वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 27 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 27
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः (सर्ग 27)
त्रिशिरा का वध
खरं तु रामाभिमुखं प्रयान्तं वाहिनीपतिः।
राक्षसस्त्रिशिरा नाम संनिपत्येदमब्रवीत्॥१॥
खर को भगवान् श्रीराम के सम्मुख जाते देख सेनापति राक्षस त्रिशिरा तुरंत उसके पास आ पहुँचा और इस प्रकार बोला— ॥१॥
मां नियोजय विक्रान्तं त्वं निवर्तस्व साहसात्।
पश्य रामं महाबाहं संयुगे विनिपातितम्॥२॥
‘राक्षसराज! मुझ पराक्रमी वीर को इस युद्ध में लगाइये और स्वयं इस साहसपूर्ण कार्य से अलग रहिये। देखिये, मैं अभी महाबाहु राम को युद्ध में मार गिराता हूँ॥
प्रतिजानामि ते सत्यमायुधं चाहमालभे।
यथा रामं वधिष्यामि वधार्ह सर्वरक्षसाम्॥३॥
‘आपके सामने मैं सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ और अपने हथियार छूकर शपथ खाता हूँ कि जो समस्त राक्षसों के लिये वध के योग्य हैं, उन राम का मैं अवश्य वध करूँगा॥३॥
अहं वास्य रणे मृत्युरेष वा समरे मम।
विनिवर्त्य रणोत्साहं मुहूर्तं प्राश्निको भव॥४॥
‘इस युद्ध में या तो मैं इनकी मृत्यु बनूंगा, या ये ही समराङ्गण में मेरी मृत्यु का कारण होंगे। आप इस समय अपने युद्धविषयक उत्साह को रोककर एक मुहूर्त के लिये जय-पराजय का निर्णय करने वाले साक्षी बन जाइये॥४॥
प्रहृष्टो वा हते रामे जनस्थानं प्रयास्यसि।
मयि वा निहते रामं संयुगाय प्रयास्यसि॥५॥
‘यदि मेरे द्वारा राम मारे गये तो आप प्रसन्नतापूर्वक जनस्थान को लौट जाइये अथवा यदि राम ने ही मुझे मार दिया तो आप युद्ध के लिये इन पर धावा बोल दीजियेगा’।
खरस्त्रिशिरसा तेन मृत्युलोभात् प्रसादितः।
गच्छ युध्येत्यनुज्ञातो राघवाभिमुखो ययौ॥६॥
भगवान् के हाथ से मृत्यु का लोभ होने के कारण जब त्रिशिरा ने इस प्रकार खर को राजी किया, तब उसने आज्ञा दे दी—’अच्छा जाओ, युद्ध करो। आज्ञा पाकर वह श्रीरामचन्द्रजी की ओर चला॥६॥
त्रिशिरास्तु रथेनैव वाजियुक्तेन भास्वता।
अभ्यद्रवद् रणे रामं त्रिशृङ्ग इव पर्वतः॥७॥
घोड़े जुते हुए एक तेजस्वी रथ के द्वारा त्रिशिरा ने रणभूमि में श्रीराम पर आक्रमण किया। उस समय वह तीन शिखरों वाले पर्वत के समान जान पड़ता था॥७॥
शरधारासमूहान् स महामेघ इवोत्सृजन्।।
व्यसृजत् सदृशं नादं जलार्द्रस्येव दुन्दुभेः॥८॥
उसने आते ही बड़े भारी मेघ की भाँति बाणरूपी धाराओं की वर्षा प्रारम्भ कर दी और वह जल से भीगे हुए नगाड़े की तरह विकट गर्जना करने लगा॥८॥
आगच्छन्तं त्रिशिरसं राक्षसं प्रेक्ष्य राघवः।
धनुषा प्रतिजग्राह विधुन्वन् सायकान् शितान्॥
त्रिशिरा नामक राक्षस को आते देख श्रीरघुनाथजी ने धनुष के द्वारा पैने बाण छोड़ते हुए उसे अपने प्रतिद्वन्द्वी के रूप में ग्रहण किया (अथवा उसे आगे बढ़ने से रोक दिया) ॥९॥
स सम्प्रहारस्तुमुलो रामत्रिशिरसोस्तदा।
सम्बभूवातिबलिनोः सिंहकुञ्जरयोरिव॥१०॥
अत्यन्त बलशाली श्रीराम और त्रिशिरा का वह संग्राम महाबली सिंह और गजराज के युद्ध की भाँति बड़ा भयंकर प्रतीत होता था॥ १० ॥
ततस्त्रिशिरसा बाणैर्ललाटे ताडितस्त्रिभिः।
अमर्षी कुपितो रामः संरब्ध इदमब्रवीत्॥११॥
उस समय त्रिशिरा ने तीन बाणों से श्रीरामचन्द्रजी के ललाट को बींध डाला। श्रीराम उसकी यह उद्दण्डता सहन न कर सके। वे कुपित हो रोषावेश में भरकर इस प्रकार बोले- ॥११॥
अहो विक्रमशूरस्य राक्षसस्येदृशं बलम्।
पुष्पैरिव शरैर्योऽहं ललाटेऽस्मि परिक्षतः॥१२॥
ममापि प्रतिगृह्णीष्व शरांश्चापगुणाच्च्युतान्।
‘अहो! पराक्रम प्रकट करने में शूरवीर राक्षस का ऐसा ही बल है, जो तुमने फूलों-जैसे बाणों द्वारा मेरे ललाट पर प्रहार किया है। अच्छा, अब धनुष की डोरी से छूटे हुए मेरे बाणों को भी ग्रहण करो’॥ १२ १/२॥
एवमुक्त्वा सुसंरब्धः शरानाशीविषोपमान्॥ १३॥
त्रिशिरोवक्षसि क्रुद्धो निजघान चतुर्दश।
ऐसा कहकर रोष में भरे हुए श्रीराम ने त्रिशिरा की छाती में क्रोधपूर्वक चौदह बाण मारे, जो विषधर सौ के समान भयंकर थे॥१३ १/२॥
चतुर्भिस्तुरगानस्य शरैः संनतपर्वभिः॥१४॥
न्यपातयत तेजस्वी चतुरस्तस्य वाजिनः।
अष्टभिः सायकैः सूतं रथोपस्थे न्यपातयत्॥ १५॥
तदनन्तर तेजस्वी रघुनाथजी ने झुकी गाँठ वाले चार बाणों से उसके चारों घोड़ों को मार गिराया। फिर आठ सायकों द्वारा उसके सारथि को भी रथ की बैठक में ही सुला दिया॥१४-१५॥
रामश्चिच्छेद बाणेन ध्वजं चास्य समुच्छ्रितम्।
ततो हतरथात् तस्मादुत्पतन्तं निशाचरम्॥१६॥
चिच्छेद रामस्तं बाणैर्हृदये सोऽभवज्जडः।
इसके बाद श्रीराम ने एक बाण से उसकी ध्वजा भी काट डाली। तदनन्तर जब वह उस नष्ट हुए रथ से कूदने लगा, उसी समय श्रीराघवेन्द्र ने अनेक बाणों द्वारा उस निशाचर की छाती छेद डाली फिर तो वह जडवत् हो गया॥ १६ १/२ ॥
सायकैश्चाप्रमेयात्मा सामर्षस्तस्य रक्षसः॥१७॥
शिरांस्यपातयत् त्रीणि वेगवद्भिस्त्रिभिः शरैः।
इसके बाद अप्रमेयस्वरूप श्रीराम ने अमर्ष में भरकर तीन वेगशाली एवं विनाशकारी बाणों द्वारा उस राक्षस के तीनों मस्तक काट गिराये॥ १७ १/२ ॥
स धूमशोणितोद्गारी रामबाणाभिपीडितः॥ १८॥
न्यपतत् पतितैः पूर्वं समरस्थो निशाचरः।
समराङ्गण में खड़ा हुआ वह निशाचर श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से पीड़ित हो अपने धड़ से भापसहित रुधिर उगलता हुआ पहले गिरे हुए मस्तकों के साथ ही धराशायी हो गया॥ १८ १/२॥
हतशेषास्ततो भग्ना राक्षसाः खरसंश्रयाः॥१९॥
द्रवन्ति स्म न तिष्ठन्ति व्याघ्रत्रस्ता मृगा इव।।
तत्पश्चात् खर की सेवा में रहने वाले राक्षस, जो मरने से बचे हुए थे, भाग खड़े हुए। वे व्याघ्र से डरे हुए मृगों के समान भागते ही चले जाते थे, खड़े नहीं होते थे॥
तान् खरो द्रवतो दृष्ट्वा निवर्त्य रुषितस्त्वरन्।
राममेवाभिदुद्राव राहुश्चन्द्रमसं यथा॥ २०॥
उन्हें भागते देख रोष में भरे हुए खर ने तुरंत लौटाया और जैसे राहु चन्द्रमा पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उसने श्रीराम पर ही धावा किया॥ २० ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्तविंशः सर्गः ॥२७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२७॥
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