वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 102 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 102
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्व्यधिकशततमः सर्गः (सर्ग 102)
भरत का पुनः श्रीराम से राज्य ग्रहण करने का अनुरोध करके उनसे पिता की मृत्यु का समाचार बताना
रामस्य वचनं श्रुत्वा भरतः प्रत्युवाच ह।
किं मे धर्माद विहीनस्य राजधर्मः करिष्यति॥
श्रीरामचन्द्रजी की बात सुनकर भरत ने इस प्रकार उत्तर दिया— भैया! मैं राज्य का अधिकारी न होने के कारण उस राजधर्म के अधिकार से रहित हूँ, अतः मेरे लिये यह राजधर्म का उपदेश किस काम आयगा? ॥ १॥
शाश्वतोऽयं सदा धर्मः स्थितोऽस्मासु नरर्षभ।
ज्येष्ठ पुत्रे स्थिते राजा न कनीयान् भवेन्नृपः॥ २॥
‘नरश्रेष्ठ ! हमारे यहाँ सदा से ही इस शाश्वत धर्म का पालन होता आया है कि ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए छोटा पुत्र राजा नहीं हो सकता॥२॥
स समृद्धां मया सार्धमयोध्यां गच्छ राघव।
अभिषेचय चात्मानं कुलस्यास्य भवाय नः॥३॥
‘अतः रघुनन्दन! आप मेरे साथ समृद्धिशालिनी अयोध्यापुरी को चलिये और हमारे कुल के अभ्युदय के लिये राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइये॥३॥
राजानं मानुषं प्राहुर्देवत्वे सम्मतो मम।
यस्य धर्मार्थसहितं वृत्तमाहुरमानुषम्॥४॥
‘यद्यपि सब लोग राजा को मनुष्य कहते हैं, तथापि मेरी राय में वह देवत्वपर प्रतिष्ठित है; क्योंकि उसके धर्म और अर्थयुक्त आचार को साधारण मनुष्य के लिये असम्भावित बताया गया है॥ ४॥
केकयस्थे च मयि तु त्वयि चारण्यमाश्रिते।
धीमान् स्वर्गं गतो राजा यायजूकः सतां मतः॥
‘जब मैं केकयदेश में था और आप वन में चले आये थे, तब अश्वमेध आदि यज्ञों के कर्ता और सत्पुरुषों द्वारा सम्मानित बुद्धिमान् महाराज दशरथ स्वर्गलोक को चले गये॥५॥
निष्क्रान्तमात्रे भवति सहसीते सलक्ष्मणे।
दुःखशोकाभिभूतस्तु राजा त्रिदिवमभ्यगात्॥ ६॥
‘सीता और लक्ष्मण के साथ आपके राज्य से निकलते ही दुःख-शोक से पीड़ित हुए महाराज स्वर्गलोक को चल दिये॥६॥
उत्तिष्ठ पुरुषव्याघ्र क्रियतामुदकं पितुः।
अहं चायं च शत्रुघ्नः पूर्वमेव कृतोदकौ॥७॥
‘पुरुषसिंह ! उठिये और पिता को जलाञ्जलि दान कीजिये। मैं और यह शत्रुघ्न—दोनों पहले ही उनके लिये जलाञ्जलि दे चुके हैं॥७॥
प्रियेण किल दत्तं हि पितृलोकेषु राघव।
अक्षयं भवतीत्याहर्भवांश्चैव पितुः प्रियः॥८॥
‘रघुनन्दन! कहते हैं, प्रिय पुत्र का दिया हुआ जल आदि पितृलोक में अक्षय होता है और आप पिता के परम प्रिय पुत्र हैं॥८॥
त्वामेव शोचंस्तव दर्शनेप्सुस्त्वय्येव सक्तामनिवर्त्य बुद्धिम्।
त्वया विहीनस्तव शोकरुग्णस्त्वां संस्मरन्नेव गतः पिता ते॥९॥
‘आपके पिता आप से विलग होते ही शोक के कारण रुग्ण हो गये और आपके ही शोक में मग्न हो, आपको ही देखने की इच्छा रखकर, आपमें ही लगी हुई बुद्धि को आपकी ओर से न हटाकर, आपका ही स्मरण करते हुए स्वर्ग को चले गये’ ॥९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे व्यधिकशततमः सर्गः॥ १०२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्ड में एक सौ दोवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १०२॥