RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 1 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 1

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
प्रथमः सर्गः (सर्ग 1)

श्रीराम के सद्गुणों का वर्णन, राजा दशरथ का श्रीराम को युवराज बनाने का विचार

(यह कार्य RamCharit.in के द्वारा आर्थिक व्यय कर के उपलब्ध कराया गया है। कृपया शेयर करें तो  website लिंक क्रेडिट अवश्य दें। किसी अन्य वेबसाइट द्वारा चोरी किये जाने की दशा में Intellectual Property Rights (IPR) अधिनियम के तहत कानूनी कार्यवाही की जायेगी)

गच्छता मातुलकुलं भरतेन तदानघः।
शत्रुघ्नो नित्यशत्रुघ्नो नीतः प्रीतिपुरस्कृतः॥१॥

(पहले यह बताया जा चुका है कि) भरत अपने मामा के यहाँ जाते समय काम आदि शत्रुओं को सदा के लिये नष्ट कर देने वाले निष्पाप शत्रुघ्न को भी प्रेमवश अपने साथ लेते गये थे॥१॥

स तत्र न्यवसद् भ्रात्रा सह सत्कारसत्कृतः।
मातुलेनाश्वपतिना पुत्रस्नेहेन लालितः॥२॥

वहाँ भाई सहित उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ और वे वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनके मामा युधाजित् , जो अश्वयूथ के अधिपति थे, उन दोनों पर पुत्र से भी अधिक स्नेह रखते और बड़ा लाड़-प्यार करते थे॥२॥

तत्रापि निवसन्तौ तौ तर्प्यमाणौ च कामतः।
भ्रातरौ स्मरतां वीरौ वृद्धं दशरथं नृपम्॥३॥

यद्यपि मामा के यहाँ उन दोनों वीर भाइयों की सभी इच्छाएँ पूर्ण करके उन्हें पूर्णतः तृप्त किया जाता था,तथापि वहाँ रहते हुए भी उन्हें अपने वृद्ध पिता महाराज दशरथ की याद कभी नहीं भूलती थी॥३॥

राजापि तौ महातेजाः सस्मार प्रोषितौ सुतौ।
उभौ भरतशत्रुघ्नौ महेन्द्रवरुणोपमौ॥४॥

महातेजस्वी राजा दशरथ भी परदेश में गये हुए महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी अपने उन दोनों पुत्र भरत और शत्रुघ्न का सदा स्मरण किया करते थे॥ ४॥

सर्व एव तु तस्येष्टाश्चत्वारः पुरुषर्षभाः।
स्वशरीराद् विनिर्वृत्ताश्चत्वार इव बाहवः॥५॥

अपने शरीर से प्रकट हुई चारों भुजाओं के समान वे सब चारों ही पुरुषशिरोमणि पुत्र महाराज को बहुत ही प्रिय थे॥५॥

तेषामपि महातेजा रामो रतिकरः पितुः।
स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः॥६॥

परंतु उनमें भी महातेजस्वी श्रीराम सबकी अपेक्षा अधिक गुणवान् होने के कारण समस्त प्राणियों के लिये ब्रह्माजी की भाँति पिता के लिये विशेष प्रीतिवर्धक थे॥६॥

स हि देवैरुदीर्णस्य रावणस्य वधार्थिभिः।
अर्थितो मानुषे लोके जज्ञे विष्णुः सनातनः॥७॥

इसका एक कारण और भी था—वे साक्षात् सनातन विष्णु थे और परम प्रचण्ड रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले देवताओं की प्रार्थना पर मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुए थे॥७॥

कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा।
यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना॥८॥

उन अमित तेजस्वी पुत्र श्रीरामचन्द्रजी से महारानी कौसल्या की वैसी ही शोभा होती थी, जैसे वज्रधारी देवराज इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित होती हैं। ८॥

स हि रूपोपपन्नश्च वीर्यवाननसूयकः।
भूमावनुपमः सूनुर्गुणैर्दशरथोपमः॥९॥

श्रीराम बड़े ही रूपवान् और पराक्रमी थे। वे किसी के दोष नहीं देखते थे। भूमण्डल में उनकी समता करने वाला कोई नहीं था। वे अपने गुणों से पिता दशरथ के समान एवं योग्य पुत्र थे॥९॥

स च नित्यं प्रशान्तात्मा मृदुपूर्वं च भाषते।
उच्यमानोऽपि परुषं नोत्तरं प्रतिपद्यते॥१०॥

वे सदा शान्त चित्त रहते और सान्त्वनापूर्वक मीठे वचन बोलते थे; यदि उनसे कोई कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उत्तर नहीं देते थे॥१०॥

कदाचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति।
न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया॥११॥

कभी कोई एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकार से सदा संतुष्ट रहते थे और मन को वशमें रखने के कारण किसी के सैकड़ों अपराध करने पर भी उसके अपराधों को याद नहीं रखते थे॥

शीलवृद्धैर्ज्ञानवृद्धैर्वयोवृद्धैश्च सज्जनैः।
कथयन्नास्त वै नित्यमस्त्रयोग्यान्तरेष्वपि॥१२॥

अस्त्र-शस्त्रों के अभ्यास के लिये उपयुक्त समय में भी बीच-बीच में अवसर निकालकर वे उत्तम चरित्र में, ज्ञान में तथा अवस्था में बढ़े-चढ़े सत्पुरुषों के साथ ही सदा बातचीत करते (और उनसे शिक्षा लेते थे) ॥ १२॥

बुद्धिमान् मधुराभाषी पूर्वभाषी प्रियंवदः।
वीर्यवान्न च वीर्येण महता स्वेन विस्मितः॥ १३॥

वे बड़े बुद्धिमान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये हुए मनुष्यों से पहले स्वयं ही बात करते और ऐसी बातें मुँह से निकालते जो उन्हें प्रिय लगें; बल और पराक्रम से सम्पन्न होने पर भी अपने महान् पराक्रम के कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था॥१३॥

न चानृतकथो विद्वान् वृद्धानां प्रतिपूजकः।
अनुरक्तः प्रजाभिश्च प्रजाश्चाप्यनुरज्यते॥१४॥

झूठी बात तो उनके मुखसे कभी निकलती ही नहीं । थी। वे विद्वान् थे और सदा वृद्ध पुरुषोंका सम्मान किया करते थे। प्रजाका श्रीरामके प्रति और श्रीरामका प्रजाके प्रति बड़ा अनुराग था॥ १४ ॥

सानुक्रोशो जितक्रोधो ब्राह्मणप्रतिपूजकः।
दीनानुकम्पी धर्मज्ञो नित्यं प्रग्रहवान् शुचिः॥१५॥

वे परम दयालु क्रोध को जीतने वाले और ब्राह्मणों के पुजारी थे। उनके मन में दीन-दुःखियों के प्रति बड़ी दया थी। वे धर्म के रहस्य को जानने वाले, इन्द्रियों को सदा वश में रखनेवाले और बाहर-भीतर से परम पवित्र थे॥

कुलोचितमतिः क्षात्रं स्वधर्मं बहु मन्यते।
मन्यते परया प्रीत्या महत् स्वर्गफलं ततः॥१६॥

अपने कुलोचित आचार, दया, उदारता और शरणागत रक्षा आदि में ही उनका मन लगता था। वे अपने क्षत्रिय धर्म को अधिक महत्त्व देते और मानते थे। वे उस क्षत्रिय धर्म के पालन से महान् स्वर्ग (परम धाम) की प्राप्ति मानते थे; अतः बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें संलग्न रहते थे॥ १६ ॥

नाश्रेयसि रतो यश्च न विरुद्धकथारुचिः।
उत्तरोत्तरयुक्तीनां वक्ता वाचस्पतिर्यथा॥१७॥

अमङ्गलकारी निषिद्ध कर्म में उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी; शास्त्रविरुद्ध बातों को सुनने में उनकी रुचि नहीं थी; वे अपने न्याययुक्त पक्ष के समर्थन में बृहस्पति के समान एक-से-एक बढ़कर युक्तियाँ देते थे।। १७॥

अरोगस्तरुणो वाग्मी वपुष्मान् देशकालवित्।
लोके पुरुषसारज्ञः साधुरेको विनिर्मितः॥१८॥

उनका शरीर नीरोग था और अवस्था तरुण वे अच्छे वक्ता, सुन्दर शरीर से सुशोभित तथा देशकाल के तत्त्व को समझने वाले थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि विधाता ने संसार में समस्त पुरुषों के सारतत्त्व को समझने वाले साधु पुरुष के रूप में एकमात्र श्रीराम को ही प्रकट किया है॥ १८ ॥

स तु श्रेष्ठैर्गुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः।
बहिश्चर इव प्राणो बभूव गुणतः प्रियः॥१९॥

राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणों से युक्त थे वे अपने सद्गुणों के कारण प्रजाजनों को बाहर विचरने वाले प्राण की भाँति प्रिय थे॥ १९॥

सर्वविद्याव्रतस्नातो यथावत् साङ्गवेदवित्।
इष्वस्त्रे च पितुः श्रेष्ठो बभूव भरताग्रजः॥ २०॥

भरत के बड़े भाई श्रीराम सम्पूर्ण विद्याओं के व्रतमें निष्णात और छहों अङ्गों सहित सम्पूर्ण वेदों के यथार्थ ज्ञाता थे। बाणविद्या में तो वे अपने पिता से भी बढ़कर थे॥२०॥

कल्याणाभिजनः साधुरदीनः सत्यवागृजुः।
वृद्धैरभिविनीतश्च द्विजैर्धर्मार्थदर्शिभिः॥२१॥

वे कल्याण की जन्मभूमि, साधु, दैन्यरहित, सत्यवादी और सरल थे; धर्म और अर्थके ज्ञाता वृद्ध ब्राह्मणों के द्वारा उन्हें उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई थी॥ २१॥

धर्मकामार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान्।
लौकिके समयाचारे कृतकल्पो विशारदः॥ २२॥

उन्हें धर्म, काम और अर्थ के तत्त्व का सम्यक् ज्ञान था। वे स्मरण शक्ति से सम्पन्न और प्रतिभाशाली थे। वे लोकव्यवहार के सम्पादन में समर्थ और समयोचित धर्माचरण में कुशल थे॥ २२ ॥

निभृतः संवृताकारो गुप्तमन्त्रः सहायवान्।
अमोघक्रोधहर्षश्च त्यागसंयमकालवित्॥२३॥

वे विनयशील, अपने आकार (अभिप्राय)-को छिपाने वाले, मन्त्र को गुप्त रखनेवाले और उत्तम सहायकों से सम्पन्न थे। उनका क्रोध अथवा हर्षधन की आय के उपायों को वे अच्छी तरह जानते थे (अर्थात् फूलों को नष्ट न करके (RamCharit.in) उनसे रस लेने वाले भ्रमरोंकी भाँति वे प्रजाओं को कष्ट दिये बिना ही उनसे न्यायोचित धन का उपार्जन करने में कुशल थे) तथा शास्त्रवर्णित व्यय कर्म का भी उन्हें ठीक-ठीक ज्ञान था* ॥२६॥
* शास्त्र में व्यय का विधान इस प्रकार देखा जाता है
कच्चिदायस्य चार्धेन चतुर्भागेन वा पुनः।
पादभागैस्त्रिभिर्वापि व्ययः संशुद्ध्यते तव॥(महा० सभा० ५।७१)
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर! क्या तुम्हारी आय के एक चौथाई या आधे अथवा तीन चौथाई भाग से तुम्हारा सारा खर्च चल जाता

श्रेष्ठ्यं चास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च।
अर्थधर्मी च संगृह्य सुखतन्त्रो न चालसः॥२७॥

उन्होंने सब प्रकार के अस्त्रसमूहों तथा संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं से मिश्रित नाटक आदि के ज्ञान में निपुणता प्राप्त की थी। वे अर्थ और धर्म का संग्रह (पालन) करते हुए तदनुकूल काम का सेवन करते थे और कभी आलस्य को पास नहीं फटकने देते थे। २७॥

वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित्।
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम्॥२८॥

विहार (क्रीडा या मनोरञ्जन)-के उपयोग में आने वाले संगीत, वाद्य और चित्रकारी आदि शिल्पों के भी वे विशेषज्ञ थे। अर्थों के विभाजन का भी उन्हें सम्यक् ज्ञान था।* वे हाथियों और घोड़ों पर चढ़ने और उन्हें भाँति-भाँति की चालों की शिक्षा देने में भी निपुण थे॥ २८॥

* नीचे लिखी पाँच वस्तुओं के लिये अर्थका विभाजन करनेवाला मनुष्य इहलोक और परलोकमें भी सुखी होता है। वे वस्तुएँ हैं-धर्म, यश, अर्थ, आत्मा और स्वजन।
यथा धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च।
पञ्चधा विभजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते॥(श्रीमद्भा०८।१९। ३७)

धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसम्मतः।
अभियाता प्रहर्ता च सेनानयविशारदः॥ २९॥

श्रीरामचन्द्रजी इस लोकमें धनुर्वेद के सभी विद्वानों में श्रेष्ठ थे। अतिरथी वीर भी उनका विशेष सम्मान करते थे। शत्रुसेना पर आक्रमण और प्रहार करने में वे विशेष कुशल थे। सेना-संचालन की नीति में उन्होंने अधिक निपुणता प्राप्त की थी॥ २९ ॥

अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्वैरपि सुरासुरैः।
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी॥३०॥

संग्राम में कुपित होकर आये हुए समस्त देवता और असुर भी उनको परास्त नहीं कर सकते थे। उनमें दोषदृष्टि का सर्वथा अभाव था। वे क्रोध को जीत चुके थे। दर्प और ईर्ष्या का उनमें अत्यन्त अभाव था॥ ३०॥

नावज्ञेयश्च भूतानां न च कालवशानुगः ।
एवं श्रेष्ठैर्गुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः॥३१॥
सम्मतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः।
बुद्धया बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्ये चापि शचीपतेः॥ ३२॥

किसी भी प्राणी के मन में उनके प्रति अवहेलना का भाव नहीं था। वे काल के वश में होकर उसके पीछे पीछे चलने वाले नहीं थे (काल ही उनके पीछे चलता । था)। इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त होने के कारण राजकुमार श्रीराम समस्त प्रजाओं तथा तीनों लोकों के प्राणियों के लिये आदरणीय थे। वे अपने क्षमासम्बन्धी गुणों के द्वारा पृथ्वीकी समानता करते थे। बुद्धि में बृहस्पति और बल-पराक्रम में शचीपति इन्द्रके तुल्य थे॥ ३१-३२॥

तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसंजननैः पितुः।
गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः ॥ ३३॥

जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से प्रकाशित होते हैं। उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी समस्त प्रजाओं को प्रिय लगने वाले तथा पिता की प्रीति बढ़ाने वाले सद्गुणों से सुशोभित होते थे॥३३॥

तमेवंवृत्तसम्पन्नमप्रधृष्यपराक्रमम्।
लोकनाथोपमं नाथमकामयत मेदिनी॥३४॥

ऐसे सदाचारसम्पन्न, अजेय पराक्रमी और लोकपालों के समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी को पृथ्वी (भूदेवी और भूमण्डल की प्रजा) ने अपना स्वामी बनाने की कामना की॥ ३४॥

एतैस्तु बहुभिर्युक्तं गुणैरनुपमैः सुतम्।
दृष्ट्वा दशरथो राजा चक्रे चिन्तां परंतपः॥ ३५॥

अपने पुत्र श्रीराम को अनेक अनुपम गुणों से युक्त देखकर शत्रुओं को संताप देने वाले राजा दशरथ ने मन-ही-मन कुछ विचार करना आरम्भ किया॥ ३५ ॥

अथ राज्ञो बभूवैव वृद्धस्य चिरजीविनः।
प्रीतिरेषा कथं रामो राजा स्यान्मयि जीवति॥ ३६॥

उन चिरञ्जीवी बूढ़े महाराज दशरथ के हृदय में यह चिन्ता हुई कि किस प्रकार मेरे जीते-जी श्रीरामचन्द्र राजा हो जायँ और उनके राज्याभिषेक से प्राप्त होने वाली यह प्रसन्नता मुझे कैसे सुलभ हो॥३६ ।।

एषा ह्यस्य परा प्रीतिर्हृदि सम्परिवर्तते।
कदा नाम सुतं द्रक्ष्याम्यभिषिक्तमहं प्रियम्॥ ३७॥

उनके हृदय में यह उत्तम अभिलाषा बारम्बार चक्कर लगाने लगी कि कब मैं अपने प्रिय पुत्र श्रीराम का राज्याभिषेक देखेंगा॥ ३७॥

वृद्धिकामो हि लोकस्य सर्वभूतानुकम्पकः।
मत्तः प्रियतरो लोके पर्जन्य इव वृष्टिमान्॥३८॥

वे सोचने लगे कि ‘श्रीराम सब लोगों केअभ्युदय की कामना करते और सम्पूर्ण जीवों पर दया रखते हैं। वे लोक में वर्षा करने वाले मेघ की भाँति मुझसे भी बढ़कर प्रिय हो गये हैं॥ ३८॥

यमशक्रसमो वीर्ये बृहस्पतिसमो मतौ।
महीधरसमो धृत्यां मत्तश्च गुणवत्तरः॥३९॥

‘श्रीराम बल-पराक्रम में यम और इन्द्र के समान, बुद्धि में बृहस्पति के समान और धैर् यमें पर्वत के समानहैं। गुणों में तो वे मुझसे सर्वथा बढ़े-चढ़े हैं॥ ३९॥

महीमहमिमां कृत्स्नामधितिष्ठन्तमात्मजम्।
अनेन वयसा दृष्ट्वा यथा स्वर्गमवाप्नुयाम्॥४०॥

‘मैं इसी उम्र में अपने बेटे श्रीराम को इस सारी पृथ्वी का राज्य करते देख यथासमय सुख से स्वर्ग प्राप्त करूँ, यही मेरे जीवन की साध है’ ॥ ४० ।।

इत्येवं विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः।
शिरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः॥४१॥
तं समीक्ष्य तदा राजा युक्तं समुदितैर्गुणैः।
निश्चित्य सचिवैः सार्धं यौवराज्यममन्यत॥ ४२॥

इस प्रकार विचारकर तथा अपने पुत्र श्रीराम को उन-उन नाना प्रकार के विलक्षण, सज्जनोचित, असंख्य तथा लोकोत्तर गुणों से, जो अन्य राजाओं में दुर्लभ हैं, विभूषित देख राजा दशरथ ने मन्त्रियों के साथ सलाह करके उन्हें युवराज बनाने का निश्चय कर लिया॥ ४१-४२॥

दिव्यन्तरिक्षे भूमौ च घोरमुत्पातजं भयम्।
संचचक्षेऽथ मेधावी शरीरे चात्मनो जराम्॥ ४३॥

बुद्धिमान् महाराज दशरथ ने मन्त्री को स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूतल में दृष्टिगोचर होने वाले उत्पातों का घोर भय सूचित किया और अपने शरीर में वृद्धावस्था के आगमन की भी बात बतायी॥४३॥

पूर्णचन्द्राननस्याथ शोकापनुदमात्मनः।
लोके रामस्य बुबुधे सम्प्रियत्वं महात्मनः॥४४॥

पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले महात्मा श्रीराम समस्त प्रजा के प्रिय थे। लोक में उनका सर्वप्रिय होना राजा के अपने आन्तरिक शोक को दूर करनेवाला था, इस बात को राजा ने अच्छी तरह समझा॥४४॥

आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च।
प्राप्ते काले स धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः॥ ४५॥

तदनन्तर उपयुक्त समय आने पर धर्मात्मा राजा दशरथ ने अपने और प्रजा के कल्याण के लिये मन्त्रियों को श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये शीघ्र तैयारी करने की आज्ञा दी। इस उतावली में उनके हृदय का प्रेम और प्रजा का अनुराग भी कारण था॥ ४५ ॥

नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः॥ ४६॥

उन भूपालने भिन्न-भिन्न नगरों में निवास करने वाले प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य जनपदों के सामन्त राजाओं को भी मन्त्रियोंद् वारा अयोध्या में बुलवा लिया॥ ४६॥

तान् वेश्मनानाभरणैर्यथाहँ प्रतिपूजितान्।
ददर्शालंकृतो राजा प्रजापतिरिव प्रजाः॥४७॥

उन सबको ठहरने के लिये घर देकर नानाप्रकार के आभूषणों द्वारा उनका यथायोग्य सत्कार किया। तत्पश्चात् स्वयं भी अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे उसी प्रकार मिले, जैसे प्रजापति ब्रह्मा प्रजावर्ग से मिलते हैं।

न तु केकयराजानं जनकं वा नराधिपः।
त्वरया चानयामास पश्चात्तौ श्रोष्यतः प्रियम्॥ ४८॥

जल्दीबाजी के कारण राजा दशरथ ने केकयनरेश को तथा मिथिलापति जनक को भी नहीं बुलवाया।* उन्होंने सोचा वे दोनों सम्बन्धी इस प्रिय समाचार को पीछे सुन लेंगे॥ ४८ ॥
* केकयनरेशके साथ भरत-शत्रुघ्न भी आ जाते। इन सबके तथा राजा जनकके रहनेसे श्रीरामका राज्याभिषेक सम्पन्न हो जाता और वे वनमें नहीं जाने पाते—इसी डरसे देवताओंने राजा दशरथको इन सबको नहीं बुलानेकी बुद्धि दे दी।

अथोपविष्टे नृपतौ तस्मिन् परपुरार्दने।
ततः प्रविविशुः शेषा राजानो लोकसम्मताः॥ ४९॥

तदनन्तर शत्रुनगरी को पीड़ित करने वाले राजा दशरथ जब दरबार में आ बैठे, तब (केकयराज और जनक को छोड़कर) शेष सभी लोकप्रिय नरेशों ने राजसभा में प्रवेश किया॥४९॥

अथ राजवितीर्णेषु विविधेष्वासनेषु च।
राजानमेवाभिमुखा निषेदुर्नियता नृपाः॥५०॥

वे सभी नरेश राजाद्वारा दिये गये नाना प्रकार के सिंहासनों पर उन्हीं की ओर मुँह करके विनीतभाव से  बैठे थे॥५०॥

स लब्धमानैर्विनयान्वितैर्नृपैः पुरालयैर्जानपदैश्च मानवैः।
उपोपविष्टैर्नृपतिर्वृतो बभौ सहस्रचक्षुर्भगवानिवामरैः॥५१॥

राजा से सम्मानित होकर विनीतभाव से उन्हीं के आस-पास बैठे हुए सामन्त (RamCharit.in) नरेशों तथा नगर और जनपद के निवासी मनुष्यों से घिरे हुए महाराज दशरथ उस समय देवताओं के बीच में विराजमान सहस्रनेत्रधारी भगवान् इन्द्र के समान शोभा पा रहे थे। ५१॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये। आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ।१॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 1 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 1

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: