RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 48 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 48

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 48)

रावण के द्वारा अपने पराक्रम का वर्णन और सीता द्वारा उसको कड़ी फटकार

 

एवं ब्रुवत्यां सीतायां संरब्धः परुषं वचः।
ललाटे भ्रकुटिं कृत्वा रावणः प्रत्युवाच ह॥१॥

सीता के ऐसा कहने पर रावण रोष में भर गया और ललाट में भौहें टेढ़ी करके वह कठोर वाणी में बोला – ॥१॥

भ्राता वैश्रवणस्याहं सापत्नो वरवर्णिनि।
रावणो नाम भद्रं ते दशग्रीवः प्रतापवान्॥२॥

‘सुन्दरि! मैं कुबेर का सौतेला भाई परम प्रतापी दशग्रीव रावण हूँ। तुम्हारा भला हो॥२॥

यस्य देवाः सगन्धर्वाः पिशाचपतगोरगाः।
विद्रवन्ति सदा भीता मृत्योरिव सदा प्रजाः॥३॥
येन वैश्रवणो भ्राता वैमात्राः कारणान्तरे।
द्वन्द्वमासादितः क्रोधाद् रणे विक्रम्य निर्जितः॥ ४॥

‘जैसे प्रजा मौत के भय से सदा डरती रहती है, उसी प्रकार देवता, गन्धर्व, पिशाच, पक्षी और नाग सदा जिससे भयभीत होकर भागते हैं, जिसने किसी कारणवश अपने सौतेले भाई कुबेर के साथ द्वन्द्वयुद्ध किया और क्रोधपूर्वक पराक्रम करके रणभूमि में उन्हें परास्त कर दिया था, वही रावण मैं हूँ। ३-४॥

मद्भयार्तः परित्यज्य स्वमधिष्ठानमृद्धिमत्।
कैलास पर्वतश्रेष्ठमध्यास्ते नरवाहनः॥५॥

‘मेरे ही भय से पीड़ित हो नरवाहन कुबेर ने अपनी समृद्धिशालिनी पुरी लङ्का का परित्याग करके इस समय पर्वतश्रेष्ठ कैलास की शरण ली है॥ ५॥

यस्य तत् पुष्पकं नाम विमानं कामगं शुभम्।
वीर्यादावर्जितं भद्रे येन यामि विहायसम्॥६॥

‘भद्रे! उनका सुप्रसिद्ध पुष्पक नामक सुन्दर विमान, जो इच्छा के अनुसार चलने वाला है, मैंने पराक्रम से जीत लिया है और उसी विमान के द्वारा मैं आकाश में विचरता हूँ॥६॥

मम संजातरोषस्य मुखं दृष्ट्वैव मैथिलि।
विद्रवन्ति परित्रस्ताः सुराः शक्रपुरोगमाः॥७॥

‘मिथिलेशकुमारी! जब मुझे रोष चढ़ता है, उस समय इन्द्र आदि सब देवता मेरा मुँह देखकर ही भय से थर्रा उठते हैं और इधर-उधर भाग जाते हैं। ७॥

यत्र तिष्ठाम्यहं तत्र मारुतो वाति शङ्कितः।
तीव्रांशुः शिशिरांशुश्च भयात् सम्पद्यते दिवि॥ ८॥

‘जहाँ मैं खड़ा होता हूँ, वहाँ हवा डरकर धीरे-धीरे चलने लगती है। मेरे भय से आकाश में प्रचण्ड किरणों वाला सूर्य भी चन्द्रमा के समान शीतल हो जाता है॥८॥

निष्कम्पपत्रास्तरवो नद्यश्च स्तिमितोदकाः।
भवन्ति यत्र तत्राहं तिष्ठामि च चरामि च॥९॥

‘जिस स्थान पर मैं ठहरता या भ्रमण करता हूँ, वहाँ वृक्षों के पत्ते तक नहीं हिलते और नदियों का पानी स्थिर हो जाता है॥९॥

मम पारे समुद्रस्य लङ्का नाम पुरी शुभा।
सम्पूर्णा राक्षसैोरैर्यथेन्द्रस्यामरावती॥१०॥

‘समुद्र के उस पार लङ्का नामक मेरी सुन्दर पुरी है, जो इन्द्र की अमरावती के समान मनोहर तथा घोरराक्षसों से भरी हुई है॥ १० ॥

प्राकारेण परिक्षिप्ता पाण्डुरेण विराजिता।
हेमकक्ष्या पुरी रम्या वैदूर्यमयतोरणा ॥११॥

‘उसके चारों ओर बनी हुई सफेद चहारदिवारी उस पुरी की शोभा बढ़ाती है। लङ्कापुरी के महलों के दालान, फर्श आदि सोने के बने हैं और उसके बाहरी दरवाजे वैदूर्यमय हैं। वह पुरी बहुत ही रमणीय है।
११॥

हस्त्यश्वरथसम्बाधा तूर्यनादविनादिता।
सर्वकामफलैर्वृक्षैः संकुलोद्यानभूषिता॥१२॥

‘हाथी, घोड़े और रथों से वहाँ की सड़कें भरी रहती हैं। भाँति-भाँति के वाद्यों की ध्वनि गूंजा करती है। सब प्रकार के मनोवाञ्छित फल देने वाले वृक्षों से लङ्कापुरी व्याप्त है। नाना प्रकार के उद्यान उसकी शोभा बढ़ाते हैं॥ १२॥

तत्र त्वं वस हे सीते राजपुत्रि मया सह।
न स्मरिष्यसि नारीणां मानुषीणां मनस्विनि॥ १३॥

‘राजकुमारी सीते! तुम मेरे साथ उस पुरी में चलकर निवास करो। मनस्विनि! वहाँ रहकर तुम मानवी स्त्रियों को भूल जाओगी॥ १३ ॥

भुञ्जाना मानुषान् भोगान् दिव्यांश्च वरवर्णिनि।
न स्मरिष्यसि रामस्य मानुषस्य गतायुषः ॥१४॥

‘सुन्दरि! लङ्का में दिव्य और मानुष-भोगों का उपभोग करती हुई तुम उस मनुष्य राम का कभी स्मरण नहीं करोगी, जिसकी आयु अब समाप्त हो चली है॥ १४॥

स्थापयित्वा प्रियं पुत्रं राज्ये दशरथो नृपः।
मन्दवीर्यस्ततो ज्येष्ठः सुतः प्रस्थापितो वनम्॥
तेन किं भ्रष्टराज्येन रामेण गतचेतसा।
करिष्यसि विशालाक्षि तापसेन तपस्विना॥१६॥

‘विशाललोचने! राजा दशरथ ने अपने प्यारे पुत्र को राज्य पर बिठाकर जिस अल्पपराक्रमी ज्येष्ठ पुत्र को वन में भेज दिया, उस राज्यभ्रष्ट, बुद्धिहीन एवं तपस्या में लगे हुए तापस राम को लेकर क्या करोगी? ॥ १५-१६॥

रक्ष राक्षसभर्तारं कामय स्वयमागतम्।
न मन्मथशराविष्टं प्रत्याख्यातुं त्वमर्हसि ॥१७॥

‘यह राक्षसों का स्वामी स्वयं तुम्हारे द्वार पर आया है, तुम इसकी रक्षा करो, इसे मन से चाहो यह कामदेव के बाणों से पीड़ित है। इसे ठुकराना तुम्हारे लिये उचित नहीं है॥ १७॥

प्रत्याख्याय हि मां भीरु पश्चात्तापं गमिष्यसि।
चरणेनाभिहत्येव पुरूरवसमर्वशी॥१८॥

‘भीरु ! मुझे ठुकराकर तुम उसी तरह पश्चात्ताप करोगी, जैसे पुरूरवा को लात मारकर उर्वशी पछतायी थी॥ १८॥

अङ्गल्या न समो रामो मम युद्धे स मानुषः।
तव भाग्येन सम्प्राप्तं भजस्व वरवर्णिनि॥१९॥

‘सुन्दरि! युद्ध में मनुष्यजातीय राम मेरी एक अङ्गुलि के बराबर भी नहीं है। तुम्हारे भाग्य से मैं आ गया हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो’॥ १९ ॥

एवमुक्ता तु वैदेही क्रुद्धा संरक्तलोचना।
अब्रवीत् परुषं वाक्यं रहिते राक्षसाधिपम्॥२०॥

रावण के ऐसा कहने पर विदेहकुमारी सीता के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने उस एकान्त स्थान में राक्षसराज रावण से कठोर वाणी में कहा- ॥ २० ॥

कथं वैश्रवणं देवं सर्वदेवनमस्कृतम्।
भ्रातरं व्यपदिश्य त्वमशुभं कर्तुमिच्छसि॥२१॥

‘अरे! भगवान् कुबेर तो सम्पूर्ण देवताओं के वन्दनीय हैं। तू उन्हें अपना भाई बताकर ऐसा पापकर्म कैसे करना चाहता है ? ॥ २१॥

अवश्यं विनशिष्यन्ति सर्वे रावण राक्षसाः।
येषां त्वं कर्कशो राजा दुर्बुद्धिरजितेन्द्रियः॥ २२॥

‘रावण! जिनका तुझ-जैसा क्रूर, दुर्बुद्धि और अजितेन्द्रिय राजा है, वे सब राक्षस अवश्य ही नष्ट हो जायँगे॥ २२॥

अपहृत्य शची भार्यां शक्यमिन्द्रस्य जीवितुम्।
नहि रामस्य भार्यां मामानीय स्वस्तिमान् भवेत्॥ २३॥

‘इन्द्रकी पत्नी शची का अपहरण करके सम्भव है कोई जीवित रह जाय; किंतु रामपत्नी मुझ सीता का हरण करके कोई कुशल से नहीं रह सकता॥ २३ ॥

जीवेच्चिरं वज्रधरस्य पश्चाच्छची प्रधृष्याप्रतिरूपरूपाम्।
न मादृशीं राक्षस धर्षयित्वा पीतामृतस्यापि तवास्ति मोक्षः॥२४॥

‘राक्षस! वज्रधारी इन्द्र की अनुपम रूपवती भार्या शची का तिरस्कार करके सम्भव है कोई उसके बाद भी चिरकाल तक जीवित रह जाय; परंतु मेरी-जैसी स्त्री का अपमान करके तू अमृत पी ले तो भी तुझे जीते-जी छुटकारा नहीं मिल सकता’ ॥ २४॥

त्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डेऽष्टचत्वारिंशः सर्गः॥४८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४८॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: