वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 3 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 3
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
तृतीयः सर्गः (सर्ग 3)
विराध और श्रीराम की बातचीत, श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध पर प्रहार तथा विराध का इन दोनों भाइयों को साथ लेकर दूसरे वन में जाना
अथोवाच पुनर्वाक्यं विराधः पूरयन् वनम्।
पृच्छतो मम हि ब्रूतं कौ युवां क्व गमिष्यथः॥
तदनन्तर विराध ने उस वन को [जाते हुए कहा —’अरे! मैं पूछता हूँ, मुझे बताओ। तुम दोनों कौन हो और कहाँ जाओगे?’॥१॥
तमुवाच ततो रामो राक्षसं ज्वलिताननम्।
पृच्छन्तं सुमहातेजा इक्ष्वाकुकुलमात्मनः ॥ २॥
क्षत्रियौ वृत्तसम्पन्नौ विद्धि नौ वनगोचरौ।
त्वां तु वेदितुमिच्छावः कस्त्वं चरसि दण्डकान्॥ ३॥
तब महातेजस्वी श्रीराम ने अपना परिचय पूछते हुए प्रज्वलित मुख वाले उस राक्षस से इस प्रकार कहा –’तुझे मालूम होना चाहिये कि महाराज इक्ष्वाकु का कुल ही मेरा कुल है। हम दोनों भाई सदाचार का पालन करने वाले क्षत्रिय हैं और कारण वश इस समय वन में निवास करते हैं। अब हम तेरा परिचय जानना चाहते हैं। तु कौन है, जो दण्डक वन में स्वेच्छा से विचर रहा है ?’ ॥ २-३॥
तमुवाच विराधस्तु रामं सत्यपराक्रमम्।
हन्त वक्ष्यामि ते राजन् निबोध मम राघव॥४॥
यह सुनकर विराध ने सत्यपराक्रमी श्रीराम से कहा- ‘रघुवंशी नरेश! मैं प्रसन्नतापूर्वक अपना परिचय देता हूँ। तुम मेरे विषय में सुनो॥४॥
पुत्रः किल जवस्याहं माता मम शतहदा।
विराध इति मामाहुः पृथिव्यां सर्वराक्षसाः॥५॥
‘मैं ‘जव’ नामक राक्षस का पुत्र हूँ, मेरी माता का नाम ‘शतह्रदा’ है। भूमण्डल के समस्त राक्षस मुझे विराध के नाम से पुकारते हैं॥५॥
तपसा चाभिसम्प्राप्ता ब्रह्मणो हि प्रसादजा।
शस्त्रेणावध्यता लोकेऽच्छेद्याभेद्यत्वमेव च॥६॥
‘मैंने तपस्या के द्वारा ब्रह्माजी को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त किया है कि किसी भी शस्त्र से मेरा वध न हो। मैं संसार में अच्छेद्य और अभेद्य होकर रहूँ कोई भी मेरे शरीर को छिन्न-भिन्न नहीं कर सके। ६॥
उत्सृज्य प्रमदामेनामनपेक्षौ यथागतम्।
त्वरमाणौ पलायेथां न वां जीवितमाददे॥७॥
‘अब तुम दोनों इस युवती स्त्री को यहीं छोड़कर इसे पाने की इच्छा न रखते हुए जैसे आये हो उसी प्रकार तुरंत यहाँ से भाग जाओ। मैं तुम दोनों के प्राण नहीं लूँगा’॥ ७॥
तं रामः प्रत्युवाचेदं कोपसंरक्तलोचनः।
राक्षसं विकृताकारं विराधं पापचेतसम्॥८॥
यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। वे पापपूर्ण विचार और विकट आकार वाले उस पापी राक्षस विराध से इस प्रकार बोले- ॥ ८॥
क्षुद्र धिक् त्वां तु हीनार्थं मृत्युमन्वेषसे ध्रुवम्।
रणे प्राप्स्यसि संतिष्ठ न मे जीवन् विमोक्ष्यसे॥ ९॥
‘नीच! तुझे धिक्कार है। तेरा अभिप्राय बड़ा ही खोटा है। निश्चय ही तू अपनी मौत ढूँढ़ रहा है और वह तुझे युद्ध में मिलेगी। ठहर, अब तू मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा’ ॥ ९॥
ततः सज्यं धनुः कृत्वा रामः सुनिशितान् शरान्।
सुशीघ्रमभिसंधाय राक्षसं निजघान ह॥१०॥
यह कहकर भगवान् श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और तुरंत ही तीखे बाणों का अनुसंधान करके उस राक्षस को बींधना आरम्भ किया॥१०॥
धनुषा ज्यागुणवता सप्त बाणान् मुमोच ह।
रुक्मपुङ्खान् महावेगान् सुपर्णानिलतुल्यगान्॥ ११॥
उन्होंने प्रत्यञ्चायुक्त धनुष के द्वारा विराध के ऊपर लगातार सात बाण छोड़े, जो गरुड़ और वायु के समान महान् वेगशाली थे और सोने के पंखों से सुशोभित हो रहे थे॥ ११॥
ते शरीरं विराधस्य भित्त्वा बर्हिणवाससः।
निपेतुः शोणितादिग्धा धरण्यां पावकोपमाः॥ १२॥
प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी और मोर पंख लगे हुए वे बाण विराध के शरीर को छेदकर रक्तरञ्जित हो पृथ्वी पर गिर पड़े॥१२॥
स विद्धो न्यस्य वैदेहीं शूलमुद्यम्य राक्षसः।
अभ्यद्रवत् सुसंक्रुद्धस्तदा रामं सलक्ष्मणम्॥ १३॥
घायल हो जाने पर उस राक्षस ने विदेहकुमारी सीता को अलग रख दिया और स्वयं हाथ में शूल लिये अत्यन्त कुपित होकर श्रीराम तथा लक्ष्मण पर तत्काल टूट पड़ा॥ १३॥
स विनद्य महानादं शूलं शक्रध्वजोपमम्।
प्रगृह्याशोभत तदा व्यात्तानन इवान्तकः॥१४॥
वह बड़े जोर से गर्जना करके इन्द्रध्वज के समान शूल लेकर उस समय मुँह बाये हुए काल के समान शोभा पा रहा था॥ १४॥
अथ तौ भ्रातरौ दीप्तं शरवर्षं ववर्षतुः।
विराधे राक्षसे तस्मिन् कालान्तकयमोपमे॥१५॥
तब काल, अन्तक और यमराज के समान उस भयंकर राक्षस विराध के ऊपर उन दोनों भाइयों ने प्रज्वलित बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी॥ १५ ॥
स प्रहस्य महारौद्रः स्थित्वाजृम्भत राक्षसः।
जृम्भमाणस्य ते बाणाः कायान्निष्पेतुराशुगाः॥ १६॥
‘यह देख वह महाभयंकर राक्षस अट्टहास करके खड़ा हो गया और जंभाई के साथ अंगड़ाई लेने लगा। उसके वैसा करते ही शीघ्रगामी बाण उसके शरीर से निकलकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥१६॥
स्पर्शात् तु वरदानेन प्राणान् संरोध्य राक्षसः।
विराधः शूलमुद्यम्य राघवावभ्यधावत॥१७॥
वरदान के सम्बन्ध से उस राक्षस विराध ने प्राणों को रोक लिया और शूल उठाकर उन दोनों रघुवंशी वीरों पर आक्रमण किया॥१७॥
तच्छूलं वज्रसंकाशं गगने ज्वलनोपमम्।
द्वाभ्यां शराभ्यां चिच्छेद रामः शस्त्रभृतां वरः॥ १८॥
उसका वह शूल आकाश में वज्र और अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा; परंतु शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने दो बाण मारकर उसे काट डाला॥ १८॥
तद् रामविशिखैश्छिन्नं शूलं तस्यापतद् भुवि।
पपाताशनिना छिन्नं मेरोरिव शिलातलम्॥१९॥
श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से कटा हुआ विराध का वह शूल वज्र से छिन्न-भिन्न हुए मेरु के शिलाखण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा॥१९॥
तौ खड्गौ क्षिप्रमुद्यम्य कृष्णसर्पाविवोद्यतौ।
तूर्णमापेततुस्तस्य तदा प्रहरतां बलात्॥२०॥
फिर तो वे दोनों भाई शीघ्र ही काले सो के समान दो तलवारें लेकर तुरंत उस पर टूट पड़े और तत्काल बलपूर्वक प्रहार करने लगे॥ २० ॥
स वध्यमानः सुभृशं भुजाभ्यां परिगृह्य तौ।
अप्रकम्प्यौ नरव्याघ्रौ रौद्रः प्रस्थातुमैच्छत॥२१॥
उनके आघात से अत्यन्त घायल हुए उस भयंकर राक्षस ने अपनी दोनों भुजाओं से उन अकम्प्य पुरुषसिंह वीरों को पकड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा की॥२१॥
तस्याभिप्रायमाज्ञाय रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
वहत्वयमलं तावत् पथानेन तु राक्षसः॥ २२॥
यथा चेच्छति सौमित्रे तथा वहतु राक्षसः।
अयमेव हि नः पन्था येन याति निशाचरः॥ २३॥
उसके अभिप्राय को जानकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा—’सुमित्रानन्दन! यह राक्षस अपनी इच्छा के अनुसार हम लोगों को इस मार्ग से ढोकर ले चले। यह जैसा चाहता है, उसी तरह हमारा वाहन बनकर हमें ले चले (इसमें बाधा डालने की आवश्यकता नहीं है)। जिस मार्ग से यह निशाचर चल रहा है, यही हमलोगों के लिये आगे जाने का मार्ग है’ ॥ २२-२३॥
स तु स्वबलवीर्येण समुत्क्षिप्य निशाचरः।
बालाविव स्कन्धगतौ चकारातिबलोद्धतः॥ २४॥
अत्यन्त बल से उद्दण्ड बने हुए निशाचर विराध ने अपने बल-पराक्रम से उन दोनों भाइयों को बालकों की तरह उठाकर अपने दोनों कंधों पर बिठा लिया॥ २४ ॥
तावारोप्य ततः स्कन्धं राघवौ रजनीचरः।
विराधो विनदन् घोरं जगामाभिमुखो वनम्॥ २५॥
उन दोनों रघुवंशी वीरों को कंधे पर चढ़ा लेने के बाद राक्षस विराध भयंकर गर्जना करता हुआ वन की ओर चल दिया॥२५॥
वनं महामेघनिभं प्रविष्टो द्रुमैर्महद्भिर्विविधैरुपेतम्।
नानाविधैः पक्षिकुलैर्विचित्रं शिवायुतं व्यालमृगैर्विकीर्णम्॥ २६॥
तदनन्तर उसने एक ऐसे वन में प्रवेश किया, जो महान् मेघों की घटा के समान घना और नीला था। नाना प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष वहाँ भरे हुए थे। भाँति-भाँति के पक्षियों के समुदाय उसे विचित्र शोभा से
सम्पन्न बना रहे थे तथा बहुत-से गीदड़ और हिंसक पशु उसमें सब ओर फैले हुए थे॥ २६ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ॥३॥
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