वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 29
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (सर्ग 29)
श्रीराम का खर को फटकारना तथा खर का भी उन्हें कठोर उत्तर देकर उनके ऊपर गदा का प्रहार करना और श्रीराम द्वारा उस गदा का खण्डन
खरं तु विरथं रामो गदापाणिमवस्थितम्।
मृदुपूर्वं महातेजाः परुषं वाक्यमब्रवीत्॥१॥
खर को रथहीन होकर गदा हाथ में लिये सामने उपस्थित देख महातेजस्वी भगवान् श्रीराम पहले कोमल और फिर कठोर वाणी में बोले- ॥१॥
गजाश्वरथसम्बाधे बले महति तिष्ठता।
कृतं ते दारुणं कर्म सर्वलोकजुगुप्सितम्॥२॥
उद्वेजनीयो भूतानां नृशंसः पापकर्मकृत् ।
त्रयाणामपि लोकानामीश्वरोऽपि न तिष्ठति॥३॥
कर्म लोकविरुद्धं तु कुर्वाणं क्षणदाचर।
तीक्ष्णं सर्वजनो हन्ति सष दुष्टमिवागतम्॥४॥
‘निशाचर! हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई विशाल सेना के बीच में खड़े रहकर (असंख्य राक्षसों के स्वामित्व का अभिमान लेकर) तूने सदा जो क्रूरतापूर्ण कर्म किया है, उसकी समस्त लोकों द्वारा निन्दा हुई है। जो समस्त प्राणियों को उद्वेग में डालने वाला, क्रूर और पापाचारी है, वह तीनों लोकों का ईश्वर हो तो भी अधिक काल तक टिक नहीं सकता। जो लोकविरोधी कठोर कर्म करने वाला है, उसे सब लोग सामने आये हुए दुष्ट सर्प की भाँति मारते हैं॥२-४॥
लोभात् पापानि कुर्वाणः कामाद् वा यो न बुध्यते।
हृष्टः पश्यति तस्यान्तं ब्राह्मणी करकादिव॥५॥
‘जो वस्तु प्राप्त नहीं हुई है, उसकी इच्छा को ‘काम’ कहते हैं और प्राप्त हुई वस्तु को अधिक-से अधिक संख्या में पाने की इच्छा का नाम ‘लोभ’ है। जो काम अथवा लोभ से प्रेरित हो पाप करता है और उसके (विनाशकारी) परिणाम को नहीं समझता है, उलटे उस पाप में हर्ष का अनुभव करता है, वह उसी प्रकार अपना विनाशरूप परिणाम देखता है जैसे वर्षा के साथ गिरे हुए ओले को खाकर ब्राह्मणी (रक्तपुच्छिका) नाम वाली कीड़ी अपना विनाश देखती है * ॥ ५॥
* लाल पूँछवाली एक कीड़ी होती है, जो ओला खा लेने पर मर जाती है। वह उसके लिये विष का काम करता है—यह बात लोक में प्रसिद्ध है।
वसतो दण्डकारण्ये तापसान् धर्मचारिणः।
किं नु हत्वा महाभागान् फलं प्राप्स्यसि राक्षस॥
‘राक्षस! दण्डकारण्य में निवास करने वाले तपस्या में संलग्न धर्मपरायण महाभाग मुनियों की हत्या करके न जाने तू कौन-सा फल पायेगा? ॥ ६॥
न चिरं पापकर्माणः क्रूरा लोकजुगुप्सिताः।
ऐश्वर्यं प्राप्य तिष्ठन्ति शीर्णमूला इव द्रुमाः॥७॥
‘जिनकी जड़ खोखली हो गयी हो, वे वृक्ष जैसे अधिक कालतक नहीं खड़े रह सकते, उसी प्रकार पापकर्म करने वाले लोकनिन्दित क्रूर पुरुष (किसी पूर्वपुण्य के प्रभाव से) ऐश्वर्य को पाकर भी चिरकाल तक उसमें प्रतिष्ठित नहीं रह पाते (उससे भ्रष्ट हो ही जाते हैं)॥७॥
अवश्यं लभते कर्ता फलं पापस्य कर्मणः।
घोरं पर्यागते काले द्रुमः पुष्पमिवार्तवम्॥८॥
‘जैसे समय आने पर वृक्ष में ऋतु के अनुसार फूल लगते ही हैं, उसी प्रकार पापकर्म करने वाले पुरुष को समयानुसार अपने उस पापकर्म का भयंकर फल अवश्य ही प्राप्त होता है॥८॥
नचिरात् प्राप्यते लोके पापानां कर्मणां फलम्।
सविषाणामिवान्नानां भुक्तानां क्षणदाचर ॥९॥
‘निशाचर! जैसे खाये हुए विषमिश्रित अन्न का परिणाम तुरंत ही भोगना पड़ता है, उसी प्रकार लोक में किये गये पापकर्मों का फल शीघ्र ही प्राप्त होता है॥९॥
पापमाचरतां घोरं लोकस्याप्रियमिच्छताम्।
अहमासादितो राज्ञा प्राणान् हन्तुं निशाचर ॥ १०॥
‘राक्षस! जो संसार का बुरा चाहते हुए घोर पापकर्म में लगे हुए हैं, उन्हें प्राणदण्ड देने के लिये मेरे पिता महाराज दशरथ ने मुझे यहाँ वन में भेजा है। १०॥
अद्य भित्त्वा मया मुक्ताः शराः काञ्चनभूषणाः।
विदार्यातिपतिष्यन्ति वल्मीकमिव पन्नगाः॥ ११॥
‘आज मेरे छोड़े हुए सुवर्णभूषित बाण जैसे सर्प बाँबी को छेदकर निकलते हैं, उसी प्रकार तेरे शरीर को फाड़कर पृथ्वी को भी विदीर्ण करके पाताल में जाकर गिरेंगे॥११॥
ये त्वया दण्डकारण्ये भक्षिता धर्मचारिणः।
तानद्य निहतः संख्ये ससैन्योऽनुगमिष्यसि ॥१२॥
‘तूने दण्डकारण्य में जिन धर्मपरायण ऋषियों का भक्षण किया है, आज युद्ध में मारा जाकर सेनासहित तू भी उन्हीं का अनुसरण करेगा॥ १२॥
अद्य त्वां निहतं बाणैः पश्यन्तु परमर्षयः।
निरयस्थं विमानस्था ये त्वया निहताः पुरा॥ १३॥
‘पहले तूने जिनका वध किया है, वे महर्षि विमान पर बैठकर आज तुझे मेरे बाणों से मारा गया और नरकतुल्य कष्ट भोगता हुआ देखें॥ १३॥
प्रहरस्व यथाकामं कुरु यत्नं कुलाधम।
अद्य ते पातयिष्यामि शिरस्तालफलं यथा ॥१४॥
कुलाधम! तेरी जितनी इच्छा हो, प्रहार कर। जितना सम्भव हो, मुझे परास्त करने का प्रयत्न कर, किंतु आज मैं तेरे मस्तक को ताड़के फल की भाँति अवश्य काट गिराऊँगा’॥ १४ ॥
एवमुक्तस्तु रामेण क्रुद्धः संरक्तलोचनः।
प्रत्युवाच ततो रामं प्रहसन् क्रोधमूर्च्छितः॥ १५॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर खर कुपित हो उठा। उसकी आँखें लाल हो गयीं। वह क्रोध से अचेत-सा होकर हँसता हुआ श्रीराम को इस प्रकार उत्तर देने लगा— ॥१५॥
प्राकृतान् राक्षसान् हत्वा युद्धे दशरथात्मज।
आत्मना कथमात्मानमप्रशस्यं प्रशंससि ॥१६॥
‘दशरथकुमार! तुम साधारण राक्षसों को युद्ध में मारकर स्वयं ही अपनी इतनी प्रशंसा कैसे कर रहे हो? तुम प्रशंसा के योग्य कदापि नहीं हो॥१६॥
विक्रान्ता बलवन्तो वा ये भवन्ति नरर्षभाः।
कथयन्ति न ते किंचित् तेजसा चातिगर्विताः॥ १७॥
‘जो श्रेष्ठ पुरुष पराक्रमी अथवा बलवान् होते हैं, वे अपने प्रताप के कारण अधिक घमंड में भरकर कोई बात नहीं कहते हैं (अपने विषय में मौन ही रहते हैं)॥ १७॥
प्राकृतास्त्वकृतात्मानो लोके क्षत्रियपांसनाः।
निरर्थकं विकत्थन्ते यथा राम विकत्थसे॥१८॥
‘राम! जो क्षुद्र, अजितात्मा और क्षत्रियकुलकलंक होते हैं, वे ही संसार में अपनी बड़ाई के लिये व्यर्थ डींग हाँका करते हैं; जैसे इस समय तुम (अपने विषय में) बढ़-बढ़कर बातें बना रहे हो। १८॥
कुलं व्यपदिशन् वीरः समरे कोऽभिधास्यति।
मृत्युकाले तु सम्प्राप्ते स्वयमप्रस्तवे स्तवम्॥ १९॥
‘जब कि मृत्यु के समान युद्ध का अवसर उपस्थित है, ऐसे समय में बिना किसी प्रस्ताव के ही समराङ्गण में कौन वीर अपनी कुलीनता प्रकट करता हुआ आप ही अपनी स्तुति करेगा? ॥ १९ ॥
सर्वथा तु लघुत्वं ते कत्थनेन विदर्शितम्।
सुवर्णप्रतिरूपेण तप्तेनेव कुशाग्निना॥२०॥
‘जैसे पीतल सुवर्णशोधक आग में तपाये जाने पर अपनी लघुता (कालेपन) को ही व्यक्त करता है,उसी प्रकार अपनी झूठी प्रशंसा के द्वारा तुमने सर्वथा अपने ओछेपन का ही परिचय दिया है॥ २० ॥
न तु मामिह तिष्ठन्तं पश्यसि त्वं गदाधरम्।
धराधरमिवाकम्प्यं पर्वतं धातुभिश्चितम्॥२१॥
‘क्या तुम नहीं देखते कि मैं नाना प्रकार के धातुओं की खानों से युक्त तथा पृथ्वी को धारण करने वाले अविचल कुलपर्वत के समान यहाँ स्थिरभाव से तुम्हारे सामने गदा लेकर खड़ा हूँ॥२१॥
पर्याप्तोऽहं गदापाणिर्हन्तुं प्राणान् रणे तव।
त्रयाणामपि लोकानां पाशहस्त इवान्तकः॥ २२॥
‘मैं अकेला ही पाशधारी यमराज की भाँति गदा हाथ में लेकर रणभूमि में तुम्हारे और तीनों लोकों के भी प्राण लेने की शक्ति रखता हूँ॥ २२॥
कामं बह्वपि वक्तव्यं त्वयि वक्ष्यामि न त्वहम्।
अस्तं प्राप्नोति सविता युद्धविघ्नस्ततो भवेत्॥ २३॥
‘यद्यपि तुम्हारे विषय में मैं इच्छानुसार बहुत कुछ कह सकता हूँ तथापि इस समय कुछ नहीं कहूँगा; क्योंकि सूर्यदेव अस्ताचल को जा रहे हैं, अतः युद्ध में विघ्न पड़ जायगा॥ २३॥
चतुर्दश सहस्राणि राक्षसानां हतानि ते।
त्वद्विनाशात् करोम्यद्य तेषामश्रुप्रमार्जनम्॥ २४॥
‘तुमने चौदह हजार राक्षसों का संहार किया है, अतः आज तुम्हारा भी विनाश करके मैं उन सबके आँसू पोलूंगा—उनकी मौत का बदला चुकाऊँगा’। २४॥
इत्युक्त्वा परमक्रुद्धः स गदां परमाङ्गदाम्।
खरश्चिक्षेप रामाय प्रदीप्तामशनिं यथा॥२५॥
ऐसा कहकर अत्यन्त क्रोध से भरे हुए खर ने उत्तम वलय (कड़े) से विभूषित तथा प्रज्वलित वज्र के समान भयंकर गदा को श्रीरामचन्द्रजी के ऊपर चलाया॥२५॥
खरबाहुप्रमुक्ता सा प्रदीप्ता महती गदा।
भस्म वृक्षांश्च गुल्मांश्च कृत्वागात् तत्समीपतः॥ २६॥
खर के हाथों से छूटी हुई वह दीप्तिमान् विशाल गदा वृक्षों और लताओं को भस्म करके उनके समीप जा पहुँची॥ २६॥
तामापतन्ती महतीं मृत्युपाशोपमां गदाम्।
अन्तरिक्षगतां रामश्चिच्छेद बहुधा शरैः॥२७॥
मृत्यु के पाश की भाँति उस विशाल गदा को अपने ऊपर आती देख श्रीरामचन्द्रजी ने अनेक बाण मारकर आकाश में ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥२७॥
सा विशीर्णा शरैर्भिन्ना पपात धरणीतले।
गदा मन्त्रौषधिबलैक्लीव विनिपातिता॥२८॥
बाणों से विदीर्ण एवं चूर-चूर होकर वह गदा पृथ्वी पर गिर पड़ी, मानो कोई सर्पिणी मन्त्र और ओषधियों के बल से गिरायी गयी हो ॥२८॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः॥२९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२९॥
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