RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 103 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 103

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्र्यधिकशततमः सर्गः (सर्ग 103)

श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिये जलाञ्जलि-दान, पिण्डदान और रोदन

 

तां श्रुत्वा करुणां वाचं पितुर्मरणसंहिताम्।
राघवो भरतेनोक्तां बभूव गतचेतनः॥१॥

भरत की कही हुई पिता की मृत्यु से सम्बन्ध रखने वाली करुणाजनक बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी दुःख के कारण अचेत हो गये॥१॥

तं तु वज्रमिवोत्सृष्टमाहवे दानवारिणा।
वाग्वजं भरतेनोक्तममनोज्ञं परंतपः॥२॥
प्रगृह्य रामो बाहू वै पुष्पिताङ्ग इव द्रुमः।
वने परशुना कृत्तस्तथा भुवि पपात ह॥३॥

भरत के मुख से निकला हुआ वह वचन वज्र-सा लगा, मानो दानवशत्रु इन्द्र ने युद्धस्थल में वज्र का प्रहार-सा कर दिया हो। मन को प्रिय न लगने वाले उस वाग्-वज्र को सुनकर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर जिसकी डालियाँ खिली हुई हों, वन में कुल्हाड़ी से कटे हुए उस वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े (भरत के दर्शन से श्रीराम को हर्ष हुआ था, पिताकी मृत्यु के संवाद से दुःख; अतः उन्हें खिले और कटे हुए पेड़ की उपमा दी गयी है) ॥२-३॥

तथा हि पतितं रामं जगत्यां जगतीपतिम्।
कूलघातपरिश्रान्तं प्रसुप्तमिव कुञ्जरम्॥४॥
भ्रातरस्ते महेष्वासं सर्वतः शोककर्शितम्।
रुदन्तः सह वैदेह्या सिषिचुः सलिलेन वै॥५॥

पृथ्वीपति श्रीराम इस प्रकार पृथ्वी पर गिरकर नदी के तटको दाँतों से विदीर्ण करने के परिश्रम से थककर सोये हुए हाथी के समान प्रतीत होते थे। शोक के कारण दुर्बल हुए उन महाधनुर्धर श्रीराम को सब ओर से घेरकर सीतासहित रोते हुए वे तीनों भाई आँसुओं के जलसे भिगोने लगे॥ ४-५ ।।

स तु संज्ञां पुनर्लब्ध्वा नेत्राभ्यामश्रुमुत्सृजन्।
उपाक्रामत काकुत्स्थः कृपणं बहु भाषितुम्॥६॥

थोड़ी देर बाद पुनः होश में आने पर नेत्रों से अश्रुवर्षा करते हुए ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने अत्यन्त दीन वाणी में विलाप आरम्भ किया।॥ ६॥

स रामः स्वर्गतं श्रुत्वा पितरं पृथिवीपतिम्।
उवाच भरतं वाक्यं धर्मात्मा धर्मसंहितम्॥७॥

पृथ्वीपति महाराज दशरथ को स्वर्गगामी हुआ सुनकर धर्मात्मा श्रीराम ने भरत से यह धर्मयुक्त बात कही-

किं करिष्याम्ययोध्यायां ताते दिष्टां गतिं गते।
कस्तां राजवराद्धीनामयोध्यां पालयिष्यति॥८॥

‘भैया! जब पिताजी परलोकवासी हो गये, तब अयोध्या में चलकर अब मैं क्या करूँगा? उन राजशिरोमणि पिता से हीन हुई उस अयोध्या का अब कौन पालन करेगा? ॥ ८॥

किं नु तस्य मया कार्यं दुर्जातेन महात्मनः।
यो मृतो मम शोकेन स मया न च संस्कृतः॥९॥

‘हाय! जो पिताजी मेरे ही शोक से मृत्यु को प्राप्त हुए, उन्हीं का मैं दाह-संस्कार तक न कर सका। मुझ जैसे व्यर्थ जन्म लेने वाले पुत्र से उन महात्मा पिता का कौन-सा कार्य सिद्ध हुआ?॥ ९॥

अहो भरत सिद्धार्थो येन राजा त्वयानघ।
शत्रुजेन च सर्वेषु प्रेतकृत्येषु सत्कृतः॥१०॥

‘निष्पाप भरत ! तुम्हीं कृतार्थ हो, तुम्हारा अहोभाग्य है, जिससे तुमने और शत्रुघ्न ने सभी प्रेतकार्यों (पारलौकिककृत्यों) में संस्कार-कर्म के द्वारा महाराज का पूजन किया है।॥ १० ॥

निष्प्रधानामनेकानां नरेन्द्रेण विना कृताम्।
निवृत्तवनवासोऽपि नायोध्यां गन्तुमुत्सहे॥११॥

‘महाराज दशरथ से हीन हुई अयोध्या अब प्रधान शासक से रहित हो अस्वस्थ एवं आकुल हो उठी है; अतः वनवास से लौटने पर भी मेरे मन में अयोध्या जाने का उत्साह नहीं रह गया है। ११॥

समाप्तवनवासं मामयोध्यायां परंतप।
कोऽनुशासिष्यति पुनस्ताते लोकान्तरं गते॥ १२॥

‘परंतप भरत! वनवास की अवधि समाप्त करके यदि मैं अयोध्या में जाऊँ तो फिर कौन मुझे कर्तव्य का उपदेश देगा; क्योंकि पिताजी तो परलोकवासी हो गये॥ १२॥

पुरा प्रेक्ष्य सुवृत्तं मां पिता यान्याह सान्त्वयन्।
वाक्यानि तानि श्रोष्यामि कुतः कर्णसुखान्यहम्॥१३॥

‘पहले जब मैं उनकी किसी आज्ञा का पालन करता था, तब वे मेरे सद्व्यवहार को देखकर मेरा उत्साह बढ़ाने के लिये जो-जो बातें कहा करते थे, कानों को सुख पहुँचाने वाली उन बातों को अब मैं किसके मुख से सुनूँगा’॥

एवमुक्त्वाथ भरतं भार्यामभ्येत्य राघवः।
उवाच शोकसंतप्तः पूर्णचन्द्रनिभाननाम्॥१४॥

भरत से ऐसा कहकर शोकसंतप्त श्रीरामचन्द्रजी पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली अपनी पत्नी के पास आकर बोले- ॥१४॥

सीते मृतस्ते श्वशुरः पितृहीनोऽसि लक्ष्मण।
भरतो दःखमाचष्टे स्वर्गतिं पृथिवीपतेः॥१५॥

‘सीते! तुम्हारे श्वशुर चल बसे। लक्ष्मण! तुम पितृहीन हो गये। भरत पृथ्वीपति महाराज दशरथ के स्वर्गवास का दुःखदायी समाचार सुना रहे हैं’॥ १५ ॥

ततो बहुगुणं तेषां बाष्पं नेत्रेष्वजायत।
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे कुमाराणां यशस्विनाम्॥ १६॥

श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर उन सभी यशस्वी कुमारों के नेत्रों में बहुत अधिक आँसू उमड़ आये॥१६॥

ततस्ते भ्रातरः सर्वे भृशमाश्वास्य दुःखितम्।
अब्रुवञ्जगतीभर्तुः क्रियतामुदकं पितुः ॥१७॥

तदनन्तर सभी भाइयों ने दुःखी हुए श्रीरामचन्द्रजी को सान्त्वना देते हुए कहा—’भैया! अब पृथ्वीपति पिताजी के लिये जलाञ्जलि दान कीजिये’ ॥ १७ ॥

सा सीता स्वर्गतं श्रुत्वा श्वशुरं तं महानृपम्।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां न शशाकेक्षितुं प्रियम्॥ १८॥

अपने श्वशुर महाराज दशरथ के स्वर्गवास का समाचार सुनकर सीता के नेत्रों में आँसू भर आये। वे अपने प्रियतम श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख न सकीं। १८॥

सान्त्वयित्वा तु तां रामो रुदतीं जनकात्मजाम्।
उवाच लक्ष्मणं तत्र दुःखितो दुःखितं वचः॥ १९॥

तदनन्तर रोती हुई जनककुमारी को सान्त्वना देकर दुःखमग्न श्रीराम ने अत्यन्त दुःखी हुए लक्ष्मण से कहा॥

आनयेङ्गुदिपिण्याकं चीरमाहर चोत्तरम्।
जलक्रियार्थं तातस्य गमिष्यामि महात्मनः॥२०॥

‘भाई! तुम इङ्गदी का पिसा हुआ फल और चीर एवं उत्तरीय ले आओ। मैं महात्मा पिता को जलदान देने के लिये चलूँगा।।२०।।

सीता पुरस्ताद् व्रजतु त्वमेनामभितो व्रज।
अहं पश्चाद् गमिष्यामि गतिञ्जूषा सुदारुणा॥ २१॥

‘सीता आगे-आगे चलें। इनके पीछे तुम चलो और तुम्हारे पीछे मैं चलूँगा। शोक के समय की यही परिपाटी है, जो अत्यन्त दारुण होती है’ ॥२१॥

ततो नित्यानुगस्तेषां विदितात्मा महामतिः।
मृदुर्दान्तश्च कान्तश्च रामे च दृढभक्तिमान्॥ २२॥
सुमन्त्रस्तैर्नृपसुतैः सार्धमाश्वास्य राघवम्।
अवतारयदालम्ब्य नदीं मन्दाकिनीं शिवाम्॥ २३॥

तत्पश्चात् उनके कुल के परम्परागत सेवक, आत्मज्ञानी, परम बुद्धिमान्, कोमल स्वभाव वाले, जितेन्द्रिय, तेजस्वी और श्रीराम के सुदृढ़ भक्त सुमन्त्र समस्त राजकुमारों के साथ श्रीराम को धैर्य बँधाकर
उन्हें हाथ का सहारा दे कल्याणमयी मन्दाकिनी के तट पर ले गये। २२-२३॥

ते सुतीर्थां ततः कृच्छ्रादुपगम्य यशस्विनः।
नदीं मन्दाकिनी रम्यां सदा पुष्पितकाननाम्॥ २४॥
शीघ्रस्रोतसमासाद्य तीर्थं शिवमकर्दमम्।
सिषिचुस्तूदकं राज्ञे तत एतद् भवत्विति ॥२५॥

वे यशस्वी राजकुमार सदा पुष्पित कानन से सुशोभित, शीघ्र गति से प्रवाहित होने वाली और उत्तम घाटवाली रमणीय नदी मन्दाकिनी के तट पर कठिनाई से पहुँचे तथा उसके पङ्करहित, कल्याणप्रद, तीर्थभूत जल को लेकर उन्होंने राजा के लिये जल दिया। उस समय वे बोले—’पिताजी! यह जल आपकी सेवा में उपस्थित हो’।

प्रगृह्य तु महीपालो जलापूरितमञ्जलिम्।
दिशं याम्यामभिमुखो रुदन् वचनमब्रवीत्॥ २६॥
एतत् ते राजशार्दूल विमलं तोयमक्षयम्।
पितृलोकगतस्याद्य मद्दत्तमुपतिष्ठतु ॥२७॥

पृथ्वीपालक श्रीराम ने जल से भरी हुई अञ्जलि ले दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके रोते हुए इस प्रकार कहा—’मेरे पूज्य पिता राजशिरोमणि महाराज दशरथ! आज मेरा दिया हुआ यह निर्मल जल पितृलोक में गये हुए आपको अक्षय रूप से प्राप्त हो’॥ २६-२७॥

ततो मन्दाकिनीतीरं प्रत्युत्तीर्य स राघवः।
पितुश्चकार तेजस्वी निर्वापं भ्रातृभिः सह॥ २८॥

इसके बाद मन्दाकिनीके जल से निकलकर किनारे पर आकर तेजस्वी श्रीरघुनाथजी ने अपने भाइयों के साथ मिलकर पिताके लिये पिण्डदान किया॥२८॥

ऐङ्गदं बदरैर्मिश्रं पिण्याकं दर्भसंस्तरे।
न्यस्य रामः सुदुःखा? रुदन् वचनमब्रवीत्॥ २९॥

उन्होंने इङ्गदी के गूदे में बेर मिलाकर उसका पिण्ड तैयार किया और बिछे हुए कुशों पर उसे रखकर अत्यन्त दुःख से आर्त हो रोते हुए यह बात कही— ॥ २९॥

इदं भुक्ष्व महाराज प्रीतो यदशना वयम्।
यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः॥ ३०॥

‘महाराज! प्रसन्नतापूर्वक यह भोजन स्वीकार कीजिये; क्योंकि आजकल यही हम लोगों का आहार है। मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है, वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं’॥ ३०॥

ततस्तेनैव मार्गेण प्रत्युत्तीर्य सरित्तटात्।
आरुरोह नरव्याघ्रो रम्यसानुं महीधरम्॥३१॥
ततः पर्णकुटीद्वारमासाद्य जगतीपतिः।
परिजग्राह पाणिभ्यामुभौ भरतलक्ष्मणौ ॥३२॥

इसके बाद उसी मार्ग से मन्दाकिनी तट के ऊपर आकर पृथ्वीपालक पुरुषसिंह श्रीराम सुन्दर शिखर वाले चित्रकूट पर्वत पर चढ़े और पर्णकुटी के द्वार पर आकर भरत और लक्ष्मण दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर रोने लगे॥ ३१-३२ ॥

तेषां तु रुदतां शब्दात् प्रतिशब्दोऽभवद् गिरौ।
भ्रातॄणां सह वैदेह्या सिंहानां नर्दतामिव॥३३॥

सीतासहित रोते हुए उन चारों भाइयों के रुदन शब्द से उस पर्वत पर गरजते हुए सिंहों के दहाड़ने के समान प्रतिध्वनि होने लगी।॥ ३३॥

महाबलानां रुदतां कुर्वतामुदकं पितुः।
विज्ञाय तुमुलं शब्दं त्रस्ता भरतसैनिकाः॥३४॥
अब्रुवंश्चापि रामेण भरतः संगतो ध्रुवम्।
तेषामेव महान् शब्दः शोचतां पितरं मृतम्॥ ३५॥

पिताको जलाञ्जलि देकर रोते हुए उन महाबली भाइयों के रोदन का तुमुल नाद सुनकर भरत के सैनिक किसी भय की आशङ्का से डर गये। फिर उसे पहचानकर वे एक-दूसरे से बोले—’निश्चय ही भरत श्रीरामचन्द्रजी से मिले हैं। अपने परलोकवासी पिता के लिये शोक करने वाले उन चारों भाइयों के रोने का ही यह महान् शब्द है’ ।। ३४-३५ ॥

अथ वाहान् परित्यज्य तं सर्वेऽभिमुखाः स्वनम्।
अप्येकमनसो जग्मुर्यथास्थानं प्रधाविताः॥ ३६॥

यों कहकर उन सबने अपनी सवारियों को तो वहीं छोड़ दिया और जिस स्थान से वह आवाज आ रही थी, उसी ओर मुँह किये एकचित्त होकर वे दौड़ पड़े॥

हयैरन्ये गजैरन्ये रथैरन्ये स्वलंकृतैः।
सुकुमारास्तथैवान्ये पद्भिरेव नरा ययुः ॥ ३७॥

उनसे भिन्न जो सुकुमार मनुष्य थे, उनमें से कुछ लोग घोड़ों से, कुछ हाथियों से और कुछ सजे-सजाये रथों से ही आगे बढ़े। कितने ही मनुष्य पैदल ही चल दिये॥ ३७॥

अचिरप्रोषितं रामं चिरविप्रोषितं यथा।
द्रष्टकामो जनः सर्वो जगाम सहसाश्रमम्॥३८॥

यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी को परदेश में आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे, तथापि लोगों को ऐसा जान पड़ता था कि मानो वे दीर्घकाल से परदेश में रह रहे हैं; अतः सब लोग उनके दर्शन की इच्छा से सहसा आश्रम की ओर चल दिये॥ ३८॥

भ्रातृणां त्वरितास्ते तु द्रष्टुकामाः समागमम्।
ययुर्बहुविधैर्यानैः खुरनेमिसमाकुलैः॥३९॥

वे लोग चारों भाइयों का मिलन देखने की इच्छा से खुरों एवं पहियों से युक्त नाना प्रकार की सवारियों द्वारा बड़ी उतावली के साथ चले ॥ ३९॥

सा भूमिर्बहुभिर्यानै रथनेमिसमाहता।
मुमोच तुमुलं शब्दं द्यौरिवाभ्रसमागमे॥४०॥

अनेक प्रकार की सवारियों तथा रथ की पहियों से आक्रान्त हुई वह भूमि भयंकर शब्द करने लगी; ठीक उसी तरह जैसे मेघों की घटा घिर आने पर आकाश में गड़गड़ाहट होने लगती है॥ ४० ॥

तेन वित्रासिता नागाः करेणुपरिवारिताः।
आवासयन्तो गन्धेन जग्मुरन्यदनं ततः॥४१॥

उस तुमुल नाद से भयभीत हुए हाथी हथिनियों से घिरकर मद की गन्ध से उस स्थान को सुवासित करते हुए वहाँ से दूसरे वन में भाग गये। ४१॥

वराहवृकसिंहाश्च महिषाः सृमरास्तथा।
व्याघ्रगोकर्णगवया वित्रेसुः पृषतैः सह ॥४२॥

वराह, भेड़िये, सिंह, भैंसे, सृमर (मृगविशेष), व्याघ्र, गोकर्ण (मृगविशेष) और गवय (नीलगाय), चितकबरे हरिणों सहित संत्रस्त हो उठे॥ ४२ ॥

रथाह्वहंसानत्यूहाः प्लवाः कारण्डवाः परे।
तथा पुंस्कोकिलाः क्रौञ्चा विसंज्ञा भेजिरे दिशः॥४३॥

चक्रवाक, हंस, जलकुक्कुट, वक, कारण्डव, नरकोकिल और क्रौञ्च पक्षी होश-हवाश खोकर विभिन्न दिशाओं में उड़ गये॥ ४३॥

तेन शब्देन वित्रस्तैराकाशं पक्षिभिर्वृतम्।
मनुष्यैरावृता भूमिरुभयं प्रबभौ तदा॥४४॥

उस शब्द से डरे हुए पक्षी आकाश में छा गये और नीचे की भूमि मनुष्यों से भर गयी। इस प्रकार उन दोनों की समानरूप से शोभा होने लगी॥४४॥

ततस्तं पुरुषव्याघ्रं यशस्विनमकल्मषम्।
आसीनं स्थण्डिले रामं ददर्श सहसा जनः॥ ४५॥

लोगों ने सहसा पहुँचकर देखा—यशस्वी, पापरहित, पुरुषसिंह श्रीराम वेदी पर बैठे हैं॥ ४५ ॥

विगर्हमाणः कैकेयीं मन्थरासहितामपि।
अभिगम्य जनो रामं बाष्पपूर्णमुखोऽभवत्॥ ४६॥

श्रीराम के पास जाने पर सबके मुख आँसुओं से भीग गये और सब लोग मन्थरासहित कैकेयी की निन्दा करने लगे॥ ४६॥

तान् नरान् बाष्पपूर्णाक्षान् समीक्ष्याथ सुदुःखितान्।
पर्यष्वजत धर्मज्ञः पितृवन्मातृवच्च सः॥४७॥

उन सब लोगों के नेत्र आँसुओं से भरे हुए थे और वे सब-के-सब अत्यन्त दुःखी हो रहे थे। धर्मज्ञ श्रीराम ने उन्हें देखकर पिता-माताकी भाँति हृदय से लगाया।

स तत्र कांश्चित् परिषस्वजे नरान् नराश्च केचित्तु तमभ्यवादयन्।
चकार सर्वान् सवयस्यबान्धवान् यथार्हमासाद्य तदा नृपात्मजः॥४८॥

श्रीराम ने कुछ मनुष्यों को वहाँ छाती से लगाया तथा कुछ लोगों ने पहुँचकर वहाँ उनके चरणों में प्रणाम किया। राजकुमार श्रीराम ने उस समय वहाँ आये हुए सभी मित्रों और बन्धु-बान्धवों का यथायोग्य सम्मान किया॥४८॥

ततः स तेषां रुदतां महात्मनां भुवं च खं चानुविनादयन् स्वनः।
गुहा गिरीणां च दिशश्च संततं मृदङ्गघोषप्रतिमो विशुश्रुवे॥४९॥

उस समय वहाँ रोते हुए उन महात्माओं का वह रोदन-शब्द पृथ्वी, आकाश, पर्वतों की गुफा और सम्पूर्ण दिशाओं को निरन्तर प्रतिध्वनित करता हुआ मृदङ्गकी ध्वनि के समान सुनायी पड़ता था॥ ४९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्र्यधिकशततमः सर्गः॥ १०३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ तीनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १०३॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: