RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 35 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 35

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चत्रिंशः सर्गः (सर्ग 35)

रावण का समुद्रतटवर्ती प्रान्त की शोभा देखते हुए पुनः मारीच के पास जाना

 

ततः शूर्पणखावाक्यं तच्छ्रुत्वा रोमहर्षणम्।
सचिवानभ्यनुज्ञाय कार्यं बुद्ध्वा जगाम ह॥१॥

शूर्पणखा की ये रोंगटे खड़ी कर देने वाली बातें सुनकर रावण मन्त्रियों से सलाह ले अपने कर्तव्य का निश्चय करके वहाँ से चल दिया॥१॥

तत् कार्यमनुगम्यान्तर्यथावदुपलभ्य च।
दोषाणां च गुणानां च सम्प्रधार्य बलाबलम्॥ २॥
इति कर्तव्यमित्येव कृत्वा निश्चयमात्मनः।
स्थिरबुद्धिस्ततो रम्यां यानशालां जगाम ह॥३॥

उसने पहले सीताहरणरूपी कार्य पर मन-ही-मन विचार किया। फिर उसके दोषों और गुणों का यथावत् ज्ञान प्राप्त करके बलाबल का निश्चय किया। अन्त में यह स्थिर किया कि इस काम को करना ही
चाहिये। जब इस बात पर उसकी बुद्धि जम गयी, तब वह रमणीय रथशाला में गया॥ २-३॥

यानशालां ततो गत्वा प्रच्छन्नं राक्षसाधिपः।
सूतं संचोदयामास रथः संयुज्यतामिति॥४॥

गुप्त रूप से रथशाला में जाकर राक्षसराज रावण ने अपने सारथि को यह आज्ञा दी कि ‘मेरा रथ जोतकर तैयार करो’ ॥ ४॥

एवमुक्तः क्षणेनैव सारथिर्लघुविक्रमः।
रथं संयोजयामास तस्याभिमतमुत्तमम्॥५॥

सारथि शीघ्रतापूर्वक कार्य करने में कुशल था। रावण की उपर्युक्त आज्ञा पाकर उसने एक ही क्षण में उसके मन के अनुकूल उत्तम रथ जोतकर तैयार कर दिया॥ ५॥

कामगं रथमास्थाय काञ्चनं रत्नभूषितम्।
पिशाचवदनैर्युक्तं खरैः कनकभूषणैः॥६॥

वह रथ इच्छानुसार चलने वाला तथा सुवर्णमय था। उसे रत्नों से विभूषित किया गया था। उसमें सोने के साज-बाजों से सजे हुए गधे जुते थे, जिनका मुख पिशाचों के समान था। रावण उस पर आरूढ़ होकर चला॥ ६॥

मेघप्रतिमनादेन स तेन धनदानुजः।
राक्षसाधिपतिः श्रीमान् ययौ नदनदीपतिम्॥७॥

वह रथ मेघ-गर्जना के समान गम्भीर घर-घर ध्वनि फैलाता हुआ चलता था। उसके द्वारा वह कुबेर का छोटा भाई श्रीमान् राक्षसराज रावण समुद्र के तट पर गया॥७॥

स श्वेतवालव्यजनः श्वेतच्छत्रो दशाननः।
स्निग्धवैदूर्यसंकाशस्तप्तकाञ्चनभूषणः॥८॥
दशग्रीवो विंशतिभुजो दर्शनीयपरिच्छदः।
त्रिदशारिर्मुनीन्द्रघ्नो दशशीर्ष इवाद्रिराट् ॥९॥

उस समय उसके लिये सफेद चँवर से हवा की जा रही थी। सिर के ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। उसकी अङ्गकान्ति स्निग्ध वैदूर्यमणि के समान नीली या काली थी। वह पक्के सोने के आभूषणों से विभूषित था। उसके दस मुख, दस कण्ठ और बीस भुजाएँ थीं। उसके वस्त्राभूषण आदि अन्य उपकरण भी देखने ही योग्य थे। देवताओं का शत्रु और मुनीश्वरों का हत्यारा वह निशाचर दस शिखरों वाले पर्वतराज के समान प्रतीत होता था॥ ८-९॥

कामगं रथमास्थाय शुशुभे राक्षसाधिपः।
विद्युन्मण्डलवान् मेघः सबलाक इवाम्बरे ॥ १०॥

इच्छानुसार चलने वाले उस रथ पर आरूढ़ हो राक्षसराज रावण आकाश में विद्युन्मण्डल से घिरे हुए तथा वकपंक्तियों से सुशोभित मेघ के समान शोभा पा रहा था॥ १० ॥

सशैलसागरानूपं वीर्यवानवलोकयन्।
नानापुष्पफलैर्वृक्षैरनुकीर्णं सहस्रशः॥११॥
शीतमङ्गलतोयाभिः पद्मिनीभिः समन्ततः।
विशालैराश्रमपदैर्वेदिमद्भिरलंकृतम्॥१२॥

पराक्रमी रावण पर्वतयुक्त समुद्र के तट पर पहुँचकर उसकी शोभा देखने लगा। सागर का वह किनारा नाना प्रकार के फल-फूलवाले सहस्रों वृक्षों से व्याप्त था। चारों ओर मङ्गलकारी शीतल जल से भरी हुई पुष्करिणियाँ और वेदिकाओं से मण्डित विशाल आश्रम उस सिन्धुतट की शोभा बढ़ा रहे थे॥ ११-१२ ॥

कदल्यटविसंशोभं नारिकेलोपशोभितम्।
सालैस्तालैस्तमालैश्च तरुभिश्च सुपुष्पितैः॥ १३॥

कहीं कदलीवन और कहीं नारियल के कुञ्ज शोभा दे रहे थे। साल, ताल, तमाल तथा सुन्दर फूलों से भरे हुए दूसरे-दूसरे वृक्ष उस तटप्रान्त को अलंकृत कर रहे थे॥

अत्यन्तनियताहारैः शोभितं परमर्षिभिः।
नागैः सुपर्णैर्गन्धर्वैः किंनरैश्च सहस्रशः॥१४॥

अत्यन्त नियमित आहार करने वाले बड़े-बड़े महर्षियों, नागों, सुपर्णों (गरुड़ों), गन्धर्वो तथा सहस्रों किन्नरों से भी उस स्थान की बड़ी शोभा हो रही थी॥ १४॥

जितकामैश्च सिद्धैश्च चारणैश्चोपशोभितम्।
आजैर्वैखानसैर्माषैर्वालखिल्यैर्मरीचिपैः॥ १५॥

कामविजयी सिद्धों, चारणों, ब्रह्माजी के पुत्रों, वानप्रस्थों, माष गोत्र में उत्पन्न मुनियों, बालखिल्य महात्माओं तथा केवल सूर्य-किरणों का पान करने वाले तपस्वीजनों से भी वह सागर का तटप्रान्त सुशोभित हो रहा था। १५॥

दिव्याभरणमाल्याभिर्दिव्यरूपाभिरावृतम्।
क्रीडारतविधिज्ञाभिरप्सरोभिः सहस्रशः॥१६॥
सेवितं देवपत्नीभिः श्रीमतीभिरुपासितम्।
देवदानवसङ्घश्च चरितं त्वमृताशिभिः॥१७॥

दिव्य आभूषणों और पुष्पमालाओं को धारण करने वाली तथा क्रीड़ा-विहार की विधि को जानने वाली सहस्रों दिव्यरूपिणी अप्सराएँ वहाँ सब ओर विचर रही थीं। कितनी ही शोभाशालिनी देवाङ्गनाएँ उस सिन्धुतट का सेवन करती हुई आस-पास बैठी थीं। देवताओं और दानवों के समूह तथा अमृतभोजी देवगण वहाँ विचर रहे थे॥ १६-१७ ॥

हंसक्रौञ्चप्लवाकीर्णं सारसैः सम्प्रसादितम्।
वैदूर्यप्रस्तरं स्निग्धं सान्द्रं सागरतेजसा॥१८॥

सिन्धु का वह तट समुद्र के तेज से उसकी तरङ्गमालाओं के स्पर्श से स्निग्ध एवं शीतल था। वहाँ हंस, क्रौञ्च तथा मेढक सब ओर फैले हुए थे और सारस उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस तट पर वैदर्यमणि के सदृश श्याम रंग के प्रस्तर दिखायी देते थे॥१८॥

पाण्डुराणि विशालानि दिव्यमाल्ययुतानि च।
तूर्यगीताभिजुष्टानि विमानानि समन्ततः॥१९॥
तपसा जितलोकानां कामगान्यभिसम्पतन्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव ददर्श धनदानुजः॥२०॥

आकाशमार्ग से यात्रा करते हुए कुबेर के छोटे भाई रावण ने रास्ते में सब ओर बहुत-से श्वेत वर्ण के विमानों, गन्धर्वो तथा अप्सराओं को भी देखा। वे इच्छानुसार चलने वाले विशाल विमान उन पुण्यात्मा
पुरुषों के थे, जिन्होंने तपस्या से पुण्यलोकों पर विजय पायी थी। उन विमानों को दिव्य पुष्पों से सजाया गयाथा और उनके भीतर से गीत-वाद्य की ध्वनि प्रकट हो रही थी। १९-२०॥

निर्यासरसमूलानां चन्दनानां सहस्रशः।
वनानि पश्यन् सौम्यानि घ्राणतृप्तिकराणि च॥ २१॥

आगे बढ़ने पर उसने, जिनकी जड़ों से गोंद निकले हुए थे, ऐसे चन्दनों के सहस्रों वन देखे, जो बड़े ही सुहावने और अपनी सुगन्ध से नासिका को तृप्त करने वाले थे॥ २१॥

अगुरूणां च मुख्यानां वनान्युपवनानि च।
तक्कोलानां च जात्यानां फलिनां च सुगन्धिनाम्॥ २२॥
पुष्पाणि च तमालस्य गुल्मानि मरिचस्य च।
मुक्तानां च समूहानि शुष्यमाणानि तीरतः॥२३॥
शैलानि प्रवरांश्चैव प्रवालनिचयांस्तथा।
काञ्चनानि च शृङ्गाणि राजतानि तथैव च॥ २४॥
प्रस्रवाणि मनोज्ञानि प्रसन्नान्यद्भुतानि च।
धनधान्योपपन्नानि स्त्रीरत्नैरावृतानि च॥२५॥
हस्त्यश्वरथगाढानि नगराणि विलोकयन्।

कहीं श्रेष्ठ अगुरु के वन थे, कहीं उत्तम जाति के सुगन्धित फल वाले तक्कोलों (वृक्ष विशेषों) के उपवन थे। कहीं तमाल के फूल खिले हुए थे। कहीं गोल मिर्च की झाड़ियाँ शोभा पाती थीं और कहीं समुद्र के तट पर ढेर-के-ढेर मोती सूख रहे थे। कहीं श्रेष्ठ पर्वतमालाएँ, कहीं मूगों की राशियाँ, कहीं सोनेचाँदी के शिखर तथा कहीं सुन्दर, अद्भुत और स्वच्छ पानी के झरने दिखायी देते थे। कहीं धन-धान्य से सम्पन्न, स्त्री-रत्नों से भरे हुए तथा हाथी, घोड़े और रथों से व्याप्त नगर दृष्टिगोचर होते थे। इन सबको देखता हुआ रावण आगे बढ़ा॥ २२–२५ १/२ ॥

तं समं सर्वतः स्निग्धं मृदुसंस्पर्शमारुतम्॥ २६॥
अनूपे सिन्धुराजस्य ददर्श त्रिदिवोपमम्।

फिर उसने सिंधुराज के तट पर एक ऐसा स्थान देखा, जो स्वर्ग के समान मनोहर, सब ओर से समतलऔर स्निग्ध था। वहाँ मन्द-मन्द वायु चलती थी, जिसका स्पर्श बड़ा कोमल जान पड़ता था॥ २६ १/२॥

तत्रापश्यत् स मेघाभं न्यग्रोधं मुनिभिर्वृतम्॥ २७॥
समन्ताद् यस्य ताः शाखाः शतयोजनमायताः।

वहाँ सागर तट पर एक बरगद का वृक्ष दिखायी दिया, जो अपनी घनी छाया के कारण मेघों की घटा के समान प्रतीत होता था। उसके नीचे चारों ओर मुनि निवास करते थे। उस वृक्ष की सुप्रसिद्ध शाखाएँ चारों ओर सौ योजनों तक फैली हुई थीं॥ २७ १/२ ॥

यस्य हस्तिनमादाय महाकायं च कच्छपम्॥ २८॥
भक्षार्थं गरुडः शाखामाजगाम महाबलः।

यह वही वृक्ष था, जिसकी शाखा पर किसी समय महाबली गरुड़ एक विशालकाय हाथी और कछुए को लेकर उन्हें खाने के लिये आ बैठे थे॥ २८ १/२॥

तस्य तां सहसा शाखां भारेण पतगोत्तमः॥२९॥
सुपर्णः पर्णबहुलां बभञ्जाथ महाबलः।

पक्षियों में श्रेष्ठ महाबली गरुड़ ने बहुसंख्यक पत्तों से भरी हुई उस शाखा को सहसा अपने भार से तोड़ डाला था॥ २९ १/२॥

तत्र वैखानसा माषा वालखिल्या मरीचिपाः॥ ३०॥
आजा बभूवुधूम्राश्च संगताः परमर्षयः।

उस शाखा के नीचे बहुत-से वैखानस, माष, बालखिल्य, मरीचिप (सूर्य-किरणों का पान करने वाले), ब्रह्मपुत्र और धूम्रप संज्ञा वाले महर्षि एक साथ रहते थे। ३० १/२॥

तेषां दयार्थं गरुडस्तां शाखां शतयोजनाम्॥ ३१॥
भग्नामादाय वेगेन तौ चोभौ गजकच्छपौ।
एकपादेन धर्मात्मा भक्षयित्वा तदामिषम् ॥ ३२॥
निषादविषयं हत्वा शाखया पतगोत्तमः।
प्रहर्षमतुलं लेभे मोक्षयित्वा महामुनीन्॥३३॥

उन पर दया करके उनके जीवन की रक्षा करने के लिये पक्षियों में श्रेष्ठ धर्मात्मा गरुड़ ने उस टूटी हुई सौयोजन लंबी शाखा को और उन दोनों हाथी तथा कछुए को भी वेगपूर्वक एक ही पंजे से पकड़ लिया तथा आकाश में ही उन दोनों जंतुओं के मांस खाकर फेंकी हुई उस डाली के द्वारा निषाद देश का संहार कर डाला। उस समय पूर्वोक्त महामुनियों को मृत्यु के संकट से बचा लेने से गरुड़ को अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ॥ ३१-३३॥

स तु तेन प्रहर्षेण द्विगुणीकृतविक्रमः।
अमृतानयनार्थं वै चकार मतिमान् मतिम्॥३४॥

उस महान् हर्ष से बुद्धिमान् गरुड़ का पराक्रम दूना हो गया और उन्होंने अमृत ले आने के लिये पक्का निश्चय कर लिया॥ ३४॥

अयोजालानि निर्मथ्य भित्त्वा रत्नगृहं वरम्।
महेन्द्रभवनाद् गुप्तमाजहारामृतं ततः॥ ३५॥

तत्पश्चात् इन्द्रलोक में जाकर उन्होंने इन्द्रभवन की उन जालियों को तोड़ डाला, जो लोहे की सींकचों से बनी हुई थीं। फिर रत्ननिर्मित श्रेष्ठ भवन को नष्ट-भ्रष्ट करके वहाँ छिपाकर रखे हुए अमृत को वे महेन्द्रभवन से हर लाये॥ ३५ ॥

तं महर्षिगणैर्जुष्टं सुपर्णकृतलक्षणम्।
नाम्ना सुभद्रं न्यग्रोधं ददर्श धनदानुजः॥ ३६॥

गरुड़ के द्वारा तोड़ी हुई डाली का वह चिह्न उस बरगद में उस समय भी मौजूद था। उस वृक्ष का नाम था सुभद्रवट। बहुत-से महर्षि उस वृक्ष की छाया में निवास करते थे। कुबेर के छोटे भाई रावण ने उस वटवृक्ष को देखा ॥ ३६॥

तं तु गत्वा परं पारं समुद्रस्य नदीपतेः।
ददर्शाश्रममेकान्ते पुण्ये रम्ये वनान्तरे॥३७॥

नदियों के स्वामी समुद्र के दूसरे तट पर जाकर उसने एक रमणीय वन के भीतर पवित्र एवं एकान्त स्थान में एक आश्रम का दर्शन किया॥ ३७॥

तत्र कृष्णाजिनधरं जटामण्डलधारिणम्।
ददर्श नियताहारं मारीचं नाम राक्षसम्॥३८॥

वहाँ शरीर में काला मृगचर्म और सिर पर जटाओं का समूह धारण किये नियमित आहार करते हुए मारीच नामक राक्षस निवास करता था। रावण वहाँ जाकर उससे मिला॥ ३८॥

स रावणः समागम्य विधिवत् तेन रक्षसा।
मारीचेनार्चितो राजा सर्वकामैरमानुषैः ॥ ३९॥

मिलने पर उस राक्षस मारीच ने सब प्रकार के अलौकिक कमनीय पदार्थ अर्पित करके राजा रावण का विधिपूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया॥ ३९ ॥

तं स्वयं पूजयित्वा च भोजनेनोदकेन च।
अर्थोपहितया वाचा मारीचो वाक्यमब्रवीत्॥ ४०॥

अन्न और जल से स्वयं उसका पूर्ण सत्कार करके मारीच ने प्रयोजन की बातें पूछते हुए उससे इस प्रकार कहा- ॥ ४०॥

कच्चित्ते कुशलं राजन् लङ्कायां राक्षसेश्वर।
केनार्थेन पुनस्त्वं वै तूर्णमेव इहागतः॥४१॥

‘राजन् ! तुम्हारी लङ्का में कुशल तो है ? राक्षसराज! तुम किस काम के लिये पुनः इतनी जल्दी यहाँ आये हो?॥

एवमुक्तो महातेजा मारीचेन स रावणः।
ततः पश्चादिदं वाक्यमब्रवीद् वाक्यकोविदः॥ ४२॥

मारीच के इस प्रकार पूछने पर बातचीत करने में कुशल महातेजस्वी रावण ने उससे इस प्रकार कहा

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चत्रिंशः सर्गः ॥३५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३५॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 35 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 35

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: