वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 63 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 63
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
त्रिषष्टितमः सर्गः (सर्ग 63)
श्रीराम का विलाप
स राजपुत्रः प्रियया विहीनः शोकेन मोहेन च पीड्यमानः।
विषादयन् भ्रातरमार्तरूपो भूयो विषादं प्रविवेश तीव्रम्॥१॥
अपनी प्रिया सीता से रहित हो राजकुमार श्रीराम शोक और मोह से पीड़ित होने लगे। वे स्वयं तो पीड़ित थे ही, अपने भाई लक्ष्मण को भी विषाद में डालते हुए पुनः तीव्र शोक में मग्न हो गये॥१॥
स लक्ष्मणं शोकवशाभिपन्नं शोके निमग्नो विपुले तु रामः।
उवाच वाक्यं व्यसनानुरूपमुष्णं विनिःश्वस्य रुदन् सशोकम्॥२॥
लक्ष्मण शोक के अधीन हो रहे थे, उनसे महान् शोक में डूबे हुए श्रीराम दुःख के साथ रोते हुए गरम उच्छ्वास लेकर अपने ऊपर पड़े हुए संकट के अनुरूप वचन बोले- ॥२॥
न मद्विधो दुष्कृतकर्मकारी मन्ये द्वितीयोऽस्ति वसुंधरायाम्।
शोकानुशोको हि परम्पराया मामेति भिन्दन् हृदयं मनश्च॥३॥
‘सुमित्रानन्दन! मालूम होता है, मेरे-जैसा पापकर्म करने वाला मनुष्य इस पृथ्वी पर दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि एक के बाद दूसरा शोक मेरे हृदय (प्राण) और मन को विदीर्ण करता हुआ लगातार मुझपर आता जा रहा है॥३॥
पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि पापानि कर्माण्यसकृत्कृतानि।
तत्रायमद्यापतितो विपाको दुःखेन दुःखं यदहं विशामि॥४॥
‘निश्चय ही पूर्वजन्म में मैंने अपनी इच्छा के अनुसार बारंबार बहुत-से पापकर्म किये हैं; उन्हीं में से कुछ कर्मों का यह परिणाम आज प्राप्त हुआ है, जिससे मैं एक दुःख से दूसरे दुःख में पड़ता जा रहा हूँ॥ ४॥
राज्यप्रणाशः स्वजनैर्वियोगः पितुर्विनाशो जननीवियोगः।
सर्वाणि मे लक्ष्मण शोकवेग मापूरयन्ति प्रविचिन्तितानि॥५॥
‘पहले तो मैं राज्य से वञ्चित हुआ; फिर मेरा स्वजनों से वियोग हुआ। तत्पश्चात् पिताजी का परलोकवास हुआ, फिर माता से भी मुझे बिछुड़ जाना पड़ा। लक्ष्मण! ये सारी बातें जब मुझे याद आती हैं, तब मेरे शोक के वेग को बढ़ा देती हैं।॥ ५ ॥
सर्वं तु दुःखं मम लक्ष्मणेदं शान्तं शरीरे वनमेत्य क्लेशम्।
सीतावियोगात् पुनरप्युदीर्णं काष्ठरिवाग्निः सहसोपदीप्तः॥६॥
‘लक्ष्मण! वन में आकर क्लेश का अनुभव करके भी यह सारा दुःख सीता के समीप रहने से मेरे शरीर में ही शान्त हो गया था, परंतु सीता के वियोग से वह फिर उद्दीप्त हो उठा है, जैसे सूखे काठ का संयोग पाकर आग सहसा प्रज्वलित हो उठती है॥६॥
सा नूनमार्या मम राक्षसेन ह्यभ्याहृता खं समुपेत्य भीरुः।
अपस्वरं सुस्वरविप्रलापा भयेन विक्रन्दितवत्यभीक्ष्णम्॥७॥
‘हाय! मेरी श्रेष्ठ स्वभाववाली भीरु पत्नी को अवश्य ही राक्षस ने आकाशमार्ग से हर लिया। उस समय सुमधुर स्वर में विलाप करने वाली सीता भय के मारे बारंबार विकृत स्वर में क्रन्दन करने लगी होगी। ७॥
तौ लोहितस्य प्रियदर्शनस्य सदोचितावुत्तमचन्दनस्य।
वृत्तौ स्तनौ शोणितपङ्कदिग्धौ नूनं प्रियाया मम नाभिपातः॥८॥
‘मेरी प्रिया के वे दोनों गोल-गोल स्तन, जो सदा लाल चन्दन से चर्चित होने योग्य थे, निश्चय ही रक्त की कीच में सन गये होंगे। हाय! इतने पर भी मेरे शरीर का पतन नहीं होता॥ ८॥
तच्छ्लक्ष्णसुव्यक्तमृदुप्रलापं तस्या मुखं कुञ्चितकेशभारम्।
रक्षोवशं नूनमुपागताया न भ्राजते राहुमुखे यथेन्दुः॥९॥
‘राक्षस के वश में पड़ी हुई मेरी प्रिया का वह मुख जो स्निग्ध एवं सुस्पष्ट मधुर वार्तालाप करने वाला तथा काले-काले घुघराले केशों के भार से सुशोभित था, वैसे ही श्रीहीन हो गया होगा, जैसे राहु के मुख में पड़ा हुआ चन्द्रमा शोभा नहीं पाता है॥९॥
तां हारपाशस्य सदोचितान्तां ग्रीवां प्रियाया मम सुव्रतायाः।
रक्षांसि नूनं परिपीतवन्ति शून्ये हि भित्त्वा रुधिराशनानि॥१०॥
‘हाय! उत्तम व्रत का पालन करने वाली मेरी प्रियतमा का कण्ठ हर समय हार से सुशोभित होनेयोग्य था, किंतु रक्तभोजी राक्षसों ने सूने वन में अवश्य उसे फाड़कर उसका रक्त पिया होगा॥ १० ॥
मया विहीना विजने वने सा रक्षोभिराहृत्य विकृष्यमाणा।
नूनं विनादं कुररीव दीना सा मुक्तवत्यायतकान्तनेत्रा॥११॥
‘मेरे न रहने के कारण निर्जन वन में राक्षसों ने उसे ले-लेकर घसीटा होगा और विशाल एवं मनोहर नेत्रोंवाली वह जानकी अत्यन्त दीनभाव से कुररीकी भाँति विलाप करती रही होगी॥ ११॥
अस्मिन् मया सार्धमुदारशीला शिलातले पूर्वमुपोपविष्टा।
कान्तस्मिता लक्ष्मण जातहासा त्वामाह सीता बहुवाक्यजातम्॥१२॥
‘लक्ष्मण! यह वही शिलातल है, जिस पर उदार स्वभाववाली सीता पहले एक दिन मेरे साथ बैठी हुई थी। उसकी मुसकान कितनी मनोहर थी, उस समय उसने हँस-हँसकर तुमसे भी बहुत-सी बातें कही थीं।
गोदावरीयं सरितां वरिष्ठा प्रिया प्रियाया मम नित्यकालम्।
अप्यत्र गच्छेदिति चिन्तयामि नैकाकिनी याति हि सा कदाचित्॥१३॥
‘सरिताओं में श्रेष्ठ यह गोदावरी मेरी प्रियतमा को सदा ही प्रिय रही है। सोचता हूँ, शायद वह इसी के तटपर गयी हो, किंतु अकेली तो वह कभी वहाँ नहीं जाती थी॥
पद्मानना पद्मपलाशनेत्रा पद्मानि वानेतुमभिप्रयाता।
तदप्ययुक्तं नहि सा कदाचिन्मया विना गच्छति पङ्कजानि॥१४॥
‘उसका मुख और विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलों के समान सुन्दर हैं, सम्भव है, वह कमलपुष्प लाने के लिये ही गोदावरी तट पर गयी हो, परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि वह मुझे साथ लिये बिना कभी कमलों के पास नहीं जाती थी॥ १४ ॥
कामं त्विदं पुष्पितवृक्षषण्डं नानाविधैः पक्षिगणैरुपेतम्।
वनं प्रयाता नु तदप्ययुक्तमेकाकिनी सातिबिभेति भीरुः॥१५॥
‘हो सकता है कि वह इन पुष्पित वृक्षसमूहों से युक्त और नाना प्रकार के पक्षियों से सेवित वन में भ्रमण के लिये गयी हो; परंतु यह भी ठीक नहीं लगता; क्योंकि वह भीरु तो अकेली वन में जाने से बहुत डरती थी॥
आदित्य भो लोककृताकृतज्ञ लोकस्य सत्यानृतकर्मसाक्षिन्।
मम प्रिया सा क्व गता हृता वा शंसस्व मे शोकहतस्य सर्वम्॥१६॥
‘सूर्यदेव! संसार में किसने क्या किया और क्या नहीं किया—इसे तुम जानते हो; लोगों के सत्य-असत्य (पुण्य और पाप) कर्मो के तुम्ही साक्षी हो। मेरी प्रिया सीता कहाँ गयी अथवा उसे किसने हर लिया, यह सब मुझे बताओ; क्योंकि मैं उसके शोक से पीड़ित हूँ॥१६॥
लोकेषु सर्वेषु न नास्ति किंचिद् यत् ते न नित्यं विदितं भवेत् तत्।
शंसस्व वायो कुलपालिनीं तां मृता हृता वा पथि वर्तते वा॥१७॥
“वायुदेव! समस्त विश्व में ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें सदा ज्ञात न रहती हो। मेरी कुलपालिका सीता कहाँ है, यह बता दो वह मर गयी, हर ली गयी अथवा मार्ग में ही है’ ॥ १७॥
इतीव तं शोकविधेयदेहं रामं विसंज्ञं विलपन्तमेव।
उवाच सौमित्रिरदीनसत्त्वो न्याय्ये स्थितः कालयुतं च वाक्यम्॥१८॥
इस प्रकार शोक के अधीन होकर जब श्रीरामचन्द्रजी संज्ञाशून्य हो विलाप करने लगे, तब उनकी ऐसी अवस्था देख न्यायोचित मार्ग पर स्थित रहने वाले उदारचित्त सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने उनसे यह समयोचित बात कही- ॥ १८ ॥
शोकं विसृज्याद्य धृतिं भजस्व सोत्साहता चास्तु विमार्गणेऽस्याः।
उत्साहवन्तो हि नरा न लोके सीदन्ति कर्मस्वतिदुष्करेषु॥१९॥
‘आर्य! आप शोक छोड़कर धैर्य धारण करें; सीता की खोज के लिये मन में उत्साह रखें; क्योंकि उत्साही मनुष्य जगत् में अत्यन्त दुष्कर कार्य आ पड़ने पर भी कभी दुःखी नहीं होते हैं ॥ १९॥
इतीव सौमित्रिमुदग्रपौरुषं ब्रुवन्तमार्तो रघुवंशवर्धनः।
न चिन्तयामास धृतिं विमुक्तवान् पुनश्च दुःखं महदभ्युपागमत्॥२०॥
बढ़े हुए पुरुषार्थवाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण जब इस प्रकार की बातें कह रहे थे, उस समय रघुकुल की वृद्धि करने वाले श्रीराम ने आर्त होकर उनके कथन के औचित्य पर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्होंने धैर्य छोड़ दिया और वे पुनः महान् दुःख में पड़ गये॥ २० ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः॥६३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।