वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 25 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 25
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चविंशः सर्गः (सर्ग 25)
राक्षसों का श्रीराम पर आक्रमण और श्रीरामचन्द्रजी के द्वारा राक्षसों का संहार
अवष्टब्धधनु रामं क्रुद्धं तं रिपुघातिनम्।
ददर्शाश्रममागम्य खरः सह पुरःसरैः॥१॥
तं दृष्ट्वा सगुणं चापमुद्यम्य खरनिःस्वनम्।
रामस्याभिमुखं सूतं चोद्यतामित्यचोदयत्॥२॥
खर ने अपने अग्रगामी सैनिकों के साथ आश्रम के पास पहुँचकर क्रोध में भरे हुए शत्रुघाती श्रीराम को देखा, जो हाथ में धनुष लिये खड़े थे। उन्हें देखते ही अपने तीव्र टंकार करने वाले प्रत्यञ्चासहित धनुष को उठाकर सूत को आज्ञा दी—’मेरा रथ राम के सामने ले चलो’॥ १-२॥
स खरस्याज्ञया सूतस्तुरगान् समचोदयत्।
यत्र रामो महाबाहुरेको धुन्वन् धनुः स्थितः॥३॥
खर की आज्ञा से सारथि ने घोड़ों को उधर ही बढ़ाया, जहाँ महाबाहु श्रीराम अकेले खड़े होकर अपने धनुष की टंकार कर रहे थे॥३॥
तं तु निष्पतितं दृष्ट्वा सर्वतो रजनीचराः।
मुञ्चमाना महानादं सचिवाः पर्यवारयन्॥४॥
खर को श्रीराम के समीप पहुँचा देख श्येनगामी आदि उसके निशाचर मन्त्री भी बड़े जोर से सिंहनाद करके उसे चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये॥ ४॥
स तेषां यातुधानानां मध्ये रथगतः खरः।
बभूव मध्ये ताराणां लोहिताङ्ग इवोदितः॥५॥
उन राक्षसों के बीच में रथ पर बैठा हुआ खर तारों के मध्यभाग में उगे हुए मङ्गल की भाँति शोभा पा रहा था।॥ ५॥
ततः शरसहस्रेण राममप्रतिमौजसम्।
अर्दयित्वा महानादं ननाद समरे खरः॥६॥
उस समय खर ने समराङ्गण में सहस्रों बाणों द्वारा अप्रतिम बलशाली श्रीराम को पीड़ित-सा करके बड़े जोर से गर्जना की॥६॥
ततस्तं भीमधन्वानं क्रुद्धाः सर्वे निशाचराः।
रामं नानाविधैः शस्त्रैरभ्यवर्षन्त दुर्जयम्॥७॥
तदनन्तर क्रोध में भरे हुए समस्त निशाचर भयंकर धनुष धारण करने वाले दुर्जय वीर श्रीराम पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे॥ ७ ॥
मुद्गरैरायसैः शूलैः प्रासैः खड्गैः परश्वधैः ।
राक्षसाः समरे शूरं निजजू रोषतत्पराः॥८॥
उस समराङ्गण में रुष्ट हुए राक्षसों ने शूरवीर श्रीराम पर लोहे के मुद्गरों, शूलों, प्रासों, खड्गों और फरसों द्वारा प्रहार किया॥८॥
ते बलाहकसंकाशा महाकाया महाबलाः।
अभ्यधावन्त काकुत्स्थं रथैर्वाजिभिरेव च ॥९॥
गजैः पर्वतकूटाभै रामं युद्धे जिघांसवः।
वे मेघों के समान काले, विशालकाय और महाबली निशाचर रथों, घोड़ों और पर्वतशिखर के समान गजराजों द्वारा ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम पर चारों ओर से टूट पड़े। वे युद्ध में उन्हें मार डालना चाहते थे॥ ९ १/२॥
ते रामे शरवर्षाणि व्यसृजन् रक्षसां गणाः॥१०॥
शैलेन्द्रमिव धाराभिर्वर्षमाणा महाघनाः।
जैसे बड़े-बड़े मेघ गिरिराज पर जल की धाराएँ बरसा रहे हों, उसी प्रकार वे राक्षसगण श्रीराम पर बाणों की वृष्टि कर रहे थे॥ १० १/२ ॥
सर्वैः परिवृतो रामो राक्षसैः क्रूरदर्शनैः॥११॥
तिथिष्विव महादेवो वृतः पारिषदां गणैः।
क्रूरतापूर्ण दृष्टि से देखने वाले उन सभी राक्षसों ने श्रीराम को उसी प्रकार घेर रखा था, जैसे प्रदोषसंज्ञक तिथियों में भगवान् शिव के पार्षदगण उन्हें घेरे रहते हैं।
तानि मुक्तानि शस्त्राणि यातुधानैः स राघवः॥ १२॥
प्रतिजग्राह विशिखैनद्योघानिव सागरः।
श्रीरघुनाथजी ने राक्षसों के छोड़े हुए उन अस्त्रशस्त्रों को अपने बाणों द्वारा उसी तरह ग्रस लिया, जैसे समुद्र नदियों के प्रवाह को आत्मसात् कर लेता है॥ १२ १/२॥
स तैः प्रहरणैोरैर्भिन्नगात्रो न विव्यथे॥१३॥
रामः प्रदीप्तैर्बहुभिर्वओरिव महाचलः।
उन राक्षसों के घोर अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से यद्यपि श्रीराम का शरीर क्षत-विक्षत हो गया था तो भी वे व्यथित या विचलित नहीं हुए, जैसे बहुसंख्यक दीप्तिमान् वज्रों के आघात सहकर भी महान् पर्वत अडिग बना रहता है॥ १३ १/२ ॥
स विद्धः क्षतजादिग्धः सर्वगात्रेषु राघवः॥१४॥
बभूव रामः संध्याभैर्दिवाकर इवावृतः।
श्रीरघुनाथजी के सारे अङ्गों में अस्त्र-शस्त्रों के आघात से घाव हो गया था। वे लहूलुहान हो रहे थे, अतः उस समय संध्याकाल के बादलों से घिरे हुए सूर्यदेव के समान शोभा पा रहे थे॥ १४ १/२ ।।
विषेदुर्देवगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः॥ १५॥
एकं सहस्रैर्बहुभिस्तदा दृष्ट्वा समावृतम्।
श्रीराम अकेले थे। उस समय उन्हें अनेक सहस्र शत्रुओं से घिरा हुआ देख देवता, सिद्ध, गन्धर्व और महर्षि विषाद में डूब गये। १५ १/२॥
ततो रामस्तु संक्रुद्धो मण्डलीकृतकार्मुकः॥१६॥
ससर्ज निशितान् बाणान् शतशोऽथ सहस्रशः।
दुरावारान् दुर्विषहान् कालपाशोपमान् रणे॥ १७॥
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यन्त कुपित हो अपने धनुष को इतना खींचा कि वह गोलाकार दिखायी देने लगा। फिर तो वे उस धनुष से रणभूमि में सैकड़ों, हजारों ऐसे पैने बाण छोड़ने लगे, जिन्हें रोकना सर्वथा कठिन था, जो दुःसह होने के साथ ही कालपाश के समान भयंकर थे॥१६-१७॥
मुमोच लीलया कङ्कपत्रान् काञ्चनभूषणान्।
ते शराः शत्रुसैन्येषु मुक्ता रामेण लीलया॥१८॥
आददू रक्षसां प्राणान् पाशाः कालकृता इव।
उन्होंने खेल-खेल में ही चील के परों से युक्त असंख्य सुवर्णभूषित बाण छोड़े। शत्रु के सैनिकों पर श्रीराम द्वारा लीलापूर्वक छोड़े गये वे बाण कालपाश के समान राक्षसों के प्राण लेने लगे॥ १८ १/२॥
भित्त्वा राक्षसदेहांस्तांस्ते शरा रुधिराप्लुताः॥
अन्तरिक्षगता रेजुर्दीप्ताग्निसमतेजसः।
राक्षसों के शरीरों को छेदकर खून में डूबे हुए वे बाण जब आकाश में पहुँचते, तब प्रज्वलित अग्नि के समान तेज से प्रकाशित होने लगते थे॥ १९ १/२॥
असंख्येयास्तु रामस्य सायकाश्चापमण्डलात्॥ २०॥
विनिष्पेतुरतीवोग्रा रक्षःप्राणापहारिणः।
श्रीराम के मण्डलाकार धनुष से अत्यन्त भयंकर और राक्षसों के प्राण लेने वाले असंख्य बाण छूटने लगे॥ २० १/२॥
तैर्धनंषि ध्वजाग्राणि चर्माणि कवचानि च॥ २१॥
बाहून् सहस्ताभरणानूरून् करिकरोपमान्।
चिच्छेद रामः समरे शतशोऽथ सहस्रशः॥२२॥
उन बाणों द्वारा श्रीराम ने समराङ्गण में शत्रुओं के सैकड़ों हजारों धनुष, ध्वजाओं के अग्रभाग, ढाल, कवच, आभूषणों सहित भुजाएँ तथा हाथी की सँड़ के समान जाँघ काट डालीं॥ २१-२२॥
हयान् काञ्चनसंनाहान् रथयुक्तान् ससारथीन्।
गजांश्च सगजारोहान् सहयान् सादिनस्तदा॥ २३॥
चिच्छिदुर्बिभिदुश्चैव रामबाणा गुणच्युताः।
पदातीन् समरे हत्वा ह्यनयद् यमसादनम्॥२४॥
प्रत्यञ्चा से छूटे हुए श्रीराम के बाणों ने उस समय सोने के साज-बाज एवं कवच से सजे और रथों में जुते हुए घोड़ों, सारथियों, हाथियों, हाथी सवारों, घोड़ों और घुड़सवारों को भी छिन्न-भिन्न कर डाला। इसी प्रकार श्रीराम ने समरभूमि में पैदल सैनिकों को भी मारकर यमलोक पहुँचा दिया॥ २३-२४ ॥
ततो नालीकनाराचैस्तीक्ष्णाग्रैश्च विकर्णिभिः।
भीममार्तस्वरं चक्रुश्छिद्यमाना निशाचराः॥ २५॥
उस समय उनके नालीक, नाराच और तीखे अग्रभागवाले विकर्णी नामक बाणों द्वारा छिन्न-भिन्न होते हुए निशाचर भयंकर आर्तनाद करने लगे॥ २५ ॥
तत्सैन्यं विविधैर्बाणैरर्दितं मर्मभेदिभिः।।
न रामेण सुखं लेभे शुष्कं वनमिवाग्निना॥२६॥
श्रीराम के चलाये हुए नाना प्रकार के मर्मभेदी बाणों द्वारा पीड़ित हुई वह राक्षस सेना आग से जलते हुए सूखे वन की भाँति सुख-शान्ति नहीं पाती थी॥ २६॥
केचिद् भीमबलाः शूराः प्रासान् शूलान्
परश्वधान्। चिक्षिपुः परमक्रुद्धा रामाय रजनीचराः॥२७॥
कुछ भयंकर बलशाली शूरवीर निशाचर अत्यन्त कुपित हो श्रीराम पर प्रासों, शूलों और फरसों का प्रहार करने लगे॥२७॥
तेषां बाणैर्महाबाहुः शस्त्राण्यावार्य वीर्यवान्।
जहार समरे प्राणांश्चिच्छेद च शिरोधरान्॥ २८॥
परंतु पराक्रमी महाबाहु श्रीराम ने रणभूमि में अपने बाणों द्वारा उनके उन अस्त्र-शस्त्रों को रोककर उनके गले काट डाले और प्राण हर लिये॥२८॥
ते छिन्नशिरसः पेतुश्छिन्नचर्मशरासनाः।
सुपर्णवातविक्षिप्ता जगत्यां पादपा यथा॥२९॥
अवशिष्टाश्च ये तत्र विषण्णास्ते निशाचराः।
खरमेवाभ्यधावन्त शरणार्थं शराहताः॥३०॥
सिर, ढाल और धनुष के कट जाने पर वे निशाचर गरुड़ के पंख की हवा से टूटकर गिरने वाले नन्दनवन के वृक्षों की भाँति धराशायी हो गये। जो बचे थे, वे राक्षस भी श्रीराम के बाणों से आहत हो विषाद में डूब गये और अपनी रक्षा के लिये खर के पास ही दौड़े गये। २९-३०॥
तान् सर्वान् धनुरादाय समाश्वास्य च दूषणः।
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धः क्रुद्धं क्रुद्ध इवान्तकः॥ ३१॥
परंतु बीच में दूषण ने धनुष लेकर उन सबको आश्वासन दिया और अत्यन्त कुपित हो रोष में भरे हुए यमराज की भाँति वह क्रुद्ध होकर युद्ध के लिये डटे हुए श्रीरामचन्द्रजी की ओर दौड़ा ॥ ३१॥
निवृत्तास्तु पुनः सर्वे दूषणाश्रयनिर्भयाः।
राममेवाभ्यधावन्त सालतालशिलायुधाः॥३२॥
दूषण का सहारा मिल जाने से निर्भय हो वे सब-के सब फिर लौट आये और साख, ताड़ आदि के वृक्ष तथा पत्थर लेकर पुनः श्रीराम पर ही टूट पड़े॥ ३२॥
शूलमुद्गरहस्ताश्च पाशहस्ता महाबलाः।
सृजन्तः शरवर्षाणि शस्त्रवर्षाणि संयुगे॥३३॥
उस युद्धस्थल में अपने हाथों में शूल, मुद्गर और पाश धारण किये वे महाबली निशाचर बाणों तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे॥ ३३॥
द्रुमवर्षाणि मुञ्चन्तः शिलावर्षाणि राक्षसाः।
तद् बभूवाद्भुतं युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्॥३४॥
रामस्यास्य महाघोरं पुनस्तेषां च रक्षसाम्।
कोई राक्षस वृक्षों की वर्षा करने लगे तो कोई पत्थरों की,उस समय इन श्रीराम और उन निशाचरों में पुनः बड़ा ही अद्भुत, महाभयंकर, घमासान और रोमाञ्चकारी युद्ध होने लगा॥ ३४ १/२॥
ते समन्तादभिक्रुद्धा राघवं पुनरार्दयन्॥३५॥
ततः सर्वा दिशो दृष्ट्वा प्रदिशश्च समावृताः।
राक्षसैः सर्वतः प्राप्तैः शरवर्षाभिरावृतः॥ ३६॥
स कृत्वा भैरवं नादमस्त्रं परमभास्वरम्।
समयोजयद् गान्धर्वं राक्षसेषु महाबलः॥३७॥
वे राक्षस कुपित होकर चारों ओर से पुनः श्रीरामचन्द्रजी को पीड़ित करने लगे। तब सब ओर से आये हुए राक्षसों से सम्पूर्ण दिशाओं और उपदिशाओं को घिरी हुई देख बाण-वर्षा से आच्छादित हुए महाबली श्रीराम ने भैरव-नाद करके उन राक्षसों पर परम तेजस्वी गान्धर्व नामक अस्त्रका प्रयोग किया। ३५-३७॥
ततः शरसहस्राणि निर्ययुश्चापमण्डलात्।
सर्वा दश दिशो बाणैरापूर्यन्त समागतैः॥ ३८॥
फिर तो उनके मण्डलाकार धनुष से सहस्रों बाण छूटने लगे। उन बाणों से दसों दिशाएँ पूर्णतः आच्छादित हो गयीं॥ ३८॥
नाददानं शरान् घोरान् विमुञ्चन्तं शरोत्तमान्।
विकर्षमाणं पश्यन्ति राक्षसास्ते शरार्दिताः॥ ३९॥
बाणों से पीड़ित राक्षस यह नहीं देख पाते थे कि श्रीरामचन्द्रजी कब भयंकर बाण हाथ में लेते हैं और कब उन उत्तम बाणों को छोड़ देते हैं। वे केवल उनको धनुष खींचते देखते थे॥ ३९ ॥
शरान्धकारमाकाशमावृणोत् सदिवाकरम्।
बभूवावस्थितो रामः प्रक्षिपन्निव तान् शरान्॥ ४०॥
श्रीरामचन्द्रजी के बाणसमुदायरूपी अन्धकार ने सूर्यसहित सारे आकाशमण्डल को ढक दिया। उस समय श्रीराम उन बाणों को लगातार छोड़ते हुए एक स्थान पर खड़े थे॥ ४०॥
युगपत्पतमानैश्च युगपच्च हतै शम्।
युगपत्पतितैश्चैव विकीर्णा वसुधाभवत्॥४१॥
एक ही समय बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो एक साथ ही गिरते और गिरे हुए बहुसंख्यक राक्षसों की लाशों से वहाँ की भूमि पट गयी॥४१॥
निहताः पतिताः क्षीणाश्छिन्ना भिन्ना विदारिताः।
तत्र तत्र स्म दृश्यन्ते राक्षसास्ते सहस्रशः॥४२॥
जहाँ-जहाँ दृष्टि जाती थी, वहीं-वहीं वे हजारों राक्षस मरे, गिरे, क्षीण हुए, कटे-पिटे और विदीर्ण हुए दिखायी देते थे॥ ४२ ॥
सोष्णीषैरुत्तमाङ्गैश्च साङ्गदैर्बाहुभिस्तथा।
ऊरुभिर्बाहुभिश्छिन्नैर्नानारूपैर्विभूषणैः॥४३॥
हयैश्च द्विपमुख्यैश्च रथैर्भिन्नैरनेकशः।
चामरव्यजनैश्छत्रैर्ध्वजैर्नानाविधैरपि॥४४॥
रामेण बाणाभिहतैर्विच्छिन्नैः शूलपट्टिशैः।
खड्गैः खण्डीकृतैः प्रासैर्विकीर्णैश्च परश्वधैः॥ ४५॥
चूर्णिताभिः शिलाभिश्च शरैश्चित्रैरनेकशः।
विच्छिन्नैः समरे भूमिर्विस्तीर्णाभूद् भयंकरा॥ ४६॥
वहाँ श्रीराम के बाणों से कटे हुए पगड़ियों सहित मस्तकों, बाजूबंदसहित भुजाओं, जाँघों, बाँहों, भाँतिभाँति के आभूषणों, घोड़ों, श्रेष्ठ हाथियों, टूटे-फूटे अनेकानेक रथों, चँवरों, व्यजनों, छत्रों, नाना प्रकार की ध्वजाओं, छिन्न-भिन्न हुए शूलों, पट्टिशों, खण्डित खड्गों, बिखरे प्रासों, फरसों, चूर-चूर हुई शिलाओं तथा टुकड़े-टुकड़े हुए बहुतेरे विचित्र बाणों से पटी हुई वह समरभूमि अत्यन्त भयंकर दिखायी देती थी॥ ४३–४६॥
तान् दृष्ट्वा निहतान् सर्वे राक्षसाः परमातुराः।
न तत्र चलितुं शक्ता रामं परपुरंजयम्॥४७॥
उन सबको मारा गया देख शेष राक्षस अत्यन्त आतुर हो वहाँ शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले श्रीराम के सम्मुख जाने में असमर्थ हो गये॥४७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चविंशः सर्गः॥ २५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पचीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। २५॥
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