वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 61 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 61
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकषष्टितमः सर्गः (सर्ग 61)
श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा सीता की खोज और उनके न मिलने से श्रीराम की व्याकुलता
दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं शून्यं रामो दशरथात्मजः।
रहितां पर्णशालां च प्रविद्धान्यासनानि च॥१॥
अदृष्ट्वा तत्र वैदेहीं संनिरीक्ष्य च सर्वशः।
उवाच रामः प्राक्रुश्य प्रगृह्य रुचिरौ भुजौ॥२॥
दशरथनन्दन श्रीराम ने देखा कि आश्रम के सभी स्थान सीता से सूने हैं तथा पर्णशाला में भी सीता नहीं हैं और बैठनेके आसन इधर-उधर फेंके पड़े हैं। तब उन्होंने पुनः वहाँ के सभी स्थानों का निरीक्षण किया और चारों ओर ढूँढ़ने पर भी जब विदेहकुमारी का कहीं पता नहीं लगा, तब श्रीरामचन्द्रजी अपनी दोनों सुन्दर भुजाएँ ऊपर उठाकर सीता का नाम ले जोर जोर से पुकार करके लक्ष्मण से बोले- ॥ १-२॥ ।
क्व नु लक्ष्मण वैदेही कं वा देशमितो गता।
केनाहृता वा सौमित्रे भक्षिता केन वा प्रिया॥३॥
‘भैया लक्ष्मण! विदेहराजकुमारी कहाँ हैं ? यहाँ से किस देश में चली गयीं? सुमित्रानन्दन! मेरी प्रिया सीता को कौन हर ले गया? अथवा किस राक्षस ने खा डाला? ॥३॥
वृक्षणावार्य यदि मां सीते हसितुमिच्छसि।
अलं ते हसितेनाद्य मां भजस्व सुदुःखितम्॥४॥
(फिर वे सीता को सम्बोधित करके बोले-) ‘सीते! यदि तुम वृक्षों की आड़ में अपने को छिपाकर मुझसे हँसी करना चाहती हो तो इस समय यह हँसी ठीक नहीं है। मैं बहुत दुःखी हो रहा हूँ, तुम मेरे पास आ जाओ॥४॥
यैः परिक्रीडसे सीते विश्वस्तैमूंगपोतकैः।
एते हीनास्त्वया सौम्ये ध्यायन्त्यस्राविलेक्षणाः॥
‘सौम्य स्वभाववाली सीते! जिन विश्वस्त मृगछौनों के साथ तुम खेला करती थी, वे आज तुम्हारे बिना दुःखी हो आँखों में आँसू भरकर चिन्तामग्न हो गये हैं’॥ ५ ॥
सीतया रहितोऽहं वै नहि जीवामि लक्ष्मण।
वृतं शोकेन महता सीताहरणजेन माम्॥६॥
परलोके महाराजो नूनं द्रक्ष्यति मे पिता।
‘लक्ष्मण! सीता से रहित होकर मैं जीवित नहीं रह सकता। सीताहरणजनित महान् शोक ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है। निश्चय ही अब परलोक में मेरे पिता महाराज दशरथ मुझे देखेंगे॥ ६ १/२॥
कथं प्रतिज्ञां संश्रुत्य मया त्वमभियोजितः॥७॥
अपूरयित्वा तं कालं मत्सकाशमिहागतः।।
वे मुझे उपालम्भ देते हुए कहेंगे—’मैंने तो तुम्हें वनवास के लिये आज्ञा दी थी और तुमने भी वहाँ रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी। फिर उतने समय तक वहाँ रहकर उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किये बिना ही तुम यहाँ मेरे पास कैसे चले आये? ॥ ७ १/२ ॥
कामवृत्तमनार्यं वा मृषावादिनमेव च॥८॥
धिक् त्वामिति परे लोके व्यक्तं वक्ष्यति मे पिता।
‘तुम-जैसे स्वेच्छाचारी, अनार्य और मिथ्यावादी को धिक्कार है। यह बात परलोक में पिताजी मुझसे अवश्य कहेंगे’।। ८ १/२॥
विवशं शोकसंतप्तं दीनं भग्नमनोरथम्॥९॥
मामिहोत्सृज्य करुणं कीर्तिनरमिवानृजुम्।
क्व गच्छसि वरारोहे मा मोत्सृज सुमध्यमे॥ १०॥
‘वरारोहे ! सुमध्यमे! सीते! मैं विवश, शोकसंतप्त, दीन, भग्नमनोरथ हो करुणाजनक अवस्था में पड़ गया हूँ। जैसे कुटिल मनुष्य को कीर्ति त्याग देती है, उसी प्रकार तुम मुझे यहाँ छोड़कर कहाँ चली जा रही हो? मुझे न छोड़ो, न छोड़ो॥९-१०॥
त्वया विरहितश्चाहं त्यक्ष्ये जीवितमात्मनः।
इतीव विलपन् रामः सीतादर्शनलालसः॥११॥
न ददर्श सुदुःखार्तो राघवो जनकात्मजाम्।
‘तुम्हारे वियोग में मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।’ इस प्रकार अत्यन्त दुःख से आतुर हो विलाप करते हुए रघुकुल-नन्दन श्रीराम सीता के दर्शनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये, किंतु वे जनकनन्दिनी उन्हें दिखायी न पड़ीं॥
अनासादयमानं तं सीतां शोकपरायणम्॥१२॥
पङ्कमासाद्य विपुलं सीदन्तमिव कुञ्जरम्।
लक्ष्मणो राममत्यर्थमुवाच हितकाम्यया॥१३॥
जैसे कोई हाथी किसी बड़ी भारी दलदल में फँसकर कष्ट पा रहा हो, उसी प्रकार सीता को नपाकर अत्यन्त शोक में डूबे हुए श्रीराम से उनके हित की कामना रखकर लक्ष्मण यों बोले- ॥ १२-१३॥
मा विषादं महाबुद्धे कुरु यत्नं मया सह।
इदं गिरिवरं वीर बहुकन्दरशोभितम्॥१४॥
प्रियकाननसंचारा वनोन्मत्ता च मैथिली।
सा वनं वा प्रविष्टा स्यान्नलिनी वा सुपुष्पिताम्॥ १५॥
सरितं वापि सम्प्राप्ता मीनवञ्जलसेविताम्।
वित्रासयितुकामा वा लीना स्यात् कानने क्वचित्॥१६॥
जिज्ञासमाना वैदेही त्वां मां च पुरुषर्षभ।
‘महामते! आप विषाद न करें; मेरे साथ जानकी को ढूँढ़ने का प्रयत्न करें। वीरवर! यह सामने जो ऊँचा पहाड़ दिखायी देता है, अनेक कन्दराओं से सुशोभित है। मिथिलेशकुमारी को वन में घूमना प्रिय लगता है, वे वन की शोभा देखकर हर्ष से उन्मत्त हो उठती हैं; अतः वन में गयी होंगी, अथवा सुन्दर कमल के फूलों से भरे हुए इस सरोवर के या मत्स्य तथा वेतसलतासे सुशोभित सरिता के तट पर जा पहुँची होंगी। अथवा पुरुषप्रवर! हमलोगों को डराने की इच्छा से हम दोनों उन्हें खोज पाते हैं कि नहीं, इस जिज्ञासा से कहीं वन में ही छिप गयी होंगी॥ १४–१६ १/२॥
तस्या ह्यन्वेषणे श्रीमन् क्षिप्रमेव यतावहे ॥१७॥
वनं सर्वं विचिनुवो यत्र सा जनकात्मजा।
‘अतः श्रीमन् ! वनमें जहाँ-जहाँ जानकीके होनेकी सम्भावना हो, उन सभी स्थानोंपर हम दोनों शीघ्र ही उनकी खोजके लिये प्रयत्न करें॥ १७ १/२ ।।
मन्यसे यदि काकुत्स्थ मा स्म शोके मनः कृथाः॥१८॥
एवमुक्तः स सौहार्दाल्लक्ष्मणेन समाहितः।
सह सौमित्रिणा रामो विचेतुमुपचक्रमे॥१९॥
‘रघुनन्दन! यदि आपको मेरी यह बात ठीक लगे तो आप शोक छोड़ दें।’ लक्ष्मण के द्वारा इस प्रकार सौहार्दपूर्वक समझाये जाने पर श्रीरामचन्द्रजी सावधान हो गये और उन्होंने सुमित्राकुमार के साथ सीता को खोजना आरम्भ किया॥ १८-१९॥
तौ वनानि गिरीश्चैव सरितश्च सरांसि च।
निखिलेन विचिन्वन्तौ सीतां दशरथात्मजौ॥ २०॥
तस्य शैलस्य सानूनि शिलाश्च शिखराणि च।
निखिलेन विचिन्वन्तौ नैव तामभिजग्मतुः॥ २१॥
दशरथ के वे दोनों पुत्र सीता की खोज करते हुए वनों में, पर्वतो पर, सरिताओं और सरोवरों के किनारे घूम-घूमकर पूरी चेष्टा के साथ अनुसंधान में लगे रहे। उस पर्वत की चोटियों, शिलाओं और शिखरों पर उन्होंने अच्छी तरह जानकी को ढूँढ़ा; किंतु कहीं भी उनका पता नहीं लगा॥ २०-२१॥
विचित्य सर्वतः शैलं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
नेह पश्यामि सौमित्रे वैदेही पर्वते शुभाम्॥२२॥
पर्वत के चारों ओर खोजकर श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मण से कहा—’सुमित्रानन्दन! इस पर्वतपर तो मैं सुन्दरी वैदेही को नहीं देख पाता हूँ’ ॥ २२ ॥
ततो दुःखाभिसंतप्तो लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
विचरन् दण्डकारण्यं भ्रातरं दीप्ततेजसम्॥२३॥
तब दुःख से संतप्त हुए लक्ष्मण ने दण्डकारण्य में घूमते-घूमते अपने उद्दीप्त तेजस्वी भाई से इस प्रकार
कहाप्राप्स्यसे त्वं महाप्राज्ञ मैथिली जनकात्मजाम्।
यथा विष्णुर्महाबाहुर्बलिं बद्ध्वा महीमिमाम्॥ २४॥
‘महामते! जैसे महाबाहु भगवान् विष्णु ने राजा बलि को बाँधकर यह पृथ्वी प्राप्त कर ली थी, उसी प्रकार आप भी मिथिलेशकुमारी जानकी को पा जायँगे’।
एवमुक्तस्तु वीरेण लक्ष्मणेन स राघवः।
उवाच दीनया वाचा दुःखाभिहतचेतनः॥ २५॥
वीर लक्ष्मण के ऐसा कहने पर दुःख से व्याकुलचित्त हुए श्रीरघुनाथजी ने दीन वाणी में कहा— ॥ २५ ॥
वनं सुविचितं सर्वं पद्मिन्यः फुल्लपङ्कजाः।
गिरिश्चायं महाप्राज्ञ बहकन्दरनिर्झरः।
नहि पश्यामि वैदेहीं प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम्॥ २६॥
‘महाप्राज्ञ लक्ष्मण! मैंने सारा वन खोज डाला। विकसित कमलों से भरे हुए सरोवर भी देख लिये तथा अनेक कन्दराओं और झरनों से सुशोभित इस पर्वत को भी सब ओर से छान डाला; परंतु मुझे अपने प्राणों से भी प्यारी वैदेही कहीं दिखायी नहीं पड़ी’॥ २६॥
एवं स विलपन् रामः सीताहरणकर्षितः।
दीनः शोकसमाविष्टो मुहूर्तं विह्वलोऽभवत्॥ २७॥
इस प्रकार सीता-हरण के कष्ट से पीडित हो विलाप करते हुए श्रीरामचन्द्रजी दीन और शोकमग्न हो दो घड़ी तक अत्यन्त व्याकुलता में पड़े रहे॥२७॥
स विह्वलितसर्वाङ्गो गतबुद्धिर्विचेतनः ।
निषसादातुरो दीनो निःश्वस्याशीतमायतम्॥ २८॥
उनका सारा अङ्ग विह्वल (शिथिल) हो गया, बुद्धि काम नहीं दे रही थी, चेतना लुप्त-सी होती जा रही थी। वे गरम-गरम लंबी साँस खींचते हुए दीन और आतुर होकर विषाद में डूब गये॥२८॥
बहुशः स तु निःश्वस्य रामो राजीवलोचनः।
हा प्रियेति विचुक्रोश बहुशो बाष्पगद्गदः॥ २९॥
बारंबार उच्छ्वास लेकर कमलनयन श्रीराम आँसुओं से गद्गद वाणी में ‘हा प्रिये!’ कहकर बहुत रोने-विलखने लगे॥ २९॥
तं सान्त्वयामास ततो लक्ष्मणः प्रियबान्धवम्।
बहुप्रकारं शोकार्तः प्रश्रितः प्रश्रिताञ्जलिः॥ ३०॥
तब शोक से पीड़ित हुए लक्ष्मण ने विनीतभाव से हाथ जोड़कर अपने प्रिय भाई को अनेक प्रकार से सान्त्वना दी।
अनादृत्य तु तद् वाक्यं लक्ष्मणोष्ठपुटच्युतम्।
अपश्यंस्तां प्रियां सीतां प्राक्रोशत् स पुनः पुनः॥ ३१॥
लक्ष्मण के ओष्ठपुटों से निकली हुई इस बात का आदर न करके श्रीरामचन्द्रजी अपनी प्यारी पत्नी सीता को न देखने के कारण उन्हें बारंबार पुकारने और रोने लगे॥ ३१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकषष्टितमः सर्गः॥६१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में इकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६१॥