RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 50 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 50

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 50)

जटायु का रावण को सीताहरण के दुष्कर्म से निवृत्त होने के लिये समझाना और अन्त में युद्ध के लिये ललकारना

 

तं शब्दमवसुप्तस्तु जटायुरथ शुश्रुवे।
निरैक्षद् रावणं क्षिप्रं वैदेहीं च ददर्श सः॥१॥

जटायु उस समय सो रहे थे। उसी अवस्था में उन्होंने सीता की वह करुण पुकार सुनी। सुनते ही तुरंत आँख खोलकर उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता तथा रावण को देखा॥

ततः पर्वतशृङ्गाभस्तीक्ष्णतुण्डः खगोत्तमः।
वनस्पतिगतः श्रीमान् व्याजहार शुभां गिरम्॥ २॥

पक्षियों में श्रेष्ठ श्रीमान् जटायु का शरीर पर्वतशिखर के समान ऊँचा था और उनकी चोंच बड़ी ही तीखी थी। वे पेड़ पर बैठे-ही-बैठे रावण को लक्ष्य करके यह शुभ वचन बोले- ॥२॥

दशग्रीव स्थितो धर्मे पुराणे सत्यसंश्रयः।
भ्रातस्त्वं निन्दितं कर्म कर्तुं नार्हसि साम्प्रतम्॥ ३॥
जटायुर्नाम नाम्नाहं गृध्रराजो महाबलः।

‘दशमुख रावण! मैं प्राचीन (सनातन) धर्म में स्थित, सत्यप्रतिज्ञ और महाबलवान् गृध्रराज हूँ। मेरा नाम जटायु है। भैया! इस समय मेरे सामने तुम्हें ऐसा निन्दित कर्म नहीं करना चाहिये॥ ३ १/२ ॥

राजा सर्वस्य लोकस्य महेन्द्रवरुणोपमः॥४॥
लोकानां च हिते युक्तो रामो दशरथात्मजः।

‘दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी सम्पूर्ण जगत् के स्वामी, इन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी तथा सब लोगों के हित में संलग्न रहने वाले हैं। ४ १/२॥

तस्यैषा लोकनाथस्य धर्मपत्नी यशस्विनी॥५॥
सीता नाम वरारोहा यां त्वं हर्तुमिहेच्छसि।

‘ये उन्हीं जगदीश्वर श्रीराम की यशस्विनी धर्मपत्नी हैं। इन सुन्दर शरीरवाली देवी का नाम सीता है, जिन्हें तुम हरकर ले जाना चाहते हो॥ ५ १/२ ॥

कथं राजा स्थितो धर्मे परदारान् परामृशेत्॥६॥
रक्षणीया विशेषेण राजदारा महाबल।
निवर्तय गतिं नीचां परदाराभिमर्शनात्॥७॥

‘अपने धर्म में स्थित रहने वाला कोई भी राजा भला परायी स्त्री का स्पर्श कैसे कर सकता है? महाबली रावण! राजाओं की स्त्रियों की तो सभी को विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिये। परायी स्त्री के स्पर्श से जो नीच गति प्राप्त होनेवाली है, उसे अपने-आपसे दूर हटा दो॥

न तत् समाचरेद् धीरो यत् परोऽस्य विगर्हयेत्।
यथाऽऽत्मनस्तथान्येषां दारा रक्ष्या विमर्शनात्॥ ८॥

‘धीर (बुद्धिमान्) वह कर्म न करे जिसकी दूसरे लोग निन्दा करें। जैसे पराये पुरुषों के स्पर्श से अपनी स्त्री की रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरों की स्त्रियों की भी रक्षा करनी चाहिये॥८॥

अर्थं वा यदि वा कामं शिष्टाः शास्त्रेष्वनागतम्।
व्यवस्यन्त्यनुराजानं धर्मं पौलस्त्यनन्दन॥९॥

‘पुलस्त्यकुलनन्दन ! जिनकी शास्त्रों में चर्चा नहीं है ऐसे धर्म, अर्थ अथवा काम का भी श्रेष्ठ पुरुष केवल राजा की देखादेखी आचरण करने लगते हैं (अतःराजा को अनुचित या अशास्त्रीय कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये) ॥९॥

राजा धर्मश्च कामश्च द्रव्याणां चोत्तमो निधिः।
धर्मः शुभं वा पापं वा राजमूलं प्रवर्तते॥१०॥

‘राजा धर्म और काम का प्रवर्तक तथा द्रव्यों की उत्तम निधि है, अतः धर्म, सदाचार अथवा पापइन की प्रवृत्ति का मूल कारण राजा ही है॥ १० ॥

पापस्वभावश्चपलः कथं त्वं रक्षसां वर।
ऐश्वर्यमभिसम्प्राप्तो विमानमिव दुष्कृती॥११॥

‘राक्षसराज! जब तुम्हारा स्वभाव ऐसा पापपूर्ण है और तुम इतने चपल हो, तब पापी को देवताओं के विमान की भाँति तुम्हें यह ऐश्वर्य कैसे प्राप्त हो गया?॥

कामस्वभावो यःसोऽसौ न शक्यस्तं प्रमार्जितुम्।
नहि दुष्टात्मनामार्यमावसत्यालये चिरम्॥१२॥

‘जिसके स्वभाव में काम की प्रधानता है, उसके उस स्वभाव का परिमार्जन नहीं किया जा सकता; क्योंकि दुष्टात्माओं के घर में दीर्घकाल के बाद भी पुण्य का आवास नहीं होता॥ १२ ॥

विषये वा पुरे वा ते यदा रामो महाबलः।
नापराध्यति धर्मात्मा कथं तस्यापराध्यसि॥१३॥

‘जब महाबली धर्मात्मा श्रीराम तुम्हारे राज्य अथवा नगर में कोई अपराध नहीं करते हैं, तब तुम उनका अपराध कैसे कर रहे हो? ॥ १३॥

यदि शूर्पणखाहेतोर्जनस्थानगतः खरः।
अतिवृत्तो हतः पूर्वं रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥१४॥
अत्र ब्रूहि यथातत्त्वं को रामस्य व्यतिक्रमः।
यस्य त्वं लोकनाथस्य हृत्वा भार्यां गमिष्यसि॥ १५॥

‘यदि पहले शूर्पणखा का बदला लेने के लिये चढ़कर आये हुए अत्याचारी खर का अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम ने वध किया तो तुम्हीं । ठीक-ठीक बताओ कि इसमें श्रीराम का क्या अपराध है, जिससे तुम उन जगदीश्वर की पत्नी को हर ले जाना चाहते हो?॥

क्षिप्रं विसृज वैदेहीं मा त्वा घोरेण चक्षुषा।
दहेद् दहनभूतेन वृत्रमिन्द्राशनिर्यथा॥१६॥

‘रावण! अब शीघ्र ही विदेहकुमारी सीता को छोड़ दो जिससे श्रीरामचन्द्रजी अपनी अग्नि के समान भयंकर दृष्टि से  तुम्हें जलाकर भस्म न कर डालें। जैसे इन्द्र का वज्र वृत्रासुर का विनाश कर डाला था, उसी प्रकार श्रीराम की रोषपूर्ण दृष्टि दग्ध कर डालेगी। १६॥

सर्पमाशीविषं बद्ध्वा वस्त्रान्ते नावबुध्यसे।
ग्रीवायां प्रतिमुक्तं च कालपाशं न पश्यसि॥ १७॥

‘तुमने अपने कपड़े में विषधर सर्प को बाँध लिया है, फिर भी इस बात को समझ नहीं पाते हो। तुमने अपने गले में मौत की फाँसी डाल ली है, फिर भी यह तुम्हें सूझ नहीं रहा है॥ १७॥

स भारः सौम्य भर्तव्यो यो नरं नावसादयेत्।
तदन्नमपि भोक्तव्यं जीर्यते यदनामयम्॥१८॥

‘सौम्य! पुरुष को उतना ही बोझ उठाना चाहिये, जो उसे शिथिल न कर दे और वही अन्न भोजन करना चाहिये, जो पेट में जाकर पच जाय, रोग न पैदा करे॥

यत् कृत्वा न भवेद् धर्मो न कीर्तिर्न यशो ध्रुवम्।
शरीरस्य भवेत् खेदः कस्तत् कर्म समाचरेत्॥ १९॥

‘जो कार्य करने से न तो धर्म होता हो, न कीर्ति बढ़ती हो और न अक्षय यश ही प्राप्त होता हो, उल्टे शरीर को खेद हो रहा हो, उस कर्म का अनुष्ठान कौन करेगा? ॥ १९॥

षष्टिवर्षसहस्राणि जातस्य मम रावण।
पितृपैतामहं राज्यं यथावदनुतिष्ठतः॥२०॥

‘रावण! बाप-दादों से प्राप्त इस पक्षियों के राज्य का विधिवत् पालन करते हुए मुझे जन्म से लेकर अबतक साठ हजार वर्ष बीत गये॥ २०॥

वृद्धोऽहं त्वं युवा धन्वी सरथः कवची शरी।
न चाप्यादाय कुशली वैदेहीं मे गमिष्यसि॥

‘अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और तुम नवयुवक हो (मेरे पास कोई युद्ध का साधन नहीं है, किंतु) तुम्हारे पास धनुष, कवच, बाण तथा रथ सब कुछ है, फिर भी तुम सीताको लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकोगे॥

न शक्तस्त्वं बलाद्धा वैदेहीं मम पश्यतः।
हेतुभिर्यायसंयुक्तैर्बुवां वेदश्रुतीमिव॥२२॥

‘मेरे देखते-देखते तुम विदेहनन्दिनी सीता का बलपूर्वक अपहरण नहीं कर सकते; ठीक उसी तरह जैसे कोई न्यायसङ्गत हेतुओं से सत्य सिद्ध हुई वैदिक श्रुति को अपनी युक्तियों के बलपर पलट नहीं सकता।

युध्यस्व यदि शूरोऽसि मुहूर्तं तिष्ठ रावण।
शयिष्यसे हतो भूमौ यथा पूर्वं खरस्तथा ॥२३॥

‘रावण! यदि शूरवीर हो तो युद्ध करो। मेरे सामने दो घड़ी ठहर जाओ; फिर जैसे पहले खर मारा गया था, उसी प्रकार तुम भी मेरे द्वारा मारे जाकर सदा के लिये सो जाओगे॥ २३॥

असकृत्संयुगे येन निहता दैत्यदानवाः।
न चिराच्चीरवासास्त्वां रामो युधि वधिष्यति॥ २४॥

‘जिन्होंने युद्ध में अनेक बार दैत्यों और दानवों का वध किया है, वे चीरवस्त्रधारी भगवान् श्रीराम तुम्हारा भी शीघ्र ही युद्धभूमि में विनाश करेंगे॥२४॥

किं नु शक्यं मया कर्तुं गतौ दूरं नृपात्मजौ।
क्षिप्रं त्वं नश्यसे नीच तयोर्भातो न संशयः॥ २५॥

‘इस समय मैं क्या कर सकता हूँ, वे दोनों राजकुमार बहुत दूर चले गये हैं। नीच! (यदि मैं उन्हें बुलाने जाऊँ तो) तुम उन दोनों से भयभीत होकर शीघ्र ही भाग जाओगे (आँखों से ओझल हो जाओगे), इसमें संशय नहीं है॥ २५ ॥

नहि मे जीवमानस्य नयिष्यसि शुभामिमाम्।
सीतां कमलपत्राक्षीं रामस्य महिषीं प्रियाम्॥ २६॥

‘कमल के समान नेत्रोंवाली ये शुभलक्षणा सीता श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी पटरानी हैं। इन्हें मेरे जीते-जी तुम नहीं ले जाने पाओगे॥ २६ ॥

अवश्यं त् मया कार्यं प्रियं तस्य महात्मनः।
जीवितेनापि रामस्य तथा दशरथस्य च ॥ २७॥

‘मुझे अपने प्राण देकर भी महात्मा श्रीराम तथा राजा दशरथ का प्रिय कार्य अवश्य करना होगा। २७॥

तिष्ठ तिष्ठ दशग्रीव मुहूर्तं पश्य रावण।
वृन्तादिव फलं त्वां तु पातयेयं रथोत्तमात्।
युद्धातिथ्यं प्रदास्यामि यथाप्राणं निशाचर॥ २८॥

‘दशमुख रावण! ठहरो, ठहरो! केवल दो घड़ी रुक जाओ, फिर देखो, जैसे डंठल से फल गिरता है, उसी प्रकार तुम्हें इस उत्तम रथ से नीचे गिराये देता हूँ। निशाचर! अपनी शक्ति के अनुसार युद्ध में मैं तुम्हारा पूरा आतिथ्य-सत्कार करूँगा–तुम्हें भलीभाँति भेंट पूजा दूंगा’ ॥ २८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चाशः सर्गः॥५०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ।५०॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 50 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 50

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: