वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 51 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 51
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 51)
जटायु तथा रावण का घोर युद्ध और रावण के द्वारा जटायु का वध
इत्युक्तः क्रोधताम्राक्षस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः।
राक्षसेन्द्रोऽभिदुद्राव पतगेन्द्रममर्षणः॥१॥
जटायु के ऐसा कहने पर राक्षसराज रावण क्रोध से आँखें लाल किये अमर्ष में भरकर उन पक्षिराज की ओर दौड़ा। उस समय उसके कानों में तपाये हुए सोने के कुण्डल झलमला रहे थे॥१॥
स सम्प्रहारस्तुमुलस्तयोस्तस्मिन् महामृधे।
बभूव वातो तयोर्मेघयोर्गगने यथा॥२॥
उस महासमर में उन दोनों का एक-दूसरे पर भयंकर प्रहार होने लगा, मानो आकाश में वायु से उड़ाये गये दो मेघखण्ड आपस में टकरा गये हों॥२॥
तद् बभूवाद्भुतं युद्धं गृध्रराक्षसयोस्तदा।
सपक्षयोर्माल्यवतोर्महापर्वतयोरिव॥३॥
उस समय गृध्र और राक्षस में वह बड़ा अद्भुत युद्ध होने लगा, मानो दो पंखधारी माल्यवान् * पर्वत एक दूसरे से भिड़ गये हों॥३॥
* माल्यवान् पर्वत दो माने गये हैं, एक तो दण्डकारण्य में किष्किन्धा के समीप है और दूसरा मेरुपर्वत के निकट बताया गया है। ये दोनों पर्वत परस्पर इतने दूर हैं कि इनमें संघर्ष की कोई सम्भावना नहीं हो सकती। इसलिये ‘सपक्ष’ (पंखधारी) विशेषण दिया गया है। पाँखवाले पर्वत कदाचित् उड़कर एक-दूसरे के समीप पहुँच सकते हैं।
ततो नालीकनाराचैस्तीक्ष्णाग्रैश्च विकर्णिभिः ।
अभ्यवर्षन्महाघोरैर्गृध्रराजं महाबलम्॥४॥
रावण ने महाबली गृध्रराज जटायुपर नालीक, नाराच तथा तीखे अग्रभागवाले विकर्णी नामक महाभयंकर अस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी॥ ४॥
स तानि शरजालानि गृध्रः पत्ररथेश्वरः।
जटायुः प्रतिजग्राह रावणास्त्राणि संयुगे॥५॥
पक्षिराज गृध्रजातीय जटायु ने युद्ध में रावण के उन बाणसमूहों तथा अन्य अस्त्रों का आघात सह लिया। ५॥
तस्य तीक्ष्णनखाभ्यां तु चरणाभ्यां महाबलः।
चकार बहुधा गात्रे व्रणान् पतगसत्तमः॥६॥
साथ ही उन महाबली पक्षिशिरोमणि ने अपने तीखे नखोंवाले पंजों से मार-मारकर रावण के शरीर में बहुत से घाव कर दिये॥६॥
अथ क्रोधाद दशग्रीवो जग्गाह दशा मागणाना
मृत्युदण्डनिभान् घोरान् शत्रोर्निधनकांक्षया॥७॥
तब दशग्रीव ने क्रोध में भरकर अपने शत्रु को मार डालने की इच्छा से दस बाण हाथ में लिये, जो कालदण्ड के समान भयंकर थे॥७॥
स तैर्बाणैर्महावीर्यः पूर्णमुक्तैरजिह्मगैः।
बिभेद निशितैस्तीक्ष्णैर्गुरूं घोरैः शिलीमुखैः॥ ८॥
महापराक्रमी रावण ने धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये उन सीधे जाने वाले तीखे, पैने और भयंकर बाणों द्वारा, जिनके मुखपर शल्य (काँटे) लगे हुए थे। गृध्रराज को क्षत-विक्षत कर दिया॥ ८॥
स राक्षसरथे पश्यञ्जानकी बाष्पलोचनाम्।
अचिन्तयित्वा बाणांस्तान् राक्षसं समभिद्रवत्॥ ९॥
जटायु ने देखा, जनकनन्दिनी सीता राक्षस के रथ पर बैठी हैं और नेत्रों से आँसू बहा रही हैं। उन्हें देखकर गृध्रराज अपने शरीर में लगते हुए उन बाणों की परवा न करके सहसा उस राक्षस पर टूट पड़े॥९॥
ततोऽस्य सशरं चापं मुक्तामणिविभूषितम्।
चरणाभ्यां महातेजा बभञ्ज पतगोत्तमः ॥१०॥
महातेजस्वी पक्षिराज जटायु ने मोती-मणियों से विभूषित, बाणसहित रावण के धनुष को अपने दोनों पैरों से मारकर तोड़ दिया॥१०॥
ततोऽन्यद् धनुरादाय रावणः क्रोधमूर्च्छितः।
ववर्ष शरवर्षाणि शतशोऽथ सहस्रशः॥११॥
फिर तो रावण क्रोध से भर गया और दूसरा धनुष हाथ में लेकर उसने सैकड़ों-हजारों बाणों की झड़ी लगा दी॥ ११॥
शरैरावारितस्तस्य संयुगे पतगेश्वरः।
कुलायमभिसम्प्राप्तः पक्षिवच्च बभौ तदा॥ १२॥
उस समय उस युद्धस्थल में गृध्रराज के चारों ओर बाणों का जाल-सा तन गया। वे उस समय घोंसले में बैठे हुए पक्षी के समान प्रतीत होने लगे॥ १२ ॥
स तानि शरजालानि पक्षाभ्यां तु विधूय ह।
चरणाभ्यां महातेजा बभञ्जास्य महद् धनुः॥ १३॥
तब महातेजस्वी जटायु ने अपने दोनों पंखों से ही उन बाणों को उड़ा दिया और पंजों की मार से पुनः उसके धनुष के टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥१३॥
तच्चाग्निसदृशं दीप्तं रावणस्य शरावरम्।
पक्षाभ्यां च महातेजा व्यधुनोत् पतगेश्वरः॥ १४॥
रावणका कवच अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। महातेजस्वी पक्षिराज ने उसे भी पंखों से ही मारकर छिन्न-भिन्न कर दिया॥१४॥
काञ्चनोरश्छदान् दिव्यान् पिशाचवदनान् खरान्।
तांश्चास्य जवसम्पन्नाञ्जघान समरे बली॥१५॥
तत्पश्चात् उन बलवान् वीर ने समराङ्गण में पिशाच के-से मुखवाले उन वेगशाली गधों को भी, जिनकी छाती पर सोने के कवच बँधे हुए थे, मार डाला॥ १५ ॥
अथ त्रिवेणुसम्पन्नं कामगं पावकार्चिषम्।
मणिसोपानचित्राङ्गं बभञ्ज च महारथम्॥१६॥
तदनन्तर अग्नि की भाँति दीप्तिमान्, मणिमय सोपान से विचित्र अङ्गोंवाले तथा इच्छानुसार चलने वाले उसके त्रिवेणुसम्पन्न* विशाल रथ को भी तोड़-फोड़ डाला॥१६॥
* त्रिवेणु रथ का वह अङ्ग है, जो जूए को धारण करता है। इसका पर्याय है युगन्धर।
पूर्णचन्द्रप्रतीकाशं छत्रं च व्यजनैः सह।
पातयामास वेगेन ग्राहिभी राक्षसैः सह ॥१७॥
सारथेश्चास्य वेगेन तुण्डेन च महच्छिरः।
पुनर्व्यपहनच्छ्रीमान् पक्षिराजो महाबलः॥१८॥
इसके बाद पूर्ण चन्द्रमा की भाँति सुशोभित छत्र और चवँर को भी उन्हें धारण करने वाले राक्षसों के साथ ही वेगपूर्वक मार गिराया। फिर उन महाबली तेजस्वी पक्षिराज ने बड़े वेग से चोंच मारकर रावण के सारथि का विशाल मस्तक भी धड़ से अलग कर दिया॥ १७-१८॥
स भग्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
अङ्केनादाय वैदेहीं पपात भुवि रावणः॥१९॥
इस प्रकार जब धनुष टूटा, रथ चौपट हुआ, घोड़े मारे गये और सारथि भी काल के गाल में चला गया, तब रावण सीता को गोद में लिये-लिये पृथ्वी पर गिर पड़ा॥
दृष्ट्वा निपतितं भूमौ रावणं भग्नवाहनम्।
साधु साध्विति भूतानि गृध्रराजमपूजयन्॥२०॥
रथ टूट जाने से रावण को धरती पर पड़ा देख सब प्राणी ‘साधु-साधु’ कहकर गृध्रराज की प्रशंसा करने लगे॥
परिश्रान्तं तु तं दृष्ट्वा जरया पक्षियूथपम्।
उत्पपात पुनहष्टो मैथिली गृह्य रावणः॥२१॥
वृद्धावस्था के कारण पक्षिराज को थका हुआ देख रावण को बड़ा हर्ष हुआ और वह मैथिली को लिये हुए फिर आकाश में उड़ चला॥ २१॥
तं प्रहृष्टं निधायाङ्के रावणं जनकात्मजाम्।
गच्छन्तं खड्गशेषं च प्रणष्टहतसाधनम्॥२२॥
गृध्रराजः समुत्पत्य रावणं समभिद्रवत्।
समावार्य महातेजा जटायुरिदमब्रवीत्॥२३॥
जनककिशोरी को गोद में लेकर जब रावण प्रसन्नतापूर्वक जाने लगा, उस समय उसके अन्य सब साधन तो नष्ट हो गये थे, किंतु एक तलवार उसके पास शेष रह गयी थी। उसे जाते देख महातेजस्वी गृध्रराज जटायु उड़कर रावण की ओर दौड़े और उसे रोककर इस प्रकार बोले-॥ २२-२३॥
वज्रसंस्पर्शबाणस्य भार्यां रामस्य रावण।
अल्पबुद्धे हरस्येनां वधाय खलु रक्षसाम्॥२४॥
‘मन्दबुद्धि रावण! जिनके बाणों का स्पर्श वज्र के समान है, उन श्रीराम की इन धर्मपत्नी सीता को तुम अवश्य राक्षसों के वध के लिये ही लिये जा रहे हो॥
समित्रबन्धुः सामात्यः सबलः सपरिच्छदः।
विषपानं पिबस्येतत् पिपासित इवोदकम्॥२५॥
‘जैसे प्यासा मनुष्य जल पी रहा हो, उसी प्रकार तुम मित्र, बन्धु, मन्त्री, सेना तथा परिवारसहित यह विषपान कर रहे हो॥२५॥
अनुबन्धमजानन्तः कर्मणामविचक्षणाः।
शीघ्रमेव विनश्यन्ति यथा त्वं विनशिष्यसि॥ २६॥
‘अपने कर्मों का परिणाम न जानने वाले अज्ञानीजन जैसे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार तुम भी विनाश के गर्त में गिरोगे॥२६॥
बद्धस्त्वं कालपाशेन क्व गतस्तस्य मोक्ष्यसे।
वधाय बडिशं गृह्य सामिषं जलजो यथा॥२७॥
‘तुम कालपाश में बँध गये हो। कहाँ जाकर उससे छुटकारा पाओगे? जैसे जल में उत्पन्न होने वाला मत्स्य मांसयुक्त बंसी को अपने वध के लिये ही निगल जाता है, उसी प्रकार तुम भी अपने मौत के लिये ही सीता का अपहरण करते हो॥२७॥
नहि जातु दुराधर्षों काकुत्स्थौ तव रावण।
धर्षणं चाश्रमस्यास्य क्षमिष्येते तु राघवौ॥ २८॥
‘रावण! ककुत्स्थकुलभूषण रघुकुलनन्दन श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई दुर्धर्ष वीर हैं। वे तुम्हारे द्वारा अपने आश्रम पर किये गये इस अपमानजनक अपराध को कभी क्षमा नहीं करेंगे॥२८॥
यथा त्वया कृतं कर्म भीरुणा लोकगर्हितम्।
तस्कराचरितो मार्गो नैष वीरनिषेवितः॥२९॥
‘तुम कायर और डरपोक हो। तुमने जैसा लोकनिन्दित कर्म किया है, यह चोरों का मार्ग है। वीर पुरुष ऐसे मार्ग का आश्रय नहीं लेते हैं॥ २९॥
युद्ध्यस्व यदि शूरोऽसि मुहूर्तं तिष्ठ रावण।
शयिष्यसे हतो भूमौ यथा भ्राता खरस्तथा॥ ३०॥
‘रावण! यदि शूरवीर हो तो दो घड़ी और ठहरो और मुझसे युद्ध करो। फिर तो तुम भी उसी प्रकार मरकर पृथ्वी पर सो जाओगे, जैसे तुम्हारा भाई खर सोया था॥३०॥
परेतकाले पुरुषो यत् कर्म प्रतिपद्यते।
विनाशायात्मनोऽधर्म्यं प्रतिपन्नोऽसि कर्म तत्॥ ३१॥
‘विनाश के समय पुरुष जैसा कर्म करता है, तुमने भी अपने विनाश के लिये वैसे ही अधर्मपूर्ण कर्म को अपनाया है॥ ३१॥
पापानुबन्धो वै यस्य कर्मणः को नु तत् पुमान्।
कर्वीत लोकाधिपतिः स्वयंभूर्भगवानपि॥३२॥
‘जिस कर्म को करने से कर्ता का पाप के फल से सम्बन्ध होता है, उस कर्म को कौन पुरुष निश्चित रूप से कर सकता है। लोकपाल इन्द्र तथा भगवान् स्वयम्भू (ब्रह्मा) भी वैसा कर्म नहीं कर सकते’ ॥ ३२॥
एवमुक्त्वा शुभं वाक्यं जटायुस्तस्य रक्षसः।
निपपात भृशं पृष्ठे दशग्रीवस्य वीर्यवान्॥३३॥
तं गृहीत्वा नखैस्तीक्ष्णैर्विददार समन्ततः।
अधिरूढो गजारोहो यथा स्याद् दुष्टवारणम्॥३४॥
इस प्रकार उत्तम वचन कहकर पराक्रमी जटायु उस राक्षस दशग्रीव की पीठ पर बड़े वेग से जा बैठे और उसे पकड़कर अपने तीखे नखों द्वारा चारों ओर से चीरने लगे। मानो कोई हाथीवान् किसी दुष्ट हाथी के ऊपर सवार होकर उसे अंकुश से छेद रहा हो॥ ३३-३४॥
विददार नखैरस्य तुण्डं पृष्ठे समर्पयन्।
केशांश्चोत्पाटयामास नखपक्षमुखायुधः॥ ३५॥
नख, पाँख और चोंच—ये ही जटायु के हथियार थे। वे नखों से खरोंचते थे, पीठपर चोंच मारते थे और बाल पकड़कर उखाड़ लेते थे॥ ३५॥
स तथा गृध्रराजेन क्लिश्यमानो मुहर्मुहुः।
अमर्षस्फुरितोष्ठः सन् प्राकम्पत च राक्षसः॥ ३६॥
इस प्रकार जब गृध्रराज ने बारंबार क्लेश पहुँचाया, तब राक्षस रावण काँप उठा। क्रोध के मारे उसके ओठ फड़कने लगे॥ ३६॥
सम्परिष्वज्य वैदेहीं वामेनाङ्केन रावणः।
तलेनाभिजघाना जटायुं क्रोधमूर्च्छितः॥ ३७॥
उस समय क्रोध से भरे रावण ने विदेहनन्दिनी सीता को बायीं गोद में करके अत्यन्त पीड़ित हो जटायु पर तमाचे का प्रहार किया॥ ३७॥
जटायुस्तमतिक्रम्य तुण्डेनास्य खगाधिपः।
वामबाहून् दश तदा व्यपाहरदरिंदमः ॥ ३८॥
परंतु उस वार को बचाकर शत्रुदमन गृध्रराज जटायु ने अपनी चोंच से मार-मारकर रावण की दसों बायीं भुजाओं को उखाड़ लिया।॥ ३८ ॥
संछिन्नबाहोः सद्यो वै बाहवः सहसाभवन्।
विषज्वालावलीयुक्ता वल्मीकादिव पन्नगाः॥ ३९॥
उन बाँहों के कट जाने पर बाँबी से प्रकट होने वाले विष की ज्वाला-मालाओं से युक्त सर्पो की भाँति तुरंत दूसरी नयी भुजाएँ सहसा उत्पन्न हो गयीं॥ ३९॥
ततः क्रोधाद् दशग्रीवः सीतामुत्सृज्य वीर्यवान्।
मुष्टिभ्यां चरणाभ्यां च गृध्रराजमपोथयत्॥ ४०॥
तब पराक्रमी दशानन ने सीता को तो छोड़ दिया और गृध्रराज को क्रोधपूर्वक मुक्कों और लातों से मारना आरम्भ किया॥४०॥
ततो मुहूर्तं संग्रामो बभूवातुलवीर्ययोः।
राक्षसानां च मुख्यस्य पक्षिणां प्रवरस्य च॥ ४१॥
उस समय उन दोनों अनुपम पराक्रमी वीर राक्षसराज रावण और पक्षिराज जटायु में दो घड़ी तक घोर संग्राम होता रहा ॥ ४१॥
तस्य व्यायच्छमानस्य रामस्यार्थे स रावणः।
पक्षौ पादौ च पाश्वौ च खड्गमुद्धृत्य सोऽच्छिनत्॥४२॥
तदनन्तर रावण ने तलवार निकाली और श्रीरामचन्द्रजी के लिये पराक्रम करने वाले जटायु के दोनों पंख, पैर तथा पार्श्वभाग काट डाले॥४२॥
स च्छिन्नपक्षः सहसा रक्षसा रौद्रकर्मणा।
निपपात महागृध्रो धरण्यामल्पजीवितः॥४३॥
भयंकर कर्म करने वाले उस राक्षस के द्वारा सहसा पंख काट लिये जाने पर महागृध्र जटायु पृथ्वी पर गिर पड़े। अब वे थोड़ी ही देर के मेहमान थे। ४३॥
तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ क्षतजा जटायुषम्।
अभ्यधावत वैदेही स्वबन्धुमिव दुःखिता॥४४॥
अपने बान्धव के समान जटायु को खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा देख सीता दुःख से व्याकुल हो उनकी ओर दौड़ी॥ ४४॥
तं नीलजीमूतनिकाशकल्पं सपाण्डुरोरस्कमुदारवीर्यम्।
ददर्श लङ्काधिपतिः पृथिव्यां जटायुषं शान्तमिवाग्निदावम्॥४५॥
जटायु के शरीर की कान्ति नीले मेघ के समान काली थी। उनकी छाती का रंग श्वेत था। वे बड़े पराक्रमी थे, तो भी उस समय बुझे हुए दावानल के समान पृथ्वी पर पड़ गये। लङ्कापति रावण ने उन्हें इस अवस्था में देखा॥४५॥
ततस्तु तं पत्ररथं महीतले निपातितं रावणवेगमर्दितम्।
पुनश्च संगृह्य शशिप्रभानना रुरोद सीता जनकात्मजा तदा॥४६॥
तदनन्तर रावण के वेग से रौंदे जाकर धराशायी हुए जटायु को पकड़कर चन्द्रमुखी जनकनन्दिनी सीता पुनः उस समय वहाँ रोने लगीं॥ ४६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकपञ्चाशः सर्गः॥५१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में इक्यावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५१॥
dhanyavad.