वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 53 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 53
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
त्रिपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 53)
सीता का रावण को धिक्कारना
खमुत्पतन्तं तं दृष्ट्वा मैथिली जनकात्मजा।
दुःखिता परमोद्विग्ना भये महति वर्तिनी॥१॥
रावण को आकाश में उड़ते देख मिथिलेशकुमारी जानकी दुःखमग्न हो अत्यन्त उद्विग्न हो रही थीं। वे बहुत बड़े भय में पड़ गयी थीं॥१॥
रोषरोदनताम्राक्षी भीमाक्षं राक्षसाधिपम्।
रुदती करुणं सीता ह्रियमाणा तमब्रवीत्॥२॥
रोष और रोदन के कारण उनकी आँखें लाल हो गयी थीं। हरी जाती हुई सीता करुणाजनक स्वर में रोती हुई उस भयंकर नेत्रवाले राक्षसराज से इस प्रकार बोलीं
न व्यपत्रपसे नीच कर्मणानेन रावण।
ज्ञात्वा विरहितां यो मां चोरयित्वा पलायसे॥३॥
‘ओ नीच रावण! क्या तुझे अपने इस कुकर्म से लज्जा नहीं आती है, जो मुझे स्वामी से रहित अकेली और असहाय जानकर चुराये लिये भागा जाता है? ॥
त्वयैव नूनं दुष्टात्मन् भीरुणा हर्तुमिच्छता।
ममापवाहितो भर्ता मृगरूपेण मायया॥४॥
‘दुष्टात्मन्! तू बड़ा कायर और डरपोक है। निश्चय ही मुझे हर ले जाने की इच्छा से तूने ही माया द्वारा मृगरूप में उपस्थित हो मेरे स्वामी को आश्रम से दूर हटा दिया था।
यो हि मामुद्यतस्त्रातुं सोऽप्ययं विनिपातितः।
गृध्रराजः पुराणोऽसौ श्वशुरस्य सखा मम॥५॥
‘मेरे श्वशुर के सखा वे जो बूढ़े जटायु मेरी रक्षा करने के लिये उद्यत हुए थे, उनको भी तूने मार गिराया॥
परमं खलु ते वीर्यं दृश्यते राक्षसाधम।
विश्राव्य नामधेयं हि युद्धे नास्मि जिता त्वया॥
ईदृशं गर्हितं कर्म कथं कृत्वा न लज्जसे।
स्त्रियाश्चाहरणं नीच रहिते च परस्य च॥७॥
‘नीच राक्षस! अवश्य तुझमें बड़ा भारी बल दिखायी देता है (क्योंकि-तू बूढ़े पक्षी को भी मार गिराता है!), तूने अपना नाम बताकर श्रीरामलक्ष्मण के साथ युद्ध करके मुझे नहीं जीता है। ओ नीच! जहाँ कोई रक्षक न हो—ऐसे स्थान पर जाकर परायी स्त्री के अपहरण-जैसा निन्दित कर्म करके तू लज्जित कैसे नहीं होता है ? ॥
कथयिष्यन्ति लोकेषु पुरुषाः कर्म कुत्सितम्।
सुनृशंसमधर्मिष्ठं तव शौटीर्यमानिनः॥८॥
‘तू तो अपने को बड़ा शूर-वीर मानता है, परंतु संसार के सभी वीर पुरुष तेरे इस कर्म को घृणित, क्रूरतापूर्ण और पापरूप ही बतायेंगे॥ ८॥
धिक् ते शौर्यं च सत्त्वं च यत्त्वया कथितं तदा।
कुलाक्रोशकरं लोके धिक ते चारित्रमीदृशम्॥
‘तूने पहले स्वयं ही जिसका बड़े ताव से वर्णन किया था, तेरे उस शौर्य और बल को धिक्कार है! कुल में कलङ्क लगाने वाले तेरे ऐसे चरित्र को संसार में सदा धिक्कार ही प्राप्त होगा॥९॥
किं शक्यं कर्तुमेवं हि यज्जवेनैव धावसि।
मुहूर्तमपि तिष्ठ त्वं न जीवन् प्रतियास्यसि॥१०॥
‘किंतु इस समय क्या किया जा सकता है? क्योंकि तू बड़े वेग से भागा जा रहा है। अरे! दो घड़ी भी तो ठहर जा, फिर यहाँ से जीवित नहीं लौट सकेगा।
नहि चक्षुःपथं प्राप्य तयोः पार्थिवपुत्रयोः।
ससैन्योऽपि समर्थस्त्वं मुहूर्तमपि जीवितुम्॥११॥
“उन दोनों राजकुमारों के दृष्टिपथ में आ जाने पर तू सेना के साथ हो तो भी दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता ॥ ११॥
न त्वं तयोः शरस्पर्श सोढुं शक्तः कथंचन।
वने प्रज्वलितस्येव स्पर्शमग्नेर्विहंगमः॥१२॥
‘जैसे कोई आकाशचारी पक्षी वन में प्रज्वलित हुए दावानल का स्पर्श सहन करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार तू मेरे पति और उनके भाई दोनों के बाणों का स्पर्श किसी तरह सह नहीं सकता॥ १२ ॥
साधु कृत्वाऽऽत्मनः पथ्यं साधु मां मुञ्च रावण।
मत्प्रधर्षणसंक्रुद्धो भ्रात्रा सह पतिर्मम॥१३॥
विधास्यति विनाशाय त्वं मां यदि न मुञ्चसि।
‘रावण! यदि तू मुझे छोड़ नहीं देता है तो मेरे तिरस्कार से कुपित हुए मेरे पतिदेव अपने भाई के साथ चढ़ आयेंगे और तेरे विनाश का उपाय करेंगे, अतः तू अच्छी तरह अपनी भलाई सोच ले और मुझे छोड़ दे। यही तेरे लिये अच्छा होगा॥ १३ १/२ ॥
येन त्वं व्यवसायेन बलान्मां हर्तुमिच्छसि॥१४॥
व्यवसायस्तु ते नीच भविष्यति निरर्थकः।।
‘नीच! तू जिस संकल्प या अभिप्राय से बलपूर्वक मेरा हरण करना चाहता है, तेरा वह अभिप्राय व्यर्थ होगा। १४ १/२॥
नह्यहं तमपश्यन्ती भर्तारं विबुधोपमम्॥१५॥
उत्सहे शत्रुवशगा प्राणान् धारयितुं चिरम्।
‘मैं अपने देवोपम पति का दर्शन न पाने पर शत्रु के अधीनता में अधिक कालतक अपने प्राणों को नहीं धारण कर सकूँगी॥ १५ १/२ ॥
न नूनं चात्मनः श्रेयः पथ्यं वा समवेक्षसे॥१६॥
मृत्युकाले यथा मर्यो विपरीतानि सेवते।
मुमूर्पूणां तु सर्वेषां यत् पथ्यं तन्न रोचते॥१७॥
‘निश्चय ही तू अपने कल्याण और हित का विचार नहीं करता है। जैसे मरने के समय मनुष्य स्वास्थ्य के विरोधी पदार्थों का सेवन करने लगता है, वही दशा तेरी है। प्रायः सभी मरणासन्न मनुष्यों को पथ्य (हितकारक सलाह या भोजन) नहीं रुचता है॥ १६-१७॥
पश्यामीह हि कण्ठे त्वां कालपाशावपाशितम्।
यथा चास्मिन् भयस्थाने न बिभेषि निशाचर ॥ १८॥
‘निशाचर! मैं देखती हूँ, तेरे गले में काल की फाँसी पड़ चुकी है, इसी से इस भय के स्थान पर भी तू निर्भय बना हुआ है।॥ १८॥
व्यक्तं हिरण्मयांस्त्वं हि सम्पश्यसि महीरुहान्।
नदीं वैतरणी घोरां रुधिरौघविवाहिनीम्॥१९॥
खड्गपत्रवनं चैव भीमं पश्यसि रावण।।
तप्तकाञ्चनपुष्पां च वैदूर्यप्रवरच्छदाम्॥२०॥
द्रक्ष्यसे शाल्मलीं तीक्ष्णामायसैः कण्टकैश्चिताम्।
‘रावण! अवश्य ही तू सुवर्णमय वृक्षों को देख रहा है, रक्त का स्रोत बहाने वाली भयंकर वैतरणी नदी का दर्शन कर रहा है, भयानक असिपत्र-वन को भी देखना चाहता है तथा जिसमें तपाये हुए सुवर्ण के
समान फूल तथा श्रेष्ठ वैदूर्यमणि (नीलम) के समान पत्ते हैं और जिसमें लोहे के काँटे चिने गये हैं, उस तीखी शाल्मलिका भी अब तू शीघ्र ही दर्शन करेगा। १९-२० १/२॥
नहि त्वमीदृशं कृत्वा तस्यालीकं महात्मनः॥ २१॥
धारितुं शक्ष्यसि चिरं विषं पीत्वेव निघृण।
बद्धस्त्वं कालपाशेन दुर्निवारेण रावण॥२२॥
‘निर्दयी निशाचर! तू महात्मा श्रीराम का ऐसा महान् अपराध करके विषपान किये हुए मनुष्य की भाँति अधिक कालतक जीवन धारण नहीं कर सकेगा। रावण! तू अटल कालपाश से बँध गया है॥ २१-२२ ॥
क्व गतो लप्स्यसे शर्म मम भर्तुर्महात्मनः।
निमेषान्तरमात्रेण विना भ्रातरमाहवे॥ २३॥
राक्षसा निहता येन सहस्राणि चतुर्दश।
कथं स राघवो वीरः सर्वास्त्रकुशलो बली॥ २४॥
न त्वां हन्याच्छरैस्तीक्ष्णैरिष्टभार्यापहारिणम्।
‘मेरे महात्मा पति से बचकर तू कहाँ जाकर शान्ति पा सकेगा। जिन्होंने अपने भाई लक्ष्मण की सहायता लिये बिना ही युद्ध में पलक मारते-मारते चौदह हजार राक्षसों का विनाश कर डाला, वे सम्पूर्ण अस्त्रों का प्रयोग करने में कुशल बलवान् वीर रघुनाथजी अपनी प्यारी पत्नी का अपहरण करने वाले तुझ-जैसे पापी को तीखे बाणों द्वारा क्यों नहीं कालके गाल में भेज देंगे’। २३-२४ १/२॥
एतच्चान्यच्च परुषं वैदेही रावणाङ्कगा।
भयशोकसमाविष्टा करुणं विललाप ह॥२५॥
रावण के चंगुल में फँसी हुई विदेहराजकुमारी सीता भय और शोक से व्याकुल हो ये तथा और भी बहुत से कठोर वचन सुनाकर करुण-स्वर में विलाप करने लगीं। २५ ॥
तदा भृशात् बहु चैव भाषिणीं विलापपूर्वं करुणं च भामिनीम्।
जहार पापस्तरुणीं विचेष्टतीं नृपात्मजामागतगात्रवेपथुः॥२६॥
अत्यन्त दुःख से आतुर हो विलापपूर्वक बहुत-सी करुणाजनक बातें कहती और छूटने के लिये नाना प्रकार की चेष्टा करती हुई तरुणी भामिनी राजकुमारी सीता को वह पापी निशाचर हर ले गया। उस समय अधिक बोझ के कारण उसका शरीर काँप रहा था। २६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः॥५३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५३॥