वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 67 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 67
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
सप्तषष्टितमः सर्गः (सर्ग 67)
श्रीराम और लक्ष्मण की पक्षिराज जटायु से भेंट तथा श्रीराम का उन्हें गले से लगाकर रोना
पूर्वजोऽप्युक्तमात्रस्तु लक्ष्मणेन सुभाषितम्।
सारग्राही महासारं प्रतिजग्राह राघवः॥१॥
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी सब वस्तुओं का सार ग्रहण करने वाले हैं। अवस्था में बड़े होने पर भी उन्होंने लक्ष्मण के कहे हुए अत्यन्त सारगर्भित उत्तम वचनों को सुनकर उन्हें स्वीकार किया॥१॥
स निगृह्य महाबाहुः प्रवृद्धं रोषमात्मनः।
अवष्टभ्य धनुश्चित्रं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥२॥
तदनन्तर महाबाहु श्रीराम ने अपने बढ़े हुए रोष को रोका और उस विचित्र धनुष को उतारकर लक्ष्मण से कहा-॥२॥
किं करिष्यावहे वत्स क्व वा गच्छाव लक्ष्मण।
केनोपायेन पश्यावः सीतामिह विचिन्तय॥३॥
‘वत्स! अब हमलोग क्या करें? कहाँ जायँ ? लक्ष्मण ! किस उपाय से हमें सीता का पता लगे? यहाँ इसका विचार करो’ ॥३॥
तं तथा परितापार्तं लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
इदमेव जनस्थानं त्वमन्वेषितुमर्हसि ॥४॥
तब लक्ष्मण ने इस प्रकार संतापपीड़ित हुए श्रीराम से कहा—’भैया! आपको इस जनस्थान में ही सीता की खोज करनी चाहिये॥ ४॥
राक्षसैर्बहुभिः कीर्णं नानाद्रुमलतायुतम्।
सन्तीह गिरिदुर्गाणि निर्दराः कन्दराणि च॥५॥
‘नाना प्रकार के वृक्ष और लताओं से युक्त यह सघन वन अनेक राक्षसों से भरा हुआ है। इसमें पर्वत के ऊपर बहुत-से दुर्गम स्थान, फटे हुए पत्थर और कन्दराएँ हैं।॥ ५॥
गुहाश्च विविधा घोरा नानामृगगणाकुलाः।
आवासाः किंनराणां च गन्धर्वभवनानि च॥६॥
‘वहाँ भाँति-भाँति की भयंकर गुफाएँ हैं, जो नाना प्रकार के मृगगणों से भरी रहती हैं। यहाँ के पर्वतपर किन्नरों के आवास स्थान और गन्धर्वो के भवन भी हैं।
तानि युक्तो मया सार्धं समन्वेषितुमर्हसि।
त्वद्विधा बुद्धिसम्पन्ना महात्मानो नरर्षभाः॥७॥
आपत्सु न प्रकम्पन्ते वायुवेगैरिवाचलाः।
‘मेरे साथ चलकर आप उन सभी स्थानों में एकाग्रचित्त हो सीता की खोज करें। जैसे पर्वत वायु के वेग से कम्पित नहीं होते हैं, उसी प्रकार आप-जैसे बुद्धिमान् महात्मा नरश्रेष्ठ आपत्तियों में विचलित नहीं होते हैं’। ७ १/२॥
इत्युक्तस्तद् वनं सर्वं विचचार सलक्ष्मणः॥८॥
क्रुद्धो रामः शरं घोरं संधाय धनुषि क्षुरम्।
उनके ऐसा कहने पर लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी रोषपूर्वक अपने धनुषपर क्षुर नामक भयंकर बाण चढ़ाये वहाँ सारे वन में विचरण करने लगे॥ ८ १/२॥
ततः पर्वतकूटाभं महाभागं द्विजोत्तमम्॥९॥
ददर्श पतितं भूमौ क्षतजार्दै जटायुषम्।
तं दृष्ट्वा गिरिशृङ्गाभं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ १०॥
थोड़ी ही दूर आगे जाने पर उन्हें पर्वतशिखर के समान विशाल शरीर वाले पक्षिराज महाभाग जटायु दिखायी पड़े जो खून से लथपथ हो पृथ्वी पर पड़े थे। पर्वत-शिखर के समान प्रतीत होने वाले उन गृध्रराज को देखकर श्रीराम लक्ष्मण से बोले- ॥९-१०॥
अनेन सीता वैदेही भक्षिता नात्र संशयः।
गृध्ररूपमिदं व्यक्तं रक्षो भ्रमति काननम्॥११॥
लक्ष्मण! यह गृध्र के रूप में अवश्य ही कोई राक्षस जान पड़ता है, जो इस वन में घूमता रहता है। निःसंदेह इसी ने विदेहराजकुमारी सीता को खा लिया होगा॥ ११॥
भक्षयित्वा विशालाक्षीमास्ते सीतां यथासुखम्।
एनं वधिष्ये दीप्ताग्रैः शरैोरैरजिह्मगैः॥१२॥
‘विशाललोचना सीता को खाकर यह यहाँ सुखपूर्वक बैठा हुआ है। मैं प्रज्वलित अग्र भाग वाले तथा सीधे जाने वाले अपने भयंकर बाणों से इसका वध करूँगा’।
इत्युक्त्वाभ्यपतद् द्रष्टुं संधाय धनुषि क्षुरम्।
क्रुद्धो रामः समुद्रान्तां चालयन्निव मेदिनीम्॥ १३॥
ऐसा कहकर क्रोध में भरे हुए श्रीराम धनुष पर बाण चढ़ाये समुद्रपर्यन्त पृथ्वी को कम्पित करते हुए उसे देखने के लिये आगे बढ़े॥ १३॥
तं दीनदीनया वाचा सफेनं रुधिरं वमन्।
अभ्यभाषत पक्षी स रामं दशरथात्मजम्॥१४॥
इसी समय पक्षी जटायु अपने मुँह से फेनयुक्त रक्त वमन करते हुए अत्यन्त दीन-वाणी में दशरथनन्दन श्रीराम से बोले- ॥ १४॥
यामोषधीमिवायुष्मन्नन्वेषसि महावने।
सा देवी मम च प्राणा रावणेनोभयं हृतम्॥१५॥
‘आयुष्मन् ! इस महान् वन में तुम जिसे ओषधि के समान ढूँढ़ रहे हो, उस देवी सीता को तथा मेरे इन प्राणों को भी रावण ने हर लिया।॥ १५॥
त्वया विरहिता देवी लक्ष्मणेन च राघव।
ह्रियमाणा मया दृष्टा रावणेन बलीयसा॥१६॥
‘रघुनन्दन! तुम्हारे और लक्ष्मण के न रहने पर महाबली रावण आया और देवी सीता को हरकर ले जाने लगा। उस समय मेरी दृष्टि सीता पर पड़ी॥१६॥
सीतामभ्यवपन्नोऽहं रावणश्च रणे प्रभो।
विध्वंसितरथच्छत्रः पतितो धरणीतले॥१७॥
‘प्रभो! ज्यों ही मेरी दृष्टि पड़ी, मैं सीता की सहायता के लिये दौड़ पड़ा। रावण के साथ मेरा युद्ध हुआ। मैंने उस युद्ध में रावण के रथ और छत्र आदि सभी साधन नष्ट कर दिये और वह भी घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ १७॥
एतदस्य धनुर्भग्नमेते चास्य शरास्तथा।
अयमस्य रणे राम भग्नः सांग्रामिको रथः॥ १८॥
‘श्रीराम! यह रहा उसका टूटा हुआ धनुष, ये हैं उसके खण्डित हुए बाण और यह है उसका युद्धोपयोगी रथ, जो युद्ध में मेरे द्वारा तोड़ डाला गया है।॥ १८॥
अयं तु सारथिस्तस्य मत्पक्षनिहतो भुवि।
परिश्रान्तस्य मे पक्षौ छित्त्वा खड्गेन रावणः॥ १९॥
सीतामादाय वैदेहीमुत्पपात विहायसम्।
रक्षसा निहतं पूर्वं मां न हन्तुं त्वमर्हसि ॥२०॥
‘यह रावण का सारथि है, जिसे मैंने अपने पंखों से मार डाला था। जब मैं युद्ध करते-करते थक गया, तब रावण ने तलवार से मेरे दोनों पंख काट डाले और वह विदेहकुमारी सीता को लेकर आकाश में उड़ गया। मैं उस राक्षस के हाथ से पहले ही मार डाला गया हूँ, अब तुम मुझे न मारो’ ॥ १९-२० ॥
रामस्तस्य तु विज्ञाय सीतासक्तां प्रियां कथाम्।
गृध्रराजं परिष्वज्य परित्यज्य महद् धनुः ॥ २१॥
निपपातावशो भूमौ रुरोद सहलक्ष्मणः।
द्विगुणीकृततापा रामो धीरतरोऽपि सन्॥२२॥
सीता से सम्बन्ध रखने वाली यह प्रिय वार्ता सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने अपना महान् धनुष फेंक दिया और गृध्रराज जटायु को गले से लगाकर वे शोक से विवश हो पृथ्वी पर गिर पड़े और लक्ष्मण के साथ ही रोने लगे। अत्यन्त धीर होने पर भी श्रीराम ने उस समय दूने दुःख का अनुभव किया॥ २१-२२ ॥
एकमेकायने कृच्छ्रे निःश्वसन्तं मुहुर्मुहुः।
समीक्ष्य दुःखितो रामः सौमित्रिमिदमब्रवीत्॥ २३॥
असहाय हो एकमात्र ऊर्ध्वश्वास की संकटपूर्ण अवस्था में पड़कर बारंबार लंबी साँस खींचते हुए जटायु की ओर देखकर श्रीराम को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सुमित्राकुमार से कहा- ॥२३॥
राज्यं भ्रष्टं वने वासः सीता नष्टा मृतो द्विजः।
ईदृशीयं ममालक्ष्मीदहेदपि हि पावकम्॥२४॥
‘लक्ष्मण! मेरा राज्य छिन गया, मुझे वनवास मिला (पिताजी की मृत्यु हुई), सीता का अपहरण हुआ और ये मेरे परम सहायक पक्षिराज भी मर गये। ऐसा जो मेरा यह दुर्भाग्य है, यह तो अग्नि को भी जलाकर भस्म कर सकता है॥ २४ ॥
सम्पूर्णमपि चेदद्य प्रतरेयं महोदधिम्।
सोऽपि नूनं ममालक्ष्म्या विशुष्येत् सरितां पतिः॥ २५॥
‘यदि आज मैं भरे हुए महासागर को तैरने लगूं तो मेरे दुर्भाग्य की आँच से वह सरिताओं का स्वामी समुद्र भी निश्चय ही सूख जायगा॥ २५ ॥
नास्त्यभाग्यतरो लोके मत्तोऽस्मिन् स चराचरे।
येनेयं महती प्राप्ता मया व्यसनवागुरा॥ २६॥
‘इस चराचर जगत् में मुझसे बढ़कर भाग्यहीन दूसरा कोई नहीं है, जिस अभाग्य के कारण मुझे इस विपत्ति के बड़े भारी जाल में फँसना पड़ा है॥ २६ ॥
अयं पितुर्वयस्यो मे गृध्रराजो महाबलः।
शेते विनिहतो भूमौ मम भाग्यविपर्ययात्॥२७॥
‘ये महाबली गृध्रराज जटायु मेरे पिताजी के मित्र थे, किंतु आज मेरे दुर्भाग्यवश मारे जाकर इस समय पृथ्वी पर पड़े हैं’ ॥ २७॥
इत्येवमुक्त्वा बहुशो राघवः सहलक्ष्मणः।
जटायुषं च पस्पर्श पितृस्नेहं निदर्शयन्॥२८॥
इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी ने जटायु के शरीर पर हाथ फेरा और पिता के प्रति जैसा स्नेह होना चाहिये, वैसा ही उनके प्रति प्रदर्शित किया॥ २८॥
निकृत्तपक्षं रुधिरावसिक्तं तं गृध्रराजं परिगृह्य राघवः।
क्व मैथिली प्राणसमा गतेति विमुच्य वाचं निपपात भूमौ ॥२९॥
पङ्ख कट जाने के कारण गृध्रराज जटायु लहू-लुहान हो रहे थे। उसी अवस्था में उन्हें गले से लगाकर श्रीरघुनाथजी ने पूछा—’तात! मेरी प्राणों के समान प्रिया मिथिलेशकुमारी सीता कहाँ चली गयी?’ इतनी ही बात मुँह से निकालकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े। २९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्तषष्टितमः सर्गः॥६७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६७॥