वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड प्रक्षिप्त सर्ग हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter Prachipt
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
प्रक्षिप्तः सर्गः
* * यह सर्ग प्रसंग के अनुकूल और उत्तम है। कुछ प्रतियों में यह सानुवाद प्रकाशित भी है, परंतु इसपर तिलक आदि संस्कृत टीकाएँ नहीं उपलब्ध होती हैं; इसलिये कुछ लोगों ने इसे प्रक्षिप्त माना है। उपयोगी होने के कारण इसे भी यहाँ सानुवाद प्रकाशित किया जाता है।
ब्रह्माजी की आज्ञा से देवराज इन्द्र का निद्रासहित लङ्का में जाकर सीता को दिव्य खीर अर्पित करना और उनसे विदा लेकर लौटना
प्रवेशितायां सीतायां लङ्कां प्रति पितामहः।
तदा प्रोवाच देवेन्द्र परितुष्टं शतक्रतुम्॥१॥
जब सीता का लङ्का में प्रवेश हो गया, तब पितामह ब्रह्माजी ने संतुष्ट हुए देवराज इन्द्र से इस प्रकार कहा – ॥१॥
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय रक्षसामहिताय च।
लङ्कां प्रवेशिता सीता रावणेन दुरात्मना॥२॥
‘देवराज! तीनों लोकों के हित और राक्षसों के विनाश के लिये दुरात्मा रावण ने सीता को लङ्का में पहुँचा दिया॥२॥
पतिव्रता महाभागा नित्यं चैव सुखैधिता।
अपश्यन्ती च भर्तारं पश्यन्ती राक्षसीजनम्॥३॥
राक्षसीभिः परिवृता भर्तृदर्शनलालसा।
‘पतिव्रता महाभागा जानकी सदा सुख में ही पली हैं। इस समय वे अपने पति के दर्शन से वंचित हो गयी हैं और राक्षसियों से घिरी रहने के कारण सदा उन्हीं को अपने सामने देखती हैं। उनके हृदय में अपने पति के दर्शन की तीव्र लालसा बनी हुई है॥ ३ १/२॥
निविष्टा हि पुरी लङ्का तीरे नदनदीपतेः॥४॥
कथं ज्ञास्यति तां रामस्तत्रस्थां तामनिन्दिताम्।
‘लङ्कापुरी समुद्र के तट पर बसी हुई है। वहाँ रहती हुई सती-साध्वी सीता का पता श्रीरामचन्द्रजी को कैसे लगेगा॥ ४ १/२॥
दुःखं संचिन्तयन्ती सा बहुशः परिदुर्लभा॥५॥
प्राणयात्रामकुर्वाणा प्राणांस्त्यक्ष्यत्यसंशयम्।
स भूयः संशयो जातः सीतायाः प्राणसंक्षये॥ ६॥
‘सीता दुःख के साथ नाना प्रकार की चिन्ताओं में डूबी रहती हैं। पति के लिये इस समय वे अत्यन्त दुर्लभ हो गयी हैं। प्राणयात्रा (भोजन) नहीं करती हैं; अतः ऐसी दशा में निःसंदेह वे अपने प्राणों का परित्याग कर देंगी। सीता के प्राणों का क्षय हो जाने पर हमारे उद्देश्य की सिद्धि में पुनः पूर्ववत् संदेह उपस्थित हो जायगा॥५-६॥
स त्वं शीघ्रमितो गत्वा सीतां पश्य शुभाननाम्।
प्रविश्य नगरी लङ्कां प्रयच्छ हविरुत्तमम्॥७॥
‘अतः तुम शीघ्र ही यहाँसे जाकर लङ्कापुरी में प्रवेश करके सुमुखी सीता से मिलो और उन्हें उत्तम हविष्य प्रदान करो’ ॥ ७॥
एवमुक्तोऽथ देवेन्द्रः पुरीं रावणपालिताम्।
आगच्छन्निद्रया सार्धं भगवान् पाकशासनः॥८॥
ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर पाकशासन भगवान् इन्द्र निद्रा को साथ लेकर रावण द्वारा पालित लङ्कापुरी में आये॥८॥
निद्रां चोवाच गच्छ त्वं राक्षसान् सम्प्रमोहय।
सा तथोक्ता मघवता देवी परमहर्षिता॥९॥
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं प्रामोहयत राक्षसान्।
वहाँ आकर इन्द्र ने निद्रा से कहा—’तुम राक्षसों को मोहित करो।’ इन्द्र से ऐसी आज्ञा पाकर देवी निद्रा बहुत प्रसन्न हुईं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये उन्होंने राक्षसों को मोह (निद्रा) में डाल दिया। ९ १/२॥
एतस्मिन्नन्तरे देवः सहस्राक्षः शचीपतिः॥१०॥
आससाद वनस्थां तां वचनं चेदमब्रवीत्।
इसी बीच में सहस्र नेत्रधारी शचीपति देवराज इन्द्र अशोकवाटिका में बैठी हुई सीता के पास गये और इस प्रकार बोले- ॥ १० १/२॥
देवराजोऽस्मि भद्रं ते इह चास्मि शुचिस्मिते॥ ११॥
अहं त्वां कार्यसिद्ध्यर्थं राघवस्य महात्मनः।
साहाय्यं कल्पयिष्यामि मा शुचो जनकात्मजे॥ १२॥
‘पवित्र मुसकानवाली देवि! आपका भला हो। मैं देवराज इन्द्र यहाँ आपके पास आया हूँ। जनककिशोरी! मैं आपके उद्धारकार्य की सिद्धि के लिये महात्मा श्रीरघुनाथजी की सहायता करूँगा, अतः आप शोक न करें।। ११-१२॥
मत्प्रसादात् समुद्रं स तरिष्यति बलैः सह।
मयैवेह च राक्षस्यो मायया मोहिताः शुभे॥१३॥
‘वे मेरे प्रसाद से बड़ी भारी सेना के साथ समुद्र को पार करेंगे। शुभे! मैंने ही यहाँ इन राक्षसियों को अपनी माया से मोहित किया है॥ १३॥
तस्मादन्नमिदं सीते हविष्यान्नमहं स्वयम्।
स त्वां संगृह्य वैदेहि आगतः सह निद्रया॥१४॥
‘विदेहनन्दिनी सीते! इसलिये मैं स्वयं ही यह भोजन—यह हविष्यान्न लेकर निद्रा के साथ तुम्हारे पास आया हूँ॥ १४॥
एतदत्स्यसि मद्धस्तान्न त्वां बाधिष्यते शुभे।
क्षुधा तृषा च रम्भोरु वर्षाणामयुतैरपि॥१५॥
‘शुभे! रम्भोरु ! यदि मेरे हाथ से इस हविष्य को लेकर खा लोगी तो तुम्हें हजारों वर्षों तक भूख और प्यास नहीं सतायेगी’ ॥ १५ ॥
एवमुक्ता तु देवेन्द्रमुवाच परिशङ्किता।
कथं जानामि देवेन्द्रं त्वामिहस्थं शचीपतिम्॥
देवराज के ऐसा कहने पर शङ्कित हुई सीता ने उनसे कहा—’मुझे कैसे विश्वास हो कि आप शचीपति देवराज इन्द्र ही यहाँ पधारे हैं ? ॥ १६ ॥
देवलिङ्गानि दृष्टानि रामलक्ष्मणसंनिधौ।
तानि दर्शय देवेन्द्र यदि त्वं देवराट् स्वयम्॥ १७॥
‘देवेन्द्र! मैंने श्रीराम और लक्ष्मण के समीप देवताओं के लक्षण अपनी आँखों देखे हैं। यदि आप साक्षात् देवराज हैं तो उन लक्षणों को दिखाइये’। १७॥
सीताया वचनं श्रुत्वा तथा चक्रे शचीपतिः।
पृथिवीं नास्पृशत् पद्भ्यामनिमेषेक्षणानि च॥ १८॥
अरजोऽम्बरधारी च न म्लानकुसुमस्तथा।
तं ज्ञात्वा लक्षणैः सीता वासवं परिहर्षिता॥ १९॥
सीता की यह बात सुनकर शचीपति इन्द्र ने वैसा ही किया। उन्होंने अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं किया आकाश में निराधार खड़े रहे। उनकी आँखों की पलकें नहीं गिरती थीं। उन्होंने जो वस्त्र धारण किया था, उस पर धूल का स्पर्श नहीं होता था। उनके कण्ठ में जो पुष्पमाला थी, उसके पुष्प कुम्हलाते नहीं थे। देवोचित लक्षणों से इन्द्र को पहचानकर सीता बहुत प्रसन्न हुईं॥ १८-१९॥
उवाच वाक्यं रुदती भगवन् राघवं प्रति।
सह भ्रात्रा महाबाहुर्दिष्ट्या मे श्रुतिमागतः॥२०॥
वे भगवान् श्रीराम के लिये रोती हुई बोलीं —’भगवन् ! सौभाग्य की बात है कि आज भाईसहित महाबाहु श्रीराम का नाम मेरे कानों में पड़ा है॥२०॥
यथा मे श्वशुरो राजा यथा च मिथिलाधिपः।
तथा त्वामद्य पश्यामि सनाथो मे पतिस्त्वया॥ २१॥
‘मेरे लिये जैसे मेरे श्वशुर महाराज दशरथ तथा पिता मिथिलानरेश जनक हैं, उसी रूप में मैं आज आपको देखती हूँ। मेरे पति आपके द्वारा सनाथ हैं। २१॥
तवाज्ञया च देवेन्द्र पयोभूतमिदं हविः।
अशिष्यामि त्वया दत्तं रघूणां कुलवर्धनम्॥ २२॥
‘देवेन्द्र ! आपकी आज्ञा से मैं यह पायसरूप हविष्य (दूध की बनी हुई खीर), जिसे आपने दिया है, खाऊँगी। यह रघुकुल की वृद्धि करने वाला हो’ ॥ २२ ॥
इन्द्रहस्ताद् गृहीत्वा तत् पायसं सा शुचिस्मिता।
न्यवेदयत भत्रै सा लक्ष्मणाय च मैथिली॥२३॥
इन्द्र के हाथ से उस खीर को लेकर उन पवित्र मुसकान वाली मैथिली ने मन-ही-मन पहले उसे अपने स्वामी श्रीराम और देवर लक्ष्मण को निवेदन किया और इस प्रकार कहा- ॥ २३॥
यदि जीवति मे भर्ता सह भ्रात्रा महाबलः।
इदमस्तु तयोर्भक्त्या तदाश्नात् पायसं स्वयम्॥ २४॥
‘यदि मेरे महाबली स्वामी अपने भाई के साथ जीवित हैं तो यह भक्तिभाव से उन दोनों के लिये समर्पित है।’ इतना कहने के पश्चात् उन्होंने स्वयं उस खीर को खाया॥२४॥
इतीव तत् प्राश्य हविर्वरानना ङ्केजही क्षधातुःखसमुन्नवं च त ।
इन्द्रात् प्रवृत्तिम् उपलभ्य जानकी काकुत्स्थयोः प्रीतमना बभूव॥ २५॥
इस प्रकार उस हविष्य को खाकर सुन्दर मुखवाली जानकी ने भूख-प्यास के कष्ट को त्याग दिया और इन्द्र के मुख से श्रीराम तथा लक्ष्मण का समाचार पाकर वे जनकनन्दिनी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुईं ॥ २५ ॥
स चापि शक्रस्त्रिदिवालयं तदा प्रीतो ययौ राघवकार्यसिद्धये।
आमन्त्र्य सीतां स ततो महात्मा जगाम निद्रासहितः स्वमालयम्॥ २६॥
तब निद्रासहित महात्मा देवराज इन्द्र भी प्रसन्न हो सीता से विदा लेकर श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि के लिये अपने निवासस्थान देवलोक को चले गये। २६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे प्रक्षिप्तः सर्गः॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में प्रक्षिप्त सर्ग पूरा हुआ।