वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 31 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 31
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः (सर्ग 31)
रावण का अकम्पन की सलाह से सीता का अपहरण करने के लिये जाना और मारीच के कहने से लङ्का को लौट आना
त्वरमाणस्ततो गत्वा जनस्थानादकम्पनः।
प्रविश्य लङ्कां वेगेन रावणं वाक्यमब्रवीत्॥१॥
तदनन्तर जनस्थान से अकम्पन नामक राक्षस बड़ी उतावली के साथ लङ्का की ओर गया और शीघ्र ही उस पुरी में प्रवेश करके रावण से इस प्रकार बोला – ॥ १॥
जनस्थानस्थिता राजन् राक्षसा बहवो हताः।
खरश्च निहतः संख्ये कथंचिदहमागतः॥२॥
‘राजन् ! जनस्थान में जो बहुत-से राक्षस रहते थे, वे मार डाले गये। खर युद्ध में मारा गया। मैं किसी तरह जान बचाकर यहाँ आया हूँ’॥२॥
एवमुक्तो दशग्रीवः क्रुद्धः संरक्तलोचनः।
अकम्पनमुवाचेदं निर्दहन्निव तेजसा ॥३॥
अकम्पन के ऐसा कहते ही दशमुख रावण क्रोध से जल उठा और लाल आँखें करके उससे इस तरह बोला, मानो उसे अपने तेज से जलाकर भस्म कर डालेगा॥३॥
केन भीमं जनस्थानं हतं मम परासुना।
को हि सर्वेषु लोकेषु गतिं नाधिगमिष्यति॥४॥
वह बोला—’कौन मौत के मुख में जाना चाहता है, जिसने मेरे भयंकर जनस्थान का विनाश किया है? कौन वह दुःसाहसी है, जिसे समस्त लोकों में कहीं भी ठौर-ठिकाना नहीं मिलने वाला है ? ॥ ४॥
न हि मे विप्रियं कृत्वा शक्यं मघवता सुखम्।
प्राप्तुं वैश्रवणेनापि न यमेन च विष्णुना॥५॥
‘मेरा अपराध करके इन्द्र, यम, कुबेर और विष्णु भी चैन से नहीं रह सकेंगे॥ ५ ॥
कालस्य चाप्यहं कालो दहेयमपि पावकम्।
मृत्यु मरणधर्मेण संयोजयितुमुत्सहे॥६॥
‘मैं काल का भी काल हूँ, आग को भी जला सकता हूँ तथा मौत को भी मृत्यु के मुख में डाल सकता हूँ। ६॥
वातस्य तरसा वेगं निहन्तुमपि चोत्सहे।
दहेयमपि संक्रुद्धस्तेजसाऽऽदित्यपावकौ॥७॥
‘यदि मैं क्रोध में भर जाऊँ तो अपने वेग से वायु की गति को भी रोक सकता हूँ तथा अपने तेज से सूर्य और अग्नि को भी जलाकर भस्म कर सकता हूँ’॥ ७॥
तथा क्रुद्धं दशग्रीवं कृताञ्जलिरकम्पनः ।
भयात् संदिग्धया वाचा रावणं याचतेऽभयम्॥ ८॥
रावण को इस प्रकार क्रोध से भरा देख भय के मारे अकम्पन की बोलती बंद हो गयी। उसने हाथ जोड़कर संशययुक्त वाणी में रावण से अभय की याचना की॥८॥
दशग्रीवोऽभयं तस्मै प्रददौ रक्षसां वरः।
स विस्रब्धोऽब्रवीद् वाक्यमसंदिग्धमकम्पनः॥ ९॥
तब राक्षसों में श्रेष्ठ दशग्रीव ने उसे अभय दान दिया। इससे अकम्पन को अपने प्राण बचने का विश्वास हुआ और वह संशयरहित होकर बोला— ॥९॥
पुत्रो दशरथस्यास्ते सिंहसंहननो युवा।
रामो नाम महास्कन्धो वृत्तायतमहाभुजः॥१०॥
श्यामः पृथुयशाः श्रीमानतुल्यबलविक्रमः।
हतस्तेन जनस्थाने खरश्च सहदूषणः ॥११॥
‘राक्षसराज! राजा दशरथ के नवयुवक पुत्र श्रीराम पञ्चवटी में रहते हैं। उनके शरीर की गठन सिंह के समान है, कंधे मोटे और भुजाएँ गोल तथा लम्बी हैं, शरीर का रंग साँवला है। वे बड़े यशस्वी और तेजस्वी दिखायी देते हैं। उनके बल और पराक्रमकी कहीं तुलना नहीं है। उन्होंने जनस्थान में रहने वाले खर और दूषण आदि का वध किया है’ ॥ १०-११।।
अकम्पनवचः श्रुत्वा रावणो राक्षसाधिपः।
नागेन्द्र इव निःश्वस्य इदं वचनमब्रवीत्॥१२॥
अकम्पन की यह बात सुनकर राक्षसराज रावण ने नागराज (महान् सर्प) की भाँति लम्बी साँस खींचकर इस प्रकार कहा- ॥ १२ ॥
स सुरेन्द्रेण संयुक्तो रामः सर्वामरैः सह।
उपयातो जनस्थानं ब्रूहि कच्चिदकम्पन॥१३॥
अकम्पन! बताओ तो सही क्या राम सम्पूर्ण देवताओं तथा देवराज इन्द्र के साथ जनस्थान में आये हैं?’ ॥१३ ॥
रावणस्य पुनर्वाक्यं निशम्य तदकम्पनः।
आचचक्षे बलं तस्य विक्रमं च महात्मनः॥१४॥
रावण का यह प्रश्न सुनकर अकम्पन ने महात्मा श्रीराम के बल और पराक्रम का पुनः इस प्रकार वर्णन किया
रामो नाम महातेजाः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्।
दिव्यास्त्रगुणसम्पन्नः परं धर्मं गतो युधि॥१५॥
‘लङ्गेश्वर! जिनका नाम राम है, वे संसार के समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ और अत्यन्त तेजस्वी हैं। दिव्यास्त्रों के प्रयोग का जो गुण है, उससे भी वे पूर्णतः सम्पन्न हैं। युद्ध की कला में तो वे पराकाष्ठा को पहुँचे हुए हैं॥ १५॥
तस्यानुरूपो बलवान् रक्ताक्षो दुन्दुभिस्वनः।
कनीयाँल्लक्ष्मणो भ्राता राकाशशिनिभाननः॥१६॥
‘श्रीराम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी हैं, जो उन्हीं के समान बलवान् हैं। उनका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति मनोहर है। उनकी आँखें कुछ-कुछ लाल हैं और स्वर दुन्दुभि के समान गम्भीर है॥ १६ ॥
स तेन सह संयुक्तः पावकेनानिलो यथा।
श्रीमान् राजवरस्तेन जनस्थानं निपातितम्॥१७॥
‘जैसे अग्नि के साथ वायु हों, उसी प्रकार अपने भाई के साथ संयुक्त हुए राजाधिराज श्रीमान् राम बड़े प्रबल हैं। उन्होंने ही जनस्थान को उजाड़ डाला है। १७॥
नैव देवा महात्मानो नात्र कार्या विचारणा।
शरा रामेण तत्सृष्टा रुक्मपुङ्गाः पतत्त्रिणः॥ १८॥
सर्पाः पञ्चानना भूत्वा भक्षयन्ति स्म राक्षसान्।
“उनके साथ न कोई देवता हैं, न महात्मा मुनि। इस विषय में आप कोई विचार न करें। श्रीराम के छोड़े हुए सोने की पाँखवाले बाण पाँच मुखवाले सर्प बनकर राक्षसों को खा जाते थे॥ १८ १/२ ॥
येन येन च गच्छन्ति राक्षसा भयकर्षिताः॥१९॥
तेन तेन स्म पश्यन्ति राममेवाग्रतः स्थितम्।
इत्थं विनाशितं तेन जनस्थानं तवानघ ॥२०॥
‘भय से कातर हुए राक्षस जिस-जिस मार्ग से भागते थे, वहाँ-वहाँ वे श्रीराम को ही अपने सामने खड़ा देखते थे। अनघ! इस प्रकार अकेले श्रीराम ने ही आपके जनस्थान का विनाश किया है’ ॥ १९-२०॥
अकम्पनवचः श्रुत्वा रावणो वाक्यमब्रवीत्।
गमिष्यामि जनस्थानं रामं हन्तुं सलक्ष्मणम्॥ २१॥
अकम्पन की यह बात सुनकर रावण ने कहा—’मैं अभी लक्ष्मणसहित राम का वध करने के लिये जनस्थान को जाऊँगा’ ॥ २१॥
अथैवमुक्ते वचने प्रोवाचेदमकम्पनः ।
शृणु राजन् यथावृत्तं रामस्य बलपौरुषम्॥२२॥
उसके ऐसा कहने पर अकम्पन बोला—’राजन्! श्रीराम का बल और पुरुषार्थ जैसा है, उसका यथावत् वर्णन मुझसे सुनिये॥ २२ ॥
असाध्यः कुपितो रामो विक्रमेण महायशाः।
आपगायास्तु पूर्णाया वेगं परिहरेच्छरैः॥ २३॥
सताराग्रहनक्षत्रं नभश्चाप्यवसादयेत्।
‘महायशस्वी श्रीराम यदि कुपित हो जायँ तो उन्हें अपने पराक्रम के द्वारा कोई भी काबू में नहीं कर सकता। वे अपने बाणों से भरी हुई नदी के वेग को भी पलट सकते हैं तथा तारा, ग्रह और नक्षत्रोंसहित सम्पूर्ण आकाशमण्डल को पीड़ा दे सकते हैं॥ २३ १/२॥
असौ रामस्तु सीदन्तीं श्रीमानभ्युद्धरेन्महीम्॥ २४॥
भित्त्वा वेलां समुद्रस्य लोकानाप्लावयेद् विभुः।
वेगं वापि समुद्रस्य वायुं वा विधमेच्छरैः ॥ २५॥
‘वे श्रीमान् भगवान् राम समुद्र में डूबती हुई पृथ्वी को ऊपर उठा सकते हैं, महासागर की मर्यादा का भेदन करके समस्त लोकों को उसके जल से आप्लावित कर सकते हैं तथा अपने बाणों से समुद्र के वेग अथवा वायु को भी नष्ट कर सकते हैं। २४-२५॥
संहृत्य वा पुनर्लोकान् विक्रमेण महायशाः।
शक्तः श्रेष्ठः स पुरुषः स्रष्टुं पुनरपि प्रजाः॥२६॥
‘वे महायशस्वी पुरुषोत्तम अपने पराक्रम से सम्पूर्ण लोकों का संहार करके पुनः नये सिरे से प्रजा की सृष्टि करने में समर्थ हैं॥ २६॥
नहि रामो दशग्रीव शक्यो जेतुं रणे त्वया।
रक्षसां वापि लोकेन स्वर्गः पापजनैरिव॥२७॥
‘दशग्रीव! जैसे पापी पुरुष स्वर्ग पर अधिकार नहीं प्राप्त कर सकते, उसी प्रकार आप अथवा समस्त राक्षस-जगत् भी युद्ध में श्रीराम को नहीं जीत सकते॥ २७॥
न तं वध्यमहं मन्ये सर्वैर्देवासुरैरपि।
अयं तस्य वधोपायस्तन्ममैकमनाः शृणु॥२८॥
‘मेरी समझ में सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी उनका वध नहीं कर सकते। उनके वध का यह एक उपाय मुझे सूझा है, उसे आप मेरे मुख से एकचित्त होकर सुनिये॥ २८॥
भार्या तस्योत्तमा लोके सीता नाम सुमध्यमा।
श्यामा समविभक्ताङ्गी स्त्रीरत्नं रत्नभूषिता॥ २९॥
‘श्रीराम की पत्नी सीता संसार की सर्वोत्तम सुन्दरी है। उसने यौवन के मध्य में पदार्पण किया है। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुन्दर और सुडौल हैं। वह रत्नमय आभूषणों से विभूषित रहती है। सीता सम्पूर्ण स्त्रियों में एक रत्न है॥ २९॥
नैव देवी न गन्धर्वी नाप्सरा न च पन्नगी।
तुल्या सीमन्तिनी तस्या मानुषी तु कुतो भवेत्॥ ३०॥
‘देवकन्या, गन्धर्वकन्या, अप्सरा अथवा नागकन्या कोई भी रूप में उसकी समानता नहीं कर सकती, फिर मनुष्य-जाति की दूसरी कोई नारी उसके समान कैसे हो सकती है॥३०॥
तस्यापहर भार्यां त्वं तं प्रमथ्य महावने।
सीतया रहितो रामो न चैव हि भविष्यति॥३१॥
‘उस विशाल वन में जिस किसी भी उपाय से श्रीराम को धोखे में डालकर आप उनकी पत्नी का अपहरण कर लें। सीता से बिछुड़ जाने पर श्रीराम कदापि जीवित नहीं रहेंगे’ ॥ ३१॥
अरोचयत तद्वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः।
चिन्तयित्वा महाबाहुरकम्पनमुवाच ह॥३२॥
राक्षसराज रावण को अकम्पन की वह बात पसंद आ गयी। उस महाबाहु दशग्रीव ने कुछ सोचकर अकम्पन से कहा- ॥३२॥
बाढं कल्यं गमिष्यामि ह्येकः सारथिना सह।
आनेष्यामि च वैदेहीमिमां हृष्टो महापुरीम्॥३३॥
‘ठीक है, कल प्रातःकाल सारथि के साथ मैं अकेला ही जाऊँगा और विदेहकुमारी सीता को प्रसन्नतापूर्वक इस महापुरी में ले आऊँगा’ ॥ ३३॥
तदेवमुक्त्वा प्रययौ खरयुक्तेन रावणः।
रथेनादित्यवर्णेन दिशः सर्वाः प्रकाशयन्॥३४॥
ऐसा कहकर रावण गधों से जुते हुए सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हो सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ वहाँ से चला॥ ३४ ॥
स रथो राक्षसेन्द्रस्य नक्षत्रपथगो महान्।
चञ्चूर्यमाणः शुशुभे जलदे चन्द्रमा इव ॥ ३५॥
नक्षत्रों के मार्ग पर विचरता हुआ राक्षसराज का वह विशाल रथ बादलों की आड़ में प्रकाशित होने वाले चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था॥ ३५॥
स दूरे चाश्रमं गत्वा ताटकेयमुपागमत्।
मारीचेनार्चितो राजा भक्ष्यभोज्यैरमानुषैः ॥ ३६॥
कुछ दूर पर स्थित एक आश्रम में जाकर वह ताटकापुत्र मारीच से मिला। मारीच ने अलौकिक भक्ष्य-भोज्य अर्पित करके राजा रावण का स्वागत सत्कार किया॥३६॥
तं स्वयं पूजयित्वा तु आसनेनोदकेन च।
अर्थोपहितया वाचा मारीचो वाक्यमब्रवीत्॥ ३७॥
आसन और जल आदि के द्वारा स्वयं ही उसका पूजन करके मारीच ने अर्थयुक्त वाणी में पूछा- ॥ ३७॥
कच्चित् सकुशलं राजैल्लोकानां राक्षसाधिप।
आशङ्के नाधिजाने त्वं यतस्तूर्णमुपागतः॥ ३८॥
‘राक्षसराज ! तुम्हारे राज्य में लोगों की कुशल तो है न? तुम बड़ी उतावली के साथ आ रहे हो, इसलिये मेरे मन में कुछ खटका हुआ है। मैं समझता हूँ, तुम्हारे यहाँ का अच्छा हाल नहीं है’ ॥ ३८ ॥
एवमुक्तो महातेजा मारीचेन स रावणः।
ततः पश्चादिदं वाक्यमब्रवीद् वाक्यकोविदः॥ ३९॥
मारीच के इस प्रकार पूछने पर बातचीत की कला को जानने वाले महातेजस्वी रावण ने इस प्रकार कहा- ॥ ३९॥
आरक्षो मे हतस्तात रामेणाक्लिष्टकारिणा।
जनस्थानमवध्यं तत् सर्वं युधि निपातितम्॥४०॥
‘तात! अनायास ही महान् पराक्रम दिखाने वाले श्रीराम ने मेरे राज्य की सीमा के रक्षक खर-दूषण आदि को मार डाला है तथा जो जनस्थान अवध्य समझा जाता था, वहाँ के सारे राक्षसों को उन्होंने युद्ध में मार गिराया है॥ ४०॥
तस्य मे कुरु साचिव्यं तस्य भार्यापहारणे।
राक्षसेन्द्रवचः श्रुत्वा मारीचो वाक्यमब्रवीत्॥ ४१॥
‘अतः इसका बदला लेने के लिये मैं उनकी स्त्री का अपहरण करना चाहता हूँ। इस कार्य में तुम मेरी सहायता करो।’ राक्षसराज रावण का यह वचन सुनकर मारीच बोला— ॥४१॥
आख्याता केन वा सीता मित्ररूपेण शत्रुणा।
त्वया राक्षसशार्दूल को न नन्दति नन्दितः॥ ४२॥
‘निशाचरशिरोमणे! मित्र के रूप में तुम्हारा वह कौन-सा ऐसा शत्रु है, जिसने तुम्हें सीता को हर लेने की सलाह दी है? कौन ऐसा पुरुष है, जो तुमसे सुख और आदर पाकर भी प्रसन्न नहीं है, अतः तुम्हारी बुराई करना चाहता है ? ।। ४२ ॥
सीतामिहानयस्वेति को ब्रवीति ब्रवीहि मे।
रक्षोलोकस्य सर्वस्य कः शृङ्ग छेत्तुमिच्छति॥ ४३॥
‘कौन कहता है कि तुम सीता को यहाँ हर ले आओ? मुझे उसका नाम बताओ। वह कौन है, जो समस्त राक्षस-जगत् का सींग काट लेना चाहता है?॥
प्रोत्साहयति यश्च त्वां स च शत्रुरसंशयम्।
आशीविषमुखाद दंष्टामुद्धां चेच्छति त्वया॥ ४४॥
‘जो इस कार्य में तुम्हें प्रोत्साहन दे रहा है, वह तुम्हारा शत्रु है, इसमें संशय नहीं है। वह तुम्हारे हाथों विषधर सर्प के मुख से उसके दाँत उखड़वाना चाहता है॥४४॥
कर्मणानेन केनासि कापथं प्रतिपादितः।
सुखसुप्तस्य ते राजन् प्रहृतं केन मूर्धनि॥४५॥
‘राजन्! किसने तुम्हें ऐसी खोटी सलाह देकर कुमार्ग पर पहुँचाया है ? किसने सुखपूर्वक सोते समय तुम्हारे मस्तक पर लात मारी है॥ ४५ ॥
विशुद्धवंशाभिजनाग्रहस्ततेजोमदः संस्थितदोर्विषाणः।
उदीक्षितुं रावण नेह युक्तः स संयुगे राघवगन्धहस्ती॥ ४६॥
‘रावण! राघवेन्द्र श्रीराम वह गन्धयुक्त गजराज हैं, जिसकी गन्ध सूंघकर ही गजरूपी योद्धा दूर भाग जाते हैं। विशुद्ध कुल में जन्म ग्रहण करना ही उस राघवरूपी गजराज का शुण्डदण्ड है, प्रताप ही मद है और सुडौल बाँहें ही दोनों दाँत हैं। युद्धस्थल में उनकी ओर देखना भी तुम्हारे लिये उचित नहीं है; फिर जूझने की तो बात ही क्या है।॥ ४६॥
असौ रणान्तःस्थितिसंधिवालो विदग्धरक्षोमृगहा नृसिंहः।
सुप्तस्त्वया बोधयितुं न शक्यः शराङ्गपूर्णो निशितासिदंष्ट्रः॥४७॥
“वे श्रीराम मनुष्य के रूप में एक सिंह हैं। रणभूमि के भीतर स्थित होना ही उनके अङ्गों की संधियाँ तथाबाल हैं। वह सिंह चतुर राक्षसरूपी मृगों का वध करनेवाला है, बाणरूपी अङ्गों से परिपूर्ण है तथा तलवारें ही उसकी तीखी दाढ़ें हैं। उस सोते हुए सिंह को तुम नहीं जगा सकते॥४७॥
चापापहारे भुजवेगपङ्के शरोर्मिमाले सुमहाहवौघे।
न रामपातालमुखेऽतिघोरे प्रस्कन्दितुं राक्षसराज युक्तम्॥४८॥
‘राक्षसराज! श्रीराम एक पातालतलव्यापी महासागर हैं, धनुष ही उस समुद्र के भीतर रहने वाला ग्राह है, भुजाओं का वेग ही कीचड़ है, बाण ही तरंगमालाएँ हैं और महान् युद्ध ही उसकी अगाध जलराशि है। उसके अत्यन्त भयंकर मुख अर्थात् बड़वानल में कूद पड़ना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है। ४८॥
प्रसीद लङ्केश्वर राक्षसेन्द्र लङ्कां प्रसन्नो भव साधु गच्छ।
त्वं स्वेषु दारेषु रमस्व नित्यं रामः सभार्यो रमतां वनेषु॥४९॥
‘लंकेश्वर ! प्रसन्न होओ। राक्षसराज! सानन्द रहो और सकुशल लंका को लौट जाओ। तुम सदा पुरी में अपनी स्त्रियों के साथ रमण करो और राम अपनी पत्नी के साथ वन में विहार करें’॥ ४९॥
एवमुक्तो दशग्रीवो मारीचेन स रावणः।
न्यवर्तत पुरीं लङ्कां विवेश च गृहोत्तमम्॥५०॥
मारीच के ऐसा कहने पर दशमुख रावण लंका को लौटा और अपने सुन्दर महल में चला गया॥ ५० ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकत्रिंशः सर्गः॥३१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३१॥
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