वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 65 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 65
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चषष्टितमः सर्गः (सर्ग 65)
लक्ष्मण का श्रीराम को समझा-बुझाकर शान्त करना
तप्यमानं तदा रामं सीताहरणकर्शितम्।
लोकानामभवे युक्तं सांवर्तकमिवानलम्॥१॥
वीक्षमाणं धनुः सज्यं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
दग्धुकामं जगत् सर्वं युगान्ते च यथा हरम्॥२॥
अदृष्टपूर्वं संक्रुद्धं दृष्ट्वा रामं स लक्ष्मणः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं मुखेन परिशुष्यता॥३॥
सीताहरण के शोक से पीड़ित हुए श्रीराम जब उस समय संतप्त हो प्रलयकालिक अग्नि के समान समस्त लोकों का संहार करने को उद्यत हो गये और धनुष की डोरी चढ़ाकर बारंबार उसकी ओर देखने लगे तथा लंबी साँस खींचने लगे, साथ ही कल्पान्तकाल में रुद्रदेव की भाँति समस्त संसार को दग्ध कर देने की इच्छा करने लगे, तब जिन्हें इस रूप में पहले कभी देखा नहीं गया था, उन अत्यन्त कुपित हुए श्रीराम की ओर देखकर लक्ष्मण हाथ जोड़ सूखे हुए मुँह से इस प्रकार बोले- ॥१-३॥
पुरा भूत्वा मृदुर्दान्तः सर्वभूतहिते रतः।
न क्रोधवशमापन्नः प्रकृतिं हातुमर्हसि ॥४॥
‘आर्य! आप पहले कोमल स्वभाव से युक्त, जितेन्द्रिय और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहे हैं।अब क्रोध के वशीभूत होकर अपनी प्रकृति (स्वभाव) का परित्याग न करें॥४॥
चन्द्रे लक्ष्मीः प्रभा सूर्ये गतिर्वायौ भुवि क्षमा।
एतच्च नियतं नित्यं त्वयि चानुत्तमं यशः॥५॥
‘चन्द्रमा में शोभा, सूर्य में प्रभा, वायु में गति और पृथ्वी में क्षमा जैसे नित्य विराजमान रहती है, उसी प्रकार आप में सर्वोत्तम यश सदा प्रकाशित होता है।
एकस्य नापराधेन लोकान् हन्तुं त्वमर्हसि।
ननु जानामि कस्यायं भग्नः सांग्रामिको रथः॥
‘आप किसी एक के अपराध से समस्त लोकों का संहार न करें। मैं यह जानने की चेष्टा करता हूँ कि यह टूटा हुआ युद्धोपयोगी रथ किसका है॥६॥
केन वा कस्य वा हेतोः सयुगः सपरिच्छदः।
खरनेमिक्षतश्चायं सिक्तो रुधिरबिन्दुभिः॥७॥
देशो निर्वृत्तसंग्रामः सुघोरः पार्थिवात्मज।
एकस्य तु विमर्दोऽयं न द्वयोर्वदतां वर॥८॥
नहि वृत्तं हि पश्यामि बलस्य महतः पदम्।
नैकस्य तु कृते लोकान् विनाशयितुमर्हसि॥९॥
‘अथवा किसने किस उद्देश्य से जूए तथा अन्य उपकरणों सहित इस रथ को तोड़ा है? इसका भी पता लगाना है। राजकुमार ! यह स्थान घोड़ों की खुरों और थके पहियों से खुदा हुआ है। साथ ही खून की बूदों से सिंच उठा है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ बड़ा भयंकर संग्राम हुआ था, परंतु यह संग्राम-चिह्न किसी एक ही रथी का है, दो का नहीं। वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीराम! मैं यहाँ किसी विशाल सेना का पदचिह्न नहीं देख रहा हूँ; अतः किसी एक ही के अपराध के कारण आपको समस्त लोकों का विनाश नहीं करना चाहिये॥७–९॥
युक्तदण्डा हि मृदवः प्रशान्ता वसुधाधिपाः।
सदा त्वं सर्वभूतानां शरण्यः परमा गतिः॥१०॥
‘क्योंकि राजालोग अपराध के अनुसार ही उचित दण्ड देने वाले, कोमल स्वभाव वाले और शान्त होते हैं। आप तो सदा ही समस्त प्राणियों को शरण देने वाले तथा उनकी परम गति हैं॥ १० ॥
को नु दारप्रणाशं ते साधु मन्येत राघव।
सरितः सागराः शैला देवगन्धर्वदानवाः॥११॥
नालं ते विप्रियं कर्तुं दीक्षितस्येव साधवः।
‘रघुनन्दन! आपकी स्त्री का विनाश या अपहरण कौन अच्छा समझेगा? जैसे यज्ञ में दीक्षित हुए पुरुष का साधु स्वभाववाले ऋत्विज् कभी अप्रिय नहीं कर सकते, उसी प्रकार सरिताएँ, समुद्र, पर्वत, देवता, गन्धर्व और दानव-ये कोई भी आपके प्रतिकूल आचरण नहीं कर सकते॥११ १/२ ॥
येन राजन् हृता सीता तमन्वेषितुमर्हसि॥१२॥
मदः द्वितीयो धनुष्पाणिः सहायैः परमर्षिभिः।
‘राजन्! जिसने सीता का अपहरण किया है, उसी का अन्वेषण करना चाहिये। आप मेरे साथ धनुष हाथ में लेकर बड़े-बड़े ऋषियों की सहायता से उसका पता लगावें॥ १२ १/२॥
समुद्रं वा विचेष्यामः पर्वतांश्च वनानि च ॥१३॥
गुहाश्च विविधा घोराः पद्मिन्यो विविधास्तथा।
देवगन्धर्वलोकांश्च विचेष्यामः समाहिताः॥ १४॥
यावन्नाधिगमिष्यामस्तव भार्यापहारिणम्।
न चेत् साम्ना प्रदास्यन्ति पत्नी ते त्रिदशेश्वराः।
कोसलेन्द्र ततः पश्चात् प्राप्तकालं करिष्यसि॥ १५॥
‘हम सब लोग एकाग्रचित्त हो समुद्र में खोजेंगे, पर्वतों और वनों में ढूँढेंगे, नाना प्रकार की भयंकर गुफाओं और भाँति-भाँति के सरोवरों को छान डालेंगे तथा देवताओं और गन्धर्वो के लोकों में भी तलाश करेंगे। जबतक आपकी पत्नी का अपहरण करने वाले दुरात्मा का पता नहीं लगा लेंगे, तब तक हम अपना यह प्रयत्न जारी रखेंगे। कोसलनरेश! यदि हमारे शान्तिपूर्ण बर्ताव से देवेश्वरगण आपकी पत्नी का पता नहीं देंगे तो उस अवसर के अनुरूप कार्य आप कीजियेगा॥
शीलेन साम्ना विनयेन सीतां नयेन न प्राप्स्यसि चेन्नरेन्द्र।
ततः समुत्सादय हेमपुखैमहेन्द्रवज्रप्रतिमैः शरौघैः॥१६॥
‘नरेन्द्र! यदि अच्छे शील-स्वभाव, सामनीति, विनय और न्याय के अनुसार प्रयत्न करने पर भी आपको सीता का पता न मिले, तब आप सुवर्णमय पंखवाले महेन्द्र के वज्रतुल्य बाणसमूहों से समस्त लोकों का संहार कर डालें’॥ १६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चषष्टितमः सर्गः॥६५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६५॥