RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 45 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 45

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 45)

सीता के मार्मिक वचनों से प्रेरित होकर लक्ष्मण का श्रीराम के पास जाना

 

आर्तस्वरं तु तं भर्तुर्विज्ञाय सदृशं वने।
उवाच लक्ष्मणं सीता गच्छ जानीहि राघवम्॥

उस समय वन में जो आर्तनाद हुआ, उसे अपने पति के स्वर से मिलता-जुलता जान श्रीसीताजी लक्ष्मण से बोलीं—’भैया! जाओ, श्रीरघुनाथजी की सुधि लो—उनका समाचार जानो॥१॥

नहि मे जीवितं स्थाने हृदयं वावतिष्ठते।
क्रोशतः परमार्तस्य श्रुतः शब्दो मया भृशम्॥ २॥

‘उन्होंने बड़े आर्तस्वर से हमलोगों को पुकारा है। मैंने उनका वह शब्द सुना है। वह बहुत उच्च स्वर से बोला गया था। उसे सुनकर मेरे प्राण और मन अपने स्थान पर नहीं रह गये हैं-मैं घबरा उठी हूँ॥२॥

आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि।
तंक्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम्॥३॥
रक्षसां वशमापन्नं सिंहानामिव गोवृषम्।
न जगाम तथोक्तस्तु भ्रातुराज्ञाय शासनम्॥४॥

‘तुम्हारे भाई वन में आर्तनाद कर रहे हैं। वे कोई शरण-रक्षा का सहारा चाहते हैं। तुम उन्हें बचाओ। ङ्के जल्दी ही अपने भाई के पास दौड़े हुए जाओ। जैसे कोई साँड सिंहों के पंजे में फँस गया हो, उसी प्रकार वे राक्षसों के वश में पड़ गये हैं, अतः जाओ।’ सीताके ऐसा कहने पर भी भाई के आदेश का विचार करके लक्ष्मण नहीं गये॥ ३-४॥

तमुवाच ततस्तत्र क्षुभिता जनकात्मजा।
सौमित्रे मित्ररूपेण भ्रातुस्त्वमसि शत्रुवत्॥५॥
यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे।
इच्छसि त्वं विनश्यन्तं रामं लक्ष्मण मत्कृते॥६॥

उनके इस व्यवहार से वहाँ जनककिशोरी सीता क्षुब्ध हो उठीं और उनसे इस प्रकार बोलीं—’सुमित्राकुमार! तुम मित्र रूप में अपने भाई के शत्रु ही जान पड़ते हो, इसीलिये तुम इस संकट की अवस्था में भी भाई के पास नहीं पहुंच रहे हो। लक्ष्मण ! मैं जानती हूँ, तुम मुझ पर अधिकार करने के लिये इस समय श्रीराम का विनाश ही चाहते हो॥ ५-६॥

लोभात्तु मत्कृते नूनं नानुगच्छसि राघवम्।
व्यसनं ते प्रियं मन्ये स्नेहो भ्रातरि नास्ति ते॥७॥

‘मेरे लिये तुम्हारे मन में लोभ हो गया है, निश्चय ही इसीलिये तुम श्रीरघुनाथजी के पीछे नहीं जा रहे हो। मैं समझती हूँ, श्रीराम का संकटमें पड़ना ही तुम्हें प्रिय है। तुम्हारे मन में अपने भाई के प्रति स्नेह नहीं है॥७॥

तेन तिष्ठसि विस्रब्धं तमपश्यन् महाद्युतिम्।
किं हि संशयमापन्ने तस्मिन्निह मया भवेत्॥८॥
कर्तव्यमिह तिष्ठन्त्या यत्प्रधानस्त्वमागतः।

‘यही कारण है कि तुम उन महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी को देखने न जाकर यहाँ निश्चिन्त खड़े हो। हाय! जो मुख्यतः तुम्हारे सेव्य हैं, जिनकी रक्षा और सेवा के लिये तुम यहाँ आये हो, यदि उन्हीं के प्राण संकट में पड़ गये तो यहाँ मेरी रक्षा से क्या होगा?’ ॥ ८ १/२॥

एवं ब्रुवाणां वैदेहीं बाष्पशोकसमन्विताम्॥९॥
अब्रवील्लक्ष्मणस्त्रस्तां सीतां मृगवधूमिव।

‘विदेहकमारी सीताजी की दशा भयभीत हई हरिणी के समान हो रही थी। उन्होंने शोकमग्न होकर आँसू बहाते हुए जब उपर्युक्त बातें कहीं, तब लक्ष्मण उनसे इस प्रकार बोले- ॥ ९ १/२॥

पन्नगासुरगन्धर्वदेवदानवराक्षसैः॥१०॥
अशक्यस्तव वैदेहि भर्ता जेतुं न संशयः।

‘विदेहनन्दिनि! आप विश्वास करें, नाग, असुर, गन्धर्व, देवता, दानव तथा राक्षस-ये सब मिलकर भी आपके पति को परास्त नहीं कर सकते, मेरे इस कथन में संशय नहीं है॥ १० १/२॥

देवि देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु पतत्रिषु॥११॥
राक्षसेषु पिशाचेषु किन्नरेषु मृगेषु च।
दानवेषु च घोरेषु न स विद्येत शोभने॥१२॥
यो रामं प्रतियुध्येत समरे वासवोपमम्।
अवध्यः समरे रामो नैवं त्वं वक्तमर्हसि॥१३॥

‘देवि! शोभने! देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वो, पक्षियों, राक्षसों, पिशाचों, किन्नरों, मृगों तथा घोर दानवों में भी ऐसा कोई वीर नहीं है, जो समराङ्गण में इन्द्र के समान पराक्रमी श्रीराम का सामना कर सके। भगवान् श्रीराम युद्ध में अवध्य हैं, अतएव आपको ऐसी बात ही नहीं कहनी चाहिये॥ ११–१३॥

न त्वामस्मिन् वने हातुमुत्सहे राघवं विना।
अनिवार्यं बलं तस्य बलैर्बलवतामपि॥१४॥
त्रिभिर्लोकैः समुदितैः सेश्वरैः सामरैरपि।
हृदयं निर्वृतं तेऽस्तु संतापस्त्यज्यतां तव॥१५॥

‘श्रीरामचन्द्रजी की अनुपस्थिति में इस वन के भीतर मैं आपको अकेली नहीं छोड़ सकता। सैनिक-बल से सम्पन्न बड़े-बड़े राजा अपनी सारी सेनाओं के द्वारा भी श्रीराम के बल को कुण्ठित नहीं कर सकते। देवताओं तथा इन्द्र आदि के साथ मिले हुए तीनों लोक भी यदि आक्रमण करें तो वे श्रीराम के बल का वेग नहीं रोक सकते; अतः आपका हृदय शान्त हो। आप संताप छोड़ दें॥१४-१५ ॥

आगमिष्यति ते भर्ता शीघ्रं हत्वा मृगोत्तमम्।
न स तस्य स्वरो व्यक्तं न कश्चिदपि दैवतः॥ १६॥
गन्धर्वनगरप्रख्या माया तस्य च रक्षसः।

‘आपके पतिदेव उस सुन्दर मृग को मारकर शीघ्र ही लौट आयेंगे। वह शब्द जो आपने सुना था, अवश्य ही उनका नहीं था। किसी देवता ने कोई शब्द प्रकट किया हो, ऐसी बात भी नहीं है। वह तो उस राक्षस की गन्धर्वनगर के समान झूठी माया ही थी॥ १६ १/२

न्यासभूतासि वैदेहि न्यस्ता मयि महात्मना॥ १७॥
रामेण त्वं वरारोहे न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे।

‘सुन्दरि! विदेहनन्दिनि! महात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने मुझपर आपकी रक्षा का भार सौंपा है। इस समय आप मेरे पास उनकी धरोहर के रूप में हैं। अतः आपको मैं यहाँ अकेली नहीं छोड़ सकता॥ १७ १/२॥

कृतवैराश्च कल्याणि वयमेतैर्निशाचरैः॥१८॥
खरस्य निधने देवि जनस्थानवधं प्रति।।

‘कल्याणमयी देवि! जिस समय खर का वध किया गया, उस समय जनस्थान निवासी दूसरे बहुत-से राक्षस भी मारे गये थे, इस कारण इन निशाचरों ने हमारे साथ वैर बाँध लिया है॥ १८ १/२ ॥

राक्षसा विविधा वाचो व्याहरन्ति महावने॥१९॥
हिंसाविहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि।

‘विदेहनन्दिनि! प्राणियों की हिंसा ही जिनका क्रीड़ा-विहार या मनोरञ्जन है, वे राक्षस ही इस विशाल वन में नाना प्रकार की बोलियाँ बोला करते हैं; अतः आपको चिन्ता नहीं करनी चाहिये’॥ १९ १/२॥

लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु क्रुद्धा संरक्तलोचना॥२०॥
अब्रवीत् परुषं वाक्यं लक्ष्मणं सत्यवादिनम्।

लक्ष्मण के ऐसा कहने पर सीता को बड़ा क्रोध हुआ, उनकी आँखें लाल हो गयीं और वे सत्यवादी लक्ष्मण से कठोर बातें कहने लगीं- ॥ २० १/२॥

अनार्याकरुणारम्भ नृशंस कुलपांसन॥२१॥
अहं तव प्रियं मन्ये रामस्य व्यसनं महत्।
रामस्य व्यसनं दृष्ट्वा तेनैतानि प्रभाषसे॥२२॥

‘अनार्य! निर्दयी! क्रूरकर्मा! कुलाङ्गार! मैं तुझे खूब समझती हूँ। श्रीराम किसी भारी विपत्ति में पड़ जायँ, यही तुझे प्रिय है। इसीलिये तू राम पर संकट आया देखकर भी ऐसी बातें बना रहा है॥ २१-२२॥

नैव चित्रं सपनेषु पापं लक्ष्मण यद् भवेत्।
त्वद्विधेषु नृशंसेषु नित्यं प्रच्छन्नचारिषु॥२३॥

‘लक्ष्मण! तेरे-जैसे क्रूर एवं सदा छिपे हुए शत्रुओं के मन में इस तरह का पापपूर्ण विचार होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है॥ २३॥

सुदुष्टस्त्वं वने राममेकमेकोऽनुगच्छसि।
मम हेतोः प्रतिच्छन्नः प्रयुक्तो भरतेन वा॥२४॥

‘तू बड़ा दुष्ट है, श्रीराम को अकेले वन में आते देख मुझे प्राप्त करने के लिये ही अपने भाव को छिपाकर तू भी अकेला ही उनके पीछे-पीछे चला आया है, अथवा यह भी सम्भव है कि भरत ने ही तुझे भेजा हो॥

तन्न सिध्यति सौमित्रे तवापि भरतस्य वा।
कथमिन्दीवरश्यामं रामं पद्मनिभेक्षणम्॥२५॥
उपसंश्रित्य भर्तारं कामयेयं पृथग्जनम्।

‘परंतु सुमित्राकुमार! तेरा या भरत का वह मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता। नीलकमल के समान श्यामसुन्दर कमलनयन श्रीराम को पतिरूप में पाकर मैं दूसरे किसी क्षुद्र पुरुष की कामना कैसे कर सकती हूँ? ॥ २५॥

समक्षं तव सौमित्रे प्राणांस्त्यक्ष्याम्यसंशयम्॥ २६॥
रामं विना क्षणमपि नैव जीवामि भूतले।

‘सुमित्राकुमार! मैं तेरे सामने ही निःसंदेह अपने प्राण त्याग दूंगी, किंतु श्रीराम के बिना एक क्षण भी इस भूतलपर जीवित नहीं रह सकूँगी’ ॥ २६ १/२॥

इत्युक्तः परुषं वाक्यं सीतया रोमहर्षणम्॥२७॥
अब्रवील्लक्ष्मणः सीतां प्राञ्जलिः स जितेन्द्रियः।
उत्तरं नोत्सहे वक्तुं दैवतं भवती मम॥२८॥

सीता ने जब इस प्रकार कठोर तथा रोंगटे खड़े कर देने वाली बात कही, तब जितेन्द्रिय लक्ष्मण हाथ जोड़कर उनसे बोले—’देवि! मैं आपकी बातका जवाब नहीं दे सकता; क्योंकि आप मेरे लिये आराधनीया देवी के समान हैं॥ २७-२८॥

वाक्यमप्रतिरूपं तु न चित्रं स्त्रीषु मैथिलि।
स्वभावस्त्वेष नारीणामेषु लोकेषु दृश्यते॥२९॥

‘मिथिलेशकुमारी! ऐसी अनुचित और प्रतिकूल बातें मुँह से निकालना स्त्रियों के लिये आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि इस संसार में नारियों का ऐसा स्वभाव बहुधा देखा जाता है।॥ २९॥

विमुक्तधर्माश्चपलास्तीक्ष्णा भेदकराः स्त्रियः।
न सहे हीदृशं वाक्यं वैदेहि जनकात्मजे॥३०॥
श्रोत्रयोरुभयोर्मध्ये तप्तनाराचसंनिभम्।

‘स्त्रियाँ प्रायः विनय आदि धर्मोंसे रहित, चञ्चल, कठोर तथा घरमें फूट डालनेवाली होती हैं। विदेहकुमारी जानकी! आपकी यह बात मेरे दोनों कानोंमें तपाये हुए लोहेके समान लगी है। मैं ऐसी बात सह नहीं सकता। ३० १/२ ॥

उपशृण्वन्तु मे सर्वे साक्षिणो हि वनेचराः॥३१॥
न्यायवादी यथा वाक्यमुक्तोऽहं परुषं त्वया।
धिक् त्वामद्य विनश्यन्तीं यन्मामेवं विशङ्कसे॥ ३२॥
स्त्रीत्वाद् दुष्टस्वभावेन गुरुवाक्ये व्यवस्थितम्।
ङ्केाच्छामि काकुत्स्थः स्वस्ति तेऽस्तु वरानने ३३॥

‘इस वन में विचरने वाले सभी प्राणी साक्षी होकर मेरा कथन सुनें। मैंने न्याययुक्त बात कही है तो भी आपने मेरे प्रति ऐसी कठोर बात अपने मुँह से निकाली है। निश्चय ही आज आपकी बुद्धि मारी गयी है। आप नष्ट होना चाहती हैं। धिक्कार है आपको, जो आप मुझपर ऐसा संदेह करती हैं। मैं बड़े भाई की आज्ञा का पालन करने में दृढ़तापूर्वक तत्पर हूँ और आप केवल नारी होने के कारण साधारण स्त्रियों के दुष्ट स्वभाव को अपनाकर मेरे प्रति ऐसी आशङ्का करती हैं। अच्छा अब मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ भैया श्रीराम गये हैं। सुमुखि! आपका कल्याण हो॥ ३१-३३॥

रक्षन्तु त्वां विशालाक्षि समग्रा वनदेवताः।
निमित्तानि हि घोराणि यानि प्रादुर्भवन्ति मे।
अपि त्वां सह रामेण पश्येयं पुनरागतः॥ ३४॥

‘विशाललोचने! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें; क्योंकि इस समय मेरे सामने जो बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उन्होंने मुझे संशय में डाल दिया है। क्या मैं श्रीरामचन्द्रजी के साथ लौटकर पुनः आपको सकुशल देख सकूँगा?’ ॥ ३४॥

लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु रुदती जनकात्मजा।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं तीव्रबाष्पपरिप्लुता॥ ३५॥

लक्ष्मण के ऐसा कहने पर जनककिशोरी सीता रोने लगीं। उनके नेत्रों से आँसुओं की तीव्र धारा बह चली। वे उन्हें इस प्रकार उत्तर देती हुई बोलीं- ॥ ३५ ॥

गोदावरी प्रवेक्ष्यामि हीना रामेण लक्ष्मण।
आबन्धिष्येऽथवा त्यक्ष्ये विषमे देहमात्मनः॥ ३६॥
पिबामि वा विषं तीक्ष्णं प्रवेक्ष्यामि हताशनम।
न त्वहं राघवादन्यं कदापि पुरुषं स्पृशे॥३७॥

‘लक्ष्मण! मैं श्रीराम से बिछुड़ जाने पर गोदावरी नदी में समा जाऊँगी अथवा गले में फाँसी लगा लूँगी अथवा पर्वत के दुर्गम शिखर पर चढ़कर वहाँ से अपने शरीर को नीचे डाल दूँगी या तीव्र विष पान कर लूँगी अथवा जलती आग में प्रवेश कर जाऊँगी, परंतु श्रीरघुनाथजी के सिवा दूसरे किसी पुरुष का कदापि स्पर्श नहीं करूँगी’ ॥ ३६-३७॥

इति लक्ष्मणमाश्रुत्य सीता शोकसमन्विता।
पाणिभ्यां रुदती दुःखादुदरं प्रजघान ह॥३८॥

लक्ष्मण के सामने यह प्रतिज्ञा करके शोकमग्न होकर रोती हुई सीता अधिक दुःख के कारण दोनों हाथों से अपने उदरपर आघात करने लगी छाती पीटने लगीं॥ ३८॥

तामार्तरूपां विमना रुदन्ती सौमित्रिरालोक्य विशालनेत्राम्।
आश्वासयामास न चैव भर्तुस्तं भ्रातरं किंचिदुवाच सीता॥३९॥

विशाललोचना सीता को आर्त होकर रोती देख सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने मन-ही-मन उन्हें सान्त्वना दी, परंतु सीता उस समय अपने देवर से कुछ नहीं बोलीं॥

ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः कृताञ्जलिः किंचिदभिप्रणम्य।
अवेक्षमाणो बहुशः स मैथिली जगाम रामस्य समीपमात्मवान्॥४०॥

तब मन को वश में रखने वाले लक्ष्मण ने दोनों हाथ जोड़ कुछ झुककर मिथिलेशकुमारी सीता को प्रणाम किया और बारंबार उनकी ओर देखते हुए वे श्रीरामचन्द्रजी के पास चल दिये॥ ४०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चचत्वारिंशः सर्गः॥ ४५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४५॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: