वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 26 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 26
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः (सर्ग 26)
श्रीराम के द्वारा दूषणसहित चौदह सहस्र राक्षसों का वध
दूषणस्तु स्वकं सैन्यं हन्यमानं विलोक्य च।
संदिदेश महाबाहुर्भीमवेगान् दुरासदान्॥१॥
राक्षसान् पञ्चसाहस्रान् समरेष्वनिवर्तिनः।
महाबाहु दूषण ने जब देखा कि मेरी सेना बुरी तरह से मारी जा रही है, तब उसने युद्ध से पीछे पैर न हटाने वाले भयंकर वेगशाली पाँच हजार राक्षसों को, जिन्हें जीतना बड़ा ही कठिन था, आगे बढ़ने की आज्ञा दी॥ १ १/२॥
ते शूलैः पट्टिशैः खड्गैः शिलावधैं मैरपि॥२॥
शरवर्षैरविच्छिन्नं ववर्षुस्तं समन्ततः।
वे श्रीराम पर चारों ओर से शूल, पट्टिश, तलवार, पत्थर, वृक्ष और बाणों की लगातार वर्षा करने लगे। २ १/२॥
तद् द्रुमाणां शिलानां च वर्षं प्राणहरं महत्॥३॥
प्रतिजग्राह धर्मात्मा राघवस्तीक्ष्णसायकैः।
यह देख धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी ने वृक्षों और शिलाओं की उस प्राणहारिणी महावृष्टि को अपने तीखे सायकों द्वारा रोका॥ ३ १/२ ॥
प्रतिगृह्य च तद् वर्षं निमीलित इवर्षभः॥४॥
रामः क्रोधं परं लेभे वधार्थं सर्वरक्षसाम्।
उस सारी वर्षा को रोककर आँख मूंदे हुए साँड़ की भाँति अविचल भाव से खड़े हुए श्रीराम ने समस्त राक्षसों के वध के लिये महान् क्रोध धारण किया॥ ४ १/२॥
ततः क्रोधसमाविष्टः प्रदीप्त इव तेजसा॥५॥
शरैरभ्यकिरत् सैन्यं सर्वतः सहदूषणम्।।
क्रोध से युक्त और तेज से उद्दीप्त हुए श्रीराम ने दूषणसहित सारी राक्षस-सेना पर चारों ओर से बाण की वर्षा आरम्भ कर दी॥ ५ १/२ ॥
ततः सेनापतिः क्रुद्धो दूषणः शत्रुदूषणः॥६॥
शरैरशनिकल्पैस्तं राघवं समवारयत्।
इससे शत्रुदूषण सेनापति दूषण को बड़ा क्रोध हुआ और उसने वज्र के समान बाणों से श्रीरामचन्द्रजी को रोका॥ ६ १/२॥
ततो रामः सुसंक्रुद्धः क्षुरेणास्य महद् धनुः॥७॥
चिच्छेद समरे वीरश्चर्तुभिश्चतुरो हयान्।
हत्वा चाश्वान् शरैस्तीक्ष्णैरर्धचन्द्रेण सारथेः॥ ८॥
शिरो जहार तद्रक्षस्त्रिभिर्विव्याध वक्षसि।
तब अत्यन्त कुपित हुए वीर श्रीराम ने समराङ्गण में क्षुर नामक बाण से दूषण के विशाल धनुष को काट डाला और चार तीखे सायकों से उसके चारों घोड़ों को मौत के घाट उतारकर एक अर्धचन्द्राकार बाण से सारथि का भी सिर उड़ा दिया तथा तीन बाणों से उस राक्षस की भी छाती में चोट पहुँचायी॥ ७-८ १/२ ॥
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः॥९॥
जग्राह गिरिशृङ्गाभं परिघं रोमहर्षणम्।
वेष्टितं काञ्चनैः पट्टैर्देवसैन्याभिमर्दनम्॥१०॥
धनुष कट जाने और घोड़ों तथा सारथि के मारे जाने पर रथहीन हुए दूषण ने पर्वतशिखर के समान एक रोमाञ्चकारी परिघ हाथ में लिया, जिसके ऊपर सोने के पत्र मढ़े गये थे। वह परिघ देवताओं की सेना को भी कुचल डालने वाला था॥ ९-१० ॥
आयसैः शङ्कभिस्तीक्ष्णैः कीर्णं परवसोक्षितम्।
वज्राशनिसमस्पर्श परगोपुरदारणम्॥११॥
उसपर चारों ओर से लोहे की तीखी कीलें लगी हुई थीं। वह शत्रुओं की चर्बी से लिपटा हुआ था। उसका स्पर्श हीरे तथा वज्र के समान कठोर एवं असह्य था। वह शत्रुओं के नगरद्वार को विदीर्ण कर डालने में समर्थ था॥
तं महोरगसंकाशं प्रगृह्य परिघं रणे।
दूषणोऽभ्यपतद् रामं क्रूरकर्मा निशाचरः॥१२॥
रणभूमि में बहुत बड़े सर्प के समान भयंकर उस परिघ को हाथ में लेकर वह क्रूरकर्मा निशाचर दूषण श्रीराम पर टूट पड़ा॥ १२ ॥
तस्याभिपतमानस्य दूषणस्य च राघवः।
द्वाभ्यां शराभ्यां चिच्छेद सहस्ताभरणौ भुजौ॥ १३॥
उसे अपने ऊपर आक्रमण करते देख श्रीरामचन्द्रजी ने दो बाणों से आभूषणोंसहित उसकी दोनों भुजाएँ काट डालीं॥ १३॥
भ्रष्टस्तस्य महाकायः पपात रणमूर्धनि।
परिघश्छिन्नहस्तस्य शक्रध्वज इवाग्रतः॥१४॥
युद्ध के मुहाने पर जिसकी दोनों भुजाएँ कट गयी थीं, उस दूषण के हाथ से खिसककर वह विशालकाय परिघ इन्द्रध्वज के समान सामने गिर पड़ा ॥ १४ ॥
कराभ्यां च विकीर्णाभ्यां पपात भुवि दूषणः।
विषाणाभ्यां विशीर्णाभ्यां मनस्वीव महागजः॥ १५॥
जैसे दोनों दाँतों के उखाड़ लिये जाने पर महान् मनस्वी गजराज उनके साथ ही धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार कटकर गिरी हुई अपनी भुजाओं के साथ ही दूषण भी पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ १५ ॥
दृष्ट्वा तं पतितं भूमौ दूषणं निहतं रणे।
साधु साध्विति काकुत्स्थं सर्वभूतान्यपूजयन्॥ १६॥
रणभूमि में मारे गये दूषण को धराशायी हुआ देख समस्त प्राणियों ने ‘साधु-साधु’ कहकर भगवान् श्रीराम की प्रशंसा की॥१६॥
एतस्मिन्नन्तरे क्रुद्धास्त्रयः सेनाग्रयायिनः।
संहत्याभ्यद्रवन् रामं मृत्युपाशावपाशिताः॥१७॥
महाकपालः स्थूलाक्षः प्रमाथी च महाबलः।
इसी समय सेना के आगे चलने वाले महाकपाल,स्थूलाक्ष और महाबली प्रमाथी—ये तीन राक्षस कुपित हो मौत के फंदे में फँसकर संगठित रूप से श्रीरामचन्द्रजी के ऊपर टूट पड़े।
महाकपालो विपुलं शूलमुद्यम्य राक्षसः॥१८॥
स्थूलाक्षः पट्टिशं गृह्य प्रमाथी च परश्वधम्।
राक्षस महाकपाल ने एक विशाल शूल उठाया, स्थूलाक्ष ने पट्टिश हाथ में लिया और प्रमाथी ने फरसा सँभालकर आक्रमण किया। १८ १/२ ॥
दृष्ट्वैवापततस्तांस्तु राघवः सायकैः शितैः॥१९॥
तीक्ष्णाग्रैः प्रतिजग्राह सम्प्राप्तानतिथीनिव।
उन तीनों को अपनी ओर आते देख भगवान् श्रीराम ने तीखे अग्रभाग वाले पैने सायकों द्वारा द्वार पर आये हुए अतिथियों के समान उनका स्वागत किया।
महाकपालस्य शिरश्चिच्छेद रघुनन्दनः॥२०॥
असंख्येयैस्तु बाणौघैः प्रममाथ प्रमाथिनम्।
स्थूलाक्षस्याक्षिणी स्थूले पूरयामास सायकैः॥ २१॥
श्रीरघुनन्दन ने महाकपाल का सिर एवं कपाल उड़ा दिया। प्रमाथी को असंख्य बाणसमूहों से मथ डाला और स्थूलाक्ष की स्थूल आँखों को सायकों से भर दिया॥
स पपात हतो भूमौ विटपीव महाद्रुमः।
दूषणस्यानुगान् पञ्चसाहस्रान् कुपितः क्षणात्॥ २२॥
हत्वा तु पञ्चसाहस्रैरनयद् यमसादनम्।
तीनों अग्रगामी सैनिकों का वह समूह अनेक शाखा वाले विशाल वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी ने कुपित हो दूषण के अनुयायी पाँच हजार राक्षसों को उतने ही बाणों का निशाना बनाकर क्षणभर में यमलोक पहुँचा दिया।। २२ १/२॥
दूषणं निहतं श्रुत्वा तस्य चैव पदानुगान्॥२३॥
व्यादिदेश खरः क्रुद्धः सेनाध्यक्षान् महाबलान्।
अयं विनिहतः संख्ये दूषणः सपदानुगः ॥२४॥
महत्या सेनया सार्धं युद्ध्वा रामं कुमानुषम्।
शस्त्रैर्नानाविधाकारैर्हनध्वं सर्वराक्षसाः॥२५॥
दूषण और उसके अनुयायी मारे गये—यह सुनकर खर को बड़ा क्रोध हुआ। उसने अपने महाबलीसेनापतियों को आज्ञा दी—’वीरो! यह दूषण अपने सेवकोंसहित युद्ध में मार डाला गया। अतः अब तुम सभी राक्षस बहुत बड़ी सेना के साथ धावा करके इस दुष्ट मनुष्य राम के साथ युद्ध करो और नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा इसका वध कर डालो’ ।। २३–२५ ॥
एवमुक्त्वा खरः क्रुद्धो राममेवाभिदुद्रुवे।
श्येनगामी पृथुग्रीवो यज्ञशत्रुर्विहंगमः॥२६॥
दुर्जयः करवीराक्षः परुषः कालकार्मुकः।
हेममाली महामाली सर्पास्यो रुधिराशनः ॥ २७॥
द्वादशैते महावीर्या बलाध्यक्षाः ससैनिकाः।
राममेवाभ्यधावन्त विसृजन्तः शरोत्तमान्॥२८॥
ऐसा कहकर कुपित हुए खर ने श्रीराम पर ही धावा किया। साथ ही श्येनगामी, पृथुग्रीव, यज्ञशत्रु, विहङ्गम, दुर्जय, करवीराक्ष, परुष, कालकार्मुक, हेममाली, महामाली, सर्पास्य तथा रुधिराशन—ये बारह महापराक्रमी सेनापति भी उत्तम बाणों की वर्षा करते हुए अपने सैनिकों के साथ श्रीराम पर ही टूट पड़े॥ २६–२८॥
ततः पावकसंकाशैर्हेमवज्रविभूषितैः।
जघान शेषं तेजस्वी तस्य सैन्यस्य सायकैः॥ २९॥
तब तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी ने सोने और हीरों से विभूषित अग्नितुल्य तेजस्वी सायकों द्वारा उस सेना के बचे-खुचे सिपाहियों का भी संहार कर डाला॥ २९॥
ते रुक्मपुङ्खा विशिखाः सधूमा इव पावकाः।
निजजुस्तानि रक्षांसि वज्रा इव महाद्रुमान्॥ ३०॥
जैसे वज्र बड़े-बड़े वृक्षों को नष्ट कर डालते हैं, उसी प्रकार धूमयुक्त अग्नि के समान प्रतीत होने वाले उन सोने की पाँखवाले बाणों ने उन समस्त राक्षसों का विनाश कर डाला।। ३०॥
रक्षसां तु शतं रामः शतेनैकेन किर्णना।
सहस्रं तु सहस्रेण जघान रणमूर्धनि ॥ ३१॥
उस युद्ध के मुहाने पर श्रीराम ने कर्णिनामक सौ बाणों से सौ राक्षसों का और सहस्र बाणों से सहस्र निशाचरों का एक साथ ही संहार कर डाला॥३१॥
तैर्भिन्नवर्माभरणाश्छिन्नभिन्नशरासनाः।
निपेतुः शोणितादिग्धा धरण्यां रजनीचराः॥ ३२॥
उन बाणों से निशाचरों के कवच, आभूषण और धनुष छिन्न-भिन्न हो गये तथा वे खून से लथपथ हो पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ३२॥
तैर्मुक्तकेशैः समरे पतितैः शोणितोक्षितैः।
विस्तीर्णा वसुधा कृत्स्ना महावेदिः कुशैरिव॥ ३३॥
कुशों से ढकी हुई विशाल वेदी के समान युद्ध में लहूलुहान होकर गिरे हुए खुले केशवाले राक्षसों से सारी रणभूमि पट गयी॥ ३३॥
तत्क्षणे तु महाघोरं वनं निहतराक्षसम्।
बभूव निरयप्रख्यं मांसशोणितकर्दमम्॥ ३४॥
राक्षसों के मारे जाने से उस समय वहाँ रक्त और मांस की कीचड़ जम गयी; अतः वह महाभयंकर वन नरक के समान प्रतीत होने लगा॥ ३४ ॥
चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्।
हतान्येकेन रामेण मानुषेण पदातिना॥ ३५॥
मानवरूपधारी श्रीराम अकेले और पैदल थे, तो भी उन्होंने भयानक कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों को तत्काल मौत के घाट उतार दिया॥ ३५ ॥
तस्य सैन्यस्य सर्वस्य खरः शेषो महारथः।
राक्षसस्त्रिशिराश्चैव रामश्च रिपुसूदनः॥ ३६॥
उस समूची सेना में केवल महारथी खर और त्रिशिरा—ये दो ही राक्षस बच रहे। उधर शत्रुसंहारक भगवान् श्रीराम ज्यों-के-त्यों युद्ध के लिये डटे रहे। ३६॥
शेषा हता महावीर्या राक्षसा रणमूर्धनि।
घोरा दुर्विषहाः सर्वे लक्ष्मणस्याग्रजेन ते॥ ३७॥
उपर्युक्त दो राक्षसों को छोड़कर शेष सभी निशाचर,जो महान् पराक्रमी, भयंकर और दुर्धर्ष थे, युद्ध के मुहाने पर लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीराम के हाथों मारे गये॥३७॥
ततस्तु तद्भीमबलं महाहवे समीक्ष्य रामेण हतं बलीयसा।
रथेन रामं महता खरस्ततः समाससादेन्द्र इवोद्यताशनिः॥ ३८॥
तदनन्तर महासमर में महाबली श्रीराम के द्वारा अपनी भयंकर सेना को मारी गयी देख खर एक विशाल रथ के द्वारा श्रीराम का सामना करने के लिये आया, मानो वज्रधारी इन्द्र ने किसी शत्रु पर आक्रमण किया हो॥ ३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे षड्विंशः सर्गः ॥२६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२६॥