वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 72 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 72
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
द्विसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 72)
श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा चिता की आग में कबन्ध का दाह तथा उसका दिव्य रूप में प्रकट होकर उन्हें सग्रीव से मित्रता करने के लिये कहना
एवमुक्तौ तु तौ वीरौ कबन्धेन नरेश्वरौ।
गिरिप्रदरमासाद्य पावकं विससर्जतुः॥१॥
कबन्ध के ऐसा कहने पर उन दोनों वीर नरेश्वर श्रीराम और लक्ष्मण ने उसके शरीर को एक पर्वत के गड्ढे में डालकर उसमें आग लगा दी॥१॥
लक्ष्मणस्तु महोल्काभिर्खलिताभिः समन्ततः।
चितामादीपयामास सा प्रजज्वाल सर्वतः॥२॥
लक्ष्मण ने जलती हुई बड़ी-बड़ी लुकारियों के द्वारा चारों ओर से उसकी चिता में आग लगायी; फिर तो वह सब ओर से प्रज्वलित हो उठी॥२॥
तच्छरीरं कबन्धस्य घृतपिण्डोपमं महत्।
मेदसा पच्यमानस्य मन्दं दहत पावकः॥३॥
चिता में जलते हुए कबन्ध का विशाल शरीर चर्बियों से भरा होने के कारण घी के लोदे के समान प्रतीत होता था। चिता की आग उसे धीरे-धीरे जलाने लगी॥३॥
सविधूय चितामाशु विधूमोऽग्निरिवोत्थितः।
अरजे वाससी बिभ्रन्माल्यं दिव्यं महाबलः॥४॥
तदनन्तर वह महाबली कबन्ध तुरंत ही चिता को हिलाकर दो निर्मल वस्त्र और दिव्य पुष्पों का हार धारण किये धूमरहित अग्नि के समान उठ खड़ा हुआ॥४॥
ततश्चिताया वेगेन भास्वरो विरजाम्बरः।
उत्पपाताशु संहृष्टः सर्वप्रत्यङ्गभूषणः॥५॥
विमाने भास्वरे तिष्ठन् हंसयुक्ते यशस्करे।
प्रभया च महातेजा दिशो दश विराजयन्॥६॥
सोऽन्तरिक्षगतो वाक्यं कबन्धो राममब्रवीत्।
फिर वेगपूर्वक चिता से ऊपर को उठा और शीघ्र ही एक तेजस्वी विमान पर जा बैठा। निर्मल वस्त्रों से विभूषित हो वह बड़ा तेजस्वी दिखायी देता था। उसके मन में हर्ष भरा हुआ था तथा समस्त अङ्गप्रत्यङ्ग में दिव्य आभूषण शोभा दे रहे थे। हंसों से जुते हुए उस यशस्वी विमान पर बैठा हुआ महान् तेजस्वी कबन्ध अपनी प्रभा से दसों दिशाओं को प्रकाशित करने लगा और अन्तरिक्ष में स्थित हो श्रीराम से इस प्रकार बोला— ॥५-६ १/२ ॥
शृणु राघव तत्त्वेन यथा सीतामवाप्स्यसि॥७॥
राम षड् युक्तयो लोके याभिः सर्वं विमृश्यते।
परिमृष्टो दशान्तेन दशाभागेन सेव्यते॥८॥
‘रघुनन्दन! आप जिस प्रकार सीता को पा सकेंगे, वह ठीक-ठीक बता रहा हूँ, सुनिये। श्रीराम! लोक में छः युक्तियाँ हैं, जिनसे राजाओं द्वारा सब कुछ प्राप्त किया जाता है (उन युक्तियों तथा उपायों के नाम हैं -संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय*)। जो मनुष्य दुर्दशा से ग्रस्त होता है, वह दूसरे किसी दुर्दशाग्रस्त पुरुष से ही सेवा या सहायता प्राप्त करता है (यह नीति है) ॥ ७-८॥
दशाभागगतो हीनस्त्वं हि राम सलक्ष्मणः।
यत्कृते व्यसनं प्राप्तं त्वया दारप्रधर्षणम्॥९॥
‘श्रीराम! लक्ष्मणसहित आप बुरी दशा के शिकार हो रहे हैं; इसीलिये आपलोग राज्य से वञ्चित हैं तथा उस बुरी दशा के कारण ही आपको अपनी भार्या के अपहरण का महान् दुःख प्राप्त हुआ है॥९॥
तदवश्यं त्वया कार्यः स सुहृत् सुहृदां वर।
अकृत्वा नहि ते सिद्धिमहं पश्यामि चिन्तयन्॥ १०॥
‘अतः सुहृदों में श्रेष्ठ रघुनन्दन! आप अवश्य ही उस पुरुष को अपना सुहृद् बनाइये, जो आपकी ही भाँति दुर्दशा में पड़ा हुआ हो (इस प्रकार आप सुहृद् का आश्रय लेकर समाश्रय नीति को अपनाइये)। मैं बहुत सोचने पर भी ऐसा किये बिना आपकी सफलता नहीं देखता हूँ॥१०॥
श्रूयतां राम वक्ष्यामि सुग्रीवो नाम वानरः।
भ्रात्रा निरस्तः क्रुद्धेन वालिना शक्रसूनुना॥११॥
‘श्रीराम! सुनिये, मैं ऐसे पुरुष का परिचय दे रहा हूँ, उनका नाम है सुग्रीव वे जाति के वानर हैं। उन्हें उनके भाई इन्द्रकुमार वाली ने कुपित होकर घर से निकाल दिया है॥ ११॥
ऋष्यमूके गिरिवरे पम्पापर्यन्तशोभिते।
निवसत्यात्मवान् वीरश्चतुर्भिः सह वानरैः॥ १२॥
‘वे मनस्वी वीर सुग्रीव इस समय चार वानरों के साथ उस गिरिवर ऋष्यमूक पर निवास करते हैं, जो पम्पासरोवर तक फैला हुआ है॥ १२॥
वानरेन्द्रो महावीर्यस्तेजोवानमितप्रभः।
सत्यसंधो विनीतश्च धृतिमान् मतिमान् महान्॥ १३॥
दक्षः प्रगल्भो द्युतिमान् महाबलपराक्रमः।
‘वे वानरों के राजा महापराक्रमी सुग्रीव तेजस्वी, अत्यन्त कान्तिमान्, सत्यप्रतिज्ञ, विनयशील, धैर्यवान्, बुद्धिमान्, महापुरुष, कार्यदक्ष, निर्भीक, दीप्तिमान् तथा महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न हैं॥ १३ १/२॥
भ्रात्रा विवासितो वीर राज्यहेतोर्महात्मना॥१४॥
स ते सहायो मित्रं च सीतायाः परिमार्गणे।
भविष्यति हि ते राम मा च शोके मनः कृथाः॥
‘वीर श्रीराम! उनके महामना भाई वाली ने सारे राज्य को अपने अधिकार में कर लेने के लिये उन्हें राज्य से बाहर निकाल दिया है; अतः वे सीता की खोज के लिये आपके सहायक और मित्र होंगे।
इसलिये आप अपने मन को शोक में न डालिये॥ १४-१५॥
भवितव्यं हि तच्चापि न तच्छक्यमिहान्यथा।
कर्तुमिक्ष्वाकुशार्दूल कालो हि दुरतिक्रमः॥१६॥
‘इक्ष्वाकुवंशी वीरों में श्रेष्ठ श्रीराम! जो होनहार है, उसे कोई भी पलट नहीं सकता। काल का विधान सभी के लिये दुर्लङ्घ्य होता है (अतः आप पर जो कुछ भी बीत रहा है, इसे काल या प्रारब्ध का विधान समझकर आपको धैर्य धारण करना चाहिये) ॥१६॥
गच्छ शीघ्रमितो वीर सुग्रीवं तं महाबलम्।
वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाद्य राघव॥१७॥
‘वीर रघुनाथजी! आप यहाँ से शीघ्र ही महाबली सुग्रीव के पास जाइये और जाकर तुरंत उन्हें अपना मित्र बना लीजिये॥१७॥
अद्रोहाय समागम्य दीप्यमाने विभावसौ।
न च ते सोऽवमन्तव्यः सुग्रीवो वानराधिपः॥ १८॥
‘प्रज्वलित अग्नि को साक्षी बनाकर परस्पर द्रोह न करने के लिये मैत्री स्थापित कीजिये और ऐसा करने के बाद आपको कभी उन वानरराज सुग्रीव का अपमान नहीं करना चाहिये॥ १८॥
कृतज्ञः कामरूपी च सहायार्थी च वीर्यवान्।
शक्तौ ह्यद्य युवां कर्तुं कार्यं तस्य चिकीर्षितम्॥ १९॥
‘वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, पराक्रमी और कृतज्ञ हैं तथा इस समय स्वयं ही अपने लिये एक सहायक ढूँढ़ रहे हैं। उनका जो अभीष्ट कार्य है उसे सिद्ध करने में आप दोनों भाई समर्थ हैं॥ १९॥
कृतार्थो वाकृतार्थो वा तव कृत्यं करिष्यति।
स ऋक्षरजसः पुत्रः पम्पामटति शङ्कितः॥२०॥
‘सुग्रीव का मनोरथ पूर्ण हो या न हो, वे आपका कार्य अवश्य सिद्ध करेंगे। वे ऋक्षरजा के क्षेत्रज पुत्र हैं और वाली से शङ्कित रहकर पम्पासरोवर के तट पर भ्रमण करते हैं ॥ २०॥
भास्करस्यौरसः पुत्रो वालिना कृतकिल्बिषः।
संनिधायायुधं क्षिप्रमृष्यमूकालयं कपिम्॥२१॥
कुरु राघव सत्येन वयस्यं वनचारिणम्।
‘उन्हें सूर्यदेव का औरस पुत्र कहा गया है। उन्होंने वाली का अपराध किया है (इसीलिये वे उससे डरते हैं)। रघुनन्दन ! अग्नि के समीप हथियार रखकर शीघ्र ही सत्य की शपथ खाकर ऋष्यमूकनिवासी वनचारी वानर सुग्रीव को आप अपना मित्र बना लीजिये॥ २१ १/२॥
स हि स्थानानि कात्स्न्येन सर्वाणि कपिकुञ्जरः॥ २२॥
नरमांसाशिनां लोके नैपुण्यादधिगच्छति।
‘कपिश्रेष्ठ सुग्रीव संसार में नरमांसभक्षी राक्षसों के जितने स्थान हैं, उन सबको पूर्णरूप से निपुणतापूर्वक जानते हैं ॥ २२ १/२॥
न तस्याविदितं लोके किंचिदस्ति हि राघव॥ २३॥
यावत् सूर्यः प्रतपति सहस्रांशुः परंतप।
‘रघुनन्दन! शत्रुदमन! सहस्रों किरणों वाले सूर्यदेव जहाँ तक तपते हैं, वहाँ तक संसार में कोई ऐसा स्थान या वस्तु नहीं है, जो सुग्रीव के लिये अज्ञात हो॥ २३ १/२॥
स नदीर्विपुलान् शैलान् गिरिदुर्गाणि कन्दरान्॥ २४॥
अन्विष्य वानरैः सार्धं पत्नीं तेऽधिगमिष्यति।
‘वे वानरों के साथ रहकर समस्त नदियों, बड़े-बड़े पर्वतों, पहाड़ी दुर्गम स्थानों और कन्दराओं में भी खोज कराकर आपकी पत्नी का पता लगा लेंगे॥ २४ १/२॥
वानरांश्च महाकायान् प्रेषयिष्यति राघव॥२५॥
दिशो विचेतुं तां सीतां त्वद्वियोगेन शोचतीम्।
अन्वेष्यति वरारोहां मैथिली रावणालये॥२६॥
‘राघव! वे आपके वियोग में शोक करती हुई सीता की खोज के लिये सम्पूर्ण दिशाओं में विशालकाय वानरों को भेजेंगे, तथा रावण के घर से भी सुन्दर अङ्गोंवाली मिथिलेशकुमारी को ढूँढ़ निकालेंगे। २५-२६॥
स मेरुशृङ्गाग्रगतामनिन्दितां प्रविश्य पातालतलेऽपि वाश्रिताम्।
प्लवङ्गमानामृषभस्तव प्रियां निहत्य रक्षांसि पुनः प्रदास्यति॥२७॥
‘आपकी प्रिया सती-साध्वी सीता मेरुशिखर के अग्रभाग पर पहुँचायी गयी हों या पाताल में प्रवेश करके रखी गयी हों, वानरशिरोमणि सुग्रीव समस्त राक्षसों का वध करके उन्हें पुनः आपके पास ला देंगे’॥ २७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे द्विसप्ततितमः सर्गः॥७२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में बहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७२॥