वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 6 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 6
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
षष्ठः सर्गः (सर्ग 6)
वानप्रस्थ मुनियों का राक्षसों के अत्याचार से अपनी रक्षा के लिये श्रीरामचन्द्रजी से प्रार्थना करना और श्रीराम का उन्हें आश्वासन देना
शरभङ्गे दिवं प्राप्ते मुनिसङ्घाः समागताः।
अभ्यगच्छन्त काकुत्स्थं रामं ज्वलिततेजसम्॥
शरभङ्ग मुनि के ब्रह्मलोक चले जाने पर प्रज्वलित तेज वाले ककुत्स्थवंशी श्रीरामचन्द्रजी के पास बहुत-से मुनियों के समुदाय पधारे॥१॥
वैखानसा वालखिल्याः सम्प्रक्षाला मरीचिपाः।
अश्मकुट्टाश्च बहवः पत्राहाराश्च तापसाः॥२॥
दन्तोलूखलिनश्चैव तथैवोन्मज्जकाः परे।
गात्रशय्या अशय्याश्च तथैवानवकाशिकाः॥ ३॥
मुनयः सलिलाहारा वायुभक्षास्तथापरे।
आकाशनिलयाश्चैव तथा स्थण्डिलशायिनः॥ ४॥
तथोर्ध्ववासिनो दान्तास्तथाऽऽर्द्रपटवाससः।
सजपाश्च तपोनिष्ठास्तथा पञ्चतपोऽन्विताः॥
उनमें वैखानस’, वालखिल्य, सम्प्रक्षाल, मरीचिप, बहुसंख्यक अश्मकुट्ट’, पत्राहार, दन्तोलूखली’, उन्मज्जक, गात्रशय्य, अशय्य’, अनवकाशिक, सलिलाहार, वायुभक्ष१२, आकाशनिलय, स्थण्डिलशायी’५, ऊर्ध्ववासी, दान्त, आर्द्रपटवासा, सजप, तपोनिष्ठ° और पञ्चाग्निसेवी२१–इन सभी श्रेणियों के तपस्वी मुनि थे॥२-५॥
१.ऋषियों का एक समुदाय जो ब्रह्माजी के नख से उत्पन्न हुआ है। २.ब्रह्माजी के बाल (रोम) से प्रकट हुए महर्षियों का समूह ३.जो भोजन के बाद अपने बर्तन धो-पोंछकर रख देते हैं, दूसरे समय के लिये कुछ नहीं बचाते। ४.सूर्य अथवा चन्द्रमा की किरणों का पान करके रहने वाले। ५.कच्चे अन्न को पत्थर से कूटकर खाने वाले। ६.पत्तों का आहार करने वाले। ७. दाँतों से ही ऊखल का काम लेने वाले। ८. कण्ठतक पानी में डूबकर तपस्या करने वाले। ९.शरीर से ही शय्या का काम लेने वाले अर्थात् बिनाबिछौने के ही भुजा पर सिर रखकर सोने वाले। १०. शय्या के साधनों से रहित। ११. निरन्तर सत्कर्म में लगे रहने के कारण कभी अवकाश न पाने वाले। १२. जल पीकर रहने वाले। १३. हवा पीकर जीवननिर्वाह करने वाले। १४. खुले मैदान में रहने वाले। १५. वेदी पर सोने वाले। १६. पर्वत शिखर आदि ऊँचे स्थानों में निवास करने वाले। १७. मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले। १८. सदा भीगे कपड़े पहनने वाले। १९. निरन्तर जप करने वाले। २०. तपस्या अथवा परमात्मतत्त्व के विचार में स्थित रहने वाले। २१. गर्मी के मौसम में ऊपर से सूर्य का और चारों ओर से अग्नि का ताप सहन करने वाले।
सर्वे ब्राह्मया श्रिया युक्ता दृढयोगसमाहिताः।
शरभङ्गाश्रमे राममभिजग्मुश्च तापसाः॥६॥
वे सभी तपस्वी ब्रह्मतेज से सम्पन्न थे और सुदृढ़ योग के अभ्यास से उन सबका चित्त एकाग्र हो गया था। वे सब-के-सब शरभङ्ग मुनि के आश्रम पर श्रीरामचन्द्रजी के समीप आये॥६॥
अभिगम्य च धर्मज्ञा रामं धर्मभृतां वरम्।
ऊचुः परमधर्मज्ञमृषिसङ्घाः समागताः॥७॥
धर्मात्माओं में श्रेष्ठ परम धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी के पास आकर वे धर्म के ज्ञाता समागत ऋषिसमुदाय उनसे बोले- ॥७॥
त्वमिक्ष्वाकुकुलस्यास्य पृथिव्याश्च महारथः।
प्रधानश्चापि नाथश्च देवानां मघवानिव॥८॥
‘रघुनन्दन! आप इस इक्ष्वाकुवंश के साथ ही समस्त भूमण्डल के भी स्वामी, संरक्षक एवं प्रधान महारथी वीर हैं। जैसे इन्द्र देवताओं के रक्षक हैं, उसी प्रकार आप मनुष्यलोक की रक्षा करनेवाले हैं।॥ ८॥
विश्रुतस्त्रिषु लोकेषु यशसा विक्रमेण च।
पितृव्रतत्वं सत्यं च त्वयि धर्मश्च पुष्कलः॥९॥
‘आप अपने यश और पराक्रम से तीनों लोकों में विख्यात हैं। आपमें पिता की आज्ञा के पालन का व्रत, सत्य भाषण तथा सम्पूर्ण धर्म विद्यमान हैं॥९॥
त्वामासाद्य महात्मानं धर्मज्ञं धर्मवत्सलम्।
अर्थित्वान्नाथ वक्ष्यामस्तच्च नः क्षन्तुमर्हसि॥ १०॥
‘नाथ! आप महात्मा, धर्मज्ञ और धर्मवत्सल हैं। हम आपके पास प्रार्थी होकर आये हैं; इसीलिये ये स्वार्थ की बात निवेदन करना चाहते हैं। आपको इसके लिये हमें क्षमा करना चाहिये॥ १० ॥
अधर्मः सुमहान् नाथ भवेत् तस्य तु भूपतेः।
यो हरेद् बलिषड्भागं न च रक्षति पुत्रवत्॥
‘स्वामिन् ! जो राजा प्रजा से उसकी आयका छठा भाग करके रूप में ले ले और पुत्र की भाँति प्रजा की रक्षा न करे, उसे महान् अधर्म का भागी होना पड़ता है॥ ११॥
युञ्जानः स्वानिव प्राणान् प्राणैरिष्टान् सुतानिव।
नित्ययुक्तः सदा रक्षन् सर्वान् विषयवासिनः॥ १२॥
प्राप्नोति शाश्वती राम कीर्तिं स बहवार्षिकीम्।
ब्रह्मणः स्थानमासाद्य तत्र चापि महीयते॥१३॥
‘श्रीराम! जो भूपाल प्रजा की रक्षा के कार्य में संलग्न हो अपने राज्य में निवास करने वाले सब लोगों को प्राणों के समान अथवा प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्रों के समान समझकर सदा सावधानी के साथ उनकी रक्षा करता है, वह बहुत वर्षों तक स्थिर रहने वाली अक्षय कीर्ति पाता है और अन्त में ब्रह्मलोक में जाकर वहाँ भी विशेष सम्मान का भागी होता है। १२-१३॥
यत् करोति परं धर्मं मुनिर्मूलफलाशनः ।
तत्र राज्ञश्चतर्भागः प्रजा धर्मेण रक्षतः॥१४॥
‘राजा के राज्य में मुनि फल-मूलका आहार करके जिस उत्तम धर्म का अनुष्ठान करता है, उसका चौथा भाग धर्म के अनुसार प्रजा की रक्षा करने वाले उस राजा को प्राप्त हो जाता है॥ १४ ॥
सोऽयं ब्राह्मणभूयिष्ठो वानप्रस्थगणो महान्।
त्वन्नाथोऽनाथवद् राम राक्षसैर्हन्यते भृशम्॥ १५॥
‘श्रीराम! इस वन में रहने वाला वानप्रस्थ महात्माओं का यह महान् समुदाय, जिसमें ब्राह्मणों की ही संख्या अधिक है तथा जिसके रक्षक आप ही हैं, राक्षसों के द्वारा अनाथ की तरह मारा जा रहा है इस मुनि-समुदायका बहुत अधिक मात्रा में संहार हो रहा है।॥ १५ ॥
एहि पश्य शरीराणि मुनीनां भावितात्मनाम्।
हतानां राक्षसैोरैर्बहूनां बहुधा वने॥१६॥
‘आइये, देखिये, ये भयंकर राक्षसों द्वारा बारम्बार अनेक प्रकार से मारे गये बहुसंख्यक पवित्रात्मा मुनियों के शरीर (शव या कंकाल) दिखायी देते हैं। १६॥
पम्पानदीनिवासानामनुमन्दाकिनीमपि।
चित्रकूटालयानां च क्रियते कदनं महत्॥१७॥
‘पम्पा सरोवर और उसके निकट बहने वाली तुङ्गभद्रा नदी के तट पर जिनका निवास है, जो मन्दाकिनी के किनारे रहते हैं तथा जिन्होंने चित्रकूट पर्वत के किनारे अपना निवासस्थान बना लिया है, उन सभी ऋषि-महर्षियों का राक्षसों द्वारा महान् संहार किया जा रहा है॥ १७ ॥
एवं वयं न मृष्यामो विप्रकारं तपस्विनाम्।
क्रियमाणं वने घोरं रक्षोभिीमकर्मभिः॥१८॥
‘इन भयानक कर्म करने वाले राक्षसों ने इस वन में तपस्वी मुनियों का जो ऐसा भयंकर विनाशकाण्ड मचा रखा है, वह हमलोगों से सहा नहीं जाता है। १८॥
ततस्त्वां शरणार्थं च शरण्यं समुपस्थिताः।
परिपालय नो राम वध्यमानान् निशाचरैः ॥१९॥
‘अतः इन राक्षसों से बचने के लिये शरण लेने के उद्देश्य से हम आपके पास आये हैं। श्रीराम! आप शरणागतवत्सल हैं, अतः इन निशाचरों से मारे जाते हुए हम मुनियों की रक्षा कीजिये॥ १९ ॥
परा त्वत्तो गतिर्वीर पृथिव्यां नोपपद्यते।
परिपालय नः सर्वान् राक्षसेभ्यो नृपात्मज ॥२०॥
‘वीर राजकुमार! इस भूमण्डल में हमें आपसे बढ़कर दूसरा कोई सहारा नहीं दिखायी देता। आप इन राक्षसों से हम सबको बचाइये’ ।। २० ॥
एतच्छ्रुत्वा तु काकुत्स्थस्तापसानां तपस्विनाम्।
इदं प्रोवाच धर्मात्मा सर्वानेव तपस्विनः ॥२१॥
तपस्या में लगे रहने वाले उन तपस्वी मुनियों की ये बातें सुनकर ककुत्स्थकुलभूषण धर्मात्मा श्रीराम ने उन सबसे कहा- ॥ २१॥
नैवमर्हथ मां वक्तुमाज्ञाप्योऽहं तपस्विनाम्।
केवलेन स्वकार्येण प्रवेष्टव्यं वनं मया ॥२२॥
‘मुनिवरो! आप लोग मुझसे इस प्रकार प्रार्थना न करें। मैं तो तपस्वी महात्माओं का आज्ञापालक हूँ। मुझे केवल अपने ही कार्य से वन में तो प्रवेश करना ही है (इसके साथ ही आपलोगों की सेवा का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हो जायगा) ॥ २२ ॥
विप्रकारमपाक्रष्टुं राक्षसैर्भवतामिमम्।
पितुस्तु निर्देशकरः प्रविष्टोऽहमिदं वनम्॥२३॥
‘राक्षसों के द्वारा जो आपको यह कष्ट पहुँच रहा है, इसे दूर करने के लिये ही मैं पिता के आदेश का पालन करता हुआ इस वन में आया हूँ॥ २३॥
भवतामर्थसिद्ध्यर्थमागतोऽहं यदृच्छया।
तस्य मेऽयं वने वासो भविष्यति महाफलः॥ २४॥
‘आपलोगों के प्रयोजन की सिद्धि के लिये मैं दैवात् यहाँ आ पहुँचा हूँ। आपकी सेवा का अवसर मिलने से मेरे लिये यह वनवास महान् फलदायक होगा॥ २४ ॥
तपस्विनां रणे शत्रून् हन्तुमिच्छामि राक्षसान्।
पश्यन्तु वीर्यमृषयः सभ्रातुर्मे तपोधनाः ॥ २५॥
‘तपोधनो! मैं तपस्वी मुनियों से शत्रुता रखने वाले उन राक्षसों का युद्ध में संहार करना चाहता हूँ। आप सब महर्षि भाईसहित मेरा पराक्रम देखें’ ॥ २५ ॥
दत्त्वा वरं चापि तपोधनानां धर्मे धृतात्मा सह लक्ष्मणेन।
तपोधनैश्चापि सहार्यदत्तः सुतीक्ष्णमेवाभिजगाम वीरः॥ २६॥
इस प्रकार उन तपोधनों को वर देकर धर्म में मन लगाने वाले तथा श्रेष्ठ दान देने वाले वीर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण तथा तपस्वी महात्माओं के साथ सुतीक्ष्ण मुनि के पास गये॥ २६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे षष्ठः सर्गः॥६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में छठा सर्ग पूरा हुआ॥६॥
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