वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 43 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 43
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 43)
कपटमृग को देखकर लक्ष्मण का संदेह, सीता का उस मृग को ले आने के लिये श्रीराम को प्रेरित करना, लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार सौंप राम का मृग के लिये जाना
सा तं सम्प्रेक्ष्य सुश्रोणी कुसुमानि विचिन्वती।
हेमराजतवर्णाभ्यां पार्वाभ्यामुपशोभितम्॥१॥
प्रहृष्टा चानवद्याङ्गी मृष्टहाटकवर्णिनी।।
भर्तारमपि चक्रन्द लक्ष्मणं चैव सायुधम्॥२॥
वह मृग सोने और चाँदी के समान कान्तिवाले पार्श्व-भागों से सुशोभित था। शुद्ध सुवर्ण के समान कान्ति तथा निर्दोष अङ्गोंवाली सुन्दरी सीता फूल चुनते-चुनते ही उस मृग को देखकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुईं और अपने पति श्रीराम तथा देवर लक्ष्मण को हथियार लेकर आने के लिये पुकारने लगीं॥ १-२॥
आहूयाहूय च पुनस्तं मृगं साधु वीक्षते।
आगच्छागच्छ शीघ्रं वै आर्यपुत्र सहानुज॥३॥
वे बार-बार उन्हें पुकारती और फिर उस मृग को अच्छी तरह देखने लगती थीं। वे बोलीं, ‘आर्यपुत्र ! अपने भाई के साथ आइये, शीघ्र आइये’ ॥३॥
तावाहूतौ नरव्याघ्रौ वैदेह्या रामलक्ष्मणौ।
वीक्षमाणौ तु तं देशं तदा ददृशतुगम्॥४॥
विदेहकुमारी सीता के द्वारा पुकारे जाने पर नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण वहाँ आये और उस स्थान पर सब ओर दृष्टि डालते हुए उन्होंने उस समय उस मृग को देखा॥४॥
शङ्कमानस्तु तं दृष्ट्वा लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
तमेवैनमहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम्॥५॥
उसे देखकर लक्ष्मण के मन में संदेह हुआ और वे बोले—’भैया! मैं तो समझता हूँ कि इस मृग के रूप में वह मारीच नाम का राक्षस ही आया है॥ ५॥
चरन्तो मृगयां हृष्टाः पापेनोपाधिना वने।
अनेन निहता राम राजानः कामरूपिणा॥६॥
‘श्रीराम! स्वेच्छानुसार रूप धारण करने वाले इस पापी ने कपट-वेष बनाकर वन में शिकार खेलने के लिये आये हुए कितने ही हर्षोत्फुल्ल नरेशों का वध किया है।
अस्य मायाविदो माया मृगरूपमिदं कृतम्।
भानुमत् पुरुषव्याघ्र गन्धर्वपुरसंनिभम्॥७॥
‘पुरुषसिंह! यह अनेक प्रकार की मायाएँ जानता है। इसकी जो माया सुनी गयी है, वही इस प्रकाशमान मृगरूप में परिणत हो गयी है। यह गन्धर्वनगर के समान देखने भर के लिये ही है (इसमें वास्तविकता नहीं है)॥
मृगो ह्येवंविधो रत्नविचित्रो नास्ति राघव।
जगत्यां जगतीनाथ मायैषा हि न संशयः॥८॥
‘रघुनन्दन! पृथ्वीनाथ! इस भूतलपर कहीं भी ऐसा विचित्र रत्नमय मृग नहीं है; अतः निःसंदेह यह माया ही है’॥८॥
एवं ब्रुवाणं काकुत्स्थं प्रतिवार्य शुचिस्मिता।
उवाच सीता संहृष्टा छद्मना हृतचेतना॥९॥
मारीच के छल से जिनकी विचारशक्ति हर ली गयी थी, उन पवित्र मुसकानवाली सीता ने उपर्युक्त बातें कहते हुए लक्ष्मण को रोककर स्वयं ही बड़े हर्ष के साथ कहा
आर्यपुत्राभिरामोऽसौ मृगो हरति मे मनः।।
आनयैनं महाबाहो क्रीडार्थं नो भविष्यति॥१०॥
‘आर्यपुत्र ! यह मृग बड़ा ही सुन्दर है। इसने मेरे मन को हर लिया है। महाबाहो! इसे ले आइये। यह हमलोगों के मन-बहलाव के लिये रहेगा॥१०॥
इहाश्रमपदेऽस्माकं बहवः पुण्यदर्शनाः।
मृगाश्चरन्ति सहिताश्चमराः सृमरास्तथा॥११॥
ऋक्षाः पृषतसङ्घाश्च वानराः किन्नरास्तथा।
विहरन्ति महाबाहो रूपश्रेष्ठा महाबलाः॥१२॥
न चान्यः सदृशो राजन् दृष्टः पूर्वं मृगो मया।
तेजसा क्षमया दीप्त्या यथायं मृगसत्तमः॥१३॥
‘राजन्! महाबाहो! यद्यपि हमारे इस आश्रम पर बहुत-से पवित्र एवं दर्शनीय मृग एक साथ आकर चरते हैं तथा सृमर (काली पूँछवाली चवँरी गाय), चमर (सफेद पूँछवाली चवँरी गाय), रीछ, चितकबरे मृगों के झुंड, वानर तथा सुन्दर रूपवाले महाबली किन्नर भी विचरण करते हैं, तथापि आज के पहले मैंने दूसरा कोई ऐसा तेजस्वी, सौम्य और दीप्तिमान् मृग नहीं देखा था, जैसा कि यह श्रेष्ठ मृग दिखायी दे रहा है॥ ११–१३॥
नानावर्णविचित्राङ्गो रत्नभूतो ममाग्रतः।
द्योतयन् वनमव्यग्रं शोभते शशिसंनिभः॥१४॥
‘नाना प्रकार के रंगों से युक्त होने के कारण इसके अङ्ग विचित्र जान पड़ते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो यह अङ्गों का ही बना हुआ हो। मेरे आगे निर्भय एवं शान्तभाव से स्थित होकर इस वन को प्रकाशित करता हुआ यह चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा है॥१४॥
अहो रूपमहो लक्ष्मीः स्वरसम्पच्च शोभना।
मृगोऽद्भुतो विचित्राङ्गो हृदयं हरतीव मे॥१५॥
‘इसका रूप अद्भुत है। इसकी शोभा अवर्णनीय है। इसकी स्वरसम्पत्ति (बोली) बड़ी सुन्दर है। विचित्र अङ्गों से सुशोभित यह अद्भुत मृग मेरे मन को मोहे लेता है॥ १५ ॥
यदि ग्रहणमभ्येति जीवन् नेव मृगस्तव।
आश्चर्यभूतं भवति विस्मयं जनयिष्यति॥१६॥
‘यदि यह मृग जीते-जी ही आपकी पकड़ में आ जाय तो एक आश्चर्य की वस्तु होगा और सबके हृदय में विस्मय उत्पन्न कर देगा॥ १६ ॥
समाप्तवनवासानां राज्यस्थानां च नः पुनः।
अन्तःपुरे विभूषार्थो मृग एष भविष्यति॥१७॥
‘जब हमारे वनवास की अवधि पूरी हो जायगी और हम पुनः अपना राज्य पा लेंगे, उस समय यह मृग हमारे अन्तःपुर की शोभा बढ़ायेगा॥ १७॥
भरतस्यार्यपुत्रस्य श्वश्रूणां मम च प्रभो।
मृगरूपमिदं दिव्यं विस्मयं जनयिष्यति॥१८॥
‘प्रभो! इस मृग का यह दिव्य रूप भरत के, आपके, मेरी सासुओं के और मेरे लिये भी विस्मयजनक होगा।
जीवन्न यदि तेऽभ्येति ग्रहणं मृगसत्तमः।
अजिनं नरशार्दूल रुचिरं तु भविष्यति॥१९॥
‘पुरुषसिंह ! यदि कदाचित् यह श्रेष्ठ मृग जीते-जी पकड़ा न जा सके तो इसका चमड़ा ही बहुत सुन्दर होगा॥ १९॥
निहतस्यास्य सत्त्वस्य जाम्बूनदमयत्वचि।
शष्पबृस्यां विनीतायामिच्छाम्यहमुपासितुम्॥ २०॥
‘घास-फूसकी बनी हुई चटाई पर इस मरे हुए मृग का सुवर्णमय चमड़ा बिछाकर मैं इस पर आपके साथ बैठना चाहती हूँ॥ २० ॥
कामवृत्तमिदं रौद्रं स्त्रीणामसदृशं मतम्।
वपुषा त्वस्य सत्त्वस्य विस्मयो जनितो मम॥ २१॥
‘यद्यपि स्वेच्छा से प्रेरित होकर अपने पति को ऐसे काम में लगाना यह भयंकर स्वेच्छाचार है और साध्वी स्त्रियों के लिये उचित नहीं माना गया है तथापि इस जन्तु के शरीर ने मेरे हृदय में विस्मय उत्पन्न कर दिया है (इसीलिये मैं इसको पकड़ लाने के लिये अनुरोध करती हूँ)’ ॥ २१॥
तेन काञ्चनरोम्णा तु मणिप्रवरशृङ्गिणा।
तरुणादित्यवर्णेन नक्षत्रपथवर्चसा॥२२॥
बभूव राघवस्यापि मनो विस्मयमागतम्।
इति सीतावचः श्रुत्वा दृष्ट्वा च मृगमद्भुतम्॥ २३॥
लोभितस्तेन रूपेण सीतया च प्रचोदितः।
उवाच राघवो हृष्टो भ्रातरं लक्ष्मणं वचः॥२४॥
सुनहरी रोमावली, इन्द्रनील मणि के समान सींग, उदयकाल के सूर्य की-सी कान्ति तथा नक्षत्रलोक की भाँति विन्दुयुक्त तेज से सुशोभित उस मृग को देखकर श्रीरामचन्द्रजी का मन भी विस्मित हो उठा। सीता की पूर्वोक्त बात को सुनकर, उस मृग के अद्भुत रूप को देखकर, उसके उस रूपपर लुभाकर और सीता से प्रेरित होकर हर्ष से भरे हुए श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण से कहा- ॥ २२–२४॥
पश्य लक्ष्मण वैदेह्याः स्पृहामुल्लसितामिमाम्।
रूपश्रेष्ठतया ह्येष मृगोऽद्य न भविष्यति॥२५॥
‘लक्ष्मण! देखो तो सही, विदेहनन्दिनी सीता के मन में इस मृग को पाने के लिये कितनी प्रबल इच्छाजाग उठी है ? वास्तव में इसका रूप है भी बहुत ही सुन्दर। अपने रूप की इस श्रेष्ठता के कारण ही यह मृग आज जीवित नहीं रह सकेगा॥ २५ ॥
न वने नन्दनोद्देशे न चैत्ररथसंश्रये।
कुतः पृथिव्यां सौमित्रे योऽस्य कश्चित् समो मृगः॥२६॥
‘सुमित्रानन्दन! देवराज इन्द्र के नन्दन वन में और कुबेर के चैत्ररथ वन में भी कोई ऐसा मृग नहीं होगा, जो इसकी समानता कर सके। फिर पृथ्वी पर तो हो ही कहाँ से सकता है॥२६॥
प्रतिलोमानुलोमाश्च रुचिरा रोमराजयः।
शोभन्ते मृगमाश्रित्य चित्राः कनकबिन्दुभिः॥ २७॥
‘टेढ़ी और सीधी रुचिर रोमावलियाँ इस मृग के शरीर का आश्रय ले सुनहरे विन्दुओं से चित्रित हो बड़ी शोभा पा रही हैं ॥ २७॥
पश्यास्य जृम्भमाणस्य दीप्तामग्निशिखोपमाम्।
जिह्वां मुखान्निःसरन्तीं मेघादिव शतहदाम्॥ २८॥
‘देखो न, जब यह जंभाई लेता है, तब इसके मुख से प्रज्वलित अग्निशिखा के समान दमकती हुई जिह्वा बाहर निकल आती है और मेघ से प्रकट हुई बिजली के समान चमकने लगती है॥ २८॥
मसारगल्वर्कमुखः शङ्खमुक्तानिभोदरः।
कस्य नामानिरूप्योऽसौ न मनो लोभयेन्मृगः॥ २९॥
‘इसका मुख-सम्पुट इन्द्रनीलमणि के बने हुए चषक (पानपात्र) के समान जान पड़ता है, उदर ङ्केशार और मोती के समान सफेद है। यह अवर्णनीय मृग किसके मन को नहीं लुभा लेगा॥ २९॥
कस्य रूपमिदं दृष्ट्वा जाम्बूनदमयप्रभम्।
नानारत्नमयं दिव्यं न मनो विस्मयं व्रजेत्॥३०॥
‘नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित इसके सुनहरी प्रभावाले दिव्य रूप को देखकर किसके मन में विस्मय नहीं होगा।
मांसहेतोरपि मृगान् विहारार्थं च धन्विनः।
घ्नन्ति लक्ष्मण राजानो मृगयायां महावने॥३१॥
‘लक्ष्मण! राजालोग बड़े-बड़े वनों में मृगया खेलते समय मांस (मृगचर्म) के लिये और शिकार खेलने का शौक पूरा करने के लिये भी धनुष हाथ में लेकर मृगों को मारते हैं॥ ३१॥
धनानि व्यवसायेन विचीयन्ते महावने।
धातवो विविधाश्चापि मणिरत्नसुवर्णिनः॥३२॥
‘मृगया के उद्योग से ही राजालोग विशाल वन में धन का भी संग्रह करते हैं; क्योंकि वहाँ मणि, रत्नऔर सुवर्ण आदि से युक्त नाना प्रकार की धातुएँ उपलब्ध होती हैं ॥ ३२॥
तत् सारमखिलं नृणां धनं निचयवर्धनम्।
मनसा चिन्तितं सर्वं यथा शुक्रस्य लक्ष्मण॥ ३३॥
‘लक्ष्मण! कोश की वृद्धि करने वाला वह वन्य धन मनुष्यों के लिये अत्यन्त उत्कृष्ट होता है। ठीक उसी तरह, जैसे ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए पुरुष के लिये मन के चिन्तनमात्र से प्राप्त हुई सारी वस्तुएँ अत्यन्त उत्तम बतायी गयी हैं॥ ३३॥
अर्थी येनार्थकृत्येन संव्रजत्यविचारयन्।
तमर्थमर्थशास्त्रज्ञाः प्राहुरर्थ्याः सुलक्ष्मण ॥ ३४॥
‘लक्ष्मण! अर्थी मनुष्य जिस अर्थ (प्रयोजन) का सम्पादन करने के लिये उसके प्रति आकृष्ट हो बिना विचारे ही चल देता है, उस अत्यन्त आवश्यक प्रयोजन को ही अर्थसाधन में चतुर एवं अर्थशास्त्र के ज्ञाता विद्वान् ‘अर्थ’ कहते हैं॥ ३४॥
एतस्य मृगरत्नस्य पराये काञ्चनत्वचि।
उपवेक्ष्यति वैदेही मया सह सुमध्यमा॥ ३५॥
‘इस रत्नस्वरूप श्रेष्ठ मृग के बहुमूल्य सुनहरे चमड़े पर सुन्दरी विदेहराजनन्दिनी सीता मेरे साथ बैठेगी॥ ३५ ॥
न कादली न प्रियकी न प्रवेणी न चाविकी।
भवेदेतस्य सदृशी स्पर्शेऽनेनेति मे मतिः॥ ३६॥
‘कदली (कोमल ऊँचे चितकबरे और नीलाग्ररोम वाले मृगविशेष), प्रियक (कोमल ऊँचे चिकने और घने रोम वाले मृगविशेष), प्रवेण (विशेष प्रकार के बकरे) और अवि (भेड़) की त्वचा भी स्पर्श करने में इस काञ्चन मृग के छाले के समान कोमल एवं सुखद नहीं हो सकती, ऐसा मेरा विश्वास है।॥ ३६॥
एष चैव मृगः श्रीमान् यश्च दिव्यो नभश्चरः।
उभावेतौ मृगौ दिव्यौ तारामृगमहीमृगौ॥ ३७॥
‘यह सुन्दर मृग और वह जो दिव्य आकाशचारी मृग (मृगशिरा नक्षत्र) है, ये दोनों ही दिव्य मृग हैं। इनमें से एक तारामृग और दूसरा महीमृग है॥ ३७॥ १. नक्षत्रलोक में विचरने वाला मृग (मृगशिरा नक्षत्र)। २. दूसरा पृथ्वी पर विचरने वाला काञ्चन मृग।
यदि वायं तथा यन्मां भवेद् वदसि लक्ष्मण।
मायैषा राक्षसस्येति कर्तव्योऽस्य वधो मया॥ ३८॥
‘लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो यदि वैसा ही यह मृग हो, यदि यह राक्षस की माया ही हो तो भी मुझे उसका वध करना ही चाहिये॥ ३८॥
एतेन हि नृशंसेन मारीचेनाकृतात्मना।
वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुंगवाः॥३९॥
‘क्योंकि अपवित्र (दुष्ट) चित्तवाले इस क्रूरकर्मा मारीच ने वन में विचरते समय पहले अनेकानेक श्रेष्ठ मुनियों की हत्या की है॥ ३९ ॥
उत्थाय बहवोऽनेन मृगयायां जनाधिपाः।
निहताः परमेष्वासास्तस्माद् वध्यस्त्वयं मृगः॥ ४०॥
‘इसने मृगया के समय प्रकट होकर बहुत-से महाधनुर्धर नरेशों का वध किया है, अतः इस मृग के रूप में इसका भी वध अवश्य करने योग्य है॥ ४० ॥
पुरस्तादिह वातापिः परिभूय तपस्विनः।
उदरस्थो द्विजान् हन्ति स्वगर्भोऽश्वतरीमिव॥ ४१॥
‘इसी वन में पहले वातापि नामक राक्षस रहता था, जो तपस्वी महात्माओं का तिरस्कार करके कपटपूर्ण उपाय से उनके पेट में पहुँच जाता और जैसे खच्चरी को अपने ही गर्भ का बच्चा नष्ट कर देता है, उसी प्रकार उन ब्रह्मर्षियों को नष्ट कर देता था॥४१॥
स कदाचिच्चिराल्लोभादाससाद महामुनिम्।
अगस्त्यं तेजसा युक्तं भक्ष्यस्तस्य बभूव ह॥ ४२॥
‘वह वातापि एक दिन दीर्घकाल के पश्चात् लोभवश तेजस्वी महामुनि अगस्त्यजी के पास जा पहुँचा और (श्राद्धकाल में) उनका आहार बन गया। उनके पेट में पहुँच गया॥ ४२॥
समुत्थाने च तद्पं कर्तुकामं समीक्ष्य तम्।
उत्स्मयित्वा तु भगवान् वातापिमिदमब्रवीत्॥ ४३॥
‘श्राद्ध के अन्त में जब वह अपना राक्षसरूप प्रकट करने की इच्छा करने लगा—उनका पेट फाड़कर निकल आने को उद्यत हुआ, तब उस वातापि को लक्ष्य करके भगवान् अगस्त्य मुसकराये और उससे इस प्रकार बोले- ॥ ४३॥
त्वयाविगण्य वातापे परिभूताश्च तेजसा।
जीवलोके द्विजश्रेष्ठास्तस्मादसि जरां गतः॥४४॥
‘वातापे! तुमने बिना सोचे-विचारे इस जीव-जगत् में बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अपने तेज से तिरस्कृत किया है, उसी पाप से अब तुम पच गये’ ॥ ४४ ॥
तद् रक्षो न भवेदेव वातापिरिव लक्ष्मण।
मद्विधं योऽतिमन्येत धर्मनित्यं जितेन्द्रियम्॥४५॥
‘लक्ष्मण! जो सदा धर्म में तत्पर रहने वाले मुझ-जैसे जितेन्द्रिय पुरुष का भी अतिक्रमण करे, उस मारीच नामक राक्षस को भी वातापि के समान ही नष्ट हो जाना चाहिये॥ ४५ ॥
भवेद्धतोऽयं वातापिरगस्त्येनेव मा गतः।
इह त्वं भव संनद्धो यन्त्रितो रक्ष मैथिलीम्॥ ४६॥
‘जैसे वातापि अगस्त्य के द्वारा नष्ट हुआ, उसी प्रकार यह मारीच अब मेरे सामने आकर अवश्य ही मारा जायगा। तुम अस्त्र और कवच आदि से सुसज्जित हो जाओ और यहाँ सावधानी के साथ मिथिलेशकुमारी की रक्षा करो॥ ४६॥
अस्यामायत्तमस्माकं यत् कृत्यं रघुनन्दन।
अहमेनं वधिष्यामि ग्रहीष्याम्यथवा मृगम्॥४७॥
‘रघुनन्दन ! हमलोगों का जो आवश्यक कर्तव्य है, वह सीता की रक्षा के ही अधीन है। मैं इस मृग को मार डालूँगा अथवा इसे जीता ही पकड़ लाऊँगा॥४७॥
यावद् गच्छामि सौमित्रे मृगमानयितुं द्रुतम्।
पश्य लक्ष्मण वैदेह्या मृगत्वचि गतां स्पृहाम्॥ ४८॥
‘सुमित्राकुमार लक्ष्मण! देखो, इस मृग का चर्म हस्तगत करने के लिये विदेहनन्दिनी को कितनी उत्कण्ठा हो रही है, इसलिये इस मृग को ले आने के लिये मैं तुरंत ही जा रहा हूँ॥ ४८॥
त्वचा प्रधानया ह्येष मृगोऽद्य न भविष्यति।
अप्रमत्तेन ते भाव्यमाश्रमस्थेन सीतया॥४९॥
यावत् पृषतमेकेन सायकेन निहन्म्यहम्।
हत्वैतच्चर्म चादाय शीघ्रमेष्यामि लक्ष्मण॥५०॥
‘इस मृग को मारने का प्रधान हेतु है, इसके चमड़े को प्राप्त करना। आज इसी के कारण यह मृग जीवित नहीं रह सकेगा। लक्ष्मण! तुम आश्रम पर रहकर सीता के साथ सावधान रहना–सावधानी के साथ तब तक इसकी रक्षा करना, जबतक कि मैं एक ही बाण से इस चितकबरे मृग को मार नहीं डालता हूँ। मारने के पश्चात् इसका चमड़ा लेकर मैं शीघ्र लौट आऊँगा॥ ४९-५०॥
प्रदक्षिणेनातिबलेन पक्षिणा जटायुषा बुद्धिमता च लक्ष्मण।
भवाप्रमत्तः प्रतिगृह्य मैथिली प्रतिक्षणं सर्वत एव शङ्कितः॥५१॥
‘लक्ष्मण! बुद्धिमान् पक्षी गृध्रराज जटायु बड़े ही बलवान् और सामर्थ्यशाली हैं। उनके साथ ही यहाँ सदा सावधान रहना। मिथिलेशकुमारी सीता को अपने संरक्षण में लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों की ओर से चौकन्ने रहना’ ॥५१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिचत्वारिंशः सर्गः॥४३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तैंतालीसवाँ सर्ग पूराहुआ॥४३॥