वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 68 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 68
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
अष्टषष्टितमः सर्गः (सर्ग 68)
जटायु का प्राण-त्याग और श्रीराम द्वारा उनका दाह-संस्कार
रामः प्रेक्ष्य तु तं गृधं भुवि रौद्रेण पातितम्।
सौमित्रिं मित्रसम्पन्नमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
भयंकर राक्षस रावण ने जिसे पृथ्वी पर मार गिराया था, उस गृध्रराज जटायु की ओर दृष्टि डालकर भगवान् श्रीराम मित्रोचित गुण से सम्पन्न सुमित्राकुमार लक्ष्मण से बोले- ॥१॥
ममायं नूनमर्थेषु यतमानो विहंगमः।
राक्षसेन हतः संख्ये प्राणांस्त्यजति मत्कृते॥२॥
‘भाई! यह पक्षी अवश्य मेरा ही कार्य सिद्ध करने के लिये प्रयत्नशील था, किंतु उस राक्षस के द्वारा युद्ध में मारा गया। यह मेरे ही लिये अपने प्राणों का परित्याग कर रहा है।
अतिखिन्नः शरीरेऽस्मिन् प्राणो लक्ष्मण विद्यते।
तथा स्वरविहीनोऽयं विक्लवं समुदीक्षते॥३॥
‘लक्ष्मण! इस शरीर के भीतर इसके प्राणों को बड़ी वेदना हो रही है, इसीलिये इसकी आवाज बंद होती जा रही है तथा यह अत्यन्त व्याकुल होकर देख रहा है।
जटायो यदि शक्नोषि वाक्यं व्याहरितुं पुनः।
सीतामाख्याहि भद्रं ते वधमाख्याहि चात्मनः॥ ४॥
(लक्ष्मण से ऐसा कहकर श्रीराम उस पक्षी से बोले -) ‘जटायो! यदि आप पुनः बोल सकते हों तो आपका भला हो, बताइये, सीता की क्या अवस्था है ? और आपका वध किस प्रकार हुआ? ॥ ४॥
किंनिमित्तो जहारार्यां रावणस्तस्य किं मया।
अपराधं तु यं दृष्ट्वा रावणेन हृता प्रिया॥५॥
‘जिस अपराध को देखकर रावण ने मेरी प्रिय भार्या का अपहरण किया है, वह अपराध क्या है? और मैंने उसे कब किया? किस निमित्त को लेकर रावण ने आर्या सीता का हरण किया है ? ॥ ५॥
कथं तच्चन्द्रसंकाशं मुखमासीन्मनोहरम्।
सीतया कानि चोक्तानि तस्मिन् काले द्विजोत्तम॥ ६॥
‘पक्षिप्रवर! सीता का चन्द्रमा के समान मनोहर मुख कैसा हो गया था? तथा उस समय सीता ने क्या-क्या बातें कही थीं?॥६॥
कथंवीर्यः कथंरूपः किंकर्मा स च राक्षसः।
क्व चास्य भवनं तात ब्रूहि मे परिपृच्छतः॥७॥
‘तात! उस राक्षस का बल-पराक्रम तथा रूप कैसा है? वह क्या काम करता है? और उसका घर कहाँ है? मैं जो कुछ पूछ रहा हूँ, वह सब बताइये’ ॥७॥
तमुद्रीक्ष्य स धर्मात्मा विलपन्तमनाथवत्।
वाचा विक्लवया राममिदं वचनमब्रवीत्॥८॥
इस तरह अनाथ की भाँति विलाप करते हुए श्रीराम की ओर देखकर धर्मात्मा जटायु ने लड़खड़ाती जबान से यों कहना आरम्भ किया— ॥८॥
सा हृता राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना।
मायामास्थाय विपुलां वातदुर्दिनसंकुलाम्॥९॥
‘रघुनन्दन! दुरात्मा राक्षसराज रावण ने विपुल माया का आश्रय ले आँधी-पानी की सृष्टि करके (घबराहट की अवस्था में) सीता का हरण किया था। ९॥
परिक्लान्तस्य मे तात पक्षौ छित्त्वा निशाचरः।
सीतामादाय वैदेही प्रयातो दक्षिणामुखः॥१०॥
‘तात ! जब मैं उससे लड़ता-लड़ता थक गया, उस अवस्था में मेरे दोनों पंख काटकर वह निशाचर विदेहनन्दिनी सीता को साथ लिये यहाँ से दक्षिण दिशा की ओर गया था॥ १०॥
उपरुध्यन्ति मे प्राणा दृष्टिभ्रमति राघव।
पश्यामि वृक्षान् सौवर्णानुशीरकृतमूर्धजान्॥ ११॥
‘रघुनन्दन! अब मेरे प्राणों की गति बंद हो रही है, दृष्टि घूम रही है और समस्त वृक्ष मुझे सुनहरे रंग के दिखायी देते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उन वृक्षों पर खश के केश जमे हुए हैं॥ ११॥
येन याति मुहूर्तेन सीतामादाय रावणः।
विप्रणष्टं धनं क्षिप्रं तत्स्वामी प्रतिपद्यते॥१२॥
विन्दो नाम मुहूर्तोऽसौ न च काकुत्स्थ सोऽबुधत्
त्वत्प्रियां जानकी हृत्वा रावणो राक्षसेश्वरः।
झषवद बडिशं गृह्य क्षिप्रमेव विनश्यति॥१३॥
‘रावण सीता को जिस मुहूर्त में ले गया है, उसमें खोया हुआ धन शीघ्र ही उसके स्वामी को मिल जाता है। काकुत्स्थ! वह ‘विन्द’ नामक मुहूर्त था, किंतु उस राक्षस को इसका पता नहीं था। जैसे मछली मौत के लिये ही बंसी पकड़ लेती है, उसी प्रकार वह भी सीता को ले जाकर शीघ्र ही नष्ट हो जायगा॥ १२-१३॥
न च त्वया व्यथा कार्या जनकस्य सुतां प्रति।
वैदेह्या रंस्यसे क्षिप्रं हत्वा तं रणमूर्धनि॥१४॥
‘अतः अब तुम जनकनन्दिनी के लिये अपने मन में खेद न करो। संग्राम के मुहाने पर उस निशाचर का वध करके तुम शीघ्र ही पुनः विदेहराजकुमारी के साथ विहार करोगे’॥ १४॥
असम्मूढस्य गृध्रस्य रामं प्रत्यनुभाषतः।
आस्यात् सुस्राव रुधिरं म्रियमाणस्य सामिषम्॥
गृध्रराज जटायु यद्यपि मर रहे थे तो भी उनके मन पर मोह या भ्रम नहीं छाया था (उनके होशहवास ठीक थे)। वे श्रीरामचन्द्रजी को उनकी बात का उत्तर दे ही रहे थे कि उनके मुख से मांसयुक्त रुधिर निकलने लगा॥ १५ ॥
पुत्रो विश्रवसः साक्षाद् भ्राता वैश्रवणस्य च।
इत्युक्त्वा दुर्लभान् प्राणान् मुमोच पतगेश्वरः॥ १६॥
वे बोले—’रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का सगा भाई है’ इतना कहकर उन पक्षिराज ने दुर्लभ प्राणों का परित्याग कर दिया॥ १६ ॥
ब्रूहि ब्रूहीति रामस्य ब्रुवाणस्य कृताञ्जलेः।
त्यक्त्वा शरीरं गृध्रस्य प्राणा जग्मुर्विहायसम्॥ १७॥
श्रीरामचन्द्रजी हाथ जोड़े कह रहे थे, ‘कहिये, कहिये, कुछ और कहिये!’ किंतु उस समय गृध्रराज के प्राण उनका शरीर छोड़कर आकाश में चले गये॥ १७॥
स निक्षिप्य शिरो भूमौ प्रसार्य चरणौ तथा।
विक्षिप्य च शरीरं स्वं पपात धरणीतले॥१८॥
उन्होंने अपना मस्तक भूमि पर डाल दिया, दोनों पैर फैला दिये और अपने शरीर को भी पृथ्वी पर ही डालते हुए वे धराशायी हो गये॥१८॥
तं गृधं प्रेक्ष्य ताम्राक्षं गतासुमचलोपमम्।
रामः सुबहुभिर्दुःखैर्दीनः सौमित्रिमब्रवीत्॥१९॥
गृध्रराज जटायु की आँखें लाल दिखायी देती थीं। प्राण निकल जाने से वे पर्वत के समान अविचल हो गये। उन्हें इस अवस्था में देखकर बहुत-से दुःखों से दुःखी हुए श्रीरामचन्द्रजी ने सुमित्राकुमार से कहा-॥ १९॥
बहनि रक्षसां वासे वर्षाणि वसता सुखम्।
अनेन दण्डकारण्ये विशीर्णमिह पक्षिणा॥२०॥
‘लक्ष्मण! राक्षसों के निवास स्थान इस दण्डकारण्य में बहुत वर्षों तक सुखपूर्वक रहकर इन पक्षिराज ने यहीं अपने शरीर का त्याग किया है॥२०॥
अनेकवार्षिको यस्तु चिरकालसमुत्थितः।।
सोऽयमद्य हतः शेते कालो हि दुरतिक्रमः॥२१॥
‘इनकी अवस्था बहुत वर्षों की थी। इन्होंने सुदीर्घ काल तक अपना अभ्युदय देखा है; किंतु आज इस वृद्धावस्था में उस राक्षस के द्वारा मारे जाकर ये पृथ्वी पर सो रहे हैं; क्योंकि काल का उल्लङ्घन करना सबके ही लिये कठिन है॥२१॥
पश्य लक्ष्मण गृध्रोऽयमुपकारी हतश्च मे।
सीतामभ्यवपन्नो हि रावणेन बलीयसा॥ २२॥
‘लक्ष्मण! देखो, ये जटायु मेरे बड़े उपकारी थे, किंतु आज मारे गये। सीता की रक्षा के लिये युद्ध में प्रवृत्त होने पर अत्यन्त बलवान् रावण के हाथ से इनका वध हुआ है॥ २२॥
गृध्रराज्यं परित्यज्य पितृपैतामहं महत्।
मम हेतोरयं प्राणान् मुमोच पतगेश्वरः॥२३॥
“बाप-दादों के द्वारा प्राप्त हुए गीधों के विशाल राज्य का त्याग करके इन पक्षिराज ने मेरे ही लिये अपने प्राणों की आहुति दी है॥ २३॥
सर्वत्र खलु दृश्यन्ते साधवो धर्मचारिणः।
शूराः शरण्याः सौमित्रे तिर्यग्योनिगतेष्वपि॥ २४॥
‘शूर, शरणागतरक्षक, धर्मपरायण श्रेष्ठ पुरुष सभी जगह देखे जाते हैं। पशु-पक्षी की योनियों में भी उनका अभाव नहीं है॥२४॥
सीताहरणजं दुःखं न मे सौम्य तथागतम्।
यथा विनाशो गृध्रस्य मत्कृते च परंतप॥२५॥
‘सौम्य! शत्रुओं को संताप देने वाले लक्ष्मण! इस समय मुझे सीता के हरण का उतना दुःख नहीं है, जितना कि मेरे लिये प्राणत्याग करने वाले जटायु की मृत्यु से हो रहा है।॥ २५ ॥
राजा दशरथः श्रीमान् यथा मम महायशाः।
पूजनीयश्च मान्यश्च तथायं पतगेश्वरः॥२६॥
‘महायशस्वी श्रीमान् राजा दशरथ जैसे मेरे माननीय और पूज्य थे, वैसे ही ये पक्षिराज जटायु भी हैं।॥ २६॥
सौमित्रे हर काष्ठानि निर्मथिष्यामि पावकम्।
गृध्रराजं दिधक्ष्यामि मत्कृते निधनं गतम्॥ २७॥
‘सुमित्रानन्दन! तुम सूखे काष्ठ ले आओ, मैं मथकर आग निकालूँगा और मेरे लिये मृत्यु को प्राप्त हुए इन गृध्रराज का दाह-संस्कार करूँगा॥२७॥
नाथं पतगलोकस्य चितिमारोपयाम्यहम्।
इमं धक्ष्यामि सौमित्रे हतं रौद्रेण रक्षसा॥२८॥
‘सुमित्राकुमार! उस भयंकर राक्षस के द्वारा मारे गये इन पक्षिराज को मैं चिता पर चढ़ाऊँगा और इनका दाह-संस्कार करूँगा’ ॥ २८॥
या गतिर्यज्ञशीलानामाहिताग्नेश्च या गतिः।
अपरावर्तिनां या च या च भूमिप्रदायिनाम्॥ २९॥
मया त्वं समनुज्ञातो गच्छ लोकाननुत्तमान्।
गृध्रराज महासत्त्व संस्कृतश्च मया व्रज॥३०॥
(फिर वे जटायु को सम्बोधित करके बोले-) ‘महान् बलशाली गृध्रराज! यज्ञ करने वाले, अग्निहोत्री, युद्ध में पीठ न दिखाने वाले और भूमिदान करने वाले पुरुषों को जिस गति की—जिन उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है, मेरी आज्ञा से उन्हीं सर्वोत्तम लोकों में तुम भी जाओ। मेरे द्वारा दाह-संस्कार किये जाने पर तुम्हारी सद्गति हो’।
एवमुक्त्वा चितां दीप्तामारोप्य पतगेश्वरम्।
ददाह रामो धर्मात्मा स्वबन्धुमिव दुःखितः॥ ३१॥
ऐसा कहकर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने दुःखित हो पक्षिराज के शरीर को चिता पर रखा और उसमें आग लगाकर अपने बन्धु की भाँति उनका दाह-संस्कार किया।
रामोऽथ सहसौमित्रिर्वनं गत्वा स वीर्यवान्।
स्थूलान् हत्वा महारोहीननुतस्तार तं द्विजम्॥ ३२॥
रोहिमांसानि चोद्धृत्य पेशीकृत्वा महायशाः।
शकुनाय ददौ रामो रम्ये हरितशादले॥३३॥
तदनन्तर लक्ष्मणसहित पराक्रमी श्रीराम वन में जाकर मोटे-मोटे महारोही (कन्दमूल विशेष) काट लाये और उन्हें जटायु के लिये अर्पित करने के उद्देश्य से उन्होंने पृथ्वी पर कुश बिछाये। महायशस्वी श्रीराम ने रोही के गूदे निकालकर उनका पिण्ड बनाया और उन सुन्दर हरित कुशाओं पर जटायु को पिण्डदान किया॥ ३२-३३॥
यत् तत् प्रेतस्य मर्त्यस्य कथयन्ति द्विजातयः।
तत् स्वर्गगमनं पित्र्यं तस्य रामो जजाप ह॥३४॥
ब्राह्मणलोग परलोकवासी मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति कराने के उद्देश्यसे जिन पितृसम्बन्धी मन्त्रों का जप आवश्यक बतलाते हैं, उन सबका भगवान् श्रीराम ने जप किया॥३४॥
ततो गोदावरी गत्वा नदी नरवरात्मजौ।
उदकं चक्रतुस्तस्मै गृध्रराजाय तावुभौ ॥ ३५॥
तदनन्तर उन दोनों राजकुमारों ने गोदावरी नदी के तट पर जाकर उन गृध्रराज के लिये जलाञ्जलि दी॥ ३५॥
शास्त्रदृष्टेन विधिना जलं गृध्राय राघवौ।
स्नात्वा तौ गृध्रराजाय उदकं चक्रतुस्तदा ॥ ३६॥
रघुकुल के उन दोनों महापुरुषों ने गोदावरी में नहाकर शास्त्रीय विधि से उन गृध्रराज के लिये उस समय जलाञ्जलि का दान किया॥३६॥
स गृध्रराजः कृतवान् यशस्करं सुदुष्करं कर्म रणे निपातितः।
महर्षिकल्पेन च संस्कृतस्तदा जगाम पुण्यां गतिमात्मनः शुभाम्॥३७॥
महर्षितुल्य श्रीराम के द्वारा दाहसंस्कार होने के कारण गृध्रराज जटायु को आत्मा का कल्याण करने वाली परम पवित्र गति प्राप्त हुई। उन्होंने रणभूमि में अत्यन्त दुष्कर और यशोवर्धक पराक्रम प्रकट किया था। परंतु अन्त में रावण ने उन्हें मार गिराया॥३७॥
कृतोदकौ तावपि पक्षिसत्तमे स्थिरां च बुद्धिं प्रणिधाय जग्मतुः।
प्रवेश्य सीताधिगमे ततो मनो वनं सुरेन्द्राविव विष्णुवासवौ॥ ३८॥
तर्पण करने के पश्चात् वे दोनों भाई पक्षिराज जटायु में पितृतुल्य सुस्थिरभाव रखकर सीता की खोज के कार्य में मन लगा देवेश्वर विष्णु और इन्द्र की भाँति वन में आगे बढ़े॥ ३८॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डेऽष्टषष्टितमः सर्गः॥ ६८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में अड़सठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६८॥