिसङ्घश्च ताराभिश्च समावृतम्॥ १४॥
ध्वजनिस्त्रिंशसम्पन्नं किंकिणीवरभूषितम्।
सदश्वयुक्तं सोऽमर्षादारुरोह खरस्तदा ॥१५॥
वह रथ मेरुपर्वत के शिखर की भाँति ऊँचा था, उसे तपाये हुए सोने के बने हुए साज-बाज से सजाया गया था, उसके पहियों में सोना जड़ा हुआ था, उसका विस्तार बहुत बड़ा था, उस रथ के कूबर वैदूर्यमणि से जड़े गये थे, उसकी सजावट के लिये सोने के बने हुए मत्स्य, फूल, वृक्ष, पर्वत, चन्द्रमा, सूर्य, माङ्गलिक पक्षियों के समुदाय तथा तारिकाओं से वह रथ सुशोभित हो रहा था, उस पर ध्वजा फहरा रही थी तथा रथ के भीतर खड्ग आदि अस्त्र-शस्त्र रखे हुए थे, छोटी-छोटी घण्टियों अथवा सुन्दर घुघुरुओं से सजे और उत्तम घोड़ों से जुते हुए उस रथ पर राक्षसराज खर उस समय आरूढ़ हुआ। अपनी बहिन के अपमान का स्मरण करके उसके मन में बड़ा अमर्ष हो रहा था॥ १३–१५ ॥
खरस्तु तन्महत्सैन्यं रथचर्मायुधध्वजम्।
निर्यातेत्यब्रवीत् प्रेक्ष्य दूषणः सर्वराक्षसान्॥ १६॥
रथ, ढाल, अस्त्र-शस्त्र तथा ध्वज से सम्पन्न उस विशाल सेना की ओर देखकर खर और दूषण ने समस्त राक्षसों से कहा—’निकलो, आगे बढ़ो’। १६॥
ततस्तद् राक्षसं सैन्यं घोरचर्मायुधध्वजम्।
निर्जगाम जनस्थानान्महानादं महाजवम्॥१७॥
कूच करने की आज्ञा प्राप्त होते ही भयंकर ढाल, अस्त्र-शस्त्र तथा ध्वजा से युक्त वह विशाल राक्षस सेना जोर-जोर से गर्जना करती हुई जनस्थान से बड़े वेग के साथ निकली॥ १७॥
मुद्गरैः पट्टिशैः शूलैः सुतीक्ष्णैश्च परश्वधैः ।
खड्गैश्चक्रैश्च हस्तस्थैर्भ्राजमानैः सतोमरैः॥ १८॥
शक्तिभिः परिघैोरैरतिमात्रैश्च कार्मुकैः।
गदासिमुसलैर्वज्रर्गृहीतैर्भीमदर्शनैः॥ १९॥
राक्षसानां सुघोराणां सहस्राणि चतुर्दश।
निर्यातानि जनस्थानात् खरचित्तानुवर्तिनाम्॥ २०॥
सैनिकों के हाथ में मुद्गर, पट्टिश, शूल, अत्यन्त तीखे फर से, खड़ग, चक्र और तोमर चमक उठे। शक्ति, भयंकर परिघ, विशाल धनुष, गदा, तलवार, मुसल तथा वज्र (आठ कोणवाले आयुधविशेष) उन राक्षसों के हाथों में आकर बड़े भयानक दिखायी दे रहे थे। इन अस्त्र-शस्त्रों से उपलक्षित और खर के मन की इच्छा के अनुसार चलने वाले अत्यन्त भयंकर चौदह हजार राक्षस जनस्थान से युद्ध के लिये चले ॥ १८-२०॥
तांस्तु निर्धावतो दृष्ट्वा राक्षसान् भीमदर्शनान्।
खरस्याथ रथः किंचिज्जगाम तदनन्तरम्॥२१॥
उन भयंकर दिखायी देने वाले राक्षसों को धावा करते देख खर का रथ भी कुछ देर सैनिकों के निकलने की प्रतीक्षा करके उनके साथ ही आगे बढ़ा ॥२१॥
ततस्ताञ्छबलानश्वांस्तप्तकाञ्चनभूषितान्।
खरस्य मतमाज्ञाय सारथिः पर्यचोदयत्॥२२॥
तदनन्तर खर का अभिप्राय जानकर उसके सारथि ने तपाये हुए सोनेके आभूषणों से विभूषित उन चितकबरे घोड़ों को हाँका॥ २२॥
संचोदितो रथः शीघ्रं खरस्य रिपुघातिनः।
शब्देनापूरयामास दिशः सप्रदिशस्तथा॥२३॥
उसके हाँकने पर शत्रुघाती खर का रथ शीघ्र ही अपने घर-घर शब्द से सम्पूर्ण दिशाओं तथा उपदिशाओं को प्रतिध्वनित करने लगा॥ २३॥
प्रवृद्धमन्युस्तु खरः खरस्वरो रिपोर्वधार्थं त्वरितो यथान्तकः।
अचूचुदत् सारथिमुन्नदन् पुनमहाबलो मेघ इवाश्मवर्षवान्॥२४॥
उस समय खर का क्रोध बढ़ा हुआ था। उसका स्वर भी कठोर हो गया था। वह शत्रु के वध के लिये उतावला होकर यमराज के समान भयानक जान पड़ता था। जैसे ओलों की वर्षा करने वाला मेघ बड़े जोर से गर्जना करता है, उसी प्रकार महाबली खर ने उच्चस्वर से सिंहनाद करके पुनः सारथि को रथ हाँकने के लिये प्रेरित किया॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे द्वाविंशः सर्गः ॥२२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।
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