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वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 36 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 36

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 36)

रावण का मारीच से श्रीराम के अपराध बताकर उनकी पत्नी सीता के अपहरण में सहायता के लिये कहना

 

मारीच श्रूयतां तात वचनं मम भाषतः।
आर्तोऽस्मि मम चार्तस्य भवान् हि परमा गतिः॥

‘तात मारीच! मैं सब बता रहा हूँ। मेरी बात सुनो। इस समय मैं बहुत दुःखी हूँ और इस दुःख की अवस्था में तुम्हीं मुझे सबसे बढ़कर सहारा देने वाले हो॥१॥

जानीषे त्वं जनस्थानं भ्राता यत्र खरो मम।
दूषणश्च महाबाहुः स्वसा शूर्पणखा च मे ॥२॥
त्रिशिराश्च महाबाहू राक्षसः पिशिताशनः।
अन्ये च बहवः शूरा लब्धलक्षा निशाचराः॥३॥

‘तुम जनस्थान को जानते हो, जहाँ मेरा भाई खर, महाबाहु दूषण, मेरी बहिन शूर्पणखा, मांसभोजी राक्षस महाबाहु त्रिशिरा तथा और भी बहुत-से लक्ष्यवेध में कुशल शूरवीर निशाचर रहा करते थे। २-३॥

वसन्ति मन्नियोगेन अधिवासं च राक्षसाः।
बाधमाना महारण्ये मुनीन् ये धर्मचारिणः॥४॥

‘वे सभी राक्षस मेरी आज्ञा से वहाँ घर बनाकर रहते थे और उस विशाल वन में जो धर्माचरण करने वाले मुनि थे, उन्हें सताया करते थे॥४॥

चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्।
शूराणां लब्धलक्षाणां खरचित्तानुवर्तिनाम्॥५॥

‘वहाँ खर के मन का अनुसरण करने वाले तथा युद्धविषयक उत्साह से सम्पन्न चौदह हजार शूरवीर राक्षस रहते थे, जो भयंकर कर्म करने वाले थे॥५॥

ते त्विदानीं जनस्थाने वसमाना महाबलाः।
सङ्गताः परमायत्ता रामेण सह संयुगे॥६॥

‘जनस्थान में निवास करने वाले जितने महाबली राक्षस थे, वे सब-के-सब उस समय अच्छी तरह सन्नद्ध होकर युद्धक्षेत्र में राम के साथ जा भिड़े थे। ६॥

नानाशस्त्रप्रहरणाः खरप्रमुखराक्षसाः।
तेन संजातरोषेण रामेण रणमूर्धनि॥७॥
अनुक्त्वा परुषं किंचिच्छरैर्व्यापारितं धनुः।

‘वे खर आदि राक्षस नाना प्रकार के अस्त्रशस्त्रों का प्रहार करने में कुशल थे, परंतु युद्ध के मुहाने पर रोष में भरे हुए श्रीराम ने अपने मुँह से कोई कड़वी बात न कहकर बाणों के साथ धनुष का ही व्यापार आरम्भ किया॥ ७ १/२ ।।

चतुर्दश सहस्राणि रक्षसामुग्रतेजसाम्॥८॥
निहतानि शरैर्दीप्तैर्मानुषेण पदातिना।
खरश्च निहतः संख्ये दूषणश्च निपातितः॥९॥
हत्वा त्रिशिरसं चापि निर्भया दण्डकाः कृताः।

‘पैदल और मनुष्य होकर भी राम ने अपने दमकते हुए बाणों से भयंकर तेजवाले चौदह हजार राक्षसों का विनाश कर डाला और उसी युद्ध में खर को भी मौत के घाट उतारकर दूषण को भी मार गिराया। साथ ही त्रिशिरा का वध करके उसने दण्डकारण्य को दूसरों के लिये निर्भय बना दिया॥ ८-९ १/२ ॥

पित्रा निरस्तः क्रुद्धेन सभार्यः क्षीणजीवितः॥ १०॥
स हन्ता तस्य सैन्यस्य रामः क्षत्रियपांसनः।

‘उसके पिता ने कुपित होकर उसे पत्नीसहित घर से निकाल दिया है। उसका जीवन क्षीण हो चला है। यह क्षत्रियकुल-कलङ्क राम ही उस राक्षस-सेना का घातक है॥ १० १/२॥

अशीलः कर्कशस्तीक्ष्णो मूर्यो लुब्धोऽजितेन्द्रियः॥११॥
त्यक्तधर्मा त्वधर्मात्मा भूतानामहिते रतः।
येन वैरं विनारण्ये सत्त्वमास्थाय केवलम्॥१२॥
कर्णनासापहारेण भगिनी मे विरूपिता।
अस्य भार्यां जनस्थानात् सीतां सुरसुतोपमाम्॥ १३॥

ङ्केआनयिष्यामि विक्रम्य सहायस्तत्र में भी ‘वह शीलरहित, क्रूर, तीखे स्वभाव वाला, मूर्ख, लोभी, अजितेन्द्रिय, धर्मत्यागी, अधर्मात्मा और समस्त प्राणियों के अहित में तत्पर रहने वाला है। जिसने बिना किसी वैर-विरोध के केवल बल का आश्रय ले मेरी बहिन के नाक-कान काटकर उसका रूप बिगाड़ दिया, उससे बदला लेने के लिये मैं भी उसकी देवकन्या के समान सुन्दरी पत्नी सीता को जनस्थान से बलपूर्वक हर लाऊँगा। तुम उस कार्य में मेरी सहायता करो॥ ११–१३ १/२ ।।

त्वया ह्यहं सहायेन पावस्थेन महाबल॥१४॥
भ्रातृभिश्च सुरान् सर्वान् नाहमत्राभिचिन्तये।
तत्सहायो भव त्वं मे समर्थो ह्यसि राक्षस॥१५॥

‘महाबली राक्षस! तुम-जैसे पार्श्ववर्ती सहायक के और अपने भाइयों के बलपर ही मैं समस्त देवताओं की यहाँ कोई परवा नहीं करता, अतः तुम मेरे सहायक हो जाओ; क्योंकि तुम मेरी सहायता करने में समर्थ हो॥

वीर्ये युद्धे च दर्प च न ह्यस्ति सदृशस्तव।
उपायतो महान् शूरो महामायाविशारदः॥१६॥

‘पराक्रम में, युद्ध में और वीरोचित अभिमान में तुम्हारे समान कोई नहीं है। नाना प्रकार के उपाय बताने में भी तुम बड़े बहादुर हो। बड़ी-बड़ी मायाओं का प्रयोग करने में भी विशेष कुशल हो॥ १६॥

एतदर्थमहं प्राप्तस्त्वत्समीपं निशाचर।
शृणु तत् कर्म साहाय्ये यत् कार्यं वचनान्मम॥ १७॥

‘निशाचर! इसीलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ। सहायता के लिये मेरे कथनानुसार तुम्हें कौन-सा काम करना है, वह भी सुनो॥ १७॥

सौवर्णस्त्वं मृगो भूत्वा चित्रो रजतबिन्दुभिः।
आश्रमे तस्य रामस्य सीतायाः प्रमुखे चर॥१८॥

‘तुम सोने के बने हुए मृग-जैसा रूप धारण करके रजतमय बिन्दुओं से युक्त चितकबरे हो जाओ और राम के आश्रम में सीता के सामने विचरो॥ १८॥

त्वां तु निःसंशयं सीता दृष्ट्वा तु मृगरूपिणम्।
गृह्यतामिति भर्तारं लक्ष्मणं चाभिधास्यति॥१९॥

‘विचित्र मृग के रूप में तुम्हें देखकर सीता अवश्य ही अपने पति राम से तथा लक्ष्मण से भी कहेगी कि आपलोग इसे पकड़ लावें॥ १९॥

ततस्तयोरपाये तु शून्ये सीतां यथासुखम्।
निराबाधो हरिष्यामि राहुश्चन्द्रप्रभामिव॥२०॥

‘जब वे दोनों तुम्हें पकड़ने के लिये दूर निकल जायँगे, तब मैं बिना किसी विघ्न-बाधा के  सूने आश्रम से सीता को उसी तरह सुखपूर्वक हर लाऊँगा, जैसे राहु चन्द्रमा की प्रभा का अपहरण कर लेता है। २०॥

ततः पश्चात् सुखं रामे भार्याहरणकर्शिते।
विश्रब्धं प्रहरिष्यामि कृतार्थेनान्तरात्मना॥२१॥

“उसके बाद स्त्री का अपहरण हो जाने से जब राम अत्यन्त दुःखी और दुर्बल हो जायगा, उस समय मैं निर्भय हो सुखपूर्वक उसके ऊपर कृतार्थचित्त से प्रहार करूँगा’ ॥ २१॥

तस्य रामकथां श्रुत्वा मारीचस्य महात्मनः।
शुष्कं समभवद् वक्त्रं परित्रस्तो बभूव च॥ २२॥

रावण के मुख से श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा सुनकर महात्मा मारीच का मुँह सूख गया। वह भय से थर्रा उठा॥

ओष्ठौ परिलिहन् शुष्कौ नेत्रैरनिमिषैरिव।
मृतभूत इवार्तस्तु रावणं समुदैक्षत॥२३॥

वह अपलक नेत्रों से देखता हुआ अपने सूखे ओठों को चाटने लगा। उसे इतना दुःख हुआ कि वह मुर्दा-सा दिखायी देने लगा। उसी अवस्था में उसने रावण की ओर देखा ॥ २३॥

स रावणं त्रस्तविषण्णचेता महावने रामपराक्रमज्ञः।
कृताञ्जलिस्तत्त्वमुवाच वाक्यं हितं च तस्मै हितमात्मनश्च ॥ २४॥

उसे महान् वन में श्रीरामचन्द्रजी के पराक्रम का ज्ञान हो चुका था; इसलिये वह मन-ही-मन अत्यन्त भयभीत और दुःखी हो गया तथा हाथ जोड़कर रावण से यथार्थ वचन बोला। उसकी वह बात रावण के तथा अपने लिये भी हितकर थी॥ २४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे षट्त्रिंशः सर्गः॥ ३६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३६॥


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Shivangi

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