वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 39 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 39
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 39)
मारीच का रावण को समझाना
एवमस्मि तदा मुक्तः कथंचित् तेन संयुगे।
इदानीमपि यद् वृत्तं तच्छृणुष्व यदुत्तरम्॥१॥
‘इस प्रकार इस समय तो मैं किसी तरह श्रीरामचन्द्रजी के हाथ से जीवित बच गया। उसके बाद इन दिनों जो घटना घटित हुई है, उसे भी सुन लो॥ १॥
राक्षसाभ्यामहं द्वाभ्यामनिर्विण्णस्तथाकृतः।
सहितो मृगरूपाभ्यां प्रविष्टो दण्डकावने॥२॥
‘श्रीराम ने मेरी वैसी दुर्दशा कर दी थी, तो भी मैं उनके विरोध से बाज नहीं आया। एक दिन मृगरूपधारी दो राक्षसों के साथ मैं भी मृग का ही रूप धारण करके दण्डक वन में गया॥२॥
दीप्तजिह्वो महादंष्ट्रस्तीक्ष्णशृङ्गो महाबलः।
व्यचरन् दण्डकारण्यं मांसभक्षो महामृगः ॥३॥
‘मैं महान् बलशाली तो था ही, मेरी जीभ आग के समान उद्दीप्त हो रही थी। दाढ़ें भी बहुत बड़ी थीं,सींग तीखे थे और मैं महान् मृग के रूपमें मांस खाता हुआ दण्डकारण्य में विचरने लगा॥३॥
अग्निहोत्रेषु तीर्थेषु चैत्यवृक्षेषु रावण।
अत्यन्तघोरो व्यचरंस्तापसांस्तान् प्रधर्षयन्॥४॥
‘रावण! मैं अत्यन्त भयंकर रूप धारण किये अग्निशालाओं में, जलाशयों के घाटों पर तथा देववृक्षों के नीचे बैठे हुए तपस्वीजनों को तिरस्कृत करता हुआ सब ओर विचरण करने लगा॥ ४॥
निहत्य दण्डकारण्ये तापसान् धर्मचारिणः।
रुधिराणि पिबंस्तेषां तन्मांसानि च भक्षयन् ॥५॥
‘दण्डकारण्य के भीतर धर्मानुष्ठान में लगे हुए तापसों को मारकर उनका रक्त पीना और मांस खाना यही मेरा काम था॥५॥
ऋषिमांसाशनः क्रूरस्त्रासयन् वनगोचरान्।
तदा रुधिरमत्तोऽहं व्यचरं दण्डकावनम्॥६॥
‘मेरा स्वभाव तो क्रूर था ही, मैं ऋषियों के मांस खाता और वन में विचरने वाले प्राणियों को डराता हुआ रक्तपान करके मतवाला हो दण्डक वन में घूमने लगा॥६॥
तदाहं दण्डकारण्ये विचरन् धर्मदूषकः।
आसादयं तदा रामं तापसं धर्ममाश्रितम्॥७॥
वैदेहीं च महाभागां लक्ष्मणं च महारथम्।
तापसं नियताहारं सर्वभूतहिते रतम्॥८॥
‘इस प्रकार उस समय दण्डकारण्य में विचरता हुआ धर्म को कलङ्कित करने वाला मैं मारीच तापस धर्म का आश्रय लेने वाले श्रीराम, विदेहनन्दिनी महाभागा सीता तथा मिताहारी तपस्वी के रूप में समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले महारथी लक्ष्मण के पास जा पहुँचा।। ७-८॥
सोऽहं वनगतं रामं परिभूय महाबलम्।
तापसोऽयमिति ज्ञात्वा पूर्ववैरमनुस्मरन्॥९॥
अभ्यधावं सुसंक्रुद्धस्तीक्ष्णशृङ्गो मृगाकृतिः।
जिघांसुरकृतप्रज्ञस्तं प्रहारमनुस्मरन्॥१०॥
‘वन में आये हुए महाबली श्रीराम को ‘यह एक तपस्वी है’ ऐसा जानकर उनकी अवहेलना करके मैं आगे बढ़ा और पहले के वैर का बारंबार स्मरण करके अत्यन्त कुपित हो उनकी ओर दौड़ा। उस समय मेरी आकृति मृग के ही समान थी। मेरे सींग बड़े तीखे थे। उनके पहले के प्रहार को याद करके मैं उन्हें मार डालना चाहता था। मेरी बुद्धि शुद्ध न होने के कारण मैं उनकी शक्ति और प्रभाव को भूल-सा गया था। ९-१०॥
तेन त्यक्तास्त्रयो बाणाः शिताः शत्रुनिबर्हणाः।
विकृष्य सुमहच्चापं सुपर्णानिलतुल्यगाः ॥११॥
‘हम तीनों को आते देख श्रीराम ने अपने विशाल धनुष को खींचकर तीन पैने बाण छोड़े, जो गरुड़ और वायु के समान शीघ्रगामी तथा शत्रु के प्राण लेने वाले थे॥११॥
ते बाणा वज्रसंकाशाः सुघोरा रक्तभोजनाः।
आजग्मुः सहिताः सर्वे त्रयः संनतपर्वणः॥१२॥
‘झुकी हुई गाँठवाले वे सब तीनों बाण, जो वज्र के समान दुःसह, अत्यन्त भयंकर तथा रक्त पीने वाले थे, एक साथ ही हमारी ओर आये॥ १२॥
पराक्रमज्ञो रामस्य शठो दृष्टभयः पुरा।
समुत्क्रान्तस्ततो मुक्तस्तावुभौ राक्षसौ हतौ॥ १३॥
‘मैं तो श्रीराम के पराक्रम को जानता था और पहले एक बार उनके भय का सामना कर चुका था, इसलिये शठतापूर्वक उछलकर भाग निकला। भाग जाने से मैं तो बच गया; किंतु मेरे वे दोनों साथी राक्षस मारे गये॥
शरेण मुक्तो रामस्य कथंचित् प्राप्य जीवितम्।
इह प्रव्राजितो युक्तस्तापसोऽहं समाहितः॥१४॥
‘इस बार श्रीराम के बाण से किसी तरह छुटकारा पाकर मुझे नया जीवन मिला और तभी से संन्यास लेकर समस्त दुष्कर्मों का परित्याग करके स्थिरचित्त हो योगाभ्यास में तत्पर रहकर तपस्या में लग गया। १४॥
वृक्षे वृक्षे हि पश्यामि चीरकृष्णाजिनाम्बरम्।
गृहीतधनुषं रामं पाशहस्तमिवान्तकम्॥१५॥
‘अब मुझे एक-एक वृक्ष में चीर, काला मृगचर्म और धनुष धारण किये श्रीराम ही दिखायी देते हैं, जो मुझे पाशधारी यमराज के समान प्रतीत होते हैं ॥ १५ ॥
अपि रामसहस्राणि भीतः पश्यामि रावण।
रामभूतमिदं सर्वमरण्यं प्रतिभाति मे॥१६॥
‘रावण! मैं भयभीत होकर हजारों रामों को अपने सामने खड़ा देखता हूँ। यह सारा वन ही मुझे राममय प्रतीत हो रहा है॥ १६॥
राममेव हि पश्यामि रहिते राक्षसेश्वर।
दृष्ट्वा स्वप्नगतं राममुद्भमामि विचेतनः॥१७॥
‘राक्षसराज! जब मैं एकान्त में बैठता हूँ, तब मुझे श्रीराम के ही दर्शन होते हैं। सपने में श्रीराम को देखकर मैं उद्भ्रान्त और अचेत-सा हो उठता हूँ॥१७॥
रकारादीनि नामानि रामत्रस्तस्य रावण।
रत्नानि च रथाश्चैव वित्रासं जनयन्ति मे॥१८॥
‘रावण! मैं राम से इतना भयभीत हो गया हूँ कि रत्न और रथ आदि जितने भी रकारादि नाम हैं, वे मेरे कानों में पड़ते ही मन में भारी भय उत्पन्न कर देते हैं।
अहं तस्य प्रभावज्ञो न युद्धं तेन ते क्षमम्।
बलिं वा नमुचिं वापि हन्याद्धि रघुनन्दनः॥१९॥
‘मैं उनके प्रभाव को अच्छी तरह जानता हूँ। इसीलिये कहता हूँ कि श्रीराम के साथ तुम्हारा युद्ध करना कदापि उचित नहीं है। रघुकुलनन्दन श्रीराम राजा बलि अथवा नमुचि का भी वध कर सकते हैं। १९॥
रणे रामेण युद्धस्व क्षमां वा कुरु रावण।
न ते रामकथा कार्या यदि मां द्रष्टमिच्छसि॥ २०॥
‘रावण! तुम्हारी इच्छा हो तो रणभूमि में श्रीराम के साथ युद्ध करो अथवा उन्हें क्षमा कर दो, किंतु यदि मुझे जीवित देखना चाहते हो तो मेरे सामने श्रीराम की चर्चा न करो॥२०॥
बहवः साधवो लोके युक्ता धर्ममनुष्ठिताः।
परेषामपराधेन विनष्टाः सपरिच्छदाः॥२१॥
‘लोक में बहुत-से साधुपुरुष, जो योगयुक्त होकर केवल धर्म के ही अनुष्ठान में लगे रहते थे, दूसरों के अपराध से ही परिकरोंसहित नष्ट हो गये॥२१॥
सोऽहं परापराधेन विनशेयं निशाचर।
कुरु यत् ते क्षमं तत्त्वमहं त्वां नानुयामि वै॥ २२॥
‘निशाचर! मैं भी किसी तरह दूसरों के अपराध से नष्ट हो सकता हूँ, अतः तुम्हें जो उचित जान पड़े, वह करो। मैं इस कार्य में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता॥ २२॥
रामश्च हि महातेजा महासत्त्वो महाबलः।
अपि राक्षसलोकस्य भवेदन्तकरोऽपि हि॥२३॥
‘क्योंकि श्रीरामचन्द्रजी बड़े तेजस्वी, महान् आत्मबल से सम्पन्न तथा अधिक बलशाली हैं। वे समस्त राक्षस-जगत् का भी संहार कर सकते हैं। २३॥
यदि शूर्पणखाहेतोर्जनस्थानगतः खरः।
अतिवृत्तो हतः पूर्वं रामेणाक्लिष्टकर्मणा।
अत्र ब्रूहि यथातत्त्वं को रामस्य व्यतिक्रमः॥ २४॥
‘यदि शूर्पणखा का बदला लेने के लिये जनस्थाननिवासी खर पहले श्रीराम पर चढ़ाई करने के लिये गया और अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम के हाथ से मारा गया तो तुम्हीं ठीक-ठीक बताओ, इसमें श्रीराम का क्या अपराध है ? ॥ २४ ॥
इदं वचो बन्धुहितार्थिना मया यथोच्यमानं यदि नाभिपत्स्यसे।
सबान्धवस्त्यक्ष्यसि जीवितं रणे हतोऽद्य रामेण शरैरजिह्मगैः॥ २५॥
‘तुम मेरे बन्धु हो। मैं तुम्हारा हित करने की इच्छा से ही ये बातें कह रहा हूँ। यदि नहीं मानोगे तो युद्ध में आज राम के सीधे जाने वाले बाणों द्वारा घायल होकर तुम्हें बन्धु-बान्धवोंसहित प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा’ ॥ २५॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः॥ ३९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३९॥
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