वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 33 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 33
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
त्रयस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 33)
शूर्पणखा का रावण को फटकारना
ततः शूर्पणखा दीना रावणं लोकरावणम्।
अमात्यमध्ये संक्रुद्धा परुषं वाक्यमब्रवीत्॥१॥
उस समय शूर्पणखा श्रीराम से तिरस्कृत होने के कारण बहुत दुःखी थी। उसने मन्त्रियों के बीच में बैठे हुए समस्त लोकों को रुलाने वाले रावण से अत्यन्त कुपित होकर कठोर वाणी में कहा- ॥१॥
प्रमत्तः कामभोगेषु स्वैरवृत्तो निरङ्कशः।
समुत्पन्नं भयं घोरं बोद्धव्यं नावबुध्यसे॥२॥
‘राक्षसराज! तुम स्वेच्छाचारी और निरङ्कश होकर विषय-भोगों में मतवाले हो रहे हो। तुम्हारे लिये घोरभय उत्पन्न हो गया है। तुम्हें इसकी जानकारी होनी चाहिये थी, किंतु तुम इसके विषय में कुछ नहीं जानते हो॥२॥
सक्तं ग्राम्येषु भोगेषु कामवृत्तं महीपतिम्।
लुब्धं न बहु मन्यन्ते श्मशानाग्निमिव प्रजाः॥ ३॥
‘जो राजा निम्न श्रेणी के भोगों में आसक्त हो स्वेच्छाचारी और लोभी हो जाता है, उसे मरघट की आग के समान हेय मानकर प्रजा उसका अधिक आदर नहीं करती है॥३॥
स्वयं कार्याणि यः काले नानुतिष्ठति पार्थिवः।
स तु वै सह राज्येन तैश्च कार्यैर्विनश्यति॥४॥
‘जो राजा ठीक समय पर स्वयं ही अपने कार्यों का सम्पादन नहीं करता है, वह राज्य और उन कार्यों के साथ ही नष्ट हो जाता है॥४॥
अयुक्तचारं दुर्दर्शमस्वाधीनं नराधिपम्।
वर्जयन्ति नरा दूरान्नदीपङ्कमिव द्विपाः॥५॥
‘जो राज्य की देखभाल के लिये गुप्तचरों को नियुक्त नहीं करता है, प्रजाजनों को जिसका दर्शन दुर्लभ हो जाता है और कामिनी आदि भोगों में आसक्त होने के कारण अपनी स्वाधीनता खो बैठता है, ऐसे राजा को प्रजा दूर से ही त्याग देती है। ठीक उसी तरह, जैसे हाथी नदी की कीचड़ से दूर ही रहते हैं॥५॥
ये न रक्षन्ति विषयमस्वाधीनं नराधिपाः।
ते न वृद्ध्या प्रकाशन्ते गिरयः सागरे यथा॥६॥
जो नरेश अपने राज्य के उस प्रान्त की, जो अपनी ही असावधानी के कारण दूसरे के अधिकार में चला गया हो, रक्षा नहीं करते—उसे पुनः अपने अधिकार में नहीं लाते, वे समुद्र में डूबे हुए पर्वतों की भाँति अपने अभ्युदय से प्रकाशित नहीं होते हैं।॥ ६॥
आत्मवद्भिर्विगृह्य त्वं देवगन्धर्वदानवैः।
अयुक्तचारश्चपलः कथं राजा भविष्यसि॥७॥
‘जो अपने मन को काबू में रखने वाले एवं प्रयत्नशील हैं, उन देवताओं, गन्धर्वो तथा दानवों के साथ विरोध करके तुमने अपने राज्य की देखभाल के लिये गुप्तचर नहीं नियुक्त किये हैं, ऐसी दशा में तुम जैसा विषयलोलुप चपल पुरुष कैसे राजा बना रह सकेगा? ॥ ७॥
त्वं तु बालस्वभावश्च बुद्धिहीनश्च राक्षस।
ज्ञातव्यं तन्न जानीषे कथं राजा भविष्यसि॥८॥
‘राक्षस! तुम्हारा स्वभाव बालकों-जैसा है। तुम निरे बुद्धिहीन हो। तुम्हें जानने योग्य बातों का भी ज्ञान नहीं है। ऐसी दशा में तुम किस तरह राजा बने रह सकोगे? ॥ ८॥
येषां चाराश्च कोशश्च नयश्च जयतां वर।
अस्वाधीना नरेन्द्राणां प्राकृतैस्ते जनैः समाः॥ ९॥
“विजयी वीरों में श्रेष्ठ निशाचरपते! जिन नरेशों के गुप्तचर, कोष और नीति—ये सब अपने अधीन नहीं हैं, वे साधारण लोगों के ही समान हैं॥९॥
यस्मात् पश्यन्ति दूरस्थान् सर्वानर्थान् नराधिपाः।
चारेण तस्मादुच्यन्ते राजानो दीर्घचक्षुषः ॥ १०॥
‘गुप्तचरों की सहायता से राजालोग दूर-दूर के सारे कार्यों की देखभाल करते रहते हैं, इसीलिये वे दीर्घदर्शी या दूरदर्शी कहलाते हैं॥ १० ॥
अयुक्तचारं मन्ये त्वां प्राकृतैः सचिवैर्युतः।
स्वजनं च जनस्थानं निहतं नावबुध्यसे॥११॥
मैं समझती हूँ, तुम गवाँर मन्त्रियों से घिरे हुए हो, तभी तो तुमने अपने राज्य के भीतर गुप्तचर नहीं तैनात किये हैं। तुम्हारे स्वजन मारे गये और जनस्थान उजाड़ हो गया, फिर भी तुम्हें इसका पता नहीं लगा है।॥ ११॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्।
हतान्येकेन रामेण खरश्च सहदूषणः॥१२॥
ऋषीणामभयं दत्तं कृतक्षेमाश्च दण्डकाः।
धर्षितं च जनस्थानं रामेणाक्लिष्टकारिणा॥ १३॥
‘अकेले राम ने, जो अनायास ही महान् कर्म करने वाले हैं, भीमकर्मा राक्षसों की चौदह हजार सेना को यमलोक पहुँचा दिया, खर और दूषण के भी प्राण ले लिये, ऋषियों को भी अभय दान कर दिया तथा दण्डकारण्य में राक्षसों की ओर से जो विघ्नबाधाएँ थीं, उन सबको दूर करके वहाँ शान्ति स्थापित कर दी। जनस्थान को तो उन्होंने चौपट ही कर डाला।। १२-१३॥
त्वं तु लुब्धः प्रमत्तश्च पराधीनश्च राक्षस।
विषये स्वे समुत्पन्नं यद् भयं नावबुध्यसे॥१४॥
‘राक्षस! तुम तो लोभ और प्रमाद में फँसकर पराधीन हो रहे हो, अतः अपने ही राज्य में उत्पन्न हुए भय का तुम्हें कुछ पता ही नहीं है॥ १४ ॥
तीक्ष्णमल्पप्रदातारं प्रमत्तं गर्वितं शठम्।
व्यसने सर्वभूतानि नाभिधावन्ति पार्थिवम्॥ १५॥
‘जो राजा कठोरतापूर्ण बर्ताव करता अथवा तीखे स्वभाव का परिचय देता है, सेवकों को बहुत कम वेतन देता है, प्रमाद में पड़ा और गर्व में भरा रहता है तथा स्वभाव से ही शठ होता है, उसके संकट में पड़ने पर सभी प्राणी उसका साथ छोड़ देते हैं उसकी सहायता के लिये आगे नहीं बढ़ते हैं।
अतिमानिनमग्राह्यमात्मसम्भावितं नरम्।
क्रोधनं व्यसने हन्ति स्वजनोऽपि नराधिपम्॥ १६॥
‘जो अत्यन्त अभिमानी, अपनाने के अयोग्य, आप ही अपने को बहुत बड़ा मानने वाला और क्रोधी होता है, ऐसे नर अथवा नरेश को संकटकाल में आत्मीय जन भी मार डालते हैं॥ १६॥
नानुतिष्ठति कार्याणि भयेषु न बिभेति च।
क्षिप्रं राज्याच्च्युतो दीनस्तृणैस्तुल्यो भवेदिह॥ १७॥
‘जो राजा अपने कर्तव्य का पालन अथवा करने योग्य कार्यों का सम्पादन नहीं करता तथा भय के अवसरों पर भयभीत (एवं अपनी रक्षा के लिये सावधान) नहीं होता, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट एवं दीन होकर इस भूतल पर तिनकों के समान उपेक्षणीय हो जाता है।॥ १७॥
शुष्ककाष्ठैर्भवेत् कार्यं लोष्ठैरपि च पांसुभिः।
न तु स्थानात् परिभ्रष्टैः कार्यं स्याद् वसुधाधिपैः॥ १८॥
‘लोगों को सूखे काठों से, मिट्टी के ढेलों तथा धूल से भी कुछ प्रयोजन होता है, किंतु स्थानभ्रष्ट राजाओं से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं रहता॥ १८ ॥
उपभुक्तं यथा वासः स्रजो वा मृदिता यथा।
एवं राज्यात् परिभ्रष्टः समर्थोऽपि निरर्थकः॥
‘जैसे पहना हुआ वस्त्र और मसल डाली गयी फूलों की माला दूसरों के उपयोग में आने योग्य नहीं होती, इसी प्रकार राज्य से भ्रष्ट हुआ राजा समर्थ होने पर भी दूसरों के लिये निरर्थक है॥ १९॥
अप्रमत्तश्च यो राजा सर्वज्ञो विजितेन्द्रियः।
कृतज्ञो धर्मशीलश्च स राजा तिष्ठते चिरम्॥ २०॥
‘परंतु जो राजा सदा सावधान रहता, राज्य के समस्त कार्यों की जानकारी रखता, इन्द्रियों को वश में किये रहता, कृतज्ञ (दूसरों के उपकार को मानने वाला) तथा स्वभाव से ही धर्मपरायण होता है, वह राजा बहुत दिनों तक राज्य करता है॥ २० ॥
नयनाभ्यां प्रसुप्तो वा जागर्ति नयचक्षुषा।
व्यक्तक्रोधप्रसादश्च स राजा पूज्यते जनैः॥ २१॥
‘जो स्थूल आँखों से तो सोता है, परंतु नीति की आँखों से सदा जागता रहता है तथा जिसके क्रोध और अनुग्रह का फल प्रत्यक्ष प्रकट होता है, उसी राजा की लोग पूजा करते हैं॥२१॥
त्वं तु रावण दुर्बुद्धिर्गुणैरेतैर्विवर्जितः।
यस्य तेऽविदितश्चारै रक्षसां सुमहान् वधः॥ २२॥
‘रावण! तुम्हारी बुद्धि दूषित है और तुम इन सभी राजोचित गुणों से वञ्चित हो; क्योंकि तुम्हें अबतक गुप्तचरों की सहायता से राक्षसों के इस महान् संहार का समाचार ज्ञात नहीं हो सका था॥ २२॥
परावमन्ता विषयेषु सङ्गवान् न देशकालप्रविभागतत्त्ववित्।
अयुक्तबुद्धिर्गुणदोषनिश्चये विपन्नराज्यो न चिराद् विपत्स्यसे॥२३॥
‘तुम दूसरों का अनादर करने वाले, विषयासक्त और देश-काल के विभाग को यथार्थ रूप से न जानने वाले हो, तुमने गुण और दोष के विचार एवं निश्चय में कभी अपनी बुद्धि को नहीं लगाया है, अतः तुम्हारा राज्य शीघ्र हीनष्ट हो जायगा और तुम स्वयं भी भारी विपत्ति में पड़ जाओगे’।
इति स्वदोषान् परिकीर्तितांस्तथा समीक्ष्य बुद्ध्या क्षणदाचरेश्वरः।
धनेन दर्पण बलेन चान्वितो विचिन्तयामास चिरं स रावणः॥२४॥
शूर्पणखा के द्वारा कहे गये अपने दोषों पर बुद्धिपूर्वक विचार करके धन, अभिमान और बल से सम्पन्न वह निशाचर रावण बहुत देर तक सोच विचार एवं चिन्ता में पड़ा रहा।॥ २४ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रयस्त्रिंशः सर्गः ॥३३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३३॥
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