वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 73 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 73
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
त्रिसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 73)
दिव्य रूपधारी कबन्ध का श्रीराम और लक्ष्मण को ऋष्यमूक और पम्पासरोवर का मार्ग बताना तथा मतङ्गमुनि के वन एवं आश्रम का परिचय देकर प्रस्थान करना
दर्शयित्वा तु रामाय सीतायाः परिमार्गणे।
वाक्यमन्वर्थमर्थज्ञः कबन्धः पुनरब्रवीत्॥१॥
श्रीराम को सीता की खोज का उपाय दिखाकर अर्थवेत्ता कबन्ध ने उनसे पुनः यह प्रयोजनयुक्त बात कही— ॥१॥
एष राम शिवः पन्था यत्रैते पुष्पिता द्रुमाः।
प्रतीची दिशमाश्रित्य प्रकाशन्ते मनोरमाः॥२॥
‘श्रीराम! यहाँ से पश्चिम दिशा का आश्रय लेकर जहाँ ये फूलों से भरे हुए मनोरम वृक्ष शोभा पा रहे हैं, यही आपके जाने लायक सुखद मार्ग है॥२॥
जम्बूप्रियालपनसा न्यग्रोधप्लक्षतिन्दुकाः।
अश्वत्थाः कर्णिकाराश्च चूताश्चान्ये च पादपाः॥३॥
धन्वना नागवृक्षाश्च तिलका नक्तमालकाः।
नीलाशोकाः कदम्बाश्च करवीराश्च पुष्पिताः॥ ४॥
अग्निमुख्या अशोकाश्च सुरक्ताः पारिभद्रकाः।
तानारुह्याथवा भूमौ पातयित्वा च तान् बलात्॥
फलान्यमृतकल्पानि भक्षयित्वा गमिष्यथः।
‘जामुन, प्रियाल (चिरौंजी), कटहल, बड़, पाकड़, तेंदू, पीपल, कनेर, आम तथा अन्य वृक्ष, धव, नागकेसर, तिलक, नक्तमाल, नील, अशोक, कदम्ब, खिले हुए करवीर, भिलावा, अशोक, लाल चन्दन तथा मन्दार—ये वृक्ष मार्ग में पड़ेंगे। आप दोनों भाई इनकी डालियों को बलपूर्वक भूमिपर झुकाकर अथवा इन वृक्षों पर चढ़कर इनके अमृततुल्य मधुर फलों का आहार करते हुए यात्रा कीजियेगा॥ ३–५ १/२॥
तदतिक्रम्य काकुत्स्थ वनं पुष्पितपादपम्॥६॥
नन्दनप्रतिमं चान्यत् कुरवस्तूत्तरा इव।
सर्वकालफला यत्र पादपा मधुरस्रवाः॥७॥
‘काकुत्स्थ! खिले हुए वृक्षों से सुशोभित उस वन को लाँघकर आपलोग एक दूसरे वन में प्रवेश कीजियेगा, जो नन्दनवन के समान मनोहर है। उस वन के वृक्ष उत्तर कुरुवर्ष के वृक्षों की भाँति मधु की धारा बहाने वाले हैं तथा उनमें सभी ऋतुओं में सदा फल लगे रहते हैं॥ ६-७॥
सर्वे च ऋतवस्तत्र वने चैत्ररथे यथा।
फलभारनतास्तत्र महाविटपधारिणः॥८॥
‘चैत्ररथ वन की भाँति उस मनोहर कानन में सभी ऋतुएँ निवास करती हैं। वहाँ के वृक्ष बड़ी-बड़ी शाखा धारण करने वाले तथा फलों के भार से झुके हुए हैं॥ ८॥
शोभन्ते सर्वतस्तत्र मेघपर्वतसंनिभाः।
तानारुह्याथवा भूमौ पातयित्वाथवा सुखम्॥९॥
फलान्यमृतकल्पानि लक्ष्मणस्ते प्रदास्यति।
‘वे वहाँ सब ओर मेघों और पर्वतों के समान शोभा पाते हैं। लक्ष्मण उन वृक्षों पर चढ़कर अथवा सुखपूर्वक उन्हें पृथ्वी पर झुकाकर उनके अमृततुल्य मधुर फल आपको देंगे॥९ १/२ ॥
चङ्कमन्तौ वरान् शैलान् शैलाच्छैलं वनाद् वनम्॥ १०॥
ततः पुष्करिणीं वीरौ पम्पां नाम गमिष्यथः।
‘इस प्रकार सुन्दर पर्वतों पर भ्रमण करते हुए आप दोनों भाई एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर तथा एक वन से दूसरे वन में पहुँचेंगे और इस तरह अनेक पर्वतों तथा वनों को लाँघते हुए आप दोनों वीर पम्पा नामक पुष्करिणी के तटपर पहुँच जायेंगे॥ १० १/२॥
अशर्करामविभ्रंशां समतीर्थामशैवलाम्॥११॥
राम संजातवालूकां कमलोत्पलशोभिताम्।
‘श्रीराम! वहाँ कंकड़ का नाम नहीं है। उसके तट पर पैर फिसलने लायक कीचड़ आदि नहीं है। उसके घाट की भूमि सब ओर से बराबर है-ऊँची नीची या ऊबड़-खाबड़ नहीं है। उस पुष्करिणी में सेवार का सर्वथा अभाव है। उसके भीतर की भूमि वालुकापूर्ण है। कमल और उत्पल उस सरोवर की शोभा बढ़ाते हैं । ११ १/२॥
तत्र हंसाः प्लवाः क्रौञ्चाः कुरराश्चैव राघव॥ १२॥
वल्गुस्वरा निकूजन्ति पम्पासलिलगोचराः।
नोद्विजन्ते नरान् दृष्ट्वा वधस्याकोविदाः शुभाः॥ १३॥
‘रघुनन्दन! वहाँ पम्पा के जल में विचरने वाले हंस, कारण्डव, क्रौञ्च और कुरर सदा मधुर स्वर में कूजते रहते हैं। वे मनुष्यों को देखकर उद्विग्न नहीं होते हैं। क्योंकि किसी मनुष्य के द्वारा किसी पक्षी का वध भी हो सकता है, ऐसे भय का उन्हें अनुभव नहीं है। ये सभी पक्षी बड़े सुन्दर हैं ॥ १२-१३॥
घृतपिण्डोपमान् स्थूलांस्तान् द्विजान् भक्षयिष्यथः।
रोहितान् वक्रतुण्डांश्च नलमीनांश्च राघव॥ १४॥
पम्पायामिषुभिर्मत्स्यास्तत्र राम वरान् हतान्।
निस्त्वक्पक्षानयस्तप्तानकृशानैककण्टकान्॥ १५॥
तव भक्त्या समायुक्तो लक्ष्मणः सम्प्रदास्यति।
‘बाणों के अग्रभाग से जिनके छिलके छुड़ा दिये गये हैं, अतएव जिनमें एक भी काँटा नहीं रह गया है, जो घी के लोदे के समान चिकने तथा आर्द्र हैं सूखे नहीं हैं, जिन्हें लोहमय बाणों के अग्रभाग में गूंथकर आग में सेका और पकाया गया है, ऐसे फल-मूल के ढेर वहाँ भक्ष्य पदार्थ के रूप में उपलब्ध होंगे। आपके प्रति भक्तिभाव से सम्पन्न लक्ष्मण आपको वे भक्ष्य पदार्थ अर्पित करेंगे। आप दोनों भाई उन पदार्थों को लेकर उस सरोवर के मोटे-मोटे सुप्रसिद्ध जलचर पक्षियों तथा श्रेष्ठ रोहित (रोहू), वक्रतुण्ड और नलमीन आदि मत्स्यों को थोड़ा-थोड़ा करके खिलाइयेगा (इससे आपका मनोरञ्जन होगा) ॥ १४-१५ १/२॥
भृशं तान् खादतो मत्स्यान् पम्पायाः पुष्पसंचये॥ १६॥
पद्मगन्धि शिवं वारि सुखशीतमनामयम्।
उद्धृत्य स तदाक्लिष्टं रूप्यस्फटिकसंनिभम्॥ १७॥
अथ पुष्करपर्णेन लक्ष्मणः पाययिष्यति।।
‘जिस समय आप पम्पासरोवर की पुष्पराशि के समीप मछलियों को भोजन कराने की क्रीड़ा में अत्यन्त संलग्न होंगे, उस समय लक्ष्मण उस सरोवर का कमल की गन्ध से सुवासित, कल्याणकारी, सुखद, शीतल, रोगनाशक, क्लेशहारी तथा चाँदी और स्फटिकमणि के समान स्वच्छ जल कमल के पत्ते में निकालकर लायेंगे और आपको पिलायेंगे॥ १६-१७ १/२॥
स्थूलान् गिरिगुहाशय्यान् वानरान् वनचारिणः॥ १८॥
सायाले विचरन् राम दर्शयिष्यति लक्ष्मणः।
‘श्रीराम! सायंकाल में आपके साथ विचरते हुए लक्ष्मण आपको उन मोटे-मोटे वनचारी वानरों का दर्शन करायेंगे, जो पर्वतों की गुफाओं में सोते और रहते हैं॥ १८ १/२॥
अपां लोभादुपावृत्तान् वृषभानिव नर्दतः॥१९॥
स्थूलान् पीतांश्च पम्पायां द्रक्ष्यसि त्वं नरोत्तम।
‘नरश्रेष्ठ! वे वानर पानी पीने के लोभ से पम्पा के तट पर आकर साँड़ों के समान गर्जते हैं। उनके शरीर मोटे और रंग पीले होते हैं। आप उन सबको वहाँ देखेंगे॥ १९ १/२॥
सायाह्ने विचरन् राम विटपी माल्यधारिणः॥ २०॥
शिवोदकं च पम्पायां दृष्ट्वा शोकं विहास्यसि।
‘श्रीराम! सायंकाल में चलते समय आप बड़ी-बड़ी शाखावाले, पुष्पधारी वृक्षों तथा पम्पा के शीतल जल का दर्शन करके अपना शोक त्याग देंगे॥ २० १/२॥
सुमनोभिश्चितास्तत्र तिलका नक्तमालकाः॥ २१॥
उत्पलानि च फुल्लानि पङ्कजानि च राघव।
‘रघुनन्दन! वहाँ फूलों से भरे हुए तिलक और नक्तमाल के वृक्ष शोभा पाते हैं तथा जल के भीतर उत्पल और कमल फूले हुए दिखायी देते हैं॥ २१ १/२॥
न तानि कश्चिन्माल्यानि तत्रारोपयिता नरः॥ २२॥
न च वै म्लानतां यान्ति न च शीर्यन्ति राघव।
‘रघुनन्दन! कोई भी मनुष्य वहाँ उन फूलों को उतारकर धारण नहीं करता है। (क्योंकि वहाँ तक किसी की पहुँच ही नहीं हो पाती है) पम्पासरोवर के फूल न तो मुरझाते हैं और न झरते ही हैं ॥ २२ १/२ ॥
मतङ्गशिष्यास्तत्रासन्नृषयः सुसमाहिताः॥२३॥
तेषां भाराभितप्तानां वन्यमाहरतां गुरोः।
ये प्रपेतुर्महीं तूर्णं शरीरात् स्वेदबिन्दवः॥२४॥
तानि माल्यानि जातानि मुनीनां तपसा तदा।
स्वेदबिन्दुसमुत्थानि न विनश्यन्ति राघव॥२५॥
‘कहते हैं, वहाँ पहले मतंग मुनि के शिष्य ऋषिगण निवास करते थे, जिनका चित्त सदा एकाग्र एवं शान्त रहता था। वे अपने गुरु मतंग मुनि के लिये जब जंगली फल-मूल ले आते और उनके भार से थक जाते, तब उनके शरीर से पृथ्वी पर पसीनों की जो बूंदें गिरती थीं, वे ही उन मुनियों की तपस्या के प्रभाव से तत्काल फूल के रूप में परिणत हो जाती थीं। राघव! पसीनों की बूंदों से उत्पन्न होने के कारण वे फूल नष्ट नहीं होते हैं॥ २३–२५॥
तेषां गतानामद्यापि दृश्यते परिचारिणी।
श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी॥ २६॥
त्वां तु धर्मे स्थिता नित्यं सर्वभूतनमस्कृतम्।
दृष्ट्वा देवोपमं राम स्वर्गलोकं गमिष्यति॥२७॥
‘वे सब-के-सब ऋषि तो अब चले गये; किंतु उनकी सेवा में रहने वाली तपस्विनी शबरी आज भी वहाँ दिखायी देती है। काकुत्स्थ! शबरी चिरजीवनी होकर सदा धर्म के अनुष्ठान में लगी रहती है। श्रीराम! आप समस्त प्राणियों के लिये नित्य वन्दनीय और देवता के तुल्य हैं। आपका दर्शन करके शबरी स्वर्गलोक (साकेतधाम) को चली जायगी॥ २६-२७॥
ततस्तद्राम पम्पायास्तीरमाश्रित्य पश्चिमम्।
आश्रमस्थानमतुलं गुह्यं काकुत्स्थ पश्यसि॥ २८॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! तदनन्तर आप पम्पा के पश्चिम तट पर जाकर एक अनुपम आश्रम देखेंगे, जो (सर्वसाधारणकी पहुँच के बाहर होने के कारण) गुप्त है॥२८॥
न तत्राक्रमितुं नागाः शक्नुवन्ति तदाश्रमे।
ऋषेस्तस्य मतङ्गस्य विधानात् तच्च काननम्॥ २९॥
‘उस आश्रम पर तथा उस वन में मतंग मुनि के प्रभाव से हाथी कभी आक्रमण नहीं कर सकते॥२९॥
मतङ्गवनमित्येव विश्रुतं रघुनन्दन।
तस्मिन् नन्दनसंकाशे देवारण्योपमे वने॥३०॥
नानाविहगसंकीर्णे रंस्यसे राम निर्वृतः।
‘रघुनन्दन! वहाँ का जंगल मतंगवन के नाम से प्रसिद्ध है। उस नन्दनतुल्य मनोहर और देववन के समान सुन्दर वन में नाना प्रकार के पक्षी भरे रहते हैं। श्रीराम! आप वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ सानन्द विचरण करेंगे।
ऋष्यमूकस्तु पम्पायाः पुरस्तात् पुष्पितद्रुमः॥ ३१॥
सुदुःखारोहणश्चैव शिशुनागाभिरक्षितः।
उदारो ब्रह्मणा चैव पूर्वकालेऽभिनिर्मितः॥ ३२॥
‘पम्पासरोवर के पूर्वभाग में ऋष्यमूक पर्वत है, जहाँ के वृक्ष फूलों से सुशोभित दिखायी देते हैं। उसके ऊपर चढ़ने में बड़ी कठिनाई होती है, क्योंकि वह छोटे-छोटे सो अथवा हाथियों के बच्चों द्वारा सब ओर से सुरक्षित है। ऋष्यमूक पर्वत उदार (अभीष्ट फल को देने वाला) है। पूर्वकाल में साक्षात् ब्रह्माजी ने उसका निर्माण किया और उसे औदार्य आदि गुणों से सम्पन्न बनाया॥ ३१-३२॥
शयानः पुरुषो राम तस्य शैलस्य मूर्धनि।
यत् स्वप्नं लभते वित्तं तत् प्रबुद्धोऽधिगच्छति॥ ३३॥
यस्त्वेनं विषमाचारः पापकर्माधिरोहति।
तत्रैव प्रहरन्त्येनं सुप्तमादाय राक्षसाः॥ ३४॥
‘श्रीराम! उस पर्वत के शिखर पर सोया हुआ पुरुष सपने में जिस सम्पत्ति को पाता है उसे जागने पर भी प्राप्त कर लेता है। जो पापकर्मी तथा विषम बर्ताव करने वाला पुरुष उस पर्वत पर चढ़ता है, उसे इस पर्वतशिखरपर ही सो जाने पर राक्षस लोग उठाकर उसके ऊपर प्रहार करते हैं। ३३-३४॥
तत्रापि शिशुनागानामाक्रन्दः श्रूयते महान्।
क्रीडतां राम पम्पायां मतङ्गाश्रमवासिनाम्॥ ३५॥
श्रीराम! मतंग मुनि के आश्रम के आस-पास के वन में रहने और पम्पासरोवर में क्रीडा करने वाले छोटे-छोटे हाथियों के चिग्घाड़ने का महान् शब्द उस पर्वत पर भी सुनायी देता है॥ ३५ ॥
सक्ता रुधिरधाराभिः संहत्य परमद्विपाः।
प्रचरन्ति पृथक्कीर्णा मेघवर्णास्तरस्विनः॥३६॥
ते तत्र पीत्वा पानीयं विमलं चारु शोभनम्।
अत्यन्तसुखसंस्पर्श सर्वगन्धसमन्वितम्॥३७॥
निर्वृत्ताः संविगाहन्ते वनानि वनगोचराः।
‘जिनके गण्डस्थलों पर कुछ लाल रंग की मद की धाराएँ बहती हैं, वे वेगशाली और मेघ के समान काले बड़े-बड़े गजराज झुंड-के-झुंड एक साथ होकर दूसरी जातिवाले हाथियों से पृथक् हो वहाँ विचरते रहते हैं। वन में विचरने वाले वे हाथी जब पम्पासरोवर का निर्मल, मनोहर, सुन्दर, छूने में अत्यन्त सुखद तथा सब प्रकार की सुगन्ध से सुवासित जल पीकर लौटते हैं, तब उन वनों में प्रवेश करते हैं। ३६-३७ १/२ ॥
ऋक्षांश्च दीपिनश्चैव नीलकोमलकप्रभान्॥ ३८॥
रुरूनपेतानजयान् दृष्ट्वा शोकं प्रहास्यसि।
‘रघुनन्दन! वहाँ रीछों, बाघों और नील कोमल कान्तिवाले मनुष्यों को देखकर भागने वाले तथा दौड़ लगाने में किसी से पराजित न होने वाले मृगों को देखकर आप अपना सारा शोक भूल जायँगे॥ ३८ १/२॥
राम तस्य तु शैलस्य महती शोभते गुहा॥३९॥
शिलापिधाना काकुत्स्थ दुःखं चास्याः प्रवेशनम्।
‘श्रीराम! उस पर्वत के ऊपर एक बहुत बड़ी गुफा शोभा पाती है, जिसका द्वार पत्थर से ढका है। उसके भीतर प्रवेश करने में बड़ा कष्ट होता है॥ ३९ १/२ ॥
तस्या गुहायाः प्राग्द्वारे महान् शीतोदको ह्रदः॥४०॥
बहुमूलफलो रम्यो नानानगसमाकुलः।
‘उस गुफा के पूर्वद्वार पर शीतल जल से भरा हुआ एक बहुत बड़ा कुण्ड है। उसके आस-पास बहुत-से फल और मूल सुलभ हैं तथा वह रमणीय ह्रद नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त है॥ ४० १/२ ॥
तस्यां वसति धर्मात्मा सुग्रीवः सह वानरैः॥४१॥
कदाचिच्छिखरे तस्य पर्वतस्यापि तिष्ठति।
‘धर्मात्मा सुग्रीव वानरों के साथ उसी गुफा में निवास करते हैं। वे कभी-कभी उस पर्वत के शिखर पर भी रहते हैं ॥ ४१ १/२॥
कबन्धस्त्वनुशास्यैवं तावुभौ रामलक्ष्मणौ॥४२॥
स्रग्वी भास्करवर्णाभः खे व्यरोचत वीर्यवान्।
इस प्रकार श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को सब बातें बताकर सूर्य के समान तेजस्वी और पराक्रमी कबन्ध दिव्य पुष्पों की माला धारण किये आकाश में प्रकाशित होने लगा॥ ४२ १/२॥
तं तु खस्थं महाभागं तावुभौ रामलक्ष्मणौ ॥ ४३॥
प्रस्थितौ त्वं व्रजस्वेति वाक्यमचतुरन्तिके।
उस समय वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण वहाँ से प्रस्थान करने के लिये उद्यत हो आकाश में खड़े हुए महाभाग कबन्ध से उसके निकट खड़े होकर बोले —’अब तुम परम धाम को जाओ’ ॥ ४३ १/२ ॥
गम्यतां कार्यसिद्ध्यर्थमिति तावब्रवीत् स च॥ ४४॥
सुप्रीतौ तावनुज्ञाप्य कबन्धः प्रस्थितस्तदा॥४५॥
कबन्धने भी उन दोनों भाइयों से कहा—’आपलोग भी अपने कार्य की सिद्धि के लिये यात्रा करें।’ ऐसा कहकर परम प्रसन्न हुए उन दोनों बन्धुओं से आज्ञा ले कबन्ध ने तत्काल प्रस्थान किया॥४४-४५॥
स तत् कबन्धः प्रतिपद्य रूपं वृतः श्रिया भास्वरसर्वदेहः।
निदर्शयन् राममवेक्ष्य खस्थः सख्यं कुरुष्वेति तदाभ्युवाच॥४६॥
कबन्ध अपने पहले रूप को पाकर अद्भुत शोभा से सम्पन्न हो गया। उसका सारा शरीर सूर्य-तुल्य प्रभा से प्रकाशित हो उठा। वह राम की ओर देखकर उन्हें पम्पासरोवर का मार्ग दिखाता हुआ आकाश में ही स्थित होकर बोला—’आप सुग्रीव के साथ मित्रता अवश्य करें’॥ ६२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिसप्ततितमः सर्गः॥७३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७३॥