वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 70 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 70
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
सप्ततितमः सर्गः (सर्ग 70)
श्रीराम और लक्ष्मण का परस्पर विचार करके कबन्ध की दोनों भुजाओं को काट डालना तथा कबन्ध के द्वारा उनका स्वागत
तौ तु तत्र स्थितौ दृष्ट्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
बाहुपाशपरिक्षिप्तौ कबन्धो वाक्यमब्रवीत्॥१॥
अपने बाहुपाश से घिरकर वहाँ खड़े हुए उन दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण की ओर देखकर कबन्ध ने कहा— ॥१॥
तिष्ठतः किं नु मां दृष्ट्वा क्षुधार्तं क्षत्रियर्षभौ।
आहारार्थं तु संदिष्टौ दैवेन हतचेतनौ॥२॥
‘क्षत्रियशिरोमणि राजकुमारो! मुझे भूख से पीड़ित देखकर भी खड़े क्यों हो? (मेरे मुँह में चले आओ) क्योंकि दैव ने मेरे भोजन के लिये ही तुम्हें यहाँ भेजा है। इसीलिये तुम दोनों की बुद्धि मारी गयी है’ ॥२॥
तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणो वाक्यं प्राप्तकालं हितं तदा।
उवाचार्तिसमापन्नो विक्रमे कृतनिश्चयः॥३॥
यह सुनकर पीड़ित हुए लक्ष्मण ने उस समय पराक्रम का ही निश्चय करके यह समयोचित एवं हितकर बात कही- ॥३॥
त्वां च मां च पुरा तूर्णमादत्ते राक्षसाधमः।
तस्मादसिभ्यामस्याशु बाहू छिन्दावहे गुरू॥४॥
‘भैया! यह नीच राक्षस मुझको और आपको तुरंत मुँह में ले ले, इसके पहले ही हमलोग अपनी तलवारों से इसकी बड़ी-बड़ी बाँहें शीघ्र ही काट डालें॥४॥
भीषणोऽयं महाकायो राक्षसा भुजविक्रमः।
लोकं ह्यतिजितं कृत्वा ह्यावां हन्तुमिहेच्छति॥
‘यह महाकाय राक्षस बड़ा भीषण है। इसकी भुजाओं में ही इसका सारा बल और पराक्रम निहित है। यह समस्त संसार को सर्वथा पराजित-सा करके अब हमलोगों को भी यहाँ मार डालना चाहता है।
निश्चेष्टानां वधो राजन् कुत्सितो जगतीपतेः।
क्रतुमध्योपनीतानां पशूनामिव राघव॥६॥
‘राजन्! रघुनन्दन! यज्ञ में लाये गये पशुओं के समान निश्चेष्ट प्राणियों का वध राजा के लिये निन्दित बताया गया है (इसलिये हमें इसके प्राण नहीं लेने चाहिये, केवल भुजाओं का ही उच्छेद कर देना चाहिये)’॥६॥
एतत् संजल्पितं श्रुत्वा तयोः क्रुद्धस्तु राक्षसः।
विदार्यास्यं ततो रौद्रं तौ भक्षयितुमारभत्॥७॥
उन दोनों की यह बातचीत सुनकर उस राक्षस को बड़ा क्रोध हुआ और वह अपना भयंकर मुख फैलाकर उन्हें खा जाने को उद्यत हो गया॥७॥
ततस्तौ देशकालज्ञौ खड्गाभ्यामेव राघवौ।
अच्छिन्दन्तां सुसंहृष्टौ बाहू तस्यांसदेशतः॥८॥
इतने में ही देश-काल (अवसर) का ज्ञान रखने वाले उन दोनों रघुवंशी राजकुमारों ने अत्यन्त हर्ष में भरकर तलवारों से ही उसकी दोनों भुजाएँ कंधों से काट गिरायीं॥ ८॥
दक्षिणो दक्षिणं बाहुमसक्तमसिना ततः।
चिच्छेद रामो वेगेन सव्यं वीरस्तु लक्ष्मणः॥९॥
भगवान् श्रीराम उसके दाहिने भाग में खड़े थे। उन्होंने अपनी तलवार से उसकी दाहिनी बाँह बिना किसी रुकावट के वेगपूर्वक काट डाली तथा वाम भाग में खड़े वीर लक्ष्मण ने उसकी बायीं भुजा को तलवार से उड़ा दिया॥९॥
स पपात महाबाहुश्छिन्नबाहुर्महास्वनः।
खं च गां च दिशश्चैव नादयञ्जलदो यथा॥ १०॥
भुजाएँ कट जाने पर वह महाबाहु राक्षस मेघ के समान गम्भीर गर्जना करके पृथ्वी, आकाश तथा दिशाओं को जाता हुआ धरती पर गिर पड़ा॥१०॥
स निकृत्तौ भुजौ दृष्ट्वा शोणितौघपरिप्लुतः।
दीनः पप्रच्छ तौ वीरौ कौ युवामिति दानवः॥ ११॥
अपनी भुजाओं को कटी हुई देख खून से लथपथ हुए उस दानव ने दीन वाणी में पूछा—’वीरो! तुम दोनों कौन हो?’ ॥ ११॥
इति तस्य ब्रुवाणस्य लक्ष्मणः शुभलक्षणः।
शशंस तस्य काकुस्त्थं कबन्धस्य महाबलः॥ १२॥
कबन्ध के इस प्रकार पूछने पर शुभ लक्षणों वाले महाबली लक्ष्मण ने उसे श्रीरामचन्द्रजी का परिचय देना आरम्भ किया— ॥१२॥
अयमिक्ष्वाकुदायादो रामो नाम जनैः श्रुतः।
तस्यैवावरजं विद्धि भ्रातरं मां च लक्ष्मणम्॥ १३॥
‘ये इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ के पुत्र हैं और लोगों में श्रीराम नाम से विख्यात हैं। मुझे इन्हीं का छोटा भाई समझो मेरा नाम लक्ष्मण है॥ १३ ॥
मात्रा प्रतिहते राज्ये रामः प्रताजितो वनम्।
मया सह चरत्येष भार्यया च महद् वनम्॥१४॥
अस्य देवप्रभावस्य वसतो विजने वने।
रक्षसापहृता भार्या यामिच्छन्ताविहागतौ॥१५॥
‘माता कैकेयी के द्वारा जब इनका राज्याभिषेक रोक दिया गया, तब ये पिता की आज्ञा से वन में चले आये और मेरे तथा अपनी पत्नी के साथ इस विशाल वन में विचरण करने लगे। इस निर्जन वन में रहते हुए इन देवतुल्य प्रभावशाली श्रीरघुनाथजी की पत्नी को किसी राक्षस ने हर लिया है। उन्हीं का पता लगाने की इच्छा से हमलोग यहाँ आये हैं॥ १४-१५ ॥
त्वं तु को वा किमर्थं वा कबन्धसदृशो वने।
आस्येनोरसि दीप्तेन भग्नजङ्घो विचेष्टसे॥१६॥
‘तुम कौन हो? और कबन्ध के समान रूप धारण करके क्यों इस वन में पड़े हो? छाती के नीचे चमकता हुआ मुँह और टूटी हुई जंघा (पिण्डली) लिये तुम किस कारण इधर-उधर लुढ़कते फिरते हो?’ ॥ १६॥
एवमुक्तः कबन्धस्तु लक्ष्मणेनोत्तरं वचः।
उवाच वचनं प्रीतस्तदिन्द्रवचनं स्मरन्॥ १७॥
लक्ष्मणके ऐसा कहनेपर कबन्धको इन्द्रकी कही हुई बातका स्मरण हो आया। अतः उसने बड़ी प्रसन्नताके साथ लक्ष्मणको उनकी बातका उत्तर दिया— ॥१७॥
स्वागतं वां नरव्याघ्रौ दिष्ट्या पश्यामि वामहम्।
दिष्ट्या चेमौ निकृत्तौ मे युवाभ्यां बाहुबन्धनौ॥ १८॥
‘पुरुषसिंह वीरो! आप दोनों का स्वागत है। बड़े भाग्य से मुझे आपलोगों का दर्शन मिला है। ये मेरी दोनों भुजाएँ मेरे लिये भारी बन्धन थीं। सौभाग्य की बात है कि आपलोगों ने इन्हें काट डाला॥१८॥
विरूपं यच्च मे रूपं प्राप्तं ह्यविनयाद् यथा।
तन्मे शृणु नरव्याघ्र तत्त्वतः शंसतस्तव॥१९॥
‘नरश्रेष्ठ श्रीराम ! मुझे जो ऐसा कुरूप रूप प्राप्त हुआ है, यह मेरी ही उद्दण्डता का फल है। यह सब कैसे हुआ, वह प्रसङ्ग आपको मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। आप मुझसे सुनें’॥ १९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्ततितमः सर्गः॥७०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७०॥