वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 101 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 101
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 101)
श्रीराम का भरत से वन में आगमन का प्रयोजन पूछना, भरत का उनसे राज्य ग्रहण करने के लिये कहना और श्रीराम का उसे अस्वीकार कर देना
तं तु रामः समाज्ञाय भ्रातरं गुरुवत्सलम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा प्रष्टुं समुपचक्रमे॥१॥
लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी ने अपने गुरुभक्त भाई भरत को अच्छी तरह समझाकर अथवा उन्हें अपने में अनुरक्त जानकर उनसे इस प्रकार पूछना आरम्भ किया— ॥१॥
किमेतदिच्छेयमहं श्रोतुं प्रव्याहृतं त्वया।
यन्निमित्तमिमं देशं कृष्णाजिनजटाधरः।।
हित्वा राज्यं प्रविष्टस्त्वं तत् सर्वं वक्तुमर्हसि ॥३॥
‘भाई! तुम राज्य छोड़कर वल्कल, कृष्णमृगचर्म और जटा धारण करके जो इस देश में आये हो, इसका क्या कारण है? जिस निमित्त से इस वन में तुम्हारा प्रवेश हुआ है, यह मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ। तुम्हें सब कुछ साफ-साफ बताना चाहिये’ ॥ २-३॥
इत्युक्तः केकयीपुत्रः काकुत्स्थेन महात्मना।
प्रगृह्य बलवद् भूयः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥४॥
ककुत्स्थवंशी महात्मा श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर भरत ने बलपूर्वक आन्तरिक शोक को दबा पुनः हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा- ॥४॥
आर्य तातः परित्यज्य कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
गतः स्वर्गं महाबाहः पुत्रशोकाभिपीडितः॥५॥
‘आर्य! हमारे महाबाहु पिता अत्यन्त दुष्कर कर्म करके पुत्रशोक से पीड़ित हो हमें छोड़कर स्वर्गलोक को चले गये॥५॥
चकार सा महत्पापमिदमात्मयशोहरम्॥६॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनन्दन! अपनी स्त्री एवं मेरी माता कैकेयी की प्रेरणा से ही विवश हो । पिताजी ने ऐसा कठोर कार्य किया था। मेरी माँ ने अपने सुयश को नष्ट करने वाला यह बड़ा भारी पाप किया है॥६॥
सा राज्यफलमप्राप्य विधवा शोककर्शिता।
पतिष्यति महाघोरे नरके जननी मम॥७॥
‘अतः वह राज्यरूपी फल न पाकर विधवा हो गयी। अब मेरी माता शोक से दुर्बल हो महाघोर नरक में पड़ेगी॥७॥
तस्य मे दासभूतस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि।
अभिषिञ्चस्व चाद्यैव राज्येन मघवानिव॥८॥
‘अब आप अपने दासस्वरूप मुझ भरत पर कृपा कीजिये और इन्द्र की भाँति आज ही राज्य ग्रहण करने के लिये अपना अभिषेक कराइये॥८॥
इमाः प्रकृतयः सर्वा विधवा मातरश्च याः।
त्वत्सकाशमनुप्राप्ताः प्रसादं कर्तुमर्हसि॥९॥
‘ये सारी प्रकृतियाँ (प्रजा आदि) और सभी विधवा माताएँ आपके पास आयी हैं। आप इन सबपर कृपा करें॥९॥
तथानुपूर्व्या युक्तश्च युक्तं चात्मनि मानद।
राज्यं प्राप्नुहि धर्मेण सकामान् सुहृदः कुरु॥ १०॥
‘दूसरों को मान देने वाले रघुवीर! आप ज्येष्ठ होने के नाते राज्य-प्राप्ति के क्रमिक अधिकार से युक्त हैं, न्यायतः आपको ही राज्य मिलना उचित है; अतः आप धर्मानुसार राज्य ग्रहण करें और अपने सुहृदों को सफल-मनोरथ बनावें॥ १०॥
भवत्वविधवा भूमिः समग्रा पतिना त्वया।
शशिना विमलेनेव शारदी रजनी यथा॥११॥
‘आप-जैसे पति से युक्त हो यह सारी वसुधा वैधव्यरहित हो जाय और निर्मल चन्द्रमा से सनाथ हुई शरत्काल की रात्रि के समान शोभा पाने लगे॥ ११॥
एभिश्च सचिवैः सार्धं शिरसा याचितो मया।
भ्रातुः शिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥१२॥
‘मैं इन समस्त सचिवों के साथ आपके चरणों में मस्तक रखकर यह याचना करता हूँ कि आप राज्य ग्रहण करें। मैं आपका भाई, शिष्य और दास हूँ आप मुझपर कृपा करें॥ १२ ॥
तदिदं शाश्वतं पित्र्यं सर्वं सचिवमण्डलम्।
पूजितं पुरुषव्याघ्र नातिक्रमितुमर्हसि ॥१३॥
‘पुरुषसिंह! यह सारा मन्त्रिमण्डल अपने यहाँ कुलपरम्परा से चला आ रहा है। ये सभी सचिव पिताजी के समय में भी थे। हम सदा से इनका सम्मान करते आये हैं, अतः आप इनकी प्रार्थना न ठुकरायें’ ॥ १३॥
एवमुक्त्वा महाबाहुः सबाष्पः कैकयीसुतः।
रामस्य शिरसा पादौ जग्राह भरतः पुनः॥१४॥
ऐसा कहकर कैकेयी पुत्र महाबाहु भरत ने नेत्रों से आँसू बहाते हुए पुनः श्रीरामचन्द्रजी के चरणों से माथा टेक दिया॥१४॥
तं मत्तमिव मातङ्गं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
भ्रातरं भरतं रामः परिष्वज्येदमब्रवीत्॥१५॥
उस समय वे मतवाले हाथी के समान बारंबार लंबी साँस खींचने लगे, तब श्रीराम ने भाई भरत को उठाकर हृदय से लगा लिया और इस प्रकार कहा- ॥१५॥
कुलीनः सत्त्वसम्पन्नस्तेजस्वी चरितव्रतः।
राज्यहेतोः कथं पापमाचरेन्मद्विधो जनः॥१६॥
‘भाई! तुम्हीं बताओ। उत्तम कुल में उत्पन्न, सत्त्वगुणसम्पन्न, तेजस्वी और श्रेष्ठ व्रतों का पालन करने वाला मेरे-जैसा मनुष्य राज्य के लिये पिताकी आज्ञाका उल्लङ्घन रूप पाप कैसे कर सकता है?॥ १६॥
न दोषं त्वयि पश्यामि सूक्ष्ममप्यरिसूदन।
न चापि जननीं बाल्यात् त्वं विगर्हितमर्हसि॥ १७॥
‘शत्रुसूदन ! मैं तुम्हारे अंदर थोड़ा-सा भी दोष नहीं देखता। अज्ञानवश तुम्हें अपनी माताकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये॥ १७॥
कामकारो महाप्राज्ञ गुरूणां सर्वदानघ।
उपपन्नेषु दारेषु पुत्रेषु च विधीयते॥१८॥
‘निष्पाप महाप्राज्ञ! गुरुजनों का अपनी अभीष्ट स्त्रियों और प्रिय पुत्रों पर सदा पूर्ण अधिकार होता है। वे उन्हें चाहे जैसी आज्ञा दे सकते हैं॥ १८ ॥
वयमस्य यथा लोके संख्याताः सौम्य साधुभिः।
भार्याः पुत्राश्च शिष्याश्च त्वमपि ज्ञातुमर्हसि॥
‘सौम्य! माताओंसहित हम भी इस लोक में श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा महाराज के स्त्री-पुत्र और शिष्य कहे गये हैं, अतः हमें भी उनको सब तरह की आज्ञा देने का अधिकार था। इस बात को तुम भी समझने योग्य हो।
वने वा चीरवसनं सौम्य कृष्णाजिनाम्बरम्।
राज्ये वापि महाराजो मां वासयितुमीश्वरः॥ २०॥
‘सौम्य! महाराज मुझे वल्कल वस्त्र और मृगचर्म धारण कराकर वन में ठहरावें अथवा राज्य पर बिठावें -इन दोनों बातों के लिये वे सर्वथा समर्थ थे॥ २० ॥
यावत् पितरि धर्मज्ञ गौरवं लोकसत्कृते।
तावद् धर्मकृतां श्रेष्ठ जनन्यामपि गौरवम्॥२१॥
‘धर्मज्ञ! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भरत! मनुष्य की विश्ववन्द्य पिता में जितनी गौरव-बुद्धि होती है, उतनी ही माता में भी होनी चाहिये॥२१॥
एताभ्यां धर्मशीलाभ्यां वनं गच्छेति राघव।
मातापितृभ्यामुक्तोऽहं कथमन्यत् समाचरे॥२२॥
‘रघुनन्दन! इन धर्मशील माता और पिता दोनों ने जब मुझे वन में जाने की आज्ञा दे दी है, तब मैं उनकी आज्ञा के विपरीत दूसरा कोई बर्ताव कैसे कर सकता हूँ? ॥ २२॥
त्वया राज्यमयोध्यायां प्राप्तव्यं लोकसत्कृतम्।
वस्तव्यं दण्डकारण्ये मया वल्कलवाससा॥ २३॥
‘तुम्हें अयोध्या में रहकर समस्त जगत् के लिये आदरणीय राज्य प्राप्त करना चाहिये और मुझे वल्कल वस्त्र धारण करके दण्डकारण्य में रहना चाहिये॥ २३॥
एवमुक्त्वा महाराजो विभागं लोकसंनिधौ।
व्यादिश्य च महाराजो दिवं दशरथो गतः॥२४॥
‘क्योंकि महाराज दशरथ बहुत लोगों के सामने हम दोनों के लिये इस प्रकार पृथक्-पृथक् दो आज्ञाएँ देकर स्वर्ग को सिधारे हैं॥ २४ ॥
स च प्रमाणं धर्मात्मा राजा लोकगुरुस्तव।
पित्रा दत्तं यथाभागमुपभोक्तुं त्वमर्हसि ॥२५॥
‘इस विषय में लोकगुरु धर्मात्मा राजा ही तुम्हारे लिये प्रमाणभूत हैं उन्हीं की आज्ञा तुम्हें माननी चाहिये और पिता ने तुम्हारे हिस्से में जो कुछ दिया है, उसीका तुम्हें यथावत् रूप से उपभोग करना चाहिये। २५॥
चतुर्दश समाः सौम्य दण्डकारण्यमाश्रितः।
उपभोक्ष्ये त्वहं दत्तं भागं पित्रा महात्मना॥ २६॥
‘सौम्य! चौदह वर्षोंतक दण्डकारण्य में रहने के बाद ही महात्मा पिता के दिये हुए राज्य-भाग का मैं उपभोग करूँगा॥ २६॥
यदब्रवीन्मां नरलोकसत्कृतः पिता महात्मा विबुधाधिपोपमः।
तदेव मन्ये परमात्मनो हितं न सर्वलोकेश्वरभावमव्ययम्॥२७॥
‘मनुष्यलोक में सम्मानित और देवराज इन्द्र के तुल्य तेजस्वी मेरे महात्मा पिता ने मुझे जो वनवास की आज्ञा दी है, उसीको मैं अपने लिये परम हितकारी समझता हूँ। उनकी आज्ञा के विरुद्ध सर्वलोकेश्वर ब्रह्मा का अविनाशी पद भी मेरे लिये श्रेयस्कर नहीं है’ ॥ २७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकाधिकशततमः सर्गः॥ १०१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ एकवाँ सर्ग पूराहुआ॥१०१॥
* * कुछ प्रतियों में यह सर्ग १०४ वें सर्ग के रूप में वर्णित है। १०० वें सर्ग के बाद के तीन स!के बाद इसका उल्लेख हुआ है।
धन्य हैं वो सभी लोग जो इस पुनीत कार्य में अपना समय और ऊर्जा लगा रहे हैं । सभी को मेरा प्रणाम ।
छोटा सा आर्थिक सहयोग देकर में भी इस पुनीत कार्य का सहभागी बनने पर खुशी है ।
जय श्री राम 🙏🙏
आपका हार्दिक आभार!