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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 100 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 100

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
शततमः सर्गः (सर्ग 100)

श्रीराम का भरत को कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना

 

जटिलं चीरवसनं प्राञ्जलिं पतितं भुवि।
ददर्श रामो दुर्दर्श युगान्ते भास्करं यथा॥१॥
कथंचिदभिविज्ञाय विवर्णवदनं कृशम्।
भ्रातरं भरतं रामः परिजग्राह पाणिना॥२॥
आघ्राय रामस्तं मूर्ध्नि परिष्वज्य च राघवम्।
अङ्के भरतमारोप्य पर्यपृच्छत सादरम्॥३॥

जटा और चीर-वस्त्र धारण किये भरत हाथ जोड़कर पृथ्वी पर पड़े थे, मानो प्रलयकाल में सूर्यदेव धरती पर गिर गये हों। उनको उस अवस्था में देखना किसी भी स्नेही सुहृद् के लिये अत्यन्त कठिन था। श्रीराम ने उन्हें देखा और जैसे-तैसे किसी तरह पहचाना। उनका मुख उदास हो गया था। वे बहुत दुर्बल हो गये थे। श्रीराम ने भाई भरत को अपने हाथ से पकड़कर उठाया और उनका मस्तक सूंघकर उन्हें हृदय से लगा लिया। इसके बाद रघुकुलभूषण भरत को गोद में बिठाकर श्रीराम ने बड़े आदर से पूछा – ॥१-३॥

क्व नु तेऽभूत् पिता तात यदरण्यं त्वमागतः।
न हि त्वं जीवतस्तस्य वनमागन्तुमर्हसि ॥४॥

‘तात! पिताजी कहाँ थे कि तुम इस वन में आये हो? उनके जीते-जी तो तुम वन में नहीं आ सकते थे॥

चिरस्य बत पश्यामि दूराद् भरतमागतम्।
दुष्प्रतीकमरण्येऽस्मिन् किं तात वनमागतः॥५॥

‘मैं दीर्घकाल के बाद दूर से (नाना के घर से) आये हुए भरत को आज इस वन में देख रहा हूँ; परंतु इनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है। तात! तुम क्यों वन में आये हो? ॥ ५॥

कच्चिन्नु धरते तात राजा यत् त्वमिहागतः।
कच्चिन्न दीनः सहसा राजा लोकान्तरं गतः॥

‘भाई! महाराज जीवित हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे अत्यन्त दुःखी होकर सहसा परलोकवासी हो गये हों और इसीलिये तुम्हें स्वयं यहाँ आना पड़ा हो?॥

कच्चित् सौम्य न ते राज्यं भ्रष्टं बालस्य शाश्वतम्।
कच्चिच्छुश्रूषसे तात पितुः सत्यपराक्रम॥७॥

‘सौम्य! तुम अभी बालक हो, इसलिये परम्परा से चला आता हुआ तुम्हारा राज्य नष्ट तो नहीं हो गया? सत्यपराक्रमी तात भरत! तुम पिताजी की सेवा-शुश्रूषा तो करते हो न? ॥ ७॥

कच्चिद् दशरथो राजा कुशली सत्यसंगरः।
राजसूयाश्वमेधानामाहर्ता धर्मनिश्चितः॥८॥

‘जो धर्म पर अटल रहने वाले हैं तथा जिन्होंने राजसूय एवं अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया है, वे सत्यप्रतिज्ञ महाराज दशरथ सकुशल तो हैं न? ॥ ८॥

स कच्चिद् ब्राह्मणो विद्वान् धर्मनित्यो महाद्युतिः।
इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत् तात पूज्यते॥९॥

‘तात! क्या तुम सदा धर्म में तत्पर रहनेवाले, विद्वान्, ब्रह्मवेत्ता और इक्ष्वाकुकुल के आचार्य महातेजस्वी वसिष्ठजी की यथावत् पूजा करते हो? ॥ ९॥

तात कच्चिच्च कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकयी॥ १०॥

‘भाई! क्या माता कौसल्या सुख से हैं? उत्तम संतानवाली सुमित्रा प्रसन्न हैं और आर्या कैकेयी देवी भी आनन्दित हैं? ॥ १०॥

कच्चिद् विनयसम्पन्नः कुलपुत्रो बहुश्रुतः।
अनसूयुरनुद्रष्टा सत्कृतस्ते पुरोहितः॥११॥

‘जो उत्तम कुल में उत्पन्न, विनयसम्पन्न, बहुश्रुत, किसी के दोष न देखने वाले तथा शास्त्रोक्त धर्मो पर निरन्तर दृष्टि रखने वाले हैं, उन पुरोहितजी का तुमने पूर्णतः सत्कार किया है ? ॥ ११॥

कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमानृजुः।
हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा॥१२॥

‘हवनविधि के ज्ञाता, बुद्धिमान् और सरल स्वभाव वाले जिन ब्राह्मण देवता को तुमने अग्निहोत्रकार्य के लिये नियुक्त किया है, वे सदा ठीक समयपर आकर क्या तुम्हें यह सूचित करते हैं कि इस समय अग्नि में आहुति दे दी गयी और अब अमुक समय में हवन करना है?॥

कच्चिद् देवान् पितॄन् भृत्यान् गुरून् पितृसमानपि।
वृद्धाश्च तात वैद्यांश्च ब्राह्मणांश्चाभिमन्यसे॥ १३॥

‘तात! क्या तुम देवताओं, पितरों, भृत्यों, गुरुजनों, पिता के समान आदरणीय वृद्धों, वैद्यों और ब्राह्मणों का सम्मान करते हो? ॥ १३॥

इष्वस्त्रवरसम्पन्नमर्थशास्त्रविशारदम्।
सुधन्वानमुपाध्यायं कच्चित् त्वं तात मन्यसे॥ १४॥

‘भाई! जो मन्त्ररहित श्रेष्ठ बाणों के प्रयोग तथा मन्त्रसहित उत्तम अस्त्रों के प्रयोग के ज्ञान से सम्पन्न और अर्थशास्त्र (राजनीति) के अच्छे पण्डित हैं, उन आचार्य सुधन्वा का क्या तुम समादर करते हो? ॥ १४॥

कच्चिदात्मसमाः शूराः श्रुतवन्तो जितेन्द्रियाः।
कुलीनाश्चेङ्गितज्ञाश्च कृतास्ते तात मन्त्रिणः॥ १५॥

‘तात! क्या तुमने अपने ही समान शूरवीर, शास्त्रज्ञ, जितेन्द्रिय, कुलीन तथा बाहरी चेष्टाओं से ही मन की बात समझ लेने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही मन्त्री बनाया है ? ॥ १५ ॥

मन्त्रो विजयमूलं हि राज्ञां भवति राघव।
सुसंवृतो मन्त्रिधुरैरमात्यैः शास्त्रकोविदैः॥१६॥

‘रघुनन्दन! अच्छी मन्त्रणा ही राजाओं की विजय का मूल कारण है। वह भी तभी सफल होती है, जब नीति-शास्त्रनिपुण मन्त्रिशिरोमणि अमात्य उसे सर्वथा गुप्त रखें॥ १६॥

कच्चिन्निद्रावशं नैषि कच्चित् कालेऽवबुध्यसे।
कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थनैपुणम्॥१७॥

‘भरत! तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? समय पर जाग जाते हो न? रात के पिछले पहर में अर्थसिद्धि के उपायपर विचार करते हो न?॥ १७॥

कच्चिन्मन्त्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह।
कच्चित् ते मन्त्रितो मन्त्रो राष्ट्रं न परिधावति॥ १८॥

‘(कोई भी गुप्त मन्त्रणा दो से चार कानों तक ही गुप्त रहती है; छः कानों में जाते ही वह फूट जाती है,अतः मैं पूछता हूँ-) तुम किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते? अथवा बहुत
लोगों के साथ बैठकर तो मन्त्रणा नहीं करते? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारी निश्चित की हुई गुप्त मन्त्रणा फूटकर शत्रु के राज्य तक फैल जाती हो?॥१८॥

कच्चिदर्थं विनिश्चित्य लघुमूलं महोदयम्।
क्षिप्रमारभसे कर्म न दीर्घयसि राघव॥१९॥

‘रघुनन्दन! जिसका साधन बहुत छोटा और फल बहुत बड़ा हो, ऐसे कार्य का निश्चय करने के बाद तुम उसे शीघ्र प्रारम्भ कर देते हो न? उसमें विलम्ब तो नहीं करते? ॥ १९॥

कच्चिन्नु सुकृतान्येव कृतरूपाणि वा पुनः।
विदस्ते सर्वकार्याणि न कर्तव्यानि पार्थिवाः॥ २०॥

‘तुम्हारे सब कार्य पूर्ण हो जानेपर अथवा पूरे होनेके समीप पहुँचनेपर ही दूसरे राजाओंको ज्ञात होते हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारे भावी कार्यक्रमको वे पहले ही जान लेते हों? ॥ २० ॥

कच्चिन्न तर्कैर्युक्त्या वा ये चाप्यपरिकीर्तिताः।
त्वया वा तव वामात्यैर्बुध्यते तात मन्त्रितम्॥ २१॥

‘तात! तुम्हारे निश्चित किये हुए विचारों को तुम्हारे या मन्त्रियों के प्रकट न करने पर भी दूसरे लोग तर्क और युक्तियों के द्वारा जान तो नहीं लेते हैं? (तथा तुमको और तुम्हारे अमात्यों को दूसरों के गुप्त विचारों का पता लगता रहता है न?) ॥ २१॥

कच्चित् सहस्रैर्मूर्खाणामेकमिच्छसि पण्डितम्।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छेषु कुर्यान्निःश्रेयसं महत्॥ २२॥

‘क्या तुम सहस्रों मूल् के बदले एक पण्डित को ही अपने पास रखने की इच्छा रखते हो? क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अर्थसंकट के समय महान् कल्याण कर सकता है॥ २२॥

सहस्राण्यपि मूर्खाणां यद्युपास्ते महीपतिः।
अथवाप्ययुतान्येव नास्ति तेषु सहायता॥२३॥

‘यदि राजा हजार या दस हजार मूल् को अपने पास रख ले तो भी उनसे अवसर पर कोई अच्छी सहायता नहीं मिलती॥ २३॥

एकोऽप्यमात्यो मेधावी शूरो दक्षो विचक्षणः।
राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम्॥२४॥

‘यदि एक मन्त्री भी मेधावी, शूर-वीर, चतुर एवं नीतिज्ञ हो तो वह राजा या राजकुमार को बहुत बड़ी सम्पत्ति की प्राप्ति करा सकता है॥ २४॥

कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः।
जघन्याश्च जघन्येषु भृत्यास्ते तात योजिताः॥ २५॥

‘तात! तुमने प्रधान व्यक्तियों को प्रधान, मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को मध्यम और छोटी श्रेणी के लोगों को छोटे ही कामों में नियुक्त किया है न? ॥ २५॥

अमात्यानुपधातीतान् पितृपैतामहान् शुचीन्।
श्रेष्ठान् श्रेष्ठेषु कच्चित् त्वं नियोजयसि कर्मसु॥ २६॥

‘जो घूस न लेते हों अथवा निश्छल हों, बापदादों के समय से ही काम करते आ रहे हों तथा बाहर-भीतर से पवित्र एवं श्रेष्ठ हों, ऐसे अमात्यों को ही तुम उत्तम कार्यों में नियुक्त करते हो न? ॥ २६॥

कच्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्रेजिताः प्रजाः।
राष्ट्र तवावजानन्ति मन्त्रिणः कैकयीसुत॥२७॥

‘कैकेयीकुमार! तुम्हारे राज्य की प्रजा कठोर दण्ड से अत्यन्त उद्विग्न होकर तुम्हारे मन्त्रियों का तिरस्कार तो नहीं करती? ॥ २७॥

कच्चित् त्वां नावजानन्ति याजकाः पतितं यथा।
उग्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्त्रियः॥२८॥

‘जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का तथा स्त्रियाँ कामचारी पुरुष का तिरस्कार कर देती हैं, उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती? ॥ २८॥

उपायकुशलं वैद्यं भृत्यसंदूषणे रतम्।
शूरमैश्वर्यकामं च यो हन्ति न स हन्यते॥२९॥

‘जो साम-दाम आदि उपायों के प्रयोग में कुशल, राजनीतिशास्त्र का विद्वान्, विश्वासी भृत्यों को फोड़ने में लगा हुआ, शूर (मरने से न डरने वाला) तथा राजा के राज्य को हड़प लेने की इच्छा रखने वाला है—ऐसे पुरुष को जो राजा नहीं मार डालता है, वह स्वयं उसके हाथ से मारा जाता है॥ २९ ॥

कच्चिद् धृष्टश्च शूरश्च धृतिमान् मतिमान् शुचिः ।
कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिः कृतः॥ ३०॥

‘क्या तुमने सदा संतुष्ट रहने वाले, शूरवीर, धैर्यवान्, बुद्धिमान्, पवित्र, कुलीन एवं अपने में अनुराग रखने वाले, रणकर्मदक्ष पुरुष को ही सेनापति बनाया है? ॥ ३०॥

बलवन्तश्च कच्चित् ते मुख्या युद्धविशारदाः।
दृष्टापदाना विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः॥ ३१॥

‘तुम्हारे प्रधान-प्रधान योद्धा (सेनापति) बलवान्, युद्धकुशल और पराक्रमी तो हैं न? क्या तुमने उनके शौर्य की परीक्षा कर ली है? तथा क्या वे तुम्हारे द्वारा सत्कारपूर्वक सम्मान पाते रहते हैं ? ॥ ३१॥

कच्चिद बलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम्।
सम्प्राप्तकालं दातव्यं ददासि न विलम्बसे॥ ३२॥

‘सैनिकों को देने के लिये नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर दे देते हो न? देने में विलम्ब तो नहीं करते? ॥ ३२॥

कालातिक्रमणे ह्येव भक्तवेतनयो ताः।
भर्तुरप्यतिकुप्यन्ति सोऽनर्थः सुमहान् कृतः॥ ३३॥

‘यदि समय बिताकर भत्ता और वेतन दिये जाते हैं तो सैनिक अपने स्वामी पर भी अत्यन्त कुपित हो जाते हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ घटित हो जाता है।

कच्चित् सर्वेऽनुरक्तास्त्वां कुलपुत्राः प्रधानतः।
कच्चित् प्राणांस्तवार्थेषु संत्यजन्ति समाहिताः॥ ३४॥

‘क्या उत्तम कुल में उत्पन्न मन्त्री आदि समस्त प्रधान अधिकारी तुमसे प्रेम रखते हैं? क्या वे तुम्हारे लिये एकचित्त होकर अपने प्राणों का त्याग करने के लिये उद्यत रहते हैं? ॥ ३४॥

कच्चिज्जानपदो विद्वान् दक्षिणः प्रतिभानवान्।
यथोक्तवादी दूतस्ते कृतो भरत पण्डितः॥ ३५॥

‘भरत! तुमने जिसे राजदूत के पद पर नियुक्त किया है, वह पुरुष अपने ही देश का निवासी, विद्वान्, कुशल, प्रतिभाशाली और जैसा कहा जाय, वैसी ही बात दूसरे के सामने कहने वाला और सदसद्विवेकयुक्त है न? ॥ ३५ ॥

कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पञ्च च।
त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैत्सि तीर्थानि चारकैः॥ ३६॥

‘क्या तुम शत्रुपक्ष के अठारह’ और अपने पक्ष के पंद्रह तीर्थों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा देखभाल या जाँच-पड़ताल करते रहते हो? ॥ ३६ ।।
१. शत्रुपक्ष के मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अन्तर्वेशिक (अन्तःपुर का अध्यक्ष), कारागाराध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, यथायोग्य कार्योंमें धनका व्यय करने वाला सचिव, प्रदेष्टा (पहरेदारों को काम बताने वाला), नगराध्यक्ष (कोतवाल), कार्यनिर्माणकर्ता (शिल्पियों का परिचालक), धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रसीमापाल तथा वनरक्षक-ये अठारह तीर्थ हैं, जिनपर राजा को दृष्टि रखनी चाहिये। मतान्तर से ये अठारह तीर्थ इस प्रकार हैं-मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अन्तःपुराध्यक्ष, कारागाराध्यक्ष, धनाध्यक्ष, राजा की आज्ञा से सेवकों को काम बताने वाला. वादी-प्रतिवादी से मामले की पूछताछ करने वाला, प्राड्विवाक (वकील), धर्मासनाधिकारी (न्यायाधीश), व्यवहार-निर्णेता, सभ्य, सेना को जीविका-निर्वाह के लिये धन देने का अधिकारी (सेनानायक) कर्मचारियों को काम पूरा होने पर वेतन देने के लिये राजा से धन लेने वाला, नगराध्यक्ष, राष्ट्रसीमापाल तथा वनरक्षक, दुष्टों को दण्ड देने का अधिकारी तथा जल, पर्वत, वन एवं दुर्गम भूमि की रक्षा करने वाला—इन पर राजा को दृष्टि रखनी चाहिये। २. उपर्युक्त अठारह तीर्थों में से आदि के तीन को छोड़कर शेष पंद्रह तीर्थ अपने पक्ष के भी सदा परीक्षणीय हैं।

कच्चिद व्यपास्तानहितान् प्रतियातांश्च सर्वदा।
दुर्बलाननवज्ञाय वर्तसे रिपुसूदन॥ ३७॥

‘शत्रुसूदन ! जिन शत्रुओं को तुमने राज्य से निकाल दिया है, वे यदि फिर लौटकर आते हैं तो तुम उन्हें दुर्बल समझकर उनकी उपेक्षा तो नहीं करते? ॥ ३७॥

कच्चिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे।
अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः॥ ३८॥

‘तात ! तुम कभी नास्तिक ब्राह्मणों का संग तो नहीं करते हो? क्योंकि वे बुद्धि को परमार्थ की ओर से विचलित करने में कुशल होते हैं तथा वास्तव में अज्ञानी होते हुए भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानते हैं॥ ३८॥

धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः।
बद्धिमान्वीक्षिकी प्राप्य निरर्थं प्रवदन्ति ते॥ ३९॥

‘उनका ज्ञान वेद के विरुद्ध होने के कारण दूषित होता है और वे प्रमाणभूत प्रधान-प्रधान धर्मशास्त्रों के होते हुए भी तार्किक बुद्धि का आश्रय लेकर व्यर्थ बकवाद किया करते हैं॥ ३९॥

वीरैरध्युषितां पूर्वमस्माकं तात पूर्वकैः।
सत्यनामां दृढद्वारा हस्त्यश्वरथसंकुलाम्॥४०॥
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः स्वकर्मनिरतैः सदा।
जितेन्द्रियैर्महोत्साहैर्वृतामार्यैः सहस्रशः॥४१॥
प्रासादैर्विविधाकारैर्वृतां वैद्यजनाकुलाम्।
कच्चित् समुदितां स्फीतामयोध्यां परिरक्षसे॥ ४२॥

‘तात! अयोध्या हमारे वीर पूर्वजों की निवास भूमि है; उसका जैसा नाम है, वैसा ही गुण है। उसके दरवाजे सब ओर से सुदृढ़ हैं। वह हाथी, घोड़े और रथों से परिपूर्ण है। अपने-अपने कर्मों में लगे हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सहस्रों की संख्या में वहाँ सदा निवास करते हैं। वे सब-के-सब महान् उत्साही, जितेन्द्रिय और श्रेष्ठ हैं। नाना प्रकार के राजभवन और मन्दिर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह नगरी बहुसंख्यक विद्वानों से भरी है। ऐसी अभ्युदयशील और समृद्धिशालिनी नगरी अयोध्या की तुम भलीभाँति रक्षा तो करते हो न? ॥ ४०-४२॥

कच्चिच्चैत्यशतैर्जुष्टः सुनिविष्टजनाकुलः।
देवस्थानैः प्रपाभिश्च तटाकैश्चोपशोभितः॥ ४३॥
प्रहृष्टनरनारीकः समाजोत्सवशोभितः।
सुकृष्टसीमापशुमान् हिंसाभिरभिवर्जितः॥४४॥
अदेवमातृको रम्यः श्वापदैः परिवर्जितः।
परित्यक्तो भयैः सर्वैः खनिभिश्चोपशोभितः॥ ४५॥
विवर्जितो नरैः पापैर्मम पूर्वैः सुरक्षितः।
कच्चिज्जनपदः स्फीतः सुखं वसति राघव॥ ४६॥

‘रघुनन्दन भरत! जहाँ नाना प्रकार के अश्वमेध आदि महायज्ञों के बहुत-से चयन-प्रदेश (अनुष्ठानस्थल) शोभा पाते हैं, जिसमें प्रतिष्ठित मनुष्य अधिक संख्या में निवास करते हैं, अनेकानेक देवस्थान, पौंसले और तालाब जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, जहाँ के स्त्री-पुरुष सदा प्रसन्न रहते हैं, जो सामाजिक उत्सवों के कारण सदा शोभासम्पन्न दिखायी देता है, जहाँ खेत जोतने में समर्थ पशुओं की अधिकता है, जहाँ किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती, जहाँ खेती के लिये वर्षा के जल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता (नदियों के जल से ही सिंचाई हो जाती है), जो बहुत ही सुन्दर और हिंसक पशुओं से रहित है, जहाँ किसी तरह का भय नहीं है, नाना प्रकार की खाने जिसकी शोभा बढ़ाती हैं, जहाँ पापी मनुष्यों का सर्वथा अभाव है तथा हमारे पूर्वजों ने जिसकी भलीभाँति रक्षा की है, वह अपना कोसल देश धन-धान्य से सम्पन्न और सुखपूर्वक बसा हुआ है न? ॥ ४३–४६॥ ।

कच्चित् ते दयिताः सर्वे कृषिगोरक्षजीविनः।
वार्तायां संश्रितस्तात लोकोऽयं सखमेधते॥४७॥

‘तात! कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं न? क्योंकि कृषि और व्यापार आदि में संलग्न रहने पर ही यह लोक सुखी एवं उन्नतिशील होता है।। ४७॥

तेषां गुप्तिपरीहारैः कच्चित् ते भरणं कृतम्।
रक्ष्या हि राज्ञा धर्मेण सर्वे विषयवासिनः॥४८॥

‘उन वैश्यों को इष्ट की प्राप्ति कराकर और उनके अनिष्ट का निवारण करके तुम उन सब लोगों का भरण-पोषण तो करते हो न? क्योंकि राजा को अपने राज्य में निवास करने वाले सब लोगों का धर्मानुसार पालन करना चाहिये॥४८॥

कच्चित् स्त्रियः सान्त्वयसे कच्चित् तास्ते सुरक्षिताः।
कच्चिन्न श्रद्दधास्यासां कच्चिद् गुह्यं न भाषसे॥ ४९॥

‘क्या तुम अपनी स्त्रियों को संतुष्ट रखते हो? क्या वे तुम्हारे द्वारा भलीभाँति सुरक्षित रहती हैं? तुम उनपर अधिक विश्वास तो नहीं करते? उन्हें अपनी गुप्त बात तो नहीं कह देते? ॥ ४९ ।।

कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुञ्जराणां च तृप्यसि॥ ५०॥

‘जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गौएँ तो अधिक संख्या में हैं न? (अथवा हाथियों को फँसाने वाली हथिनियों की तो तुम्हारे पास कमी नहीं है?) तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? ॥ ५० ॥

कच्चिद् दर्शयसे नित्यं मानुषाणां विभूषितम्।
उत्थायोत्थाय पूर्वाणे राजपुत्र महापथे॥५१॥

‘राजकुमार! क्या तुम प्रतिदिन पूर्वाह्नकाल में वस्त्राभूषणों से विभूषित हो प्रधान सड़क पर जा-जाकर नगरवासी मनुष्यों को दर्शन देते हो? ॥ ५१॥

कच्चिन्न सर्वे कर्मान्ताः प्रत्यक्षास्तेऽविशङ्कया।
सर्वे वा पुनरुत्सृष्टा मध्यमेवात्र कारणम्॥५२॥

‘काम-काज में लगे हुए सभी मनुष्य निडर होकर तुम्हारे सामने तो नहीं आते? अथवा वे सब सदा तुमसे दूर तो नहीं रहते? क्योंकि कर्मचारियों के विषय में मध्यम स्थिति का अवलम्बन करना ही अर्थसिद्धि का कारण होता है॥५२॥

कच्चिद् दुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः।
यन्त्रैश्च प्रतिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः॥५३॥

‘क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्रशस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी तथा धनुर्धर सैनिकोंसे भरे-पूरे रहते हैं? ॥ ५३॥

आयस्ते विपुलः कच्चित् कच्चिदल्पतरो व्ययः।
अपात्रेषु न ते कच्चित् कोषो गच्छति राघव॥ ५४॥

‘रघुनन्दन ! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता? ॥ ५४॥

देवतार्थे च पित्रर्थे ब्राह्मणाभ्यागतेषु च।
योधेषु मित्रवर्गेषु कच्चिद् गच्छति ते व्ययः॥

‘देवता, पितर, ब्राह्मण, अभ्यागत, योद्धा तथा मित्रों के लिये ही तो तुम्हारा धन खर्च होता है न? ॥ ५५॥

कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा क्षारितश्चापकर्मणा।
अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद् बध्यते शुचिः॥

‘कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ, निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर भी दोष लगा दे तथा शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वानो द्वारा उसके विषय में विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दण्ड दे दिया जाता हो? ॥५६॥

गृहीतश्चैव पृष्टश्च काले दृष्टः सकारणः।
कच्चिन्न मुच्यते चोरो धनलोभान्नरर्षभ॥५७॥

‘नरश्रेष्ठ ! जो चोरी में पकड़ा गया हो, जिसे किसी ने चोरी करते समय देखा हो, पूछताछ से भी जिसके चोर होने का प्रमाण मिल गया हो तथा जिसके विरुद्ध (चोरी का माल बरामद होना आदि) और भी बहुत से कारण (सबूत) हों, ऐसे चोर को भी तुम्हारे राज्य में धन के लालच से छोड़ तो नहीं दिया जाता है? ॥ ५७॥

व्यसने कच्चिदाढ्यस्य दुर्बलस्य च राघव।
अर्थं विरागाः पश्यन्ति तवामात्या बहुश्रुताः॥ ५८॥

‘रघुकुलभूषण! यदि धनी और गरीब में कोई विवाद छिड़ा हो और वह राज्य के न्यायालय में निर्णय के लिये आया हो तो तुम्हारे बहुज्ञ मन्त्री धन आदि के लोभ को छोड़कर उस मामले पर विचार करते हैं न? ॥ ५८॥

यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि राघव।
तानि पुत्रपशून् जन्ति प्रीत्यर्थमनुशासतः॥५९॥

‘रघुनन्दन ! निरपराध होने पर भी जिन्हें मिथ्या दोष लगाकर दण्ड दिया जाता है, उन मनुष्यों की आँखों से जो आँसू गिरते हैं, वे पक्षपातपूर्ण शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओं का नाश कर डालते हैं। ५९॥

कच्चिद् वृद्धांश्च बालांश्च वैद्यान् मुख्यांश्च
राघव। दानेन मनसा वाचा त्रिभिरेतैर्बुभूषसे॥६०॥

‘राघव! क्या तुम वृद्ध पुरुषों, बालकों और प्रधान प्रधान वैद्यों का आन्तरिक अनुराग, मधुर वचन और धनदान-इन तीनों के द्वारा सम्मान करते हो? ।। ६०॥

कच्चिद् गुरूंश्च वृद्धाश्च तापसान् देवतातिथीन्।
चैत्यांश्च सर्वान् सिद्धार्थान् ब्राह्मणांश्च नमस्यसि॥६१॥

‘गुरुजनों, वृद्धों, तपस्वियों, देवताओं, अतिथियों, चैत्य वृक्षों और समस्त पूर्णकाम ब्राह्मणों को नमस्कार करते हो न? ॥ ६१॥

कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थं धर्मेण वा पुनः।
उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न विबाधसे॥६२॥

‘तुम अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुँचाते? अथवा आसक्ति और लोभ रूप काम के द्वारा धर्म और अर्थ दोनों में बाधा तो नहीं आने देते?॥

कच्चिदर्थं च कामं च धर्मं च जयतां वर।
विभज्य काले कालज्ञ सर्वान् वरद सेवसे॥ ६३॥

‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ, समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता तथा दूसरों को वर देने में समर्थ भरत! क्या तुम समय का विभाग करके धर्म, अर्थ और काम का योग्य समय में सेवन करते हो? ॥ ६३॥

कच्चित् ते ब्राह्मणाः शर्म सर्वशास्त्रार्थकोविदाः।
आशंसन्ते महाप्राज्ञ पौरजानपदैः सह ॥६४॥

‘महाप्राज्ञ! सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ को जानने वाले ब्राह्मण पुरवासी और जनपदवासी मनुष्यों के साथ तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं न? ॥ ६४॥

नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्।
अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम्॥६५॥
एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च मन्त्रणम्।
निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम्॥६६॥
मङ्गलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।
कच्चित् त्वं वर्जयस्येतान् राजदोषांश्चतुर्दश॥ ६७॥

‘नास्तिकता, असत्य-भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानी पुरुषों का संग न करना, आलस्य, नेत्र आदि पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत होना, राजकार्यों के विषय में अकेले ही विचार करना, प्रयोजन को न
समझने वाले विपरीतदर्शी मूल् से सलाह लेना, निश्चित किये हुए कार्यों का शीघ्र प्रारम्भ न करना,गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना, माङ्गलिक आदि कार्यों का अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओं पर एक ही साथ चढ़ाई कर देना—ये राजा के चौदह दोष हैं। तुम इन दोषों का सदा परित्याग करते हो न?॥ ६५-६७॥

दशपञ्चचतुर्वर्गान् सप्तवर्गं च तत्त्वतः।
अष्टवर्गं त्रिवर्गं च विद्यास्तिस्रश्च राघव॥ ६८॥
इन्द्रियाणां जयं बुद्ध्वा षाड्गुण्यं दैवमानुषम्।
कृत्यं विंशतिवर्गं च तथा प्रकृतिमण्डलम्॥६९॥
यात्रादण्डविधानं च द्वियोनी संधिविग्रहौ।
कच्चिदेतान् महाप्राज्ञ यथावदनुमन्यसे॥७०॥

‘महाप्राज्ञ भरत! दशवर्ग,’ पञ्चवर्ग,२ चतुर्वर्ग, सप्तवर्ग, अष्टवर्ग,५ त्रिवर्ग,६ तीन विद्या, बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को जीतना, छः गुण, दैवी और मानुषी बाधाएँ, राजा के नीतिपूर्ण कार्य,१० विंशतिवर्ग,११ प्रकृतिमण्डल,१२ यात्रा (शत्रु पर आक्रमण), दण्डविधान (व्यूहरचना) तथा दो-दो गुणों की१३ योनिभूत संधि और विग्रह–इन सबकी ओर तुम यथार्थ रूप से ध्यान देते हो न? इनमें से त्यागने योग्य दोषों को त्यागकर ग्रहण करने योग्य गुणों को ग्रहण करते हो न?॥ ६८-७० ॥
१. काम से उत्पन्न होने वाले दस दोषों को दशवर्ग कहते है। ये राजा के लिये त्याज्य हैं। मनुजी ने उनके नाम इस प्रकार गिनाये हैं -आखेट, जुआ, दिन में सोना, दूसरों की निन्दा करना, स्त्री में आसक्त होना, मद्यपान, नाचना, गाना, बाजा बजाना और व्यर्थ घूमना। २. जलदुर्ग, पर्वतदुर्ग, वृक्षदुर्ग, ईरिणदुर्ग और धन्वदुर्ग ये पाँच प्रकार के दुर्ग पञ्चवर्ग कहलाते हैं। इनमें आरम्भ के तीन तो प्रसिद्ध ही हैं। जहाँ किसी प्रकार की खेती नहीं होती, ऐसे प्रदेश को ईरिण कहते हैं। बालू से भरी मरुभूमि को धन्व कहते हैं। गर्मी के दिनों में वह शत्रुओं के लिये दुर्गम होती है। इन सब दुर्गो का यथासमय उपयोग करके राजा को आत्मरक्षा करनी चाहिये। ३. साम, दान, भेद और दण्ड–इन चार प्रकार की नीति को चतुर्वर्ग कहते हैं। ४. राजा, मन्त्री, राष्ट्र, किला, खजाना, सेना और मित्रवर्ग–ये परस्पर उपकार करने वाले राज्य के सात अङ्ग हैं। इन्हीं को सप्तवर्ग कहा गया है। ५. चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोषदर्शन, अर्थदूषण, वाणी की कठोरता और दण्ड की कठोरता ये क्रोध से उत्पन्न होने वाले आठ दोष अष्टवर्ग माने गये हैं। किसी-किसी के मत में खेती की उन्नति करना, व्यापार को बढ़ाना, दुर्ग बनवाना, पुल निर्माण कराना, जंगल से हाथी पकड़कर मँगवाना, खानों पर अधिकार प्राप्त करना, अधीन राजाओं से कर लेना और निर्जन प्रदेश को आबाद करना—ये राजा के लिये उपादेय आठ गुण ही अष्टवर्ग हैं। ६. धर्म, अर्थ और काम को अथवा उत्साह-शक्ति, प्रभुशक्ति तथा मन्त्रशक्ति को त्रिवर्ग कहते हैं। ७. त्रयी, वार्ता और दण्डनीति—ये तीन विद्याएँ हैं। इनमें तीनों वेदों को त्रयी कहते हैं। कृषि और गोरक्षा आदि वार्ता के अन्तर्गत हैं तथा नीतिशास्त्र का नाम दण्डनीति है। ८. संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय-ये छः गुण हैं। इनमें शत्रु से मेल रखना संधि, उससे लड़ाई छेड़ना विग्रह, आक्रमण करना यान, अवसर की प्रतीक्षामें बैठे रहना आसन, दुरंगी नीति बर्तना द्वैधीभाव और अपने से बलवान् राजा की शरण लेना समाश्रय कहलाता है। ९. आग लगना, बाढ़ आना, बीमारी फैलना, अकाल पड़ना और महामारी का प्रकोप होना—ये पाँच दैवी बाधाएँ हैं। राज्य के अधिकारियों. चोरों, शत्रुओं और राजा के प्रिय व्यक्तियों से स्वयं राजा के लोभ से जो भय प्राप्त होता है, उसे मानवी बाधा कहते हैं। १०. शत्रु राजाओं के सेवकों में से जिनको वेतन न मिला हो, जो अपमानित किये गये हों, जो अपने मालिक के किसी बर्ताव से कुपित हों तथा जिन्हें भय दिखाकर डराया गया हो, ऐसे लोगों को मनचाही वस्तु देकर फोड़ लेना राजा का कृत्य (नीतिपूर्ण कार्य) माना गया है। ११. बालक, वृद्ध, दीर्घकाल का रोगी, जातिच्युत, डरपोक, भीरु मनुष्यों को साथ रखने वाला, लोभी लालची लोगों को आश्रय देने वाला, मन्त्री, सेनापति आदि प्रकृतियों को असंतुष्ट रखने वाला, विषयों में आसक्त, चञ्चलचित्त मनुष्यों से सलाह लेने वाला, देवता और ब्राह्मणों की निन्दा करने वाला, दैवका मारा हुआ, भाग्य के भरोसे पुरुषार्थ न करने वाला, दुर्भिक्ष से पीड़ित, सैनिक-कष्ट से युक्त (सेनारहित), स्वदेश में न रहने वाला, अधिक शत्रुओं वाला, अकाल (क्रूर ग्रहदशा आदि से युक्त) और सत्यधर् मसे रहित—ये बीस प्रकार के राजा संधि के योग्य नहीं माने गये हैं। इन्हीं को विंशतिवर्ग के नाम से कहा गया है। १२. राज्य के स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना-राज्य के इन सात अङ्गों को ही प्रकृतिमण्डल कहते हैं। किसी-किसी के मत में मन्त्री, राष्ट्र, किला, खजाना और दण्ड—ये पाँच प्रकृतियाँ अलग हैं और बारह राजाओं के समूह को मण्डल कहा है। १३. द्वैधीभाव और समाश्रय-ये इनकी योनिसंधि हैं और यान तथा आसन इनकी योनिविग्रह हैं, अर्थात् प्रथम दो संधिमूलक और अन्तिम दो विग्रहमूलक हैं।

मन्त्रिभिस्त्वं यथोद्दिष्टं चतुर्भिस्त्रिभिरेव वा।
कच्चित् समस्तैर्व्यस्तैश्च मन्त्रं मन्त्रयसे बुध॥ ७१॥

‘विद्वन् ! क्या तुम नीतिशास्त्र की आज्ञा के अनुसार चार या तीन मन्त्रियों के साथ—सबको एकत्र करके अथवा सबसे अलग-अलग मिलकर सलाह करते हो? ॥ ७१॥

कच्चित् ते सफला वेदाः कच्चित् ते सफलाः कियाः।
कच्चित् ते सफला दाराः कच्चित् ते सफलं श्रुतम्॥७२॥

‘क्या तुम वेदों की आज्ञा के अनुसार काम करके उन्हें सफल करते हो? क्या तुम्हारी क्रियाएँ सफल (उद्देश्य की सिद्धि करने वाली) हैं? क्या तुम्हारी स्त्रियाँ भी सफल (संतानवती) हैं? और क्या तुम्हारा शास्त्रज्ञान भी विनय आदि गुणों का उत्पादक होकर सफल हुआ है ? ॥ ७२॥

कच्चिदेषैव ते बुद्धिर्यथोक्ता मम राघव।
आयुष्या च यशस्या च धर्मकामार्थसंहिता॥ ७३॥

‘रघुनन्दन ! मैंने जो कुछ कहा है, तुम्हारी बुद्धि का भी ऐसा ही निश्चय है न? क्योंकि यह विचार आयु और यश को बढ़ाने वाला तथा धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि करने वाला है॥७३॥

यां वृत्तिं वर्तते तातो यां च नः प्रपितामहः।
तां वृत्तिं वर्तसे कच्चिद् या च सत्पथगा शुभा॥ ७४॥

‘हमारे पिताजी जिस वृत्ति का आश्रय लेते हैं, हमारे प्रपितामहों ने जिस आचरण का पालन किया है, सत्पुरुष भी जिसका सेवन करते हैं और जो कल्याण का मूल है, उसीका तुम पालन करते हो न? ॥ ७४॥

कच्चित् स्वादुकृतं भोज्यमेको नाश्नासि राघव।
कच्चिदाशंसमानेभ्यो मित्रेभ्यः सम्प्रयच्छसि॥ ७५॥

‘रघुनन्दन ! तुम स्वादिष्ट अन्न अकेले ही तो नहीं खा जाते? उसकी आशा रखने वाले मित्रों को भी देते हो न?॥ ७५॥

राजा तु धर्मेण हि पालयित्वा महीपतिर्दण्डधरः प्रजानाम्।
अवाप्य कृत्स्नां वसुधां यथावदितश्च्युतः स्वर्गमुपैति विद्वान्॥७६॥

‘इस प्रकार धर्म के अनुसार दण्ड धारण करने वाला विद्वान् राजा प्रजाओं का पालन करके समूची पृथ्वी को यथावत् रूप से अपने अधिकार में कर लेता है तथा देहत्याग करने के पश्चात् स्वर्गलोक में जाता है’॥ ७६॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे शततमः सर्गः॥१००॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सौवाँ सर्ग पूरा हुआ।१००॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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