वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 71 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 71
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
एकसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 71)
कबन्ध की आत्मकथा, अपने शरीर का दाह हो जाने पर उसका श्रीराम को सीता के अन्वेषण में सहायता देने का आश्वासन
पुरा राम महाबाहो महाबलपराक्रमम्।
रूपमासीन्ममाचिन्त्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्॥१॥
‘महाबाहु श्रीराम! पूर्वकाल में मेरा रूप महान् बलपराक्रम से सम्पन्न, अचिन्त्य तथा तीनों लोकों में विख्यात था॥१॥
यथा सूर्यस्य सोमस्य शक्रस्य च यथा वपुः।
सोऽहं रूपमिदं कृत्वा लोकवित्रासनं महत्॥२॥
ऋषीन् वनगतान् राम त्रासयामि ततस्ततः।
‘सूर्य, चन्द्रमा और इन्द्र का शरीर जैसा तेजस्वी है, वैसा ही मेरा भी था। ऐसा होने पर भी मैं लोगों को भयभीत करने वाले इस अत्यन्त भयंकर राक्षसरूप को धारण करके इधर-उधर घूमता और वन में रहने वाले ऋषियों को डराया करता था॥ २ १/२॥
ततः स्थूलशिरा नाम महर्षिः कोपितो मया ॥३॥
स चिन्वन् विविधं वन्यं रूपेणानेन धर्षितः।
तेनाहमुक्तः प्रेक्ष्यैवं घोरशापाभिधायिना॥४॥
अपने इस बर्ताव से एक दिन मैंने स्थूलशिरा नामक महर्षि को कुपित कर दिया। वे नाना प्रकार के जंगली फल-मूल आदि का संचय कर रहे थे, उसी समय मैंने उन्हें इस राक्षसरूप से डरा दिया। मुझे ऐसे विकट रूप में देखकर उन्होंने घोर शाप देते हुए कहा—॥ ३-४॥
एतदेवं नृशंसं ते रूपमस्तु विगर्हितम्।
स मया याचितः क्रुद्धः शापस्यान्तो भवेदिति॥
अभिशापकृतस्येति तेनेदं भाषितं वचः।
‘दुरात्मन् ! आज से सदा के लिये तुम्हारा यही क्रूर और निन्दित रूप रह जाय।’ यह सुनकर मैंने उन कुपित महर्षि से प्रार्थना की—’भगवन् ! इस अभिशाप (तिरस्कार) जनित शाप का अन्त होना चाहिये।’ तब उन्होंने इस प्रकार कहा- ॥ ५२ ॥
यदा छित्त्वा भुजौ रामस्त्वां दहेद् विजने वने॥ ६॥
तदा त्वं प्राप्स्यसे रूपं स्वमेव विपुलं शुभम्।
श्रिया विराजितं पुत्रं दनोस्त्वं विद्धि लक्ष्मण॥ ७॥
‘जब श्रीराम (और लक्ष्मण) तुम्हारी दोनों भुजाएँ काटकर तुम्हें निर्जन वन में जलायेंगे, तब तुम पुनः अपने उसी परम उत्तम, सुन्दर और शोभासम्पन्न रूप को प्राप्त कर लोगे।’ लक्ष्मण! इस प्रकार तुम मुझे एक दुराचारी दानव समझो। ६-७॥
इन्द्रकोपादिदं रूपं प्राप्तमेवं रणाजिरे।
अहं हि तपसोग्रेण पितामहमतोषयम्॥८॥
दीर्घमायुः स मे प्रादात् ततो मां विभ्रमोऽस्पृशत् ।
दीर्घमायुर्मया प्राप्तं किं मां शक्रः करिष्यति॥ ९॥
‘मेरा जो यह ऐसा रूप है, यह समराङ्गण में इन्द्र के क्रोध से प्राप्त हुआ है। मैंने पूर्वकाल में राक्षस होने के पश्चात् घोर तपस्या करके पितामह ब्रह्माजी को संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे दीर्घजीवी होने का वर दिया। इससे मेरी बुद्धि में यह भ्रम या अहंकार उत्पन्न हो गया कि मुझे तो दीर्घकालतक बनी रहनेवाली आयु प्राप्त हुई है; फिर इन्द्र मेरा क्या कर लेंगे? ॥ ८-९॥
इत्येवं बुद्धिमास्थाय रणे शक्रमधर्षयम्।
तस्य बाहुप्रमुक्तेन वज्रेण शतपर्वणा॥१०॥
सक्थिनी च शिरश्चैव शरीरे सम्प्रवेशितम्।
‘ऐसे विचार का आश्रय लेकर एक दिन मैंने युद्ध में देवराजपर आक्रमण किया। उस समय इन्द्र ने मुझपर सौ धारोंवाले वज्र का प्रहार किया। उनके छोड़े हुए उस वज्र से मेरी जाँघे और मस्तक मेरे ही शरीर में घुस गये॥ १० १/२॥
स मया याच्यमानः सन् नानयद् यमसादनम्॥ ११॥
पितामहवचः सत्यं तदस्त्विति ममाब्रवीत्।
‘मैंने बहुत प्रार्थना की, इसलिये उन्होंने मुझे यमलोक नहीं पठाया और कहा—’पितामह ब्रह्माजी ने जो तुम्हें दीर्घजीवी होने के लिये वरदान दिया है, वह सत्य हो’ ॥ ११ १/२॥
अनाहारः कथं शक्तो भग्नसक्थिशिरोमुखः॥ १२॥
वज्रेणाभिहतः कालं सुदीर्घमपि जीवितुम्।
‘तब मैंने कहा-देवराज! आपने अपने वज्र की मार से मेरी जाँघे, मस्तक और मुँह सभी तोड़ डाले। अब मैं कैसे आहार ग्रहण करूँगा और निराहार रहकर किस प्रकार सुदीर्घकालतक जीवित रह सकूँगा?॥
स एवमुक्तः शक्रो मे बाहू योजनमायतौ॥१३॥
तदा चास्यं च मे कुक्षौ तीक्ष्णदंष्ट्रमकल्पयत् ।
‘मेरे ऐसा कहने पर इन्द्र ने मेरी भुजाएँ एक-एक योजन लंबी कर दी एवं तत्काल ही मेरे पेट में तीखे दाढ़ों वाला एक मुख बना दिया॥ १३ १/२॥
सोऽहं भुजाभ्यां दीर्घाभ्यां संक्षिप्यास्मिन् वनेचरान्॥१४॥
सिंहदीपिमृगव्याघ्रान् भक्षयामि समन्ततः।
‘इस प्रकार मैं विशाल भुजाओं द्वारा वन में रहने वाले सिंह, चीते, हरिन और बाघ आदि जन्तुओं को सब ओर से समेटकर खाया करता था॥ १४ १/२॥
स तु मामब्रवीदिन्द्रो यदा रामः सलक्ष्मणः॥ १५॥
छेत्स्यते समरे बाहू तदा स्वर्गं गमिष्यसि।
‘इन्द्र ने मुझे यह भी बतला दिया था कि जब लक्ष्मणसहित श्रीराम तुम्हारी भुजाएँ काट देंगे, उस समय तुम स्वर्ग में जाओगे॥ १५ १/२ ॥
अनेन वपुषा तात वनेऽस्मिन् राजसत्तम॥१६॥
यद् यत् पश्यामि सर्वस्य ग्रहणं साधु रोचये।
‘तात! राजशिरोमणे! इस शरीर से इस वन के भीतर मैं जो-जो वस्तु देखता हूँ, वह सब ग्रहण कर लेना मुझे ठीक लगता है॥ १६ १/२ ॥
अवश्यं ग्रहणं रामो मन्येऽहं समुपैष्यति॥१७॥
इमां बुद्धिं पुरस्कृत्य देहन्यासकृतश्रमः।
‘इन्द्र तथा मुनि के कथनानुसार मुझे यह विश्वास था कि एक दिन श्रीराम अवश्य मेरी पकड़ में आ जायेंगे। इसी विचार को सामने रखकर मैं इस शरीर को त्याग देने के लिये प्रयत्नशील था॥ १७ १/२॥
स त्वं रामोऽसि भद्रं ते नाहमन्येन राघव॥१८॥
शक्यो हन्तुं यथा तत्त्वमेवमुक्तं महर्षिणा।
‘रघुनन्दन! अवश्य ही आप श्रीराम हैं। आपका कल्याण हो मैं आपके सिवा दूसरे किसी से नहीं मारा जा सकता था। यह बात महर्षि ने ठीक ही कही थी॥ १८ १/२॥
अहं हि मतिसाचिव्यं करिष्यामि नरर्षभ॥१९॥
मित्रं चैवोपदेक्ष्यामि युवाभ्यां संस्कृतोऽग्निना।
‘नरश्रेष्ठ! आप दोनों जब अग्नि के द्वारा मेरा दाहसंस्कार कर देंगे, उस समय मैं आपकी बौद्धिक सहायता करूँगा। आप दोनों के लिये एक अच्छे मित्र का पता बताऊँगा’ ॥ १९ १/२॥
एवमुक्तस्तु धर्मात्मा दनुना तेन राघवः॥२०॥
इदं जगाद वचनं लक्ष्मणस्य च पश्यतः।
उस दानव के ऐसा कहने पर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मण के सामने उससे यह बात कही- ॥ २० १/२॥
रावणेन हृता भार्या सीता मम यशस्विनी॥२१॥
निष्क्रान्तस्य जनस्थानात् सह भ्रात्रा यथासुखम्।
नाममात्रं तु जानामि न रूपं तस्य रक्षसः॥ २२॥
‘कबन्ध! मेरी यशस्विनी भार्या सीता को रावण हर ले गया है। उस समय मैं अपने भाई लक्ष्मण के साथ सुखपूर्वक जनस्थान के बाहर चला गया था। मैं उस राक्षस का नाम मात्र जानता हूँ। उसकी शकल-सूरत से परिचित नहीं हूँ॥ २१-२२॥
निवासं वा प्रभावं वा वयं तस्य न विद्महे।
शोकार्तानामनाथानामेवं विपरिधावताम्॥२३॥
कारुण्यं सदृशं कर्तुमुपकारेण वर्तताम्।
‘वह कहाँ रहता है और कैसा उसका प्रभाव है, इस बात से हमलोग सर्वथा अनभिज्ञ हैं। इस समय सीता का शोक हमें बड़ी पीड़ा दे रहा है। हम असहाय होकर इसी तरह सब ओर दौड़ रहे हैं। तुम हमारे ऊपर समुचित करुणा करने के लिये इस विषय में हमारा कुछ उपकार करो॥ २३ १/२ ॥
काष्ठान्यानीय भग्नानि काले शुष्काणि कुञ्जरैः॥ २४॥
धक्ष्यामस्त्वां वयं वीर श्वभ्रे महति कल्पिते।
‘वीर! फिर हमलोग हाथियों द्वारा तोड़े गये सूखे काठ लाकर स्वयं खोदे हुए एक बहुत बड़े गड्डे में तुम्हारे शरीर को रखकर जला देंगे॥ २४ १/२ ॥
स त्वं सीतां समाचक्ष्व येन वा यत्र वा हृता॥ २५॥
कुरु कल्याणमत्यर्थं यदि जानासि तत्त्वतः।
‘अतः अब तुम हमें सीता का पता बताओ। इस समय वह कहाँ है? तथा उसे कौन कहाँ ले गया है? यदि ठीक-ठीक जानते हो तो सीता का समाचार बताकर हमारा अत्यन्त कल्याण करो’ । २५ १/२॥
एवमुक्तस्तु रामेण वाक्यं दनुरनुत्तमम्॥ २६॥
प्रोवाच कुशलो वक्ता वक्तारमपि राघवम्।
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर बातचीत में कुशल उस दानव ने उन प्रवचनपटु रघुनाथजी से यह परम उत्तम बात कही- ॥ २६ १/२ ॥
दिव्यमस्ति न मे ज्ञानं नाभिजानामि मैथिलीम्॥ २७॥
यस्तां वक्ष्यति तं वक्ष्ये दग्धः स्वं रूपमास्थितः।
योऽभिजानाति तद्रक्षस्तद् वक्ष्ये राम तत्परम्॥ २८॥
‘श्रीराम! इस समय मुझे दिव्य ज्ञान नहीं है, इसलिये मैं मिथिलेशकुमारी के विषय में कुछ भी नहीं जानता। जब मेरे इस शरीर का दाह हो जायगा, तब मैं अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त होकर किसी ऐसे व्यक्ति का पता बता सकूँगा, जो सीता के विषय में आपको कुछ बतायेगा तथा जो उस उत्कृष्ट राक्षस को भी जानता होगा, ऐसे पुरुष का आपको परिचय दूंगा। २७-२८॥
अदग्धस्य हि विज्ञातुं शक्तिरस्ति न मे प्रभो।
राक्षसं तु महावीर्यं सीता येन हृता तव ॥ २९॥
‘प्रभो! जब तक मेरे इस शरीर का दाह नहीं होगा तबतक मुझमें यह जानने की शक्ति नहीं आ सकती कि वह महापराक्रमी राक्षस कौन है, जिसने आपकी सीता का अपहरण किया है॥ २९॥
विज्ञानं हि महद् भ्रष्टं शापदोषेण राघव।
स्वकृतेन मया प्राप्तं रूपं लोकविगर्हितम्॥३०॥
‘रघुनन्दन! शाप-दोष के कारण मेरा महान् विज्ञान नष्ट हो गया है। अपनी ही करतूत से मुझे यह लोकनिन्दित रूप प्राप्त हुआ है॥ ३० ॥
किं तु यावन्न यात्यस्तं सविता श्रान्तवाहनः।
तावन्मामवटे क्षिप्त्वा दह राम यथाविधि॥३१॥
‘किंतु श्रीराम! जबतक सूर्यदेव अपने वाहनों के थक जाने पर अस्त नहीं हो जाते, तभी तक मुझे गड्डे में डालकर शास्त्रीय विधि के अनुसार मेरा दाह-संस्कार कर दीजिये॥३१॥
दग्धस्त्वयाहमवटे न्यायेन रघुनन्दन।
वक्ष्यामि तं महावीर यस्तं वेत्स्यति राक्षसम्॥ ३२॥
‘महावीर रघुनन्दन! आपके द्वारा विधिपूर्वक गड्ढे में मेरे शरीर का दाह हो जाने पर मैं ऐसे महापुरुष का परिचय दूंगा, जो उस राक्षस को जानते होंगे॥३२॥
तेन सख्यं च कर्तव्यं न्याय्यवृत्तेन राघव।
कल्पयिष्यति ते वीर साहाय्यं लघुविक्रम॥३३॥
‘शीघ्र पराक्रम प्रकट करने वाले वीर रघुनाथजी! न्यायोचित आचार वाले उन महापुरुष के साथ आपको मित्रता कर लेनी चाहिये। वे आपकी सहायता करेंगे।
नहि तस्यास्त्यविज्ञातं त्रिषु लोकेषु राघव।
सर्वान् परिवृतो लोकान् पुरा वै कारणान्तरे॥ ३४॥
‘रघुनन्दन! उनके लिये तीनों लोकोंमें कुछ भी अज्ञात नहीं है; क्योंकि किसी कारणवश वे पहले समस्त लोकोंमें चक्कर लगा चुके हैं ॥ ३४ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकसप्ततितमः सर्गः॥ ७१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ७१॥