RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 69 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 69

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकोनसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 69)

लक्ष्मण का अयोमुखी को दण्ड देना तथा श्रीराम और लक्ष्मण का कबन्ध के बाहुबन्ध में पड़कर चिन्तित होना

 

कृत्वैवमुदकं तस्मै प्रस्थितौ राघवौ तदा।
अवेक्षन्तौ वने सीतां जग्मतुः पश्चिमां दिशम्॥

इस प्रकार जटायु के लिये जलाञ्जलि दान करके वे दोनों रघुवंशी बन्धु उस समय वहाँ से प्रस्थित हुए और वन में सीता की खोज करते हुए पश्चिम दिशा (नैर्ऋत्य कोण) की ओर गये॥१॥

तां दिशं दक्षिणां गत्वा शरचापासिधारिणौ।
अविप्रहतमैक्ष्वाकौ पन्थानं प्रतिपेदतुः॥२॥

धनुष, बाण और खड्ग धारण किये वे दोनों इक्ष्वाकुवंशी वीर उस दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर आगे बढ़ते हुए एक ऐसे मार्ग पर जा पहुँचे, जिसपर लोगों का आना-जाना नहीं होता था॥ २॥

गुल्मैर्वृक्षैश्च बहुभिर्लताभिश्च प्रवेष्टितम्।
आवृतं सर्वतो दुर्गं गहनं घोरदर्शनम्॥३॥

वह मार्ग बहुत-से वृक्षों, झाड़ियों और लता बेलों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ था। वह बहुत ही दुर्गम, गहन और देखने में भयंकर था॥३॥

व्यतिक्रम्य तु वेगेन गृहीत्वा दक्षिणां दिशम्।
सुभीमं तन्महारण्यं व्यतियातौ महाबलौ॥४॥

उसे वेगपूर्वक लाँघकर वे दोनों महाबली राजकुमार दक्षिण दिशा का आश्रय ले उस अत्यन्त भयानक और विशाल वन से आगे निकल गये॥४॥

ततः परं जनस्थानात् त्रिकोशं गम्य राघवौ।
क्रौञ्चारण्यं विविशतुर्गहनं तौ महौजसौ॥५॥

तदनन्तर जनस्थान से तीन कोस दूर जाकर वे महाबली श्रीराम और लक्ष्मण क्रौञ्चारण्य नाम से प्रसिद्ध गहन वन के भीतर गये॥५॥

नानामेघघनप्रख्यं प्रहृष्टमिव सर्वतः।
नानावणैः शुभैः पुष्पैगपक्षिगणैर्युतम्॥६॥

वह वन अनेक मेघों के समूह की भाँति श्याम प्रतीत होता था। विविध रंग के सुन्दर फूलों से सुशोभित होने के कारण वह सब ओर से हर्षोत्फुल्ल-सा जान पड़ता था। उसके भीतर बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते थे॥६॥

दिदृक्षमाणौ वैदेहीं तद् वनं तौ विचिक्यतुः।
तत्र तत्रावतिष्ठन्तौ सीताहरणदुःखितौ॥७॥

सीता का पता लगाने की इच्छा से वे दोनों उस वन में उनकी खोज करने लगे। जहाँ-तहाँ थक जाने पर वे विश्राम के लिये ठहर जाते थे। विदेहनन्दिनी के अपहरण से उन्हें बड़ा दुःख हो रहा था।॥ ७॥

ततः पूर्वेण तो गत्वा त्रिक्रोशं भ्रातरौ तदा।
क्रौञ्चारण्यमतिक्रम्य मतङ्गाश्रममन्तरे॥८॥

तत्पश्चात् वे दोनों भाई तीन कोस पूर्व जाकर क्रौञ्चारण्य को पार करके मतङ्ग मुनि के आश्रम के पास गये॥८॥

दृष्ट्वा तु तद् वनं घोरं बहुभीममृगद्विजम्।
नानावृक्षसमाकीर्णं सर्वं गहनपादपम्॥९॥

वह वन बड़ा भयंकर था। उसमें बहुत-से भयानक पशु और पक्षी निवास करते थे। अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त वह सारा वन गहन वृक्षावलियों से भरा था॥९॥

ददृशाते गिरौ तत्र दरी दशरथात्मजौ।
पातालसमगम्भीरां तमसा नित्यसंवृताम्॥१०॥

वहाँ पहुँचकर उन दशरथराजकुमारों ने वहाँ के पर्वत पर एक गुफा देखी, जो पाताल के समान गहरी थी। वह सदा अन्धकार से आवृत रहती थी॥१०॥

आसाद्य च नरव्याघ्रौ दर्यास्तस्याविदूरतः।
ददर्शतुर्महारूपां राक्षसी विकृताननाम्॥११॥

उसके समीप जाकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने एक विशालकाय राक्षसी देखी, जिसका मुख बड़ा विकराल था॥

भयदामल्पसत्त्वानां बीभत्सां रौद्रदर्शनाम्।
लम्बोदरी तीक्ष्णदंष्ट्रां कराली परुषत्वचम्॥१२॥

वह छोटे-छोटे जन्तुओं को भय देने वाली तथा देखने में बड़ी भयंकर थी। उसकी सूरत देखकर घृणा होती थी। उसके लंबे पेट, तीखी दाढ़ें और कठोर त्वचा थी। वह बड़ी विकराल दिखायी देती थी॥ १२॥

भक्षयन्तीं मृगान् भीमान् विकटां मुक्तमूर्धजाम्।
अवैक्षतां तु तौ तत्र भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१३॥

भयानक पशुओं को भी पकड़कर खा जाती थी। उसका आकार विकट था और बाल खुले हुए थे। उस कन्दरा के समीप दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण ने उसे देखा॥१३॥

सा समासाद्य तौ वीरौ व्रजन्तं भ्रातुरग्रतः।
एहि रस्यावहेत्युक्त्वा समालम्भत लक्ष्मणम्॥ १४॥

वह राक्षसी उन दोनों वीरों के पास आयी और अपने भाई के आगे-आगे चलते हुए लक्ष्मण की ओर देखकर बोली—’आओ हम दोनों रमण करें।’ ऐसा कहकर उसने लक्ष्मण का हाथ पकड़ लिया॥ १४ ॥

उवाच चैनं वचनं सौमित्रिमुपगुह्य च।
अहं त्वयोमुखी नाम लाभस्ते त्वमसि प्रियः॥ १५॥

इतना ही नहीं, उसने सुमित्राकुमार को अपनी भुजाओं में कस लिया और इस प्रकार कहा—’मेरा नाम अयोमुखी है। मैं तुम्हें भार्यारूप से मिल गयी तो समझ लो, बहुत बड़ा लाभ हुआ और तुम मेरे प्यारे पति हो’ ॥ १५॥

नाथ पर्वतदुर्गेषु नदीनां पुलिनेषु च।
आयुश्चिरमिदं वीर त्वं मया सह रंस्यसे॥१६॥

‘प्राणनाथ! वीर! यह दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली आयु पाकर तुम पर्वत की दुर्गम कन्दराओं में तथा नदियों के तटों पर मेरे साथ सदा रमण करोगे’ ॥ १६॥

एवमुक्तस्तु कुपितः खड्गमुद्धृत्य लक्ष्मणः।
कर्णनासस्तनं तस्या निचकर्तारिसूदनः॥१७॥

राक्षसी के ऐसा कहने पर शत्रुसूदन लक्ष्मण क्रोध से जल उठे। उन्होंने तलवार निकालकर उसके कान, नाक और स्तन काट डाले॥१७॥

कर्णनासे निकृत्ते तु विस्वरं विननाद सा।
यथागतं प्रदुद्राव राक्षसी घोरदर्शना॥१८॥

नाक और कान के कट जानेपर वह भयंकर राक्षसी जोर-जोरसे चिल्लाने लगी और जहाँ से आयी थी, उधर ही भाग गयी॥ १८॥

तस्यां गतायां गहनं व्रजन्तौ वनमोजसा।
आसेदतरमित्रघ्नौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१९॥

उसके चले जाने पर वे दोनों भाई शक्तिशाली श्रीराम और लक्ष्मण बड़े वेग से चलकर एक गहन वन में जा पहुँचे॥ १९॥

लक्ष्मणस्तु महातेजाः सत्त्ववाञ्छीलवाञ्छुचिः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं भ्रातरं दीप्ततेजसम्॥ २०॥

उस समय महातेजस्वी, धैर्यवान् , सुशील एवं पवित्र आचार-विचार वाले लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर अपने तेजस्वी भ्राता श्रीरामचन्द्रजी से कहा- ॥ २० ॥

स्पन्दते मे दृढं बाहुरुद्भिग्नमिव मे मनः।
प्रायशश्चाप्यनिष्टानि निमित्तान्युपलक्षये॥२१॥
तस्मात् सज्जीभवार्य त्वं कुरुष्व वचनं मम।
ममैव हि निमित्तानि सद्यः शंसन्ति सम्भ्रमम्॥ २२॥

‘आर्य! मेरी बायीं बाँह जोर-जोर से फड़क रही है और मन उद्विग्न-सा हो रहा है। मुझे बार-बार बुरे शकुन दिखायी देते हैं, इसलिये आप भय का सामना करने के लिये तैयार हो जाइये। मेरी बात मानिये ये जो बुरे शकुन हैं, वे केवल मुझे ही तत्काल प्राप्त होने वाले भय की सूचना देते हैं॥ २१-२२॥

एष वञ्जुलको नाम पक्षी परमदारुणः।
आवयोर्विजयं यद्धे शंसन्निव विनर्दति॥२३॥

(इसके साथ एक शुभ शकुन भी हो रहा है) यह जो वञ्जुल नामक अत्यन्त दारुण पक्षी है, यह युद्ध में हम दोनों की विजय सूचित करता हुआ-सा जोर जोर से बोल रहा है’ ॥ २३॥

तयोरन्वेषतोरेवं सर्वं तद् वनमोजसा।
संजज्ञे विपुलः शब्दः प्रभञ्जन्निव तद वनम्॥ २४॥

इस प्रकार बलपूर्वक उस सारे वन में वे दोनों भाई जब सीता की खोज कर रहे थे, उसी समय वहाँ बड़े जोर का शब्द हुआ, जो उस वन का विध्वंस करता हुआ-सा प्रतीत होता था। २४ ।।

संवेष्टितमिवात्यर्थं गहनं मातरिश्वना।
वनस्य तस्य शब्दोऽभूद् वनमापूरयन्निव॥२५॥

उस वन में जोर-जोर से आँधी चलने लगी। वह सारा वन उसकी लपेट में आ गया। वन में उस शब्द की जो प्रतिध्वनि उठी, उससे वह सारा वनप्रान्त गूंज उठा। २५॥

तं शब्दं कांक्षमाणस्तु रामः खड्गी सहानुजः।
ददर्श सुमहाकायं राक्षसं विपुलोरसम्॥२६॥

भाई के साथ तलवार हाथ में लिये भगवान् श्रीराम उस शब्द का पता लगाना ही चाहते थे कि एक चौड़ी छाती वाले विशालकाय राक्षस पर उनकी दृष्टि पड़ी॥ २६॥

आसेदतुश्च तद्रक्षस्तावुभौ प्रमुखे स्थितम्।
विवृद्धमशिरोग्रीवं कबन्धमुदरेमुखम्॥२७॥

उन दोनों भाइयों ने उस राक्षस को अपने सामने खड़ा पाया। वह देखने में बहुत बड़ा था; किंतु उसके न मस्तक था न गला। कबन्ध (धड़मात्र) ही उसका स्वरूप था और उसके पेट में ही मुँह बना हुआ था।

रोमभिर्निशितैस्तीक्ष्णैर्महागिरिमिवोच्छ्रितम्।
नीलमेघनिभं रौद्रं मेघस्तनितनिःस्वनम्॥२८॥

उसके सारे शरीर में पैने और तीखे रोयें थे। वह महान् पर्वत के समान ऊँचा था। उसकी आकृति बड़ी भयंकर थी। वह नील मेघ के समान काला था और मेघ के समान ही गम्भीर स्वर में गर्जना करता था। २८॥

अग्निज्वालानिकाशेन ललाटस्थेन दीप्यता।
महापक्षेण पिङ्गेन विपुलेनायतेन च ॥ २९॥
एकेनोरसि घोरेण नयनेन सुदर्शिना।
महादंष्ट्रोपपन्नं तं लेलिहानं महामुखम्॥३०॥

उसकी छाती में ही ललाट था और ललाट में एक ही लंबी-चौड़ी तथा आग की ज्वाला के समान दहकती हुई भयंकर आँख थी, जो अच्छी तरह देख सकती थी। उसकी पलक बहुत बड़ी थी और वह आँख भूरे रंग की थी। उस राक्षस की दाढ़ें बहुत बड़ी थीं तथा वह अपनी लपलपाती हुई जीभ से अपने विशाल मुख को बारंबार चाट रहा था। २९-३०॥

भक्षयन्तं महाघोरानृक्षसिंहमृगद्विजान्।
घोरौ भुजौ विकुर्वाणमुभौ योजनमायतौ॥३१॥
कराभ्यां विविधान् गृह्य ऋक्षान् पक्षिगणान् मृगान्।
आकर्षन्तं विकर्षन्तमनेकान् मृगयूथपान्॥३२॥

अत्यन्त भयंकर रीछ, सिंह, हिंसक पशु और पक्षी -ये ही उसके भोजन थे। वह अपनी एक-एक योजन लंबी दोनों भयानक भुजाओं को दूर तक फैला देता और उन दोनों हाथों से नाना प्रकार के अनेकों भालू, पक्षी, पशु तथा मृगों के यूथपतियों को पकड़कर खींच लेता था। उनमें से जो उसे भोजन के लिये अभीष्ट नहीं होते, उन जन्तुओं को वह उन्हीं हाथों से पीछे ढकेल देता था॥ ३१-३२ ।।

स्थितमावृत्य पन्थानं तयोर्धात्रोः प्रपन्नयोः।
अथ तं समतिक्रम्य क्रोशमात्रं ददर्शतुः॥३३॥
महान्तं दारुणं भीमं कबन्धं भुजसंवृतम्।
कबन्धमिव संस्थानादतिघोरप्रदर्शनम्॥३४॥

दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण जब उसके निकट पहुँचे, तब वह उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया। तब वे दोनों भाई उससे दूर हट गये और बड़े गौर से उसे देखने लगे। उस समय वह एक कोस लंबा जान पड़ा। उस राक्षस की आकृति केवल कबन्ध (धड़) के ही रूप में थी, इसलिये वह कबन्ध कहलाता था। वह विशाल, हिंसापरायण, भयंकर तथा दो बड़ी-बड़ी भुजाओं से युक्त था और देखने में अत्यन्त घोर प्रतीत होता था॥ ३३-३४॥

स महाबाहुरत्यर्थं प्रसार्य विपुलौ भुजौ।
जग्राह सहितावेव राघवौ पीडयन् बलात्॥ ३५॥

उस महाबाहु राक्षस ने अपनी दोनों विशाल भुजाओं को फैलाकर उन दोनों रघुवंशी राजकुमारों को बलपूर्वक पीड़ा देते हुए एक साथ ही पकड़ लिया। ३५॥

खड्गिनौ दृढधन्वानौ तिग्मतेजो महाभुजौ।
भ्रातरौ विवशं प्राप्तौ कृष्यमाणौ महाबलौ॥

दोनों के हाथों में तलवारें थीं, दोनों के पास मजबूत धनुष थे और वे दोनों भाई प्रचण्ड तेजस्वी, विशाल भुजाओं से युक्त तथा महान् बलवान् थे तो भी उस राक्षस के द्वारा खींचे जाने पर विवशता का अनुभव करने लगे॥ ३६॥

तत्र धैर्याच्च शूरस्तु राघवो नैव विव्यथे।
बाल्यादनाश्रयाच्चैव लक्ष्मणस्त्वभिविव्यथे॥ ३७॥

उस समय वहाँ शूरवीर रघुनन्दन श्रीराम तो धैर्य के कारण व्यथित नहीं हुए, परंतु बालबुद्धि होने तथा धैर्य का आश्रय न लेने के कारण लक्ष्मण के मन में बड़ी व्यथा हुई॥३७॥

उवाच च विषण्णः सन् राघवं राघवानुजः।
पश्य मां विवशं वीर राक्षसस्य वशंगतम्॥३८॥

तब श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण विषादग्रस्त हो श्रीरघुनाथजी से बोले—’वीरवर! देखिये, मैं राक्षस के वश में पड़कर विवश हो गया हूँ॥ ३८॥

मयैकेन तु निर्युक्तः परिमुच्यस्व राघव।
मां हि भूतबलिं दत्त्वा पलायस्व यथासुखम्॥ ३९॥

‘रघुनन्दन! एकमात्र मुझे ही इस राक्षस को भेंट देकर आप स्वयं इसके बाहुबन्धन से मुक्त हो जाइये। इस भूत को मेरी ही बलि देकर आप सुखपूर्वक यहाँ से निकल भागिये।। ३९॥

अधिगन्तासि वैदेहीमचिरेणेति मे मतिः।
प्रतिलभ्य च काकुत्स्थ पितृपैतामहीं महीम्॥ ४०॥
तत्र मां राम राज्यस्थः स्मर्तुमर्हसि सर्वदा।

‘मेरा विश्वास है कि आप शीघ्र ही विदेहराजकुमारी को प्राप्त कर लेंगे। ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! वनवास से लौटने पर पिता-पितामहों की भूमिको अपने अधिकार में लेकर जब आप राजसिंहासन पर विराजमान होइयेगा, तब वहाँ सदा मेरा भी स्मरण करते रहियेगा’ ॥ ४० १/२॥

लक्ष्मणेनैवमुक्तस्तु रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥४१॥
मा स्म त्रासं वृथा वीर नहि त्वादृग् विषीदति।

लक्ष्मण के ऐसा कहने पर श्रीराम ने उन सुमित्राकुमार से कहा—’वीर! तुम भयभीत न होओ तुम्हारे-जैसे शूरवीर इस तरह विषाद नहीं करते हैं’। ४१ १/२॥

एतस्मिन्नन्तरे क्रूरो भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥४२॥
तावुवाच महाबाहुः कबन्धो दानवोत्तमः।

इसी बीच में क्रूर हृदय वाले दानवशिरोमणि महाबाहु कबन्ध ने उन दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण से कहा – ॥ ४२ १/२॥

कौ युवां वृषभस्कन्धौ महाखड्गधनुर्धरौ॥४३॥
घोरं देशमिमं प्राप्तौ दैवेन मम चाक्षुषौ।।
वदतं कार्यमिह वां किमर्थं चागतौ युवाम्॥४४॥

‘तुम दोनों कौन हो? तुम्हारे कंधे बैल के समान ऊँचे हैं। तुमने बड़ी-बड़ी तलवारें और धनुष धारण कर रखे हैं। इस भयंकर देश में तुम दोनों किसलिये आये हो? यहाँ तुम्हारा क्या कार्य है? बताओ भाग्य से ही तुम दोनों मेरी आँखों के सामने पड़ गये॥ ४३-४४॥

इमं देशमनुप्राप्तौ क्षुधार्तस्येह तिष्ठतः।
सबाणचापखड्गौ च तीक्ष्णशृङ्गाविवर्षभौ॥ ४५॥
मां तूर्णमनुसम्प्राप्तौ दुर्लभं जीवितं हि वाम्।

‘मैं यहाँ भूख से पीड़ित होकर खड़ा था और तुम स्वयं धनुष-बाण और खड्ग लिये तीखे सींगवाले दो बैलों के समान तुरंत ही इस स्थान पर मेरे निकट आ पहुँचे। अतः अब तुम दोनों का जीवित रहना कठिन है’॥ ४५ १/२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कबन्धस्य दुरात्मनः॥ ४६॥
उवाच लक्ष्मणं रामो मुखेन परिशुष्यता।
कृच्छ्रात् कृच्छ्रतरं प्राप्य दारुणं सत्यविक्रम॥ ४७॥
व्यसनं जीवितान्ताय प्राप्तमप्राप्य तां प्रियाम्।

दुरात्मा कबन्ध की ये बातें सुनकर श्रीराम ने सूखे मुखवाले लक्ष्मण से कहा—’सत्यपराक्रमी वीर! कठिन-से-कठिन असह्य दुःख को पाकर हम दुःखी थे ही, तबतक पुनः प्रियतमा सीता के प्राप्त होने से पहले ही हम दोनों पर यह महान् संकट आ गया, जो जीवन का अन्त कर देने वाला है॥ ४६-४७ १/२ ॥

कालस्य सुमहद् वीर्यं सर्वभूतेषु लक्ष्मण॥४८॥
त्वां च मां च नरव्याघ्र व्यसनैः पश्य मोहितौ।
नहि भारोऽस्ति दैवस्य सर्वभूतेषु लक्ष्मण ॥४९॥

‘नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! काल का महान् बल सभी प्राणियों पर अपना प्रभाव डालता है। देखो न, तुम और मैं दोनों ही काल के दिये हुए अनेकानेक संकटों से मोहित हो रहे हैं। सुमित्रानन्दन! दैव अथवा काल के लिये सम्पूर्ण प्राणियों पर शासन करना भाररूप (कठिन) नहीं है। ४८-४९ ॥

शूराश्च बलवन्तश्च कृतास्त्राश्च रणाजिरे।
कालाभिपन्नाः सीदन्ति यथा वालुकसेतवः॥ ५०॥

‘जैसे बालू के बने हुए पुल पानी के आघात से ढह जाते हैं, उसी प्रकार बड़े-बड़े शूरवीर, बलवान् और अस्त्रवेत्ता पुरुष भी समराङ्गण में काल के वशीभूत हो कष्ट में पड़ जाते हैं’॥५०॥

इति ब्रुवाणो दृढसत्यविक्रमो महायशा दाशरथिः प्रतापवान्।
अवेक्ष्य सौमित्रिमुदग्रविक्रमः स्थिरां तदा स्वां मतिमात्मनाकरोत्॥५१॥

ऐसा कहकर सुदृढ़ एवं सत्यपराक्रम वाले महान् बल-विक्रम से सम्पन्न महायशस्वी प्रतापशाली दशरथनन्दन श्रीराम ने सुमित्राकुमार की ओर देखकर उस समय स्वयं ही अपनी बुद्धि को सुस्थिर कर लिया॥५१॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकोनसप्ततितमः सर्गः॥ ६९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में उनहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।६९॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: