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वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 54 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 54

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
चतुष्पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 54)

सीता का पाँच वानरों के बीच अपने भूषण और वस्त्र को गिराना, रावण का सीता को अन्तःपुर में रखना

 

ह्रियमाणा तु वैदेही कंचिन्नाथमपश्यती।
ददर्श गिरिशृङ्गस्थान् पञ्च वानरपुङ्गवान्॥१॥

रावण के द्वारा हरी जाती हुई विदेहनन्दिनी सीता को उस समय कोई भी अपना सहायक नहीं दिखायी देता था। मार्ग में उन्होंने एक पर्वत के शिखर पर पाँच श्रेष्ठ वानरों को बैठे देखा॥१॥

तेषां मध्ये विशालाक्षी कौशेयं कनकप्रभम्।
उत्तरीयं वरारोहा शुभान्याभरणानि च॥२॥
मुमोच यदि रामाय शंसेयुरिति भामिनी।
वस्त्रमुत्सृज्य तन्मध्ये निक्षिप्तं सहभूषणम्॥३॥

तब सुन्दर अङ्गोंवाली विशाललोचना भामिनी सीता ने यह सोचकर कि शायद ये भगवान् श्रीराम को कुछ समाचार कह सकें, अपने सुनहरे रंग की रेशमी चादर उतारी और उसमें वस्त्र और आभूषण रखकर उसे उनके बीच में फेंक दिया॥ २-३॥

सम्भ्रमात् तु दशग्रीवस्तत्कर्म च न बुद्धवान्।
पिङ्गाक्षास्तां विशालाक्षी नेत्रैरनिमिषैरिव॥४॥
विक्रोशन्तीं तदा सीतां ददृशुर्वानरोत्तमाः।

रावण बड़ी घबराहट में था, इसलिये सीता के इस कार्य को वह न जान सका। वे भूरी आँखों वाले श्रेष्ठ वानर उस समय उच्च स्वर से विलाप करती हुई विशाल-लोचना सीता की ओर एकटक नेत्रों से देखने लगे॥ ४ १/२॥

स च पम्पामतिक्रम्य लङ्कामभिमुखः पुरीम्॥५॥
जगाम मैथिलीं गृह्य रुदतीं राक्षसेश्वरः।।

राक्षसराज रावण पम्पासरोवर को लाँघकर रोती हुई मैथिली सीता को साथ लिये लङ्कापुरी की ओर चल दिया॥ ५ १/२॥

तां जहार सुसंहृष्टो रावणो मृत्युमात्मनः॥६॥
उत्सङ्गेनैव भुजगीं तीक्ष्णदंष्ट्रां महाविषाम्।

निशाचर रावण बड़े हर्ष में भरकर सीता के रूप में अपनी मौत को ही हरकर लिये जा रहा था। उसने वैदेही के रूप में तीखे दाढ़वाली महाविषैली नागिन को ही अपनी गोद में उठा रखा था॥ ६ १/२॥

वनानि सरितः शैलान् सरांसि च विहायसा॥७॥
स क्षिप्रं समतीयाय शरश्चापादिव च्युतः।

वह धनुष से छूटे हुए बाण की तरह तीव्र गति से चलकर आकाशमार्ग से अनेकानेक वनों, नदियों, पर्वतों और सरोवरों को तुरंत लाँघ गया॥७ १/२॥

तिमिनक्रनिकेतं तु वरुणालयमक्षयम्॥८॥
सरितां शरणं गत्वा समतीयाय सागरम्।

उसने तिमि नामक मत्स्यों और नाकों के निवासस्थान एवं वरुण के अक्षय गृह समुद्र को भी, जो समस्त नदियों का आश्रय है, पार कर लिया। ८ १/२॥

सम्भ्रमात् परिवृत्तोर्मी रुद्धमीनमहोरगः॥९॥
वैदेह्यां ह्रियमाणायां बभूव वरुणालयः।

विदेहनन्दिनी जगन्माता जानकी का अपहरण होते समय वरुणालय समुद्र को बड़ी घबराहट हुई। उससे उसकी उठती हुई लहरें शान्त हो गयीं। उसके भीतररहने वाली मछलियों और बड़े-बड़े सर्पो की गति रुकगयी॥९ १/२ ॥

अन्तरिक्षगता वाचः ससृजुश्चारणास्तदा॥१०॥
एतदन्तो दशग्रीव इति सिद्धास्तथाब्रुवन्।

उस समय आकाश में विचरने वाले चारण यों बोले —’अब दशग्रीव रावण का यह अन्तकाल निकट आ पहुँचा है’ तथा सिद्धों ने भी यही बात दुहरायी॥ १० १/२॥

स तु सीतां विचेष्टन्तीमतेनादाय रावणः॥११॥
प्रविवेश पुरीं लङ्कां रूपिणीं मृत्युमात्मनः।।

सीता छटपटा रही थीं। रावण ने अपनी साकारमृत्यु की भाँति उन्हें अङ्क में लेकर लङ्कापुरी में प्रवेश किया॥ ११ १/२॥

सोऽभिगम्य पुरीं लङ्कां सुविभक्तमहापथाम्॥ १२॥
संरूढकक्ष्यां बहुलां स्वमन्तःपुरमाविशत्।

वहाँ पृथक्-पृथक् विशाल राजमार्ग बने हुए थे। पुरी के द्वारपर बहुत-से राक्षस इधर-उधर फैले हुए थे तथा उस नगरी का विस्तार बहुत बड़ा था। उसमें जाकर रावण ने अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया॥ १२ १/२॥

तत्र तामसितापाङ्गीं शोकमोहसमन्विताम्॥१३॥
निदधे रावणः सीतां मयो मायामिवासुरीम्।

कजरारे नेत्रप्रान्तवाली सीता शोक और मोह में डूबी हुई थीं। रावण ने उन्हें अन्तःपुर में रख दिया, मानो मयासुर ने मूर्तिमती आसुरी माया को वहाँ स्थापित कर दिया हो* ॥ १३ १/२॥

*रामायणतिलक नामक व्याख्या के विद्वान् लेखक ने यह बताया है कि यहाँ जो सीता की माया से उपमा दी गयी है, उसके द्वारा यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि मायामयी सीता ही लङ्का में आयी थीं; मुख्य सीता तो अग्नि में प्रविष्ट हो चुकी थीं। इसीलिये रावण इन्हें ला सका। मायारूपिणी होने के कारण ही रावण को इनके स्वरूपका ज्ञान न हो सका।

अब्रवीच्च दशग्रीवः पिशाची?रदर्शनाः॥१४॥
यथा नैनां पुमान् स्त्री वा सीतां पश्यत्यसम्मतः।

इसके बाद दशग्रीव ने  भयंकर आकारवाली पिशाचिनों को बुलाकर कहा—'(तुम सब सावधानी के साथ सीता की रक्षा करो।) कोई भी स्त्री या पुरुष मेरी आज्ञा के बिना सीता को देखने या इनसे मिलने न पाये॥ १४ १/२॥

मुक्तामणिसुवर्णानि वस्त्राण्याभरणानि च॥ १५॥
यद् यदिच्छेत् तदैवास्या देयं मच्छन्दतो यथा।

‘उन्हें मोती, मणि, सुवर्ण, वस्त्र और आभूषण आदि जिस-जिस वस्तु की इच्छा हो, वह तुरंत दी जाय इसके लिये मेरी खुली आज्ञा है। १५ १/२ ॥

या च वक्ष्यति वैदेहीं वचनं किंचिदप्रियम्॥ १६॥
अज्ञानाद् यदि वा ज्ञानान्न तस्या जीवितं प्रियम्।

‘तुमलोगों में से जो कोई भी जानकर या बिना जाने विदेहकुमारी सीता से कोई अप्रिय बात कहेगी, मैं समशृंगा, उसे अपनी जिंदगी प्यारी नहीं है’ ॥ १६ १/२॥

तथोक्त्वा राक्षसीस्तास्तु राक्षसेन्द्रः प्रतापवान्॥ १७॥
निष्क्रम्यान्तःपुरात् तस्मात् किं कृत्यमिति चिन्तयन्।
ददर्शाष्टौ महावीर्यान् राक्षसान् पिशिताशनान्॥ १८॥

राक्षसियों को वैसी आज्ञा देकर प्रतापी राक्षसराज ‘अब आगे क्या करना चाहिये’ यह सोचता हुआ अन्तःपुर से बाहर निकला और कच्चे मांस का आहार करने वाले आठ महापराक्रमी राक्षसों से तत्काल मिला॥

स तान् दृष्ट्वा महावीर्यो वरदानेन मोहितः।
उवाच तानिदं वाक्यं प्रशस्य बलवीर्यतः॥१९॥

उनसे मिलकर ब्रह्माजी के वरदान से मोहित हुए महापराक्रमी रावण ने उसके बल और वीर्य की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा- ॥१९॥

नानाप्रहरणाः क्षिप्रमितो गच्छत सत्वराः।
जनस्थानं हतस्थानं भूतपूर्वं खरालयम्॥२०॥

‘वीरो! तुमलोग नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र साथ लेकर शीघ्र ही जनस्थान को, जहाँ पहले खर रहता था, जाओ। वह स्थान इस समय उजाड़ पड़ा है। २०॥

तत्रास्यतां जनस्थाने शून्ये निहतराक्षसे।
पौरुषं बलमाश्रित्य त्रासमुत्सृज्य दूरतः॥२१॥

‘वहाँ के सभी राक्षस मार डाले गये हैं। उस सूने जनस्थान में तुमलोग अपने ही बल-पौरुष का भरोसा करके भय को दूर हटाकर रहो॥ २१॥

बहुसैन्यं महावीर्यं जनस्थाने निवेशितम्।
सदूषणखरं युद्धे निहतं रामसायकैः॥ २२॥

‘मैंने वहाँ बहुत बड़ी सेना के साथ महापराक्रमी खर और दूषण को बसा रखा था, किंतु वे सब-के सब युद्ध में राम के बाणों से मारे गये॥ २२॥

ततः क्रोधो ममापूर्वो धैर्यस्योपरि वर्धते।
वैरं च सुमहज्जातं रामं प्रति सुदारुणम्॥२३॥

‘इससे मेरे मन में अपूर्व क्रोध जाग उठा है और वह धैर्य की सीमा से ऊपर उठकर बढ़ने लगा है; इसीलिये राम के साथ मेरा बड़ा भारी और भयंकर वैर ठन गया है।

निर्यातयितुमिच्छामि तच्च वैरं महारिपोः।
नहि लप्स्याम्यहं निद्रामहत्वा संयुगे रिपुम्॥२४॥

‘मैं अपने महान् शत्रु से उस वैर का बदला लेना चाहता हूँ। उस शत्रु को संग्राम में मारे बिना मैं चैन से सो नहीं सकूँगा॥२४॥

तं त्विदानीमहं हत्वा खरदूषणघातिनम्।
रामं शर्मोपलप्स्यामि धनं लब्ध्वेव निर्धनः॥२५॥

‘राम ने खर और दूषण का वध किया है, अतः मैं भी इस समय उन्हें मारकर जब बदला चुका लूँगा, तभी मुझे शान्ति मिलेगी। जैसे निर्धन मनुष्य धन पाकर संतुष्ट होता है, उसी प्रकार मैं राम का वध करके शान्ति पा सकूँगा॥ २५॥

जनस्थाने वसद्भिस्तु भवद्भी राममाश्रिता।
प्रवृत्तिरुपनेतव्या किं करोतीति तत्त्वतः॥२६॥

‘जनस्थान में रहकर तुमलोग रामचन्द्र का समाचार जानो और वे कब क्या कर रहे हैं, इसका ठीक-ठीक पता लगाते रहो और जो कुछ मालूम हो, उसकी सूचना मेरे पास भेज दिया करो॥२६॥

अप्रमादाच्च गन्तव्यं सर्वैरेव निशाचरैः।
कर्तव्यश्च सदा यत्नो राघवस्य वधं प्रति॥२७॥

‘तुम सभी निशाचर सावधानी के साथ वहाँ जाना और राम के वध के लिये सदा प्रयत्न करते रहना॥ २७॥

युष्माकं तु बलं ज्ञातं बहुशो रणमूर्धनि।
अतश्चास्मिञ्जनस्थाने मया यूयं निवेशिताः॥ २८॥

‘मुझे अनेक बार युद्धके मुहाने पर तुमलोगों के बल का परिचय मिल चुका है। इसीलिये इस जनस्थान में मैंने तुम्हीं लोगों को रखने का निश्चय किया है’ ॥२८॥

ततः प्रियं वाक्यमुपेत्य राक्षसा महार्थमष्टावभिवाद्य रावणम्।
विहाय लङ्कां सहिताः प्रतस्थिरे यतो जनस्थानमलक्ष्यदर्शनाः॥२९॥

रावण की यह महान् प्रयोजन से भरी हुई प्रिय बातें सुनकर वे आठों राक्षस उसे प्रणाम करके अदृश्य हो एक साथ ही लङ्का को छोड़कर जनस्थान की ओर प्रस्थित हो गये॥ २९॥

ततस्तु सीतामुपलभ्य रावणः सुसम्प्रहृष्टः परिगृह्य मैथिलीम्।
प्रसज्य रामेण च वैरमुत्तमं बभूव मोहान्मुदितः स रावणः॥३०॥

तदनन्तर मिथिलेशकुमारी सीताको पाकर उन्हें राक्षसियों की देख-रेख में सौंपकर रावण को बड़ा हर्ष हुआ। श्रीराम के साथ भारी वैर ठानकर वह राक्षस मोहवश आनन्द मानने लगा॥ ३० ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे चतुष्पञ्चाशः सर्गः॥५४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में चौवनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५४॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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