वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 75 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 75
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
पञ्चसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 75)
श्रीराम और लक्ष्मण की बातचीत तथा उन दोनों भाइयों का पम्पासरोवर के तट पर जाना
दिवं तु तस्यां यातायां शबर्यां स्वेन तेजसा।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा चिन्तयामास राघवः॥१॥
चिन्तयित्वा तु धर्मात्मा प्रभावं तं महात्मनाम्।
हितकारिणमेकाग्रं लक्ष्मणं राघवोऽब्रवीत्॥२॥
अपने तेज से प्रकाशित होने वाली शबरी के दिव्यलोक में चले जाने पर भाई लक्ष्मणसहित धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी ने उन महात्मा महर्षियों के प्रभाव का चिन्तन किया। चिन्तन करके अपने हित में संलग्न रहने वाले एकाग्रचित्त लक्ष्मण से श्रीराम ने इस प्रकार कहा— ॥१-२॥
दृष्टो मयाऽऽश्रमः सौम्य बह्वाश्चर्यः कृतात्मनाम्।
विश्वस्तमृगशार्दूलो नानाविहगसेवितः॥३॥
‘सौम्य! मैंने उन पुण्यात्मा महर्षियों का यह पवित्र आश्रम देखा। यहाँ बहुत-सी आश्चर्यजनक बातें हैं। हरिण और बाघ एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं। नाना प्रकार के पक्षी इस आश्रम का सेवन करते हैं। ३॥
सप्तानां च समुद्राणां तेषां तीर्थेषु लक्ष्मण।
उपस्पृष्टं च विधिवत् पितरश्चापि तर्पिताः॥४॥
प्रणष्टमशुभं यन्नः कल्याणं समुपस्थितम्।
तेन त्वेतत् प्रहृष्टं मे मनो लक्ष्मण सम्प्रति॥५॥
‘लक्ष्मण! यहाँ जो सातों समुद्रों के जल से भरे हुए तीर्थ हैं, उनमें हमने विधिपूर्वक स्नान तथा पितरों का तर्पण किये हैं। इससे हमारा सारा अशुभ नष्ट हो गया और अब हमारे कल्याण का समय उपस्थित हुआ है। सुमित्राकुमार! इससे इस समय मेरे मन में अधिक प्रसन्नता हो रही है। ४-५॥
हृदये मे नरव्याघ्र शुभमाविर्भविष्यति।
तदागच्छ गमिष्यावः पम्पां तां प्रियदर्शनाम्॥६॥
‘नरश्रेष्ठ! अब मेरे हृदय में कोई शुभ संकल्प उठने वाला है इसलिये आओ, अब हम दोनों परम सुन्दर पम्पासरोवर के तट पर चलें॥६॥
ऋष्यमूको गिरिर्यत्र नातिदूरे प्रकाशते।
यस्मिन् वसति धर्मात्मा सुग्रीवोंऽशुमतः सुतः॥ ७॥
‘वहाँ से थोड़ी ही दूर पर वह ऋष्यमूक पर्वत शोभा पाता है, जिस पर सूर्यपुत्र धर्मात्मा सुग्रीव निवास करते हैं॥७॥
नित्यं वालिभयात् त्रस्तश्चतुर्भिः सह वानरैः।
अहं त्वरे च तं द्रष्टुं सुग्रीवं वानरर्षभम्॥८॥
तदधीनं हि मे कार्यं सीतायाः परिमार्गणम्।
‘वाली के भय से सदा डरे रहने के कारण वे चार वानरों के साथ उस पर्वत पर रहते हैं। मैं वानरश्रेष्ठ सुग्रीव से मिलने के लिये उतावला हो रहा हूँ; क्योंकि सीता के अन्वेषण का कार्य उन्हीं के अधीन है’॥ ८ १/२॥
इति ब्रुवाणं तं वीरं सौमित्रिरिदमब्रवीत्॥९॥
गच्छावस्त्वरितं तत्र ममापि त्वरते मनः।
इस प्रकार की बात कहते हुए वीर श्रीराम से सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने यों कहा—’भैया! हम दोनों को शीघ्र ही वहाँ चलना चाहिये। मेरा मन भी चलने के लिये उतावला हो रहा है’ ॥९ १/२॥
आश्रमात्तु ततस्तस्मान्निष्क्रम्य स विशाम्पतिः॥ १०॥
आजगाम ततः पम्पां लक्ष्मणेन सह प्रभुः।
समीक्षमाणः पुष्पाढ्यं सर्वतो विपुलद्रुमम्॥११॥
तदनन्तर प्रजापालक भगवान् श्रीराम लक्ष्मण के साथ उस आश्रम से निकलकर सब ओर फूलों से लदे हुए नाना प्रकार के वृक्षों की शोभा निहारते हुए पम्पासरोवर के तट पर आये॥ १०-११॥
कोयष्टिभिश्चार्जुनकैः शतपत्रैश्च कीरकैः।
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्नादितं तद् वनं महत्॥ १२॥
वह विशाल वन टिट्टिभों, मोरों, कठफोड़वों, तोतों तथा अन्य बहुत-से पक्षियों के कलरवों से गूंज रहा था॥ १२॥
स रामो विविधान् वृक्षान् सरांसि विविधानि च।
पश्यन् कामाभिसंतप्तो जगाम परमं ह्रदम्॥ १३॥
श्रीराम के मन में सीताजी से मिलने की तीव्र लालसा जाग उठी थी, इससे संतप्त हो वे नाना प्रकार के वृक्षों और भाँति-भाँति के सरोवरों की शोभा देखते हुए उस उत्तम जलाशय के पास गये॥ १३॥
स तामासाद्य वै रामो दूरात् पानीयवाहिनीम्।
मतङ्गसरसं नाम ह्रदं समवगाहत॥१४॥
पम्पा नाम से प्रसिद्ध वह सरोवर पीने योग्य स्वच्छ जल बहाने वाला था। श्रीराम दूर देश से चलकर उसके तट पर आये। आकर उन्होंने मतंगसरस नामक कुण्ड में स्नान किया॥१४॥
तत्र जग्मतुरव्यग्रौ राघवौ हि समाहितौ।
स तु शोकसमाविष्टो रामो दशरथात्मजः॥१५॥
विवेश नलिनी रम्यां पंकजैश्च समावृताम्।
वे दोनों रघुवंशी वीर वहाँ शान्त और एकाग्रचित्त होकर पहुँचे थे। सीता के शोक से व्याकुल हुए दशरथनन्दन श्रीराम ने उस रमणीय पुष्करिणी पम्पा में प्रवेश किया, जो कमलों से व्याप्त थी॥ १५ १/२॥
तिलकाशोक’नागबकुलोद्दालकाशिनीम्॥१६॥
रम्योपवनसम्बाधां पद्मसम्पीडितोदकाम्।
स्फटिकोपमतोयां तां श्लक्ष्णवालुकसंतताम्॥ १७॥
मत्स्यकच्छपसम्बाधां तीरस्थद्रुमशोभिताम्।
सखीभिरिव संयुक्तां लताभिरनुवेष्टिताम्॥१८॥
किंनरोरगगन्धर्वयक्षराक्षससेविताम्।
नानाद्रुमलताकीर्णां शीतवारिनिधिं शुभाम्॥ १९॥
उसके तट पर तिलक, अशोक, नागकेसर, वकुल तथा लिसोड़े के वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। भाँतिभाँति के रमणीय उपवनों से वह घिरी हुई थी। उसका जल कमलपुष्पों से आच्छादित था और स्फटिक मणि के समान स्वच्छ दिखायी देता था। जल के नीचे स्वच्छ वालु का फैली हुई थी। मत्स्य और कच्छप उसमें भरे हुए थे। तटवर्ती वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते थे। सब ओर लताओं द्वारा आवेष्टित होने के कारण वह सखियों से संयुक्त-सी प्रतीत होती थी। किन्नर, नाग, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस उसका सेवन करते थे। भाँति-भाँति के वृक्ष और लताओं से व्याप्त हुई पम्पा शीतल जल की सुन्दर निधि प्रतीत होती थी॥ १६–१९॥
पद्मसौगन्धिकैस्तानां शुक्लां कुमुदमण्डलैः।
नीलां कुवलयोद्घाटैर्बहुवर्णां कुथामिव॥२०॥
अरुण कमलों से वह ताम्रवर्ण की, कुमुद-कुसुमों के समूह से शुक्लवर्ण की तथा नील कमलों के समुदाय से नीलवर्ण की दिखायी देने के कारण बहुरंगे कालीन के समान शोभा पाती थी॥ २०॥
अरविन्दोत्पलवतीं पद्मसौगन्धिकायुताम्।
पुष्पिताम्रवणोपेतां बर्हिणो ष्टनादिताम्॥ २१॥
उस पुष्करिणी में अरविन्द और उत्पल खिले थे। पद्म और सौगन्धिक जाति के पुष्प शोभा पाते थे। मौर लगी हुई अमराइयों से वह घिरी हुई थी तथा मयूरों के केकानाद वहाँ गूंज रहे थे॥२१॥
स तां दृष्ट्वा ततः पम्पां रामः सौमित्रिणा सह।
विललाप च तेजस्वी रामो दशरथात्मजः॥२२॥
सुमित्राकुमार लक्ष्मणसहित श्रीराम ने जब उस मनोहर पम्पा को देखा, तब उनके हृदय में सीता की वियोग-व्यथा उद्दीप्त हो उठी; अतः वे तेजस्वी दशरथनन्दन श्रीराम वहाँ विलाप करने लगे॥ २२॥
तिलकैर्बीजपूरैश्च वटैः शुक्लद्रुमैस्तथा।
पुष्पितैः करवीरैश्च पुंनागैश्च सुपुष्पितैः॥२३॥
मालतीकुन्दगुल्मैश्च भण्डीरैर्निचुलैस्तथा।
अशोकैः सप्तपर्णैश्च कतकैरतिमुक्तकैः॥२४॥
अन्यैश्च विविधैर्वृक्षैः प्रमदामिव शोभिताम्।
अस्यास्तीरे तु पूर्वोक्तः पर्वतो धातुमण्डितः॥ २५॥
ऋष्यमूक इति ख्यातश्चित्रपुष्पितपादपः।
तिलक, बिजौरा, वट, लोध, खिले हुए करवीर, पुष्पित नागकेसर, मालती, कुन्द, झाड़ी, भंडीर (बरगद), वञ्जुल, अशोक, छितवन, कतक, माधवी लता तथा अन्य नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित हुई पम्पा भाँति-भाँति की वस्त्रभूषाओं से सजी हुई युवती के समान जान पड़ती थी। उसी के तट पर विविध धातुओं से मण्डित पूर्वोक्त ऋष्यमूक नाम से विख्यात पर्वत सुशोभित था। उसके ऊपर फूलों से भरे हुए विचित्र वृक्ष शोभा दे रहे थे॥ २३– २५ १/२॥
हरिर्चाक्षरजोनाम्नः पुत्रस्तस्य महात्मनः॥२६॥
अध्यास्ते तु महावीर्यः सुग्रीव इति विश्रुतः।
ऋक्षरजा नामक महात्मा वानर के पुत्र कपिश्रेष्ठ महापराक्रमी सुग्रीव वहीं निवास करते थे॥ २६ १/२॥
सुग्रीवमभिगच्छ त्वं वानरेन्द्रं नरर्षभ॥२७॥
इत्युवाच पुनर्वाक्यं लक्ष्मणं सत्यविक्रमः।
कथं मया विना सीतां शक्यं लक्ष्मण जीवितुम्॥ २८॥
उस समय सत्यपराक्रमी श्रीराम ने पुनः लक्ष्मण से कहा—’नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! तुम वानरराज सुग्रीव के पास चलो, मैं सीता के बिना कैसे जीवित रह सकता हूँ। २७-२८॥
इत्येवमुक्त्वा मदनाभिपीडितः स लक्ष्मणं वाक्यमनन्यचेतनः।
विवेश पम्पां नलिनीमनोरमां तमुत्तमं शोकमुदीरयाणः॥ २९॥
ऐसा कहकर सीता के दर्शन की कामना से पीड़ित तथा उनके प्रति अनन्य अनुराग रखने वाले श्रीराम उस महान् शोक को प्रकट करते हुए उस मनोरम पुष्करिणी पम्पा में उतरे॥ २९॥
क्रमेण गत्वा प्रविलोकयन् वनं ददर्श पम्पां शुभदर्शकाननाम्।
अनेकनानाविधपक्षिसंकुलां विवेश रामः सह लक्ष्मणेन॥३०॥
वन की शोभा देखते हुए क्रमशः वहाँ जाकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने पम्पा को देखा। उसके समीपवर्ती कानन बड़े सुन्दर और दर्शनीय थे। अनेक प्रकार के झुंड-के-झुंड पक्षी वहाँ सब ओर भरे हुए थे। भाईसहित श्रीरघुनाथजी ने पम्पा के जल में प्रवेश किया॥३०॥
इत्याचे श्रीमद्रामायाणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे पञ्चसप्ततितमः सर्गः॥ ७५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पचहत्तरवाँ सर्ग पूराहुआ। ७५॥
॥अरण्यकाण्डं सम्पूर्णम्॥