वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 9 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 9
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
नवमः सर्गः (सर्ग 9)
सीता का श्रीराम से निरपराध प्राणियों को न मारने और अहिंसा-धर्म का पालन करने के लिये अनुरोध
सुतीक्ष्णेनाभ्यनुज्ञातं प्रस्थितं रघुनन्दनम्।
हृद्यया स्निग्धया वाचा भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥
सुतीक्ष्ण की आज्ञा लेकर वन की ओर प्रस्थित हुए अपने स्वामी रघुकुलनन्दन श्रीराम से सीता ने स्नेहभरी मनोहर वाणी में इस प्रकार कहा- ॥१॥
अधर्मं तु सुसूक्ष्मेण विधिना प्राप्यते महान्।
निवृत्तेन च शक्योऽयं व्यसनात् कामजादिह॥ २॥
‘आर्यपुत्र! यद्यपि आप महान् पुरुष हैं तथापि अत्यन्त सूक्ष्म विधि से विचार करने पर आप अधर्म को प्राप्त हो रहे हैं। जब कामजनित व्यसन से आप सर्वथा निवृत्त हैं, तब यहाँ इस अधर्म से भी बच सकते हैं॥२॥
त्रीण्येव व्यसनान्यत्र कामजानि भवन्त्युत।
मिथ्यावाक्यं तु परमं तस्माद् गुरुतरावुभौ ॥३॥
परदाराभिगमनं विना वैरं च रौद्रता।
मिथ्यावाक्यं न ते भूतं न भविष्यति राघव॥४॥
‘इस जगत् में काम से उत्पन्न होने वाले तीन ही व्यसन होते हैं। मिथ्याभाषण बहुत बड़ा व्यसन है, किंतु उससे भी भारी दो व्यसन और हैं-परस्त्रीगमन और बिना वैर के ही दूसरों के प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव। रघुनन्दन! इनमें से मिथ्याभाषणरूप व्यसन तो न आप में कभी हुआ है और न आगे होगा ही। ३-४॥
कुतोऽभिलषणं स्त्रीणां परेषां धर्मनाशनम्।
तव नास्ति मनुष्येन्द्र न चाभूत् ते कदाचन ॥५॥
मनस्यपि तथा राम न चैतद् विद्यते क्वचित्।
स्वदारनिरतश्चैव नित्यमेव नृपात्मज॥६॥
धर्मिष्ठः सत्यसंधश्च पितुर्निर्देशकारकः।
त्वयि धर्मश्च सत्यं च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्॥७॥
‘परस्त्रीविषयक अभिलाषा तो आपको हो ही कैसे सकती है? नरेन्द्र! धर्म का नाश करने वाली यह कुत्सित इच्छा न आपके मन में कभी हुई थी, न है और न भविष्य में कभी होने की सम्भावना ही है। राजकुमार श्रीराम! यह दोष तो आपके मन में भी कभी उदित नहीं हुआ है। (फिर वाणी और क्रिया में कैसे आ सकता है?) आप सदा ही अपनी धर्मपत्नी में अनुरक्त रहने वाले, धर्मनिष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ तथा पिताकी आज्ञा का पालन करने वाले हैं। आपमें धर्म और सत्य दोनों की स्थिति है। आपमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है॥५-७॥
तच्च सर्वं महाबाहो शक्यं वोढुं जितेन्द्रियैः।
तव वश्येन्द्रियत्वं च जानामि शुभदर्शन॥८॥
‘महाबाहो! जो लोग जितेन्द्रिय हैं, वे सदा सत्य और धर्म को पूर्णरूप से धारण कर सकते हैं। शुभदर्शी महापुरुष! आपकी जितेन्द्रियता को मैं अच्छी तरह जानती हूँ (इसीलिये मुझे विश्वास है कि आप में पूर्वोक्त दोनों दोष कदापि नहीं रह सकते) ॥ ८॥
तृतीयं यदिदं रौद्रं परप्राणाभिहिंसनम्।
निर्वैरं क्रियते मोहात् तच्च ते समुपस्थितम्॥९॥
‘परंतु दूसरों के प्राणों की हिंसारूप जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं। वही दोष आपके सामने भी उपस्थित है॥९॥
प्रतिज्ञातस्त्वया वीर दण्डकारण्यवासिनाम्।
ऋषीणां रक्षणार्थाय वधः संयति रक्षसाम्॥ १०॥
‘वीर! आपने दण्डकारण्यनिवासी ऋषियों की रक्षा के लिये युद्ध में राक्षसों का वध करने की प्रतिज्ञा की है।
एतन्निमित्तं च वनं दण्डका इति विश्रुतम्।
प्रस्थितस्त्वं सह भ्रात्रा धृतबाणशरासनः॥११॥
‘इसी के लिये आप भाई के साथ धनुष-बाण लेकर दण्डकारण्य के नाम से विख्यात वन की ओर प्रस्थित हुए हैं। ११॥
ततस्त्वां प्रस्थितं दृष्ट्वा मम चिन्ताकुलं मनः।
त्वद्धृत्तं चिन्तयन्त्या वै भवेन्निःश्रेयसं हितम्॥ १२॥
‘अतः आपको इस घोर कर्म के लिये प्रस्थित हुआ देख मेरा चित्त चिन्ता से व्याकुल हो उठा है। आपके प्रतिज्ञा-पालनरूप व्रतका विचार करके मैं सदा यही सोचती रहती हूँ कि कैसे आपका कल्याण हो? ॥ १२॥
नहि मे रोचते वीर गमनं दण्डकान् प्रति।
कारणं तत्र वक्ष्यामि वदन्त्याः श्रूयतां मम॥ १३॥
‘वीर! मुझे इस समय आपका दण्डकारण्य में जाना अच्छा नहीं लगता है। इसका क्या कारण है—यह बता रही हूँ; आप मेरे मुँह से सुनिये॥१३॥
त्वं हि बाणधनुष्पाणिर्धात्रा सह वनं गतः।
दृष्ट्वा वनचरान् सर्वान् कच्चित् कुर्याः शरव्ययम्॥१४॥
‘आप हाथ में धनुष-बाण लेकर अपने भाइ के साथ वन में आये हैं। सम्भव है, समस्त वनचारी राक्षसों को देखकर कदाचित् आप उनके प्रति अपने बाणों का प्रयोग कर बैठें॥ १४॥
क्षत्रियाणामिह धनुर्हताशस्येन्धनानि च।
समीपतः स्थितं तेजोबलमुच्छ्रयते भृशम्॥१५॥
‘जैसे आग के समीप रखे हुए ईंधन उसके तेजरूप बल को अत्यन्त उद्दीप्त कर देते हैं, उसी प्रकार जहाँ क्षत्रियों के पास धनुष हो तो वह उनके बल और प्रताप को उद्बोधित कर देता है।॥ १५॥
पुरा किल महाबाहो तपस्वी सत्यवान् शुचिः।
कस्मिंश्चिदभवत् पुण्ये वने रतमृगद्विजे॥१६॥
‘महाबाहो! पूर्वकाल की बात है, किसी पवित्र वन में, जहाँ मृग और पक्षी बड़े आनन्द से रहते थे, एक सत्यवादी एवं पवित्र तपस्वी निवास करते थे। १६॥
तस्यैव तपसो विजं कर्तुमिन्द्रः शचीपतिः।
खड्गपाणिरथागच्छदाश्रमं भटरूपधृक्॥१७॥
‘उन्हीं की तपस्या में विघ्न डालने के लिये शचीपति इन्द्र किसी योद्धा का रूप धारण करके हाथ में तलवार लिये एक दिन उनके आश्रम पर आये॥१७॥
तस्मिंस्तदाश्रमपदे निहितः खड्ग उत्तमः।
स न्यासविधिना दत्तः पुण्ये तपसि तिष्ठतः॥ १८॥
‘उन्होंने मुनि के आश्रम में अपना उत्तम खड्ग रख दिया। पवित्र तपस्या में लगे हुए मुनि को धरोहर के रूप में वह खड्ग दे दिया॥ १८॥
स तच्छस्त्रमनुप्राप्य न्यासरक्षणतत्परः।
वने तु विचरत्येव रक्षन् प्रत्ययमात्मनः॥१९॥
‘उस शस्त्र को पाकर मुनि उस धरोहर की रक्षा में लग गये। वे अपने विश्वास की रक्षा के लिये वन में विचरते समय भी उसे साथ रखते थे॥ १९ ॥
यत्र गच्छत्युपादातुं मूलानि च फलानि च।
न विना याति तं खड्गं न्यासरक्षणतत्परः॥ २०॥
‘धरोहर की रक्षा में तत्पर रहने वाले वे मुनि फलमूल लाने के लिये जहाँ-कहीं भी जाते, उस खड्ग को साथ लिये बिना नहीं जाते थे॥ २०॥
नित्यं शस्त्रं परिवहन् क्रमेण स तपोधनः।
चकार रौद्रीं स्वां बुद्धिं त्यक्त्वा तपसि निश्चयम्॥२१॥
‘तप ही जिनका धन था, उन मुनि ने प्रतिदिन शस्त्र ढोते रहने के कारण क्रमशः तपस्या का निश्चय छोड़कर अपनी बुद्धि को क्रूरतापूर्ण बना लिया॥ २१॥
ततः स रौद्राभिरतः प्रमत्तोऽधर्मकर्षितः।
तस्य शस्त्रस्य संवासाज्जगाम नरकं मुनिः॥ २२॥
‘फिर तो अधर्म ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। वे मुनि प्रमादवश रौद्र-कर्म में तत्पर हो गये और उस शस्त्र के सहवास से उन्हें नरक में जाना पड़ा॥ २२ ॥
एवमेतत् पुरावृत्तं शस्त्रसंयोगकारणम्।
अग्निसंयोगवद्धेतुः शस्त्रसंयोग उच्यते॥२३॥
‘इस प्रकार शस्त्र का संयोग होने के कारण पूर्वकाल में उन तपस्वी मुनि को ऐसी दुर्दशा भोगनी पड़ी जैसे आग का संयोग ईंधनों को जलाने का कारण होता है, उसी प्रकार शस्त्रों का संयोग शस्त्रधारी के – हृदय में विकार का उत्पादक कहा गया है।॥ २३॥
स्नेहाच्च बहुमानाच्च स्मारये त्वां तु शिक्षये।
न कथंचन सा कार्या गृहीतधनुषा त्वया॥२४॥
बुद्धिर्वैरं विना हन्तुं राक्षसान् दण्डकाश्रितान्।
अपराधं विना हन्तुं लोको वीर न मंस्यते॥२५॥
‘मेरे मन में आपके प्रति जो स्नेह और विशेष आदर है, उसके कारण मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूँ तथा यह शिक्षा भी देती हूँ कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना वैर के ही दण्डकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिये। वीरवर ! बिना अपराध के ही किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे॥
क्षत्रियाणां तु वीराणां वनेषु नियतात्मनाम्।
धनुषा कार्यमेतावदार्तानामभिरक्षणम्॥२६॥
‘अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले क्षत्रिय वीरों के लिये वन में धनुष धारण करने का इतना ही प्रयोजन है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें॥ २६॥
क्व च शस्त्रं क्व च वनं क्व च क्षात्रं तपः क्व च।
व्याविद्धमिदमस्माभिर्देशधर्मस्तु पूज्यताम्॥२७॥
‘कहाँ शस्त्र-धारण और कहाँ वनवास! कहाँ क्षत्रिय का हिंसामय कठोर कर्म और कहाँ सब प्राणियों पर दया करना रूप तप—ये परस्पर विरुद्ध जान पड़ते हैं। अतः हमलोगों को देशधर्म का ही आदर करना चाहिये (इस समय हम तपोवन रूप देश में निवास करते हैं, अतः यहाँ के अहिंसामय धर्म का पालन करना ही हमारा कर्तव्य है) ॥२७॥
कदर्यकलुषा बुद्धिर्जायते शस्त्रसेवनात्।
पुनर्गत्वा त्वयोध्यायां क्षत्रधर्मं चरिष्यसि ॥२८॥
‘केवल शस्त्रका सेवन करने से मनुष्य की बुद्धि कृपण पुरुषों के समान कलुषित हो जाती है; अतः आप अयोध्या में चलने पर ही पुनः क्षात्रधर्म का अनुष्ठान कीजियेगा॥ २८॥
अक्षया तु भवेत् प्रीतिः श्वश्रूश्वशुरयोर्मम।
यदि राज्यं हि संन्यस्य भवेस्त्वं निरतो मुनिः॥ २९॥
‘राज्य त्यागकर वन में आ जाने पर यदि आप मुनिवृत्ति से ही रहें तो इससे मेरी सास और श्वशुर को अक्षय प्रसन्नता होगी॥ २९॥
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत्॥३०॥
‘धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख का उदय होता है और धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पा लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है॥३०॥
आत्मानं नियमैस्तैस्तैः कर्षयित्वा प्रयत्नतः।
प्राप्तये निपुणैर्धर्मो न सुखाल्लभते सुखम्॥ ३१॥
‘चतुर मनुष्य भिन्न-भिन्न वानप्रस्थोचित नियमों के द्वारा अपने शरीर को क्षीण करके यत्नपूर्वक धर्म का सम्पादन करते हैं; क्योंकि सुखदायक साधन से सुख के हेतुभूत धर्म की प्राप्ति नहीं होती है।॥ ३१॥
नित्यं शुचिमतिः सौम्य चर धर्मं तपोवने।
सर्वं तु विदितं तुभ्यं त्रैलोक्यामपि तत्त्वतः॥ ३२॥
‘सौम्य ! प्रतिदिन शुद्धचित्त होकर तपोवन में धर्म का अनुष्ठान कीजिये। त्रिलोकी में जो कुछ भी है, आपको तो वह सब कुछ यथार्थ रूप से विदित ही है॥ ३२॥
स्त्रीचापलादेतदुपाहृतं मे धर्मं च वक्तुं तव कः समर्थः।
विचार्य बुद्ध्या तु सहानुजेन यद् रोचते तत् कुरु माचिरेण ॥३३॥
‘मैंने नारीजाति की स्वाभाविक चपलता के कारण ही आपकी सेवा में ये बातें निवेदन कर दी हैं। वास्तव में आपको धर्म का उपदेश करने में कौन समर्थ है? आप इस विषय में अपने छोटे भाई के साथ बुद्धिपूर्वक विचार कर लें फिर आपको जो ठीक ऊंचे, उसे ही शीघ्रतापूर्वक करें’॥ ३३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे नवमः सर्गः॥९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ॥९॥
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