वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 55 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 55
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 55)
रावण का सीता को अपने अन्तःपुर का दर्शन कराना और अपनी भार्या बन जाने के लिये समझाना
संदिश्य राक्षसान् घोरान् रावणोऽष्टौ महाबलान्।
आत्मानं बुद्धिवैक्लव्यात् कृत्कृत्यममन्यत॥१॥
इस प्रकार आठ महाबली भयंकर राक्षसों को जनस्थान में जाने की आज्ञा दे रावण ने विपरीत बुद्धि के कारण अपने को कृतकृत्य माना॥१॥
स चिन्तयानो वैदेहीं कामबाणैः प्रपीडितः।
प्रविवेश गृहं रम्यं सीतां द्रष्टमभित्वरन्॥२॥
वह विदेहकुमारी सीता का स्मरण करके कामबाणों से अत्यन्त पीड़ित हो रहा था; अतः उन्हें देखने के लिये उसने बड़ी उतावली के साथ अपने रमणीय अन्तःपुर में प्रवेश किया॥२॥
स प्रविश्य तु तद्देश्म रावणो राक्षसाधिपः।
अपश्यद् राक्षसीमध्ये सीतां दुःखपरायणाम्॥
अश्रुपूर्णमुखीं दीनां शोकभारावपीडिताम्।
वायुवेगैरिवाक्रान्तां मज्जन्तीं नावमर्णवे॥४॥
मृगयूथपरिभ्रष्टां मृगी श्वभिरिवावृताम्।
उस भवन में प्रवेश करके राक्षसों के राजा रावण ने देखा कि सीता राक्षसियों के बीच में बैठकर दुःख में डूबी हुई हैं। उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही है और वे शोक के दुस्सह भार से अत्यन्त पीड़ित एवं दीन हो वायु के वेग से आक्रान्त हो समुद्र में डूबती हुई नौका के समान जान पड़ती हैं। मृगों के यूथ से बिछुड़कर कुत्तों से घिरी हुई अकेली हरिणी के समान दिखायी देती हैं। ३-४ १/२॥
अधोगतमुखीं सीतां तामभ्येत्य निशाचरः॥५॥
तां तु शोकवशाद् दीनामवशां राक्षसाधिपः।
सबलाद् दर्शयामास गृहं देवगृहोपमम्॥६॥
शोकवश दीन और विवश हो नीचे मुँह किये बैठी हुई सीता के पास पहुँचकर राक्षसों के राजा निशाचर रावण ने उन्हें जबर्दस्ती अपने देवगृह के समान सुन्दर भवन का दर्शन कराया॥ ५-६॥
हर्म्यप्रासादसम्बाधं स्त्रीसहस्रनिषेवितम्।
नानापक्षिगणैर्जुष्टं नानारत्नसमन्वितम्॥७॥
वह ऊँचे-ऊँचे महलों और सातमंजिले मकानों से भरा हुआ था। उसमें सहस्रों स्त्रियाँ निवास करती थीं। झुंड-के-झुंड नाना जाति के पक्षी वहाँ कलरव करते थे। नाना प्रकार के रत्न उस अन्तःपुर की शोभा बढ़ाते थे॥७॥
दान्तकैस्तापनीयैश्च स्फाटिकै राजतैस्तथा।
वज्रवैदूर्यचित्रैश्च स्तम्भैदृष्टिमनोरमैः॥८॥
उसमें बहुत-से मनोहर खंभे लगे थे, जो हाथीदाँत, पक्के सोने, स्फटिकमणि, चाँदी, हीरा और वैदूर्यमणि (नीलम) से जटित होने के कारण बड़े विचित्र दिखायी देते थे॥८॥
दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषं तप्तकाञ्चनभूषणम्।
सोपानं काञ्चनं चित्रमारुरोह तया सह ॥९॥
उस महल में दिव्य दुन्दुभियों का मधुर घोष होता रहता था। उस अन्तःपुर को तपाये हुए सुवर्ण के आभूषणों से सजाया गया था। रावण सीता को साथ लेकर सोने की बनी हुई विचित्र सीढ़ीपर चढ़ा॥९॥
दान्तका राजताश्चैव गवाक्षाः प्रियदर्शनाः।
हेमजालावृताश्चासंस्तत्र प्रासादपङ्क्तयः॥१०॥
वहाँ हाथीदाँत और चाँदी की बनी हुई खिड़कियाँ थीं, जो बड़ी सुहावनी दिखायी देती थीं। सोने की जालियों से ढकी हुई प्रासादमालाएँ भी दृष्टिगोचर होती थीं॥ १०॥
सुधामणिविचित्राणि भूमिभागानि सर्वशः।
दशग्रीवः स्वभवने प्रादर्शयत मैथिलीम्॥११॥
उस महल में जो भूभाग (फर्श) थे, वे सुर्थी चूना के पक्के बनाये गये थे और उनमें मणियाँ जड़ी गयी थीं, जिनसे वे सब-के-सब विचित्र दिखायी देते थे। दशग्रीव ने अपने महल की वे सारी वस्तुएँ मैथिलीको दिखायीं॥ ११॥
दीर्घिकाः पुष्करिण्यश्च नानापुष्पसमावृताः।
रावणो दर्शयामास सीतां शोकपरायणाम्॥ १२॥
रावण ने बहुत-सी बावड़ियाँ और भाँति-भाँति के फूलों से आच्छादित बहुत-सी पोखरियाँ भी सीता को दिखायीं। सीता वह सब देखकर शोक में डूब गयीं। १२॥
दर्शयित्वा तु वैदेहीं कृत्स्नं तद्भवनोत्तमम्।
उवाच वाक्यं पापात्मा सीतां लोभितुमिच्छया॥ १३॥
वह पापात्मा निशाचर विदेहनन्दिनी सीता को अपना सारा सुन्दर भवन दिखाकर उन्हें लुभाने की इच्छा से इस प्रकार बोला— ॥१३॥
दश राक्षसकोट्यश्च द्वाविंशतिरथापराः।
वर्जयित्वा जरावृद्धान् बालांश्च रजनीचरान्॥ १४॥
तेषां प्रभुरहं सीते सर्वेषां भीमकर्मणाम्।
सहस्रमेकमेकस्य मम कार्यपुरःसरम्॥१५॥
‘सीते! मेरे अधीन बत्तीस करोड़ राक्षस हैं। यह संख्या बूढ़े और बालक निशाचरों को छोड़कर बतायी गयी है। भयंकर कर्म करने वाले इन सभी राक्षसों का मैं ही स्वामी हूँ। अकेले मेरी सेवा में एक हजार राक्षस रहते हैं ॥ १४-१५ ॥
यदिदं राज्यतन्त्रं मे त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
जीवितं च विशालाक्षि त्वं मे प्राणैर्गरीयसी॥ १६॥
‘विशाललोचने! मेरा यह सारा राज्य और जीवन तुम पर ही अवलम्बित है (अथवा यह सब कुछ तुम्हारे चरणों में समर्पित है)। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो॥१६॥
बह्वीनामुत्तमस्त्रीणां मम योऽसौ परिग्रहः।
तासां त्वमीश्वरी सीते मम भार्या भव प्रिये॥ १७॥
‘सीते! मेरा अन्तःपुर मेरी बहुत-सी सुन्दरी भार्याओं से भरा हुआ है, तुम उन सबकी स्वामिनी बनो—प्रिये! मेरी भार्या बन जाओ॥ १७ ॥
साधु किं तेऽन्यथाबुद्ध्या रोचयस्व वचो मम।
भजस्व माभितप्तस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥१८॥
‘मेरे इस हितकर वचन को मान लो—इसे पसंद करो; इससे विपरीत विचार को मन में लाने से तुम्हें क्या लाभ होगा? मुझे अङ्गीकार करो। मैं पीड़ित हूँ, मुझपर कृपा करो॥ १८॥
परिक्षिप्ता समुद्रेण लङ्केयं शतयोजना।
नेयं धर्षयितुं शक्या सेन्ट्रैरपि सुरासुरैः॥१९॥
‘समुद्र से घिरी हुई इस लङ्का के राज्य का विस्तार सौ योजन है। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी इसे ध्वस्त नहीं कर सकते॥१९॥
न देवेषु न यक्षेषु न गन्धर्वेषु नर्षिषु।
अहं पश्यामि लोकेषु यो मे वीर्यसमो भवेत्॥ २०॥
‘देवताओं, यक्षों, गन्धर्वो तथा ऋषियों में भी मैं किसी को ऐसा नहीं देखता, जो पराक्रम में मेरी समानता कर सके॥ २० ॥
राज्यभ्रष्टेन दीनेन तापसेन पदातिना।
किं करिष्यसि रामेण मानुषेणाल्पतेजसा॥२१॥
‘राम तो राज्य से भ्रष्ट, दीन, तपस्वी, पैदल चलने वाले और मनुष्य होने के कारण अल्प तेजवाले हैं, उन्हें लेकर क्या करोगी? ॥ २१॥
भजस्व सीते मामेव भर्ताहं सदृशस्तव।
यौवनं त्वध्रुवं भीरु रमस्वेह मया सह ॥ २२॥
‘सीते! मुझको ही अपनाओ ! मैं तुम्हारे योग्य पति हूँ। भीरु ! जवानी सदा रहने वाली नहीं है, अतः यहाँ रहकर मेरे साथ रमण करो॥ २२ ॥
दर्शने मा कृथा बुद्धिं राघवस्य वरानने।
कास्य शक्तिरिहागन्तुमपि सीते मनोरथैः॥२३॥
‘वरानने! सीते! अब तुम राम के दर्शन का विचार छोड़ दो। इस राम में इतनी शक्ति कहाँ है कि यहाँ तक आने का मनोरथ भी कर सके॥ २३॥
न शक्यो वायुराकाशे पाशैर्बद्धु महाजवः।
दीप्यमानस्य वाप्यग्नेर्ग्रहीतुं विमलाः शिखाः॥ २४॥
‘आकाश में महान् वेग से बहने वाली वायु को रस्सियों में नहीं बाँधा जा सकता अथवा प्रज्वलित अग्नि की निर्मल ज्वालाओं को हाथों से नहीं पकड़ा जा सकता॥ २४॥
त्रयाणामपि लोकानां न तं पश्यामि शोभने।
विक्रमेण नयेद् यस्त्वां मद्बाहुपरिपालिताम्॥ २५॥
‘शोभने ! मैं तीनों लोकों में किसी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो मेरी भुजाओं से सुरक्षित तुमको पराक्रम करके यहाँ से ले जा सके॥ २५ ॥
लङ्कायाः सुमहद्राज्यमिदं त्वमनुपालय।
त्वत्प्रेष्या मद्विधाश्चैव देवाश्चापि चराचरम्॥ २६॥
‘लङ्का के इस विशाल राज्य का तुम्ही पालन करो। मुझ-जैसे राक्षस, देवता तथा सम्पूर्ण चराचर जगत् तुम्हारे सेवक बनकर रहेंगे॥ २६ ॥
अभिषेकजलक्लिन्ना तुष्टा च रमयस्व च।
दुष्कृतं यत्पुरा कर्म वनवासेन तद्गतम्॥२७॥
यच्च ते सुकृतं कर्म तस्येह फलमाप्नहि।
‘स्नान के जल से आर्द्र (अथवा लङ्का के राज्यपर अपना अभिषेक कराकर उसके जल से आर्द्र) होकर संतुष्ट हो तुम अपने-आपको क्रीड़ाविनोद में लगाओ। तुम्हारा पहले का जो दुष्कर्म था, वह वनवास का कष्ट देकर समाप्त हो गया। अब जो तुम्हारा पुण्यकर्म शेष है, उसका फल यहाँ भोगो॥ २७॥
इह सर्वाणि माल्यानि दिव्यगन्धानि मैथिलि। २८॥
भूषणानि च मुख्यानि तानि सेव मया सह।
‘मिथिलेशकुमारी! तुम मेरे साथ यहाँ रहकर सब प्रकार के पुष्पहार, दिव्य गन्ध और श्रेष्ठ आभूषण आदि का सेवन करो॥ २८ १/२ ॥
पुष्पकं नाम सुश्रोणि भ्रातुर्वैश्रवणस्य मे॥२९॥
विमानं सूर्यसंकाशं तरसा निर्जितं रणे।
विशालं रमणीयं च तद्विमानं मनोजवम्॥३०॥
तत्र सीते मया सार्धं विहरस्व यथासुखम्।
‘सुन्दर कटिप्रदेशवाली सुन्दरि! वह सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला पुष्पकविमान मेरे भाई कुबेर का था। उसे मैंने बलपूर्वक जीता है। यह अत्यन्त रमणीय, विशाल तथा मन के समान वेग से चलने वाला है। सीते! तुम उसके ऊपर मेरे साथ बैठकर सुखपूर्वक विहार करो॥ २९-३० १/२ ॥
वदनं पद्मसंकाशं विमलं चारुदर्शनम्॥३१॥
शोकार्तं तु वरारोहे न भ्राजति वरानने।
‘वरारोहे सुमुखि! तुम्हारा यह कमल के समान सुन्दर निर्मल और मनोहर दिखायी देने वाला मुख शोक से पीड़ित होने के कारण शोभा नहीं पा रहा है’। ३१ १/२॥
एवं वदति तस्मिन् सा वस्त्रान्तेन वराङ्गना॥ ३२॥
पिधायेन्दुनिभं सीता मन्दमश्रूण्यवर्तयत्।
जब रावण ऐसी बातें कहने लगा, तब परमसुन्दरी सीता देवी चन्द्रमा के समान मनोहर अपने मुख को आँचल से ढककर धीरे-धीरे आँसू बहाने लगीं॥ ३२ १/२॥
ध्यायन्ती तामिवास्वस्थां सीतां चिन्ताहतप्रभाम्॥ ३३॥
उवाच वचनं वीरो रावणो रजनीचरः।
सीता शोक से अस्वस्थ-सी हो रही थीं, चिन्ता से उनकी कान्ति नष्ट-सी हो गयी थी और वे भगवान राम का ध्यान करने लगी थीं। उस अवस्था में उनसे वह वीर निशाचर रावण इस प्रकार बोला— ॥ ३३ १/२॥
अलं व्रीडेन वैदेहि धर्मलोपकृतेन ते॥३४॥
आर्षोऽयं देवि निष्पन्दो यस्त्वामभिभविष्यति।
‘विदेहनन्दिनि ! अपने पति के त्याग और परपुरुष के अङ्गीकार से जो धर्मलोप की आशङ्का होती है, उसके कारण तुम्हें यहाँ लज्जा नहीं होनी चाहिये, इस तरहकी लाज व्यर्थ है। देवि! तुम्हारे साथ जो मेरा स्नेह सम्बन्ध होगा, यह आर्ष धर्मशास्त्रोंद् वारा* समर्थित है॥ ३४ १/२॥
* ऐसा कहकर रावण देवी सीता को धोखा देना चाहता है। वास्तव में ऐसे पापपूर्ण कृत्यों का समर्थन धर्मशास्त्रों में कहीं नहीं है। कमारी कन्या का बलपर्वक अपहरण शास्त्रों में राक्षसविवाह कहा गया है; किंतु वह भी निन्द्य ही माना गया है, यहाँ तो वह भी नहीं है। विवाहिता सती साध्वी का अपहरण घोर पाप माना गया है। इसी पाप से सोने की लङ्का मिट्टी में मिल गयी और रावण दल-बल-कुल-परिवारसहित नष्ट हो गया।
एतौ पादौ मया स्निग्धौ शिरोभिः परिपीडितौ॥ ३५॥
प्रसादं कुरु मे क्षिप्रं वश्यो दासोऽहमस्मि ते।
‘तुम्हारे इन कोमल एवं चिकने चरणों पर मैं अपने ये दसों मस्तक रख रहा हूँ। अब शीघ्र मुझपर कृपा करो। मैं सदा तुम्हारे अधीन रहनेवाला दास हूँ॥ ३५ १/२॥
इमाः शून्या मया वाचः शुष्यमाणेन भाषिताः॥
न चापि रावणः कांचिन्मूर्ना स्त्री प्रणमेत ह।
‘मैंने कामाग्नि से संतप्त होकर ये बातें कही हैं। ये शून्य (निष्फल) न हों, ऐसी कृपा करो; क्योंकि रावण किसी स्त्री को सिर झुकाकर प्रणाम नहीं करता, (केवल) तुम्हारे सामने इसका मस्तक झुका है’॥ ३६ १/२॥
एवमुक्त्वा दशग्रीवो मैथिली जनकात्मजाम्।
कृतान्तवशमापन्नो ममेयमिति मन्यते॥ ३७॥
मिथिलेशकुमारी जानकी से ऐसा कहकर काल के वशीभूत हुआ रावण मन-ही-मन मानने लगा कि ‘यह अब मेरे अधीन हो गयी’ ॥ ३७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चपञ्चाशः सर्गः॥५५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५५॥