वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 74 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 74
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
चतुःसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 74)
श्रीराम और लक्ष्मण का पम्पासरोवर के तट पर मतङ्गवन में शबरी के आश्रम पर जाना, शबरी का अपने शरीर की आहुति दे दिव्यधाम को प्रस्थान करना
तौ कबन्धेन तं मागं पम्पाया दर्शितं वने।
आतस्थतुर्दिशं गृह्य प्रतीची नृवरात्मजौ॥१॥
तदनन्तर राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण कबन्ध के बताये हुए पम्पासरोवर के मार्ग का आश्रय ले पश्चिम दिशा की ओर चल दिये॥१॥
तौ शैलेष्वाचितानेकान् क्षौद्रपुष्पफलद्रुमान्।
वीक्षन्तौ जग्मतुर्द्रष्टुं सुग्रीवं रामलक्ष्मणौ॥२॥
दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण पर्वतों पर फैले हुए बहुत-से वृक्षों को, जो फूल, फल और मधु से सम्पन्न थे, देखते हुए सुग्रीव से मिलने के लिये आगे बढ़े॥ २॥
कृत्वा तु शैलपृष्ठे तु तौ वासं रघुनन्दनौ।
पम्पायाः पश्चिमं तीरं राघवावुपतस्थतुः॥३॥
रात में एक पर्वत-शिखर पर निवास करके रघुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले वे दोनों रघुवंशी बन्धु पम्पासरोवर के पश्चिम तट पर जा पहुँचे॥३॥
तौ पुष्करिण्याः पम्पायास्तीरमासाद्य पश्चिमम्।
अपश्यतां ततस्तत्र शबर्या रम्यमाश्रमम्॥४॥
पम्पानामक पुष्करिणी के पश्चिम तट पर पहुँचकर उन दोनों भाइयों ने वहाँ शबरी का रमणीय आश्रम देखा॥
तौ तमाश्रममासाद्य द्रुमैर्बहुभिरावृतम्।
सुरम्यमभिवीक्षन्तौ शबरीमभ्युपेयतुः॥५॥
उसकी शोभा निहारते हुए वे दोनों भाई बहुसंख्यक वृक्षों से घिरे हुए उस सुरम्य आश्रम पर जाकर शबरी से मिले॥५॥
तौ दृष्ट्वा तु तदा सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः।
पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य च धीमतः॥६॥
शबरी सिद्ध तपस्विनी थी। उन दोनों भाइयों को आश्रम पर आया देख वह हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी तथा उसने बुद्धिमान् श्रीराम और लक्ष्मण के चरणों में प्रणाम किया॥६॥
पाद्यमाचमनीयं च सर्वं प्रादाद यथाविधि।
तामुवाच ततो रामः श्रमणी धर्मसंस्थिताम्॥७॥
फिर पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय आदि सब सामग्री समर्पित की और विधिवत् उनका सत्कार किया। तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी उस धर्मपरायणा तपस्विनी से बोले- ॥७॥
कच्चित्ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित्ते वर्धते तपः।
कच्चित्ते नियतः कोप आहारश्च तपोधने॥८॥
‘तपोधने ! क्या तुमने सारे विघ्नों पर विजय पा ली? क्या तुम्हारी तपस्या बढ़ रही है? क्या तुमने क्रोध और आहार को काबू में कर लिया है ? ॥ ८॥
कच्चित्ते नियमाः प्राप्ताः कच्चित्ते मनसः सुखम्।
कच्चित्ते गुरुशुश्रूषा सफला चारुभाषिणि॥९॥
‘तुमने जिन नियमों को स्वीकार किया है, वे निभ तो जाते हैं न? तुम्हारे मन में सुख और शान्ति है न? चारुभाषिणि! तुमने जो गुरुजनों की सेवा की है, वह पूर्णरूप से सफल हो गयी है न?’ ॥९॥
रामेण तापसी पृष्टा सा सिद्धा सिद्धसम्मता।
शशंस शबरी वृद्धा रामाय प्रत्यवस्थिता॥१०॥
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर वह सिद्ध तपस्विनी बूढ़ी शबरी, जो सिद्धों के द्वारा सम्मानित थी, उनके सामने खड़ी होकर बोली- ॥१०॥
अद्य प्राप्ता तपःसिद्धिस्तव संदर्शनान्मया।
अद्य मे सफलं जन्म गुरवश्च सुपूजिताः॥११॥
‘रघुनन्दन! आज आपका दर्शन मिलने से ही मुझे अपनी तपस्या में सिद्धि प्राप्त हुई है। आज मेरा जन्म सफल हुआ और गुरुजनों की उत्तम पूजा भी सार्थक हो गयी॥११॥
अद्य मे सफलं तप्तं स्वर्गश्चैव भविष्यति।
त्वयि देववरे राम पूजिते पुरुषर्षभ॥१२॥
‘पुरुषप्रवर श्रीराम! आप देवेश्वर का यहाँ सत्कार हुआ, इससे मेरी तपस्या सफल हो गयी और अब मुझे आपके दिव्य धाम की प्राप्ति भी होगी ही॥ १२॥
तवाहं चक्षुषा सौम्य पूता सौम्येन मानद।
गमिष्याम्यक्षयांल्लोकांस्त्वत्प्रसादादरिंदम॥१३॥
‘सौम्य! मानद! आपकी सौम्य दृष्टि पड़ने से मैं परम पवित्र हो गयी। शत्रुदमन! आपके प्रसाद से ही अब मैं अक्षय लोकों में जाऊँगी॥१३॥
चित्रकूटं त्वयि प्राप्ते विमानैरतुलप्रभैः।
इतस्ते दिवमारूढा यानहं पर्यचारिषम्॥१४॥
‘जब आप चित्रकूट पर्वत पर पधारे थे, उसी समय मेरे गुरुजन, जिनकी मैं सदा सेवा किया करती थी, अतुल कान्तिमान् विमान पर बैठकर यहाँ से दिव्य-लोक को चले गये॥ १४॥
तैश्चाहमुक्ता धर्मज्ञैर्महाभागैर्महर्षिभिः।
आगमिष्यति ते रामः सुपुण्यमिममाश्रमम्॥१५॥
स ते प्रतिग्रहीतव्यः सौमित्रिसहितोऽतिथिः।
तं च दृष्ट्वा वरांल्लोकानक्षयांस्त्वं गमिष्यसि ॥
‘उन धर्मज्ञ महाभाग महर्षियों ने जाते समय मुझसे कहा था कि तेरे इस परम पवित्र आश्रमपर श्रीरामचन्द्रजी पधारेंगे और लक्ष्मण के साथ तेरे अतिथि होंगे। तुम उनका यथावत् सत्कार करना। उनका दर्शन करके तू श्रेष्ठ एवं अक्षय लोकों में जायगी॥ १५-१६॥
एवमुक्ता महाभागैस्तदाहं पुरुषर्षभ।
मया तु संचितं वन्यं विविधं पुरुषर्षभ॥१७॥
तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसम्भवम्।
‘पुरुषप्रवर! उन महाभाग महात्माओं ने मुझसे उस समय ऐसी बात कही थी। अतः पुरुषसिंह! मैंने आपके लिये पम्पातटपर उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के जंगली फल-मूलों का संचय किया है’॥ १७ १/२॥
एवमुक्तः स धर्मात्मा शबर्या शबरीमिदम्॥१८॥
राघवः प्राह विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम्।
शबरी (जाति से वर्णबाह्य होने पर भी) विज्ञान में बहिष्कृत नहीं थी—उसे परमात्मा के तत्त्व का नित्य ज्ञान प्राप्त था। उसकी पूर्वोक्त बातें सुनकर धर्मात्मा श्रीराम ने उससे कहा- ॥ १८ १/२॥
दनोः सकाशात् तत्त्वेन प्रभावं ते महात्मनाम्॥ १९॥
श्रुतं प्रत्यक्षमिच्छामि संद्रष्टुं यदि मन्यसे।
‘तपोधने! मैंने कबन्ध के मुख से तुम्हारे महात्मा गुरुजनों का यथार्थ प्रभाव सुना है। यदि तुम स्वीकार करो तो मैं उनके उस प्रभाव को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ’॥ १९ १/२॥
एतत्तु वचनं श्रुत्वा रामवक्त्रविनिःसृतम्॥२०॥
शबरी दर्शयामास तावुभौ तदनं महत्।
श्रीराम के मुख से निकले हुए इस वचन को सुनकर शबरी ने उन दोनों भाइयों को उस महान् वन का दर्शन कराते हुए कहा- ॥ २० १/२॥
पश्य मेघघनप्रख्यं मृगपक्षिसमाकुलम्॥२१॥
मतङ्गवनमित्येव विश्रुतं रघुनन्दन।
‘रघुनन्दन ! मेघों की घटा के समान श्याम और नाना प्रकार के पशु-पक्षियों से भरे हुए इस वन की ओर दृष्टिपात कीजिये। यह मतंगवन के नाम से ही विख्यात है॥ २१ १/२ ॥
इह ते भावितात्मानो गुरवो मे महाद्युते।
जुहवांचक्रिरे नीडं मन्त्रवन्मन्त्रपूजितम्॥२२॥
‘महातेजस्वी श्रीराम ! यहीं वे मेरे भावितात्मा (शुद्ध अन्तःकरण वाले एवं परमात्मचिन्तनपरायण) गुरुजन निवास करते थे। इसी स्थान पर उन्होंने गायत्रीमन्त्र के जप से विशुद्ध हुए अपने देहरूपी पञ्जर को मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्नि में होम दिया था॥ २२ ॥
इयं प्रत्यक्स्थली वेदी यत्र ते मे सुसत्कृताः।
पुष्पोपहारं कुर्वन्ति श्रमादुद्धेपिभिः करैः॥२३॥
‘यह प्रत्यक्स्थली नामवाली वेदी है, जहाँ मेरे द्वारा भलीभाँति पूजित हुए वे महर्षि वृद्धावस्था के कारण श्रम से काँपते हुए हाथों द्वारा देवताओं को फूलों की बलि चढ़ाया करते थे॥२३॥
तेषां तपःप्रभावेण पश्याद्यापि रघूत्तम।
द्योतयन्ती दिशः सर्वाः श्रिया वेद्यतुलप्रभा॥ २४॥
‘रघुवंशशिरोमणे! देखिये, उनकी तपस्या के प्रभाव से आज भी यह वेदी अपने तेज के द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रही है। इस समय भी इसकी प्रभा अतुलनीय है॥ २४॥
अशक्नुवद्भिस्तैर्गन्तुमुपवासश्रमालसैः।
चिन्तितेनागतान् पश्य समेतान् सप्त सागरान्॥ २५॥
‘उपवास करने से दुर्बल होने के कारण जब वे चलने-फिरने में असमर्थ हो गये, तब उनके चिन्तनमात्र से वहाँ सात समुद्रों का जल प्रकट हो गया। वह सप्तसागर तीर्थ आज भी मौजूद है। उसमें सातों समुद्रों के जल मिले हुए हैं, उसे चलकर देखिये॥२५॥
कृताभिषेकैस्तैय॑स्ता वल्कलाः पादपेष्विह।
अद्यापि न विशुष्यन्ति प्रदेशे रघुनन्दन॥२६॥
‘रघुनन्दन! उसमें स्नान करके उन्होंने वृक्षों पर जो वल्कल वस्त्र फैला दिये थे, वे इस प्रदेश में अब तक सूखे नहीं हैं॥२६॥
देवकार्याणि कुर्वद्भिर्यानीमानि कृतानि वै।
पुष्पैः कुवलयैः सार्धं म्लानत्वं न तु यान्ति वै॥ २७॥
‘देवताओं की पूजा करते हुए मेरे गुरुजनों ने कमलों के साथ अन्य फूलों की जो मालाएँ बनायी थीं, वे आज भी मुरझायी नहीं हैं ॥ २७॥
कृत्स्नं वनमिदं दृष्टं श्रोतव्यं च श्रुतं त्वया।
तदिच्छाम्यभ्यनुज्ञाता त्यक्ष्याम्येतत् कलेवरम्॥ २८॥
‘भगवन् ! आपने सारा वन देख लिया और यहाँ के सम्बन्ध में जो बातें सुनने योग्य थीं, वे भी सुन लीं। अब मैं आपकी आज्ञा लेकर इस देह का परित्याग करना चाहती हूँ॥२८॥
तेषामिच्छाम्यहं गन्तुं समीपं भावितात्मनाम्।
मुनीनामाश्रमो येषामहं च परिचारिणी॥२९॥
‘जिनका यह आश्रम है और जिनके चरणों की मैं दासी रही हूँ, उन्हीं पवित्रात्मा महर्षियों के समीप अब मैं जाना चाहती हूँ’॥ २९॥
धर्मिष्ठं तु वचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
प्रहर्षमतुलं लेभे आश्चर्यमिति चाब्रवीत्॥३०॥
शबरी के धर्मयुक्त वचन सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीराम को अनुपम प्रसन्नता प्राप्त हुई। उनके मुँह से निकल पड़ा, ‘आश्चर्य है !’ ॥ ३० ॥
तामुवाच ततो रामः शबरी संशितव्रताम्।
अर्चितोऽहं त्वया भद्रे गच्छ कामं यथासुखम्॥ ३१॥
तदनन्तर श्रीराम ने कठोर व्रत का पालन करने वाली शबरी से कहा—’भद्रे! तुमने मेरा बड़ा सत्कार किया। अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार आनन्दपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करो’ ॥ ३१॥
इत्येवमुक्ता जटिला चीरकृष्णाजिनाम्बरा।
अनुज्ञाता तु रामेण हुत्वाऽऽत्मानं हुताशने ॥ ३२॥
ज्वलत्पावकसंकाशा स्वर्गमेव जगाम ह।
दिव्याभरणसंयुक्ता दिव्यमाल्यानुलेपना॥३३॥
दिव्याम्बरधरा तत्र बभूव प्रियदर्शना।
विराजयन्ती तं देशं विद्युत्सौदामनी यथा॥३४॥
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार आज्ञा देने पर मस्तक पर जटा और शरीर पर चीर एवं काला मृगचर्म धारण करने वाली शबरी ने अपने को आग में होमकर प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी शरीर प्राप्त किया। वह दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण, दिव्य फूलों की माला और दिव्य अनुलेपन धारण किये बड़ी मनोहर दिखायी देने लगी तथा सुदाम पर्वत पर प्रकट होने वाली बिजली के समान उस प्रदेश को प्रकाशित करती हुई स्वर्ग (साकेत) लोक को ही चली गयी। ३२-३४॥
यत्र ते सुकृतात्मानो विहरन्ति महर्षयः।
तत् पुण्यं शबरी स्थानं जगामात्मसमाधिना॥ ३५॥
उसने अपने चित्त को एकाग्र करके उस पुण्यधाम की यात्रा की, जहाँ उसके वे गुरुजन पुण्यात्मा महर्षि विहार करते थे॥ ३५ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे चतुःसप्ततितमः सर्गः॥ ७४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ। ७४॥