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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 64 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 64

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
चतुःषष्टितमः सर्गः (सर्ग 64)

श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा सीता की खोज, आभूषणों के कण और युद्ध के चिह्न देखकर श्रीराम का देवता आदि सहित समस्त त्रिलोकी पर रोष प्रकट करना

 

स दीनो दीनया वाचा लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत्।
शीघ्रं लक्ष्मण जानीहि गत्वा गोदावरी नदीम्॥
अपि गोदावरी सीता पद्मान्यानयितुं गता।

तदनन्तर दीन हुए श्रीरामचन्द्रजी ने दीन वाणी में लक्ष्मण से कहा—’लक्ष्मण! तुम शीघ्र ही गोदावरी नदी के तट पर जाकर पता लगाओ। सीता कमल लाने के लिये तो नहीं चली गयीं ॥ १ १/२ ।।

एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः पुनरेव हि ॥२॥
नदी गोदावरी रम्यां जगाम लघुविक्रमः।

श्रीराम की ऐसी आज्ञा पाकर लक्ष्मण शीघ्र गति से पुनः रमणीय गोदावरी नदी के तट पर गये॥२ १/२॥

तां लक्ष्मणस्तीर्थवती विचित्वा राममब्रवीत्॥३॥
नैनां पश्यामि तीर्थेषु क्रोशतो न शृणोति मे।

अनेक तीर्थों (घाटों)-से युक्त गोदावरी के तट पर खोजकर लक्ष्मण पुनः लौट आये और श्रीराम से बोले -‘भैया! मैं गोदावरी के घाटों पर सीता को नहीं देख पाता हूँ; जोर-जोर से पुकारने पर भी वे मेरी बात नहीं सुनती हैं॥ ३ १/२॥

कं नु सा देशमापन्ना वैदेही क्लेशनाशिनी ॥४॥
नहि तं वेद्मि वै राम यत्र सा तनुमध्यमा।

‘श्रीराम! क्लेशों का नाश करने वाली विदेहराजकुमारी न जाने किस देश में चली गयीं। भैया श्रीराम! जहाँ कृश कटिप्रदेशवाली सीता गयी हैं, उस स्थान को मैं नहीं जानता’ ॥ ४ १/२ ॥

लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा दीनः संतापमोहितः॥
रामः समभिचक्राम स्वयं गोदावरी नदीम्।

लक्ष्मण की यह बात सुनकर दीन एवं संताप से मोहित हुए श्रीरामचन्द्रजी स्वयं ही गोदावरी नदी के तट पर गये॥ ५ १/२॥

स तामुपस्थितो रामः क्व सीतेत्येवमब्रवीत्॥६॥
भूतानि राक्षसेन्द्रेण वधार्हेण हृतामपि।
न तां शशंसू रामाय तथा गोदावरी नदी॥७॥

वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने पूछा-‘सीता कहाँ है?’ परंतु वध के योग्य राक्षसराज रावण द्वारा हरी गयी सीता के विषय में समस्त भूतों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। गोदावरी नदी ने भी श्रीरामको कोई उत्तर नहीं दिया॥६-७॥

ततः प्रचोदिता भूतैः शंस चास्मै प्रियामिति।
न च सा ह्यवदत् सीतां पृष्टा रामेण शोचता॥८॥

तदनन्तर वन के समस्त प्राणियों ने उन्हें प्रेरित किया कि ‘तुम श्रीराम को उनकी प्रिया का पता बता दो!’ किंतु शोकमग्न श्रीराम के पूछने पर भी गोदावरी ने सीता का पता नहीं बताया॥ ८॥

रावणस्य च तद्रूपं कर्मापि च दुरात्मनः।
ध्यात्वा भयात् तु वैदेहीं सा नदी न शशंस ह॥ ९॥

दुरात्मा रावण के उस रूप और कर्म को याद करके भय के मारे गोदावरी नदी ने वैदेही के विषय में श्रीराम से कुछ नहीं कहा॥९॥

निराशस्तु तया नद्या सीताया दर्शने कृतः।
उवाच रामः सौमित्रिं सीतादर्शनकर्शितः॥१०॥

सीता के दर्शन के विषय में जब नदी ने उन्हें पूर्ण निराश कर दिया, तब सीता को न देखने से कष्ट में पड़े हुए श्रीराम सुमित्राकुमार से इस प्रकार बोले- ॥ १० ॥

एषा गोदावरी सौम्य किंचिन्न प्रतिभाषते।
किं नु लक्ष्मण वक्ष्यामि समेत्य जनकं वचः॥ ११॥
मातरं चैव वैदेह्या विना तामहमप्रियम्।

‘सौम्य लक्ष्मण ! यह गोदावरी नदी तो मुझे कोई उत्तर ही नहीं देती है। अब मैं राजा जनक से मिलने पर उन्हें क्या जवाब दूंगा? जानकी के बिना उसकी माता से मिलकर भी मैं उनसे यह अप्रिय बात कैसे सुनाऊँगा?॥

या मे राज्यविहीनस्य वने वन्येन जीवतः ॥ १२॥
सर्वं व्यपानयच्छोकं वैदेही क्व नु सा गता।

‘राज्यहीन होकर वन में जंगली फल-मूलों से निर्वाह करते समय भी जो मेरे साथ रहकर मेरे सभी दुःखों को दूर किया करती थी, वह विदेहराजकुमारी कहाँ चली गयी? ॥ १२ १/२ ॥

ज्ञातिवर्गविहीनस्य वैदेहीमप्यपश्यतः॥१३॥
मन्ये दीर्घा भविष्यन्ति रात्रयो मम जाग्रतः।

‘बन्धु-बान्धवों से तो मेरा बिछोह हो ही गया था, अब सीता के दर्शन से भी मुझे वञ्चित होना पड़ा; उसकी चिन्ता में निरन्तर जागते रहने के कारण अब मेरी सभी रातें बहुत बड़ी हो जायँगी॥ १३ १/२ ।।

मन्दाकिनी जनस्थानमिमं प्रस्रवणं गिरिम्॥१४॥
सर्वाण्यनुचरिष्यामि यदि सीता हि लभ्यते।

‘मन्दाकिनी नदी, जनस्थान तथा प्रस्रवण पर्वतइन सभी स्थानों पर मैं बारंबार भ्रमण करूँगा शायद वहाँ सीता का पता चल जाय॥ १४ १/२॥

एते महामृगा वीर मामीक्षन्ते पुनः पुनः॥१५॥
वक्तुकामा इह हि मे इङ्गितान्युपलक्षये।

‘वीर लक्ष्मण! ये विशाल मृग मेरी ओर बारंबार देख रहे हैं, मानो यहाँ ये मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। मैं इनकी चेष्टाओं को समझ रहा हूँ’॥ १५ १/२ ॥

तांस्तु दृष्ट्वा नरव्याघ्रो राघवः प्रत्युवाच ह॥१६॥
क्व सीतेति निरीक्षन् वै बाष्पसंरुद्धया गिरा।
एवमुक्ता नरेन्द्रेण ते मृगाः सहसोत्थिताः॥१७॥
दक्षिणाभिमुखाः सर्वे दर्शयन्तो नभःस्थलम्।

तदनन्तर उन सबकी ओर देखकर पुरुषसिंह श्रीरामचन्द्रजी ने उनसे कहा—’बताओ, सीता कहाँ हैं?’ उन मृगों की ओर देखते हुए राजा श्रीराम ने जब अश्रुगद्गद वाणी से इस प्रकार पूछा, तब वे मृग सहसा उठकर खड़े हो गये और ऊपर की ओर देखकर आकाशमार्ग की ओर लक्ष्य कराते हुए सब-के-सब दक्षिण दिशा की ओर मुँह किये दौड़े ॥ १६-१७ १/२॥

मैथिली ह्रियमाणा सा दिशं यामभ्यपद्यत॥१८॥
तेन मार्गेण गच्छन्तो निरीक्षन्ते नराधिपम्।

मिथिलेशकुमारी सीता हरी जाकर जिस दिशा की ओर गयी थीं, उसी ओर के मार्ग से जाते हुए वे मृग राजा श्रीरामचन्द्रजी की ओर मुड़-मुड़कर देखते रहते थे॥ १८ १/२॥

येन मार्गं च भूमिं च निरीक्षन्ते स्म ते मृगाः॥ १९॥
पुनर्नदन्तो गच्छन्ति लक्ष्मणेनोपलक्षिताः।
तेषां वचनसर्वस्वं लक्षयामास चेङ्गितम्॥२०॥

वे मृग आकाश मार्ग और भूमि दोनों की ओर देखते और गर्जना करते हुए पुनः आगे बढ़ते थे। लक्ष्मण ने उनकी इस चेष्टा को लक्ष्य किया। वे जो कुछ कहना चाहते थे, उसका सारसर्वस्वरूप जो उनकी चेष्टा थी, उसे उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया॥ १९-२०॥

उवाच लक्ष्मणो धीमान् ज्येष्ठं भ्रातरमार्तवत्।
क्व सीतेति त्वया पृष्टा यथेमे सहसोत्थिताः॥ २१॥
दर्शयन्ति क्षितिं चैव दक्षिणां च दिशं मृगाः।
साधु गच्छावहे देव दिशमेतां च नैर्ऋतीम्॥ २२॥
यदि तस्यागमः कश्चिदार्या वा साथ लक्ष्यते।

तदनन्तर बुद्धिमान् लक्ष्मण ने आर्त-से होकर अपने बड़े भाई से इस प्रकार कहा—’आर्य! जब आपने पूछा कि सीता कहाँ हैं, तब ये मृग सहसा उठकर खड़े हो गये और पृथ्वी तथा दक्षिण की ओर हमारा
लक्ष्य कराने लगे हैं; अतः देव! यही अच्छा होगा कि हमलोग इस नैर्ऋत्य दिशा की ओर चलें। सम्भव है, इधर जाने से सीता का कोई समाचार मिल जाय अथवा आर्या सीता स्वयं ही दृष्टिगोचर हो जायँ’ ॥ २१-२२ १/२॥

बाढमित्येव काकुत्स्थः प्रस्थितो दक्षिणां दिशम्॥ २३॥
लक्ष्मणानुगतः श्रीमान् वीक्षमाणो वसुंधराम्।

तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीमान् रामचन्द्रजी लक्ष्मण को साथ ले पृथ्वी की ओर ध्यान से देखते हुए दक्षिण दिशा की ओर चल दिये।। २३ १/२।।

एवं सम्भाषमाणौ तावन्योन्यं भ्रातरावुभौ ॥२४॥
वसुंधरायां पतितपुष्पमार्गमपश्यताम्।

वे दोनों भाई आपस में इसी प्रकार की बातें करते हुए ऐसे मार्ग पर जा पहुँचे, जहाँ भूमि पर कुछ फूल गिरे दिखायी देते थे॥२४ १/२॥

पुष्पवृष्टिं निपतितां दृष्ट्वा रामो महीतले॥२५॥
उवाच लक्ष्मणं वीरो दुःखितो दुःखितं वचः।

पृथ्वी पर फूलों की उस वर्षा को देखकर वीर श्रीराम ने दुःखी हो लक्ष्मण से यह दुःखभरा वचन कहा— ॥ २५ १/२॥

अभिजानामि पुष्पाणि तानीमानीह लक्ष्मण॥ २६॥
अपिनद्धानि वैदेह्या मया दत्तानि कानने।

‘लक्ष्मण ! मैं इन फूलों को पहचानता हूँ। ये वे ही फूल यहाँ गिरे हैं, जिन्हें वन में मैंने विदेहनन्दिनी को दिया था और उन्होंने अपने केशों में लगा लिया था। २६ १/२॥

मन्ये सूर्यश्च वायुश्च मेदिनी च यशस्विनी॥ २७॥
अभिरक्षन्ति पुष्पाणि प्रकुर्वन्तो मम प्रियम्।

‘मैं समझता हूँ, सूर्य, वायु और यशस्विनी पृथ्वी ने मेरा प्रिय करने के लिये ही इन फूलों को सुरक्षित रखा है’ ॥ २७ १/२॥

एवमुक्त्वा महाबाहुर्लक्ष्मणं पुरुषर्षभम्॥२८॥
उवाच रामो धर्मात्मा गिरिं प्रस्रवणाकुलम्।

पुरुषप्रवर लक्ष्मण से ऐसा कहकर धर्मात्मा महाबाहु श्रीराम ने झरनों से भरे हुए प्रस्रवण गिरि से कहा- ॥ २८ १/२॥

कच्चित् क्षितिभृतां नाथ दृष्टा सर्वाङ्गसुन्दरी॥ २९॥
रामा रम्ये वनोद्देशे मया विरहिता त्वया।

‘पर्वतराज! क्या तुमने इस वन के रमणीय प्रदेश में मुझसे बिछुड़ी हुई सर्वाङ्गसुन्दरी रमणी सीता को देखा है?’ ॥ २९ १/२ ॥

क्रुद्धोऽब्रवीद् गिरिं तत्र सिंहः क्षुद्रमृगं यथा॥ ३०॥
तां हेमवर्णां हेमाङ्गी सीतां दर्शय पर्वत।
यावत् सानूनि सर्वाणि न ते विध्वंसयाम्यहम्॥ ३१॥

तदनन्तर जैसे सिंह छोटे मृग को देखकर दहाड़ता है, उसी प्रकार वे कुपित हो वहाँ उस पर्वत से बोले —’पर्वत ! जबतक मैं तुम्हारे सारे शिखरों का विध्वंस नहीं कर डालता हूँ, इसके पहले ही तुम उस काञ्चन की-सी काया-कान्तिवाली सीता का मुझे दर्शन करा दो’ ।। ३०-३१॥

एवमुक्तस्तु रामेण पर्वतो मैथिली प्रति।
दर्शयन्निव तां सीतां नादर्शयत राघवे॥३२॥

श्रीराम के द्वारा मैथिली के लिये ऐसा कहे जाने पर उस पर्वत ने सीता को दिखाता हुआ-सा कुछ चिह्न प्रकट कर दिया। श्रीरघुनाथजी के समीप वह सीता को साक्षात् उपस्थित न कर सका।॥ ३२॥

ततो दाशरथी राम उवाच च शिलोच्चयम्।
मम बाणाग्निनिर्दग्धो भस्मीभूतो भविष्यसि॥
असेव्यः सर्वतश्चैव निस्तृणद्रुमपल्लवः ।

तब दशरथनन्दन श्रीराम ने उस पर्वत से कहा —’अरे! तू मेरे बाणों की आग से जलकर भस्मीभूत हो जायगा। किसी भी ओर से तू सेवन के योग्य नहीं रह जायगा। तेरे तृण, वृक्ष और पल्लव नष्ट हो जायँगे’।

इमां वा सरितं चाद्य शोषयिष्यामि लक्ष्मण॥३४॥
यदि नाख्याति मे सीतामद्य चन्द्रनिभाननाम्।

(इसके बाद वे सुमित्राकुमार से बोले-) ‘लक्ष्मण! यदि यह नदी आज मुझे चन्द्रमुखी सीता का पता नहीं बताती है तो मैं अब इसे भी सुखा डालूँगा’ ॥ ३४ १/२॥

एवं प्ररुषितो रामो दिधक्षन्निव चक्षुषा॥ ३५॥
ददर्श भूमौ निष्क्रान्तं राक्षसस्य पदं महत्।

ऐसा कहकर रोष में भरे हुए श्रीरामचन्द्रजी उसकी ओर इस तरह देखने लगे, मानो अपनी दृष्टि द्वारा उसे जलाकर भस्म कर देना चाहते हैं। इतने ही में उस ङ्केपर्वत और गोदावरी के समीप की भूमि पर राक्षस का विशाल पदचिह्न उभरा हुआ दिखायी दिया॥ ३५ १/२॥

त्रस्ताया रामकांक्षिण्याः प्रधावन्त्या इतस्ततः॥
राक्षसेनानुसृप्ताया वैदेह्याश्च पदानि तु।

साथ ही राक्षस ने जिनका पीछा किया था और जो श्रीराम की अभिलाषा रखकर रावण के भय से संत्रस्त हो इधर-उधर भागती फिरी थीं, उन विदेहराजकुमारी सीता के चरणचिह्न भी वहाँ दिखायी दिये॥ ३६ ३ ॥

स समीक्ष्य परिक्रान्तं सीताया राक्षसस्य च ॥३७॥
भग्नं धनुश्च तूणी च विकीर्णं बहुधा रथम्।
सम्भ्रान्तहृदयो रामः शशंस भ्रातरं प्रियम्॥३८॥

सीता और राक्षस के पैरों के निशान, टूटे धनुष, तरकस और छिन्न-भिन्न होकर अनेक टुकड़ों में बिखरे हुए रथ को देखकर श्रीरामचन्द्रजी का हृदय घबरा उठा। वे अपने प्रिय भ्राता सुमित्राकुमार से बोले – ॥ ३७-३८॥

पश्य लक्ष्मण वैदेह्या कीर्णाः कनकबिन्दवः।
भूषणानां हि सौमित्रे माल्यानि विविधानि च॥ ३९॥

‘लक्ष्मण! देखो, ये सीता के आभूषणों में लगे हुए सोने के घुघुरू बिखरे पड़े हैं। सुमित्रानन्दन! उसके नाना प्रकार के हार भी टूटे पड़े हैं॥ ३९॥

तप्तबिन्दुनिकाशैश्च चित्रैः क्षतजबिन्दुभिः।
आवृतं पश्य सौमित्रे सर्वतो धरणीतलम्॥४०॥

‘सुमित्राकुमार! देखो, यहाँ की भूमि सब ओर से सुवर्ण की बूंदों के समान ही विचित्र रक्तबिन्दुओं से रँगी दिखायी देती है॥ ४०॥

मन्ये लक्ष्मण वैदेही राक्षसैः कामरूपिभिः।
भित्त्वा भित्त्वा विभक्ता वा भक्षिता वा भविष्यति॥४१॥

‘लक्ष्मण! मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षसों ने यहाँ सीता के टुकड़े-टुकड़े करके उसे आपस में बाँटा और खाया होगा।

तस्या निमित्तं सीताया द्वयोर्विवदमानयोः।
बभूव युद्धं सौमित्रे घोरं राक्षसयोरिह॥४२॥

‘सुमित्रानन्दन! सीता के लिये परस्पर विवाद करने वाले दो राक्षसों में यहाँ घोर युद्ध भी हुआ है। ४२॥

मुक्तामणिचितं चेदं रमणीयं विभूषितम्।
धरण्यां पतितं सौम्य कस्य भग्नं महद् धनुः॥ ४३॥

‘सौम्य! तभी तो यहाँ यह मोती और मणियों से जटित एवं विभूषित किसी का अत्यन्त सुन्दर और विशाल धनुष खण्डित होकर पृथ्वी पर पड़ा है। यह किसका धनुष हो सकता है ? ॥ ४३॥

राक्षसानामिदं वत्स सुराणामथवापि वा।
तरुणादित्यसंकाशं वैदूर्यगलिकाचितम्॥४४॥

‘वत्स! पता नहीं, यह राक्षसों का है या देवताओं का यह प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा है तथा इसमें वैदूर्यमणि (नीलम) के टुकड़े जड़े हुए हैं॥४४॥

विशीर्णं पतितं भूमौ कवचं कस्य काञ्चनम्।
छत्रं शतशलाकं च दिव्यमाल्योपशोभितम्॥ ४५॥
भग्नदण्डमिदं सौम्य भूमौ कस्य निपातितम्।

‘सौम्य! उधर पृथ्वी पर टूटा हुआ एक सोने का कवच पड़ा है, न जाने वह किसका है? दिव्य मालाओं से सुशोभित यह सौ कमानियों वाला छत्र किसका है? इसका डंडा टूट गया है और यह धरती पर गिरा दिया गया है॥ ४५ १/२ ॥

काञ्चनोरश्छदाश्चेमे पिशाचवदनाः खराः॥ ४६॥
भीमरूपा महाकायाः कस्य वा निहता रणे।

‘इधर ये पिशाचों के समान मुखवाले भयंकर रूपधारी गधे मरे पड़े हैं। इनका शरीर बहुत ही विशाल रहा है। इन सबकी छाती में सोने के कवच बँधे हैं। ये युद्ध में मारे गये जान पड़ते हैं। पता नहीं ये किसके थे॥

दीप्तपावकसंकाशो द्युतिमान् समरध्वजः॥४७॥
अपविद्धश्च भग्नश्च कस्य साङ्गामिको रथः।

‘तथा संग्राम में काम देने वाला यह किसका रथ पड़ा है ? इसे किसी ने उलटा गिराकर तोड़ डाला है। समराङ्गण में स्वामी को सूचित करने वाली ध्वजा भी इसमें लगी थी। यह तेजस्वी रथ प्रज्वलित अग्नि के समान दमक रहा है॥ ४७ १/२॥

रथाक्षमात्रा विशिखास्तपनीयविभूषणाः॥४८॥
कस्येमे निहता बाणाः प्रकीर्णा घोरदर्शनाः।

‘ये भयंकर बाण, जो यहाँ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरे पड़े हैं, किसके हैं? इनकी लंबाई और मोटाई रथ के धुरे के समान प्रतीत होती है। इनके फल-भाग टूट गये हैं तथा ये सुवर्ण से विभूषित हैं। ४८ १/२ ॥

शरावरौ शरैः पूर्णौ विध्वस्तौ पश्य लक्ष्मण॥ ४९॥
प्रतोदाभीषहस्तोऽयं कस्य वा सारथिर्हतः।

‘लक्ष्मण! उधर देखो, ये बाणों से भरे हुए दो तरकस पड़े हैं, जो नष्ट कर दिये गये हैं। यह किसका सारथि मरा पड़ा है, जिसके हाथ में चाबुक और लगाम अभी तक मौजूद हैं॥ ४९ १/२ ॥

पदवी पुरुषस्यैषा व्यक्तं कस्यापि रक्षसः॥५०॥
वैरं शतगुणं पश्य मम तैर्जीवितान्तकम्।
सुघोरहृदयैः सौम्य राक्षसैः कामरूपिभिः॥५१॥

‘सौम्य! यह अवश्य ही किसी राक्षस का पदचिह्न दिखायी देता है। इन अत्यन्त क्रूर हृदय वाले कामरूपी राक्षसों के साथ मेरा वैर सौगुना बढ़ गया है। देखो, यह वैर उनके प्राण लेकर ही शान्त होगा। ५०-५१॥

हृता मृता वा वैदेही भक्षिता वा तपस्विनी।
न धर्मस्त्रायते सीतां ह्रियमाणां महावने॥५२॥

‘अवश्य ही तपस्विनी विदेहराजकुमारी हर ली गयी, मृत्यु को प्राप्त हो गयी अथवा राक्षसों ने उसे खा लिया। इस विशाल वन में हरी जाती हुई सीता की रक्षा धर्म भी नहीं कर रहा है॥५२॥

भक्षितायां हि वैदेह्यां हृतायामपि लक्ष्मण।
के हि लोके प्रियं कर्तुं शक्ताः सौम्य ममेश्वराः॥ ५३॥

‘सौम्य लक्ष्मण! जब विदेहनन्दिनी राक्षसों का ग्रास बन गयी अथवा उनके द्वारा हर ली गयी और कोई सहायक नहीं हुआ, तब इस जगत् में कौन ऐसे पुरुष हैं, जो मेरा प्रिय करने में समर्थ हों॥ ५३॥

कर्तारमपि लोकानां शूरं करुणवेदिनम्।
अज्ञानादवमन्येरन् सर्वभूतानि लक्ष्मण॥५४॥

‘लक्ष्मण! जो समस्त लोकों की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले ‘त्रिपुर-विजय’ आदि शौर्य से सम्पन्न महेश्वर हैं, वे भी जब अपने करुणामय स्वभाव के कारण चुप बैठे रहते हैं, तब सारे प्राणी उनके ऐश्वर्य को न जानने से उनका तिरस्कार करने लग जाते हैं ॥ ५४॥

मृदुं लोकहिते युक्तं दान्तं करुणवेदिनम्।
निर्वीर्य इति मन्यन्ते नूनं मां त्रिदशेश्वराः॥५५॥

‘मैं लोकहित में तत्पर, युक्तचित्त, जितेन्द्रिय तथा जीवों पर करुणा करने वाला हूँ, इसीलिये ये इन्द्र आदि देवेश्वर निश्चय ही मुझे निर्बल मान रहे हैं (तभी तो इन्होंने सीता की रक्षा नहीं की है)॥ ५५ ॥

मां प्राप्य हि गुणो दोषः संवृत्तः पश्य लक्ष्मण।
अद्यैव सर्वभूतानां रक्षसामभवाय च॥५६॥
संहृत्यैव शशिज्योत्स्नां महान् सूर्य इवोदितः।
संहृत्यैव गुणान् सर्वान् मम तेजः प्रकाशते॥ ५७॥

‘लक्ष्मण! देखो तो सही, यह दयालुता आदि गुण मेरे पास आकर दोष बन गया (तभी तो मुझे निर्बल मानकर मेरी स्त्री का अपहरण किया गया है। अतः अब मुझे पुरुषार्थ ही प्रकट करना होगा)। जैसे प्रलयकाल में उदित हुआ महान् सूर्य चन्द्रमा की ज्योत्स्ना (चाँदनी) का संहार करके प्रचण्ड तेज से प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार अब मेरा तेज आज ही समस्त प्राणियों तथा राक्षसों का अन्त करने के लिये मेरे उन कोमल स्वभाव आदि गुणों को समेटकर प्रचण्डरूप में प्रकाशित होगा, यह भी तुम देखो। ५६-५७॥

नैव यक्षा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
किंनरा वा मनुष्या वा सुखं प्राप्स्यन्ति लक्ष्मण॥ ५८॥

‘लक्ष्मण! अब न तो यक्ष, न गन्धर्व, न पिशाच, न राक्षस, न किन्नर और न मनुष्य ही चैन से रहने पायेंगे॥ ५८॥

ममास्त्रबाणसम्पूर्णमाकाशं पश्य लक्ष्मण।
असम्पातं करिष्यामि ह्यद्य त्रैलोक्यचारिणाम॥ ५९॥

‘सुमित्रानन्दन! देखना, थोड़ी ही देर में आकाश को मैं अपने चलाये हुए बाणों से भर दूंगा और तीनलोकों में विचरने वाले प्राणियों को हिलने-डुलने भी न दूंगा॥ ५९॥

संनिरुद्धग्रहगणमावारितनिशाकरम्।
विप्रणष्टानलमरुद्भास्करद्युतिसंवृतम्॥६०॥
विनिर्मथितशैलाग्रं शुष्यमाणजलाशयम्।
ध्वस्तद्रुमलतागुल्मं विप्रणाशितसागरम्॥६१॥
त्रैलोक्यं त करिष्यामि संयक्तं कालकर्मणा।

‘ग्रहों की गति रुक जायगी, चन्द्रमा छिप जायगा, अग्नि, मरुद्गण तथा सूर्य का तेज नष्ट हो जायगा, सब कुछ अन्धकार से आच्छन्न हो जायगा, पर्वतों के शिखर मथ डाले जायँगे, सारे जलाशय (नदी-सरोवर आदि) सूख जायेंगे, वृक्ष, लता और गुल्म नष्ट हो जायँगे और समुद्रों का भी नाश कर दिया जायगा। इस तरह मैं सारी त्रिलोकी में ही काल की विनाशलीला आरम्भ कर दूंगा॥

न ते कुशलिनी सीतां प्रदास्यन्ति ममेश्वराः॥ ६२॥
अस्मिन् मुहूर्ते सौमित्रे मम द्रक्ष्यन्ति विक्रमम्।

‘सुमित्रानन्दन! यदि देवेश्वरगण इसी मुहूर्त में मुझे सीता देवी को सकुशल नहीं लौटा देंगे तो वे मेरा पराक्रम देखेंगे॥ ६२ १/२ ॥

नाकाशमुत्पतिष्यन्ति सर्वभूतानि लक्ष्मण॥६३॥
मम चापगुणोन्मुक्तैर्बाणजालैर्निरन्तरम्।।

‘लक्ष्मण! मेरे धनुष की प्रत्यञ्चा से छूटे हुए बाणसमूहों द्वारा आकाश के ठसाठस भर जाने के कारण उसमें कोई प्राणी उड़ नहीं सकेंगे॥६३ १/२ ॥

मर्दितं मम नाराचैर्ध्वस्तभ्रान्तमृगद्विजम्॥६४॥
समाकुलममर्यादं जगत् पश्याद्य लक्ष्मण।

‘सुमित्रानन्दन! देखो, आज मेरे नाराचों से रौंदा जाकर यह सारा जगत् व्याकुल और मर्यादारहित हो जायगा। यहाँ के मृग और पक्षी आदि प्राणी नष्ट एवं उद्भ्रान्त हो जायेंगे॥६४ १/२॥

आकर्णपूणैरिषुभिर्जीवलोकदुरावरैः॥६५॥
करिष्ये मैथिलीहेतोरपिशाचमराक्षसम्।

‘धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये मेरे बाणों को रोकना जीवजगत् के लिये बहुत कठिन होगा। मैं सीता के लिये उन बाणों द्वारा इस जगत् के समस्त पिशाचों और राक्षसों का संहार कर डालूँगा॥ ६५ १/२॥

मम रोषप्रयुक्तानां विशिखानां बलं सुराः॥६६॥
द्रक्ष्यन्त्यद्य विमुक्तानाममर्षाद् दूरगामिनाम्।

‘रोष और अमर्षपूर्वक छोड़े गये मेरे फलरहित दूरगामी बाणों का बल आज देवतालोग देखेंगे॥ ६६ १/२॥

नैव देवा न दैतेया न पिशाचा न राक्षसाः॥६७॥
भविष्यन्ति मम क्रोधात् त्रैलोक्ये विप्रणाशिते।

‘मेरे क्रोध से त्रिलोकी का विनाश हो जाने पर न देवता रह जायँगे न दैत्य, न पिशाच रहने पायेंगे न राक्षस॥ ६७ १/२॥

देवदानवयक्षाणां लोका ये रक्षसामपि॥६८॥
बहुधा निपतिष्यन्ति बाणौघैः शकलीकृताः।

‘देवताओं, दानवों, यक्षों और राक्षसों के जो लोक हैं, वे मेरे बाणसमूहों से टुकड़े-टुकड़े होकर बारंबार नीचे गिरेंगे॥ ६८ १/२ ॥

निर्मर्यादानिमाल्लोकान् करिष्याम्यद्य सायकैः॥ ६९॥
हृतां मृतां वा सौमित्रे न दास्यन्ति ममेश्वराः।

‘सुमित्रानन्दन! यदि देवेश्वरगण मेरी हरी या मरी हुई सीता को लाकर मुझे नहीं देंगे तो आज मैं अपने सायकों की मार से इन तीनों लोकों को मर्यादा से भ्रष्ट कर दूंगा॥ ६९ १/२॥

तथारूपां हि वैदेहीं न दास्यन्ति यदि प्रियाम्॥ ७०॥
नाशयामि जगत् सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
यावद् दर्शनमस्या वै तापयामि च सायकैः॥ ७१॥

‘यदि वे मेरी प्रिया विदेहराजकुमारी को मुझे उसी रूप में वापस नहीं लौटायेंगे तो मैं चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी का नाश कर डालूँगा। जबतक सीता का दर्शन न होगा, तब तक मैं अपने सायकों से समस्त संसार को संतप्त करता रहूँगा’। ७०-७१॥

इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षः स्फुरमाणोष्ठसम्पुटः।
वल्कलाजिनमाबद्धय जटाभारमबन्धयत्॥७२॥

ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी के नेत्र क्रोध से लाल हो गये, होठ फड़कने लगे। उन्होंने वल्कल और मृगचर्म को अच्छी तरह कसकर अपने जटाभार को भी बाँध लिया॥७२॥

तस्य क्रुद्धस्य रामस्य तथाभूतस्य धीमतः।
त्रिपुरं जनुषः पूर्वं रुद्रस्येव बभौ तनुः॥७३॥

उस समय क्रोध में भरकर उस तरह संहार के लिये उद्यत हुए भगवान् श्रीराम का शरीर पूर्वकाल में त्रिपुर का संहार करने वाले रुद्र के समान प्रतीत होता था॥७३॥

लक्ष्मणादथ चादाय रामो निष्पीड्य कार्मुकम्।
शरमादाय संदीप्तं घोरमाशीविषोपमम्॥७४॥
संदधे धनुषि श्रीमान् रामः परपुरञ्जयः।।
युगान्ताग्निरिव क्रुद्ध इदं वचनमब्रवीत्॥७५॥

उस समय लक्ष्मण के हाथ से धनुष लेकर श्रीरामचन्द्रजी ने उसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और एक विषधर सर्प के समान भयंकर और प्रज्वलित बाण लेकर उसे उस धनुषपर रखा। तत्पश्चात् शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले श्रीराम प्रलयाग्नि के समान कुपित हो इस प्रकार बोले- ॥ ७४-७५ ॥

यथा जरा यथा मृत्युर्यथा कालो यथा विधिः।
नित्यं न प्रतिहन्यन्ते सर्वभूतेषु लक्ष्मण।
तथाहं क्रोधसंयुक्तो न निवार्योऽस्म्यसंशयम्॥ ७६॥

‘लक्ष्मण ! जैसे बुढ़ापा, जैसे मृत्यु, जैसे काल और जैसे विधाता सदा समस्त प्राणियों पर प्रहार करते हैं, किंतु उन्हें कोई रोक नहीं पाता है, उसी प्रकार निस्संदेह क्रोध में भर जाने पर मेरा भी कोई निवारण नहीं कर सकता ॥ ७६॥

पुरेव मे चारुदतीमनिन्दितां दिशन्ति सीतां यदि नाद्य मैथिलीम्।
सदेवगन्धर्वमनुष्यपन्नगं जगत् सशैलं परिवर्तयाम्यहम्॥७७॥

‘यदि देवता आदि आज पहले की ही भाँति मनोहर दाँतोंवाली अनिन्द्यसुन्दरी मिथिलेशकुमारी सीता को मुझे लौटा नहीं देंगे तो मैं देवता, गन्धर्व, मनुष्य, नाग और पर्वतोंसहित सारे संसार को उलट दूंगा’ ।।७७ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः॥६४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६४॥


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Shivangi

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