वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 40 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 40
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 40)
रावण का मारीच को फटकारना और सीताहरण के कार्य में सहायता करने की आज्ञा देना
मारीचस्य तु तद् वाक्यं क्षमं युक्तं च रावणः।
उक्तो न प्रतिजग्राह मर्तुकाम इवौषधम्॥१॥
मारीच का वह कथन उचित और मानने योग्य था तो भी जैसे मरने की इच्छावाला रोगी दवा नहीं लेता, उसी प्रकार उसके बहुत कहने पर भी रावण ने उसकी बात नहीं मानी॥१॥
तं पथ्यहितवक्तारं मारीचं राक्षसाधिपः।
अब्रवीत् परुषं वाक्यमयुक्तं कालचोदितः॥२॥
काल से प्रेरित हुए उस राक्षसराज ने यथार्थ और हित की बात बताने वाले मारीच से अनुचित और कठोर वाणी में कहा- ॥२॥
दुष्कुलैतदयुक्तार्थं मारीच मयि कथ्यते।
वाक्यं निष्फलमत्यर्थं बीजमुप्तमिवोषरे॥३॥
‘दूषित कुल में उत्पन्न मारीच! तुमने मेरे प्रति जो ये अनाप-शनाप बातें कही हैं, ये मेरे लिये अनुचित और असंगत हैं, ऊसर में बोये हुए बीज के समान अत्यन्त निष्फल हैं॥३॥
त्वद्वाक्यैर्न तु मां शक्यं भेत्तुं रामस्य संयुगे।
मूर्खस्य पापशीलस्य मानुषस्य विशेषतः॥४॥
‘तुम्हारे इन वचनों द्वारा मूर्ख, पापाचारी और विशेषतः मनुष्य राम के साथ युद्ध करने अथवा उसकी स्त्री का अपहरण करने के निश्चय से मुझे विचलित नहीं किया जा सकता॥४॥
यस्त्यक्त्वा सुहृदो राज्यं मातरं पितरं तथा।
स्त्रीवाक्यं प्राकृतं श्रुत्वा वनमेकपदे गतः॥५॥
अवश्यं तु मया तस्य संयुगे खरघातिनः।।
प्राणैः प्रियतरा सीता हर्तव्या तव संनिधौ॥६॥
‘एक स्त्री (कैकेयी) के मूर्खतापूर्ण वचन सुनकर जो राज्य, मित्र, माता और पिता को छोड़कर सहसाजंगल में चला आया है तथा जिसने युद्ध में खर का वध किया है, उस रामचन्द्र की प्राणों से भी प्यारी भार्या सीता का मैं तुम्हारे निकट ही अवश्य हरण करूँगा।
एवं मे निश्चिता बुद्धिर्हदि मारीच विद्यते।
न व्यावर्तयितुं शक्या सेन्ट्रैरपि सुरासुरैः॥७॥
‘मारीच! ऐसा मेरे हृदय का निश्चित विचार है, इसे इन्द्र आदि देवता और सारे असुर मिलकर भी बदल नहीं सकते॥७॥
दोषं गुणं वा सम्पृष्टस्त्वमेवं वक्तुमर्हसि।
अपायं वा उपायं वा कार्यस्यास्य विनिश्चये॥ ८॥
‘यदि इस कार्य का निर्णय करने के लिये तुमसे पूछा जाता ‘इसमें क्या दोष है, क्या गुण है, इसकी सिद्धि में कौन-सा विघ्न है अथवा इस कार्य को सिद्ध करने का कौन-सा उपाय है’ तो तुम्हें ऐसी बातें कहनी चाहिये थीं॥ ८॥
सम्पृष्टेन तु वक्तव्यं सचिवेन विपश्चिता।
उद्यताञ्जलिना राज्ञो य इच्छेद् भूतिमात्मनः॥ ९॥
‘जो अपना कल्याण चाहता हो, उस बुद्धिमान् मन्त्री को उचित है कि वह राजा से उसके पूछने पर ही अपना अभिप्राय प्रकट करे और वह भी हाथ जोड़कर नम्रता के साथ॥९॥
वाक्यमप्रतिकूलं तु मृदुपूर्वं शुभं हितम्।
उपचारेण वक्तव्यो युक्तं च वसुधाधिपः॥१०॥
‘राजा के सामने ऐसी बात कहनी चाहिये, जो सर्वथा अनुकूल, मधुर, उत्तम, हितकर, आदर से युक्त और उचित हो॥ १०॥
सावमदं तु यद्वाक्यमथवा हितमुच्यते।
नाभिनन्देत तद् राजा मानार्थी मानवर्जितम्॥ ११॥
‘राजा सम्मान का भूखा होता है। उसकी बात का खण्डन करके आक्षेपपूर्ण भाषा में यदि हितकर वचन भी कहा जाय तो उस अपमानपूर्ण वचन का वह कभी अभिनन्दन नहीं कर सकता॥ ११ ॥
पञ्च रूपाणि राजानो धारयन्त्यमितौजसः।
अग्नेरिन्द्रस्य सोमस्य यमस्य वरुणस्य च ॥१२॥
औष्ण्यं तथा विक्रमं च सौम्यं दण्डं प्रसन्नताम्।
धारयन्ति महात्मानो राजानः क्षणदाचर ॥१३॥
‘निशाचर! अमित तेजस्वी महामनस्वी राजा अग्नि, इन्द्र, सोम, यम और वरुण-इन पाँच देवताओं के स्वरूप धारण किये रहते हैं, इसीलिये वे अपने में इन पाँचों के गुण-प्रताप, पराक्रम, सौम्यभाव, दण्ड और प्रसन्नता भी धारण करते हैं ।। १२-१३॥
तस्मात् सर्वास्ववस्थासु मान्याः पूज्याश्च
नित्यदा। त्वं तु धर्ममविज्ञाय केवलं मोहमाश्रितः॥१४॥
अभ्यागतं तु दौरात्म्यात् परुषं वदसीदृशम्।
गुणदोषौ न पृच्छामि क्षेमं चात्मनि राक्षस॥ १५॥
‘अतः सभी अवस्थाओं में सदा राजाओं का सम्मान और पूजन ही करना चाहिये। तुम तो अपने धर्म को न जानकर केवल मोह के वशीभूत हो रहे हो। मैं तुम्हारा अभ्यागत-अतिथि हूँ तो भी तुम दुष्टतावश मुझसे ऐसी कठोर बातें कह रहे हो। राक्षस! मैं तुमसे अपने कर्तव्य के गुण-दोष नहीं पूछता हूँ और न यही जानना चाहता हूँ कि मेरे लिये क्या उचित है॥१४-१५॥
मयोक्तमपि चैतावत् त्वां प्रत्यमितविक्रम।
अस्मिंस्तु स भवान् कृत्ये साहाय्यं कर्तुमर्हसि॥ १६॥
‘अमितपराक्रमी मारीच! मैंने तो तुमसे इतना ही कहा था कि इस कार्य में तुम्हें मेरी सहायता करनी चाहिये॥१६॥
शृणु तत्कर्म साहाय्ये यत्कार्यं वचनान्मम।
सौवर्णस्त्वं मृगो भूत्वा चित्रो रजतबिन्दुभिः॥ १७॥
आश्रमे तस्य रामस्य सीतायाः प्रमुखे चर।
प्रलोभयित्वा वैदेहीं यथेष्टं गन्तुमर्हसि ॥१८॥
‘अच्छा, अब तुम्हें सहायता के लिये मेरे कथनानुसार जो कार्य करना है, उसे सुनो। तुम सुवर्णमय चर्म से युक्त चितकबरे रंगके मृग हो जाओ। तुम्हारे सारे अङ्ग में चाँदी की-सी सफेद बूंदें रहनी चाहिये। ऐसा रूप धारण करके तुम राम के आश्रम में सीता के सामने विचरो। एक बार विदेहकुमारी को लुभाकर जहाँ तुम्हारी इच्छा हो उधर ही चले जाओ॥ १७-१८॥
त्वां हि मायामयं दृष्ट्वा काञ्चनं जातविस्मया।
आनयनमिति क्षिप्रं रामं वक्ष्यति मैथिली॥१९॥
‘तुम मायामय काञ्चन मृग को देखकर मिथिलेशकुमारी सीता को बड़ा आश्चर्य होगा और वह शीघ्र ही राम से कहेगी कि आप इसे पकड़ लाइये॥ १९॥
अपक्रान्ते च काकुत्स्थे दूरं गत्वाप्युदाहर।
हा सीते लक्ष्मणेत्येवं रामवाक्यानुरूपकम्॥ २०॥
‘जब राम तुम्हें पकड़ने के लिये आश्रम से दूर चले जायँ तो तुम भी दूर तक जाकर श्रीराम की बोली के अनुरूप ही–ठीक उन्हीं के स्वर में ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहकर पुकारना ।। २० ।। ।
तच्छ्रुत्वा रामपदवीं सीतया च प्रचोदितः।
अनुगच्छति सम्भ्रान्तः सौमित्रिरपि सौहृदात्॥ २१॥
‘तुम्हारी उस पुकार को सुनकर सीता की प्रेरणा से सुमित्राकुमार लक्ष्मण भी स्नेहवश घबराये हुए अपने भाई के ही मार्ग का अनुसरण करेंगे॥ २१॥
अपक्रान्ते च काकुत्स्थे लक्ष्मणे च यथासुखम्।
आहरिष्यामि वैदेहीं सहस्राक्षः शचीमिव॥२२॥
‘इस प्रकार राम और लक्ष्मण दोनों के आश्रम से दूर निकल जाने पर मैं सुखपूर्वक सीता को हर लाऊँगा, ठीक उसी तरह जैसे इन्द्र शची को हर लाये थे॥ २२ ॥
एवं कृत्वा त्विदं कार्यं यथेष्टं गच्छ राक्षस।
राज्यस्यार्धं प्रदास्यामि मारीच तव सुव्रत ॥२३॥
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले राक्षस मारीच! इस प्रकार इस कार्य को सम्पन्न करके जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहाँ चले जाना। मैं इसके लिये तुम्हें अपना आधा राज्य दे दूंगा॥ २३॥
गच्छ सौम्य शिवं मार्ग कार्यस्यास्य विवृद्धये।
अहं त्वानुगमिष्यामि सरथो दण्डकावनम्॥२४॥
‘सौम्य! अब इस कार्य की सिद्धि के लिये प्रस्थान करो। तुम्हारा मार्ग मङ्गलमय हो। मैं रथ पर बैठकर दण्डक वन तक तुम्हारे पीछे-पीछे चलूँगा॥२४॥
प्राप्य सीतामयुद्धेन वञ्चयित्वा तु राघवम्।
लङ्कां प्रति गमिष्यामि कृतकार्यः सह त्वया॥ २५॥
‘राम को धोखा देकर बिना युद्ध किये ही सीता को अपने हाथ में करके कृतार्थ हो तुम्हारे साथ ही लंका को लौट चलूँगा॥ २५॥
नो चेत् करोषि मारीच हन्मि त्वामहमद्य वै।
एतत् कार्यमवश्यं मे बलादपि करिष्यसि।
राज्ञो विप्रतिकूलस्थो न जातु सुखमेधते॥२६॥
‘मारीच! यदि तुम इनकार करोगे तो तुम्हें अभी मार डालूँगा। मेरा यह कार्य तुम्हें अवश्य करना पड़ेगा। मैं बलप्रयोग करके भी तुमसे यह काम कराऊँगा। राजा के प्रतिकूल चलने वाला पुरुष कभी सुखी नहीं होता है॥ २६॥
आसाद्य तं जीवितसंशयस्ते मृत्युर्बुवो ह्यद्य मया विरुध्यतः।
एतद् यथावत् परिगण्य बुद्ध्या यदत्र पथ्यं कुरु तत्तथा त्वम्॥२७॥
‘राम के सामने जाने पर तुम्हारे प्राण जाने का संदेहमात्र है, परंतु मेरे साथ विरोध करने पर तो आज ही तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। इन बातों पर बुद्धि लगाकर भलीभाँति विचार कर लो। उसके बाद यहाँ जो हितकर जान पड़े, उसे उसी प्रकार तुम करो’ । २७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः॥ ४०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४०॥