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वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 32 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 32

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः (सर्ग 32)

शूर्पणखा का लंका में रावण के पास जाना

 

ङ्के ततः शार्पणखा दृष्ट्या सहस्राणि चातुर्दशा ।
हतान्येकेन रामेण रक्षसां भीमकर्मणाम्॥१॥
दूषणं च खरं चैव हतं त्रिशिरसं रणे।
दृष्ट्वा पुनर्महानादान् ननाद जलदोपमा॥२॥

उधर शूर्पणखा ने जब देखा कि श्रीराम ने भयंकर कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों को अकेले ही मार गिराया तथा युद्ध के मैदान में दूषण, खर और त्रिशिरा को भी मौत के घाट उतार दिया, तब वह शोक के कारण मेघ गर्जना के समान पुनः बड़े जोर-जोर से घोर चीत्कार करने लगी॥ १-२॥

सा दृष्ट्वा कर्म रामस्य कृतमन्यैः सुदुष्करम्।
जगाम परमोद्विग्ना लङ्कां रावणपालिताम्॥३॥

श्रीराम ने वह कर्म कर दिखाया, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुष्कर है; यह अपनी आँखों देखकर वहअत्यन्त उद्विग्न हो उठी और रावण द्वारा सुरक्षित लंकापुरी को गयी॥३॥

सा ददर्श विमानाग्रे रावणं दीप्ततेजसम्।
उपोपविष्टं सचिवैर्मरुद्भिरिव वासवम्॥४॥

वहाँ पहुँचकर उसने देखा, रावण पुष्पक विमान (या सतमहले मकान) के ऊपरी भाग में बैठा हुआ है। उसका राजोचित तेज उद्दीप्त हो रहा है तथा मरुद्गणों से घिरे हुए इन्द्र की भाँति वह आस-पास बैठे हुए मन्त्रियों से घिरा है॥ ४॥

आसीनं सूर्यसंकाशे काञ्चने परमासने।
रुक्मवेदिगतं प्राज्यं ज्वलन्तमिव पावकम्॥५॥

रावण जिस उत्तम सुवर्णमय सिंहासन पर विराजमान था, वह सूर्य के समान जगमगा रहा था। जैसे सोने की ईंटों से बनी हुई वेदी पर स्थापित अग्निदेव घी की अधिक आहुति पाकर प्रज्वलित हो उठे हों, उसी प्रकार उस स्वर्णसिंहासन पर रावण शोभा पा रहा था॥ ५॥

देवगन्धर्वभूतानामृषीणां च महात्मनाम्।
अजेयं समरे घोरं व्यात्ताननमिवान्तकम्॥६॥
देवासुरविमर्देषु वज्राशनिकृतव्रणम्।
ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसम्॥७॥

देवता, गन्धर्व, भूत और महात्मा ऋषि भी उसे जीतने में असमर्थ थे। समरभूमि में वह मुँह फैलाकर खड़े हुए यमराज की भाँति भयानक जान पड़ता था। देवताओं और असुरों के संग्राम के अवसरों पर उसके शरीर में वज्र और अशनि के जो घाव हुए थे, उनके चिह्न अब तक विद्यमान थे। उसकी छाती में ऐरावत हाथी ने जो अपने दाँत गड़ाये थे, उसके निशान अब भी दिखायी देते थे॥

विंशद्भुजं दशग्रीवं दर्शनीयपरिच्छदम्।
विशालवक्षसं वीरं राजलक्षणलक्षितम्॥८॥
नद्धवैदूर्यसंकाशं तप्तकाञ्चनभूषणम्।
सुभुजं शुक्लदशनं महास्यं पर्वतोपमम्॥९॥

उसके बीस भुजाएँ और दस मस्तक थे। उसके छत्र, चँवर और आभूषण आदि उपकरण देखने ही योग्य थे। वक्षःस्थल विशाल था। वह वीर राजोचित लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देता था। वह अपने शरीर में जो वैदूर्यमणि (नीलम) का आभूषण पहने हुए था, उसके समान ही उसके शरीर की कान्ति भी थी। उसने तपाये हुए सोने के आभूषण भी पहन रखे थे। उसकी भुजाएँ सुन्दर, दाँत सफेद, मुँह बहुत बड़ा और शरीर पर्वत के समान विशाल था॥ ८-९॥

विष्णुचक्रनिपातैश्च शतशो देवसंयुगे।
अन्यैः शस्त्रैः प्रहारैश्च महायुद्धेषु ताडितम्॥ १०॥

देवताओं के साथ युद्ध करते समय उसके अङ्गों पर सैकड़ों बार भगवान् विष्णु के चक्र का प्रहार हुआ था। बड़े-बड़े युद्धों में अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रों की भी उसपर ङ्केअर पड़ी थी ( उन सबके चिह्न दृष्टिगोचर होते थे)

अहताङ्गैः समस्तैस्तं देवप्रहरणैस्तदा।
अक्षोभ्याणां समुद्राणां क्षोभणं क्षिप्रकारिणम्॥ ११॥

देवताओं के समस्त आयुधों के प्रहारों से भी जो खण्डित न हो सके थे, उन्हीं अङ्गों से वह अक्षोभ्य समुद्रों में भी क्षोभ (हलचल) पैदा कर देता था। वह सभी कार्य बड़ी शीघ्रता से करता था॥११॥

क्षेप्तारं पर्वताग्राणां सुराणां च प्रमर्दनम्।
उच्छेत्तारं च धर्माणां परदाराभिमर्शनम्॥१२॥

पर्वतशिखरों को भी तोड़कर फेंक देता था,देवताओं को भी रौंद डालता था। धर्म की तो वह जड़ ही काट देता था और परायी स्त्रियों के सतीत्व का नाश करने वाला था।

सर्वदिव्यास्त्रयोक्तारं यज्ञविघ्नकरं सदा।
पुरीं भोगवतीं गत्वा पराजित्य च वासुकिम्॥ १३॥
तक्षकस्य प्रियां भार्यां पराजित्य जहार यः।

वह सब प्रकार के दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने वाला और सदा यज्ञों में विघ्न डालने वाला था। एक समय पाताल की भोगवती पुरी में जाकर नागराज वासुकि को परास्त करके तक्षक को भी हराकर उसकी प्यारी पत्नी को वह हर ले आया था॥ १३ १/२॥

कैलासं पर्वतं गत्वा विजित्य नरवाहनम्॥१४॥
विमानं पुष्पकं तस्य कामगं वै जहार यः।

इसी तरह कैलास पर्वत पर जाकर कुबेर को युद्ध में पराजित करके उसने उनके इच्छानुसार चलने वाले पुष्पकविमान को अपने अधिकार में कर लिया॥ १४ १/२॥

वनं चैत्ररथं दिव्यं नलिनी नन्दनं वनम्॥१५॥
विनाशयति यः क्रोधाद् देवोद्यानानि वीर्यवान्।

वह पराक्रमी निशाचर क्रोधपूर्वक कुबेर के दिव्य चैत्ररथ वन को, सौगन्धिक कमलों से युक्त नलिनी नामवाली पुष्करिणीको, इन्द्र के नन्दनवन को तथा देवताओं के दूसरे-दूसरे उद्यानों को नष्ट करता रहता था॥ १५ १/२॥

चन्द्रसूर्यौ महाभागावुत्तिष्ठन्तौ परंतपौ॥१६॥
निवारयति बाहभ्यां यः शैलशिखरोपमः।

वह पर्वत-शिखर के समान आकार धारण करके शत्रुओं को संताप देने वाले महाभाग चन्द्रमा और सूर्य को उनके उदयकाल में अपने हाथों से रोक देता था॥ १६ १/२॥

दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महावने ॥१७॥
पुरा स्वयंभुवे धीरः शिरांस्युपजहार यः।

उस धीर स्वभाव वाले रावण ने पूर्वकाल में एक विशाल वन के भीतर दस हजार वर्षां तक घोर तपस्या करके ब्रह्माजी को अपने मस्तकों की बलि दे दी थी॥ १७ १/२॥

देवदानवगन्धर्वपिशाचपतगोरगैः॥१८॥
अभयं यस्य संग्रामे मृत्युतो मानुषादृते।

उसके प्रभाव से उसे देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, पक्षी और साँसे भी संग्राम में अभय प्राप्त हो गया था। मनुष्य के सिवा और किसी के हाथ से उसे मृत्यु का भय नहीं था। १८ १/२ ।।

मन्त्रैरभिष्टुतं पुण्यमध्वरेषु द्विजातिभिः॥ १९॥
हविर्धानेषु यः सोममुपहन्ति महाबलः।

वह महाबली राक्षस सोमसवनकर्मविशिष्ट यज्ञों में द्विजातियों द्वारा वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक निकाले गये तथा वैदिक मन्त्रों से ही सुसंस्कृत एवं स्तुत हुए पवित्र सोमरस को वहाँ पहुँचकर नष्ट कर देता था। १९ १/२॥

प्राप्तयज्ञहरं दुष्टं ब्रह्मघ्नं क्रूरकारिणम्॥२०॥
कर्कशं निरनुक्रोशं प्रजानामहिते रतम्।

समाप्ति के निकट पहुँचे हुए यज्ञों का विध्वंस करने वाला वह दुष्ट निशाचर ब्राह्मणों की हत्या तथा दूसरे-दूसरे क्रूर कर्म करता था। वह बड़े ही रूखे स्वभाव का और निर्दय था। सदा प्रजाजनों के अहित में ही लगा रहता था। २० १/२॥

रावणं सर्वभूतानां सर्वलोकभयावहम्॥२१॥
राक्षसी भ्रातरं क्रूरं सा ददर्श महाबलम्।

समस्त लोकों को भय देने वाले और सम्पूर्ण प्राणियों को रुलाने वाले अपने इस महाबली क्रूर भाई को राक्षसी शूर्पणखा ने उस समय देखा॥ २१ १/२॥

तं दिव्यवस्त्राभरणं दिव्यमाल्योपशोभितम्॥ २२॥
आसने सूपविष्टं तं काले कालमिवोद्यतम्।
राक्षसेन्द्रं महाभागं पौलस्त्यकुलनन्दनम्॥२३॥

वह दिव्य वस्त्रों और आभूषणों से विभूषित था। दिव्य पुष्पों की मालाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। सिंहासन पर बैठा हुआ राक्षसराज पुलस्त्यकुलनन्दन महाभाग दशग्रीव प्रलयकाल में संहार के लिये उद्यत हुए महाकाल के समान जान पड़ता था॥ २२-२३॥

उपगम्याब्रवीद वाक्यं राक्षसी भयविह्वला।
रावणं शत्रुहन्तारं मन्त्रिभिः परिवारितम्॥२४॥

मन्त्रियों से घिरे हुए शत्रुहन्ता भाई रावण के पास जाकर भय से विह्वल हुई वह राक्षसी कुछ कहने को उद्यत हुई।॥ २४॥

तमब्रवीद् दीप्तविशाललोचनं प्रदर्शयित्वा भयलोभमोहिता।
सुदारुणं वाक्यमभीतचारिणी महात्मना शूर्पणखा विरूपिता॥ २५॥

महात्मा लक्ष्मण ने नाक-कान काटकर जिसे कुरूप कर दिया था तथा जो निर्भय विचरने वाली थी, वह भय और लोभ से मोहित हुई शूर्पणखा बड़े-बड़े चमकीले नेत्रों वाले अत्यन्त क्रूर रावण को अपनी दुर्दशा दिखाकर उससे बोली॥२५॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे द्वात्रिंशः सर्गः॥ ३२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ३२॥


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Shivangi

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