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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 106 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 106

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षडधिकशततमः सर्गः (सर्ग 106)

भरत की पुनः श्रीराम से अयोध्या लौटने और राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना

 

एवमुक्त्वा तु विरते रामे वचनमर्थवत्।
ततो मन्दाकिनीतीरे रामं प्रकृतिवत्सलम्॥१॥
उवाच भरतश्चित्रं धार्मिको धिार्मकं वचः।
को हि स्यादीदृशो लोके यादृशस्त्वमरिंदम॥२॥

ऐसा अर्थयुक्त वचन कहकर जब श्रीराम चुप हो गये, तब धर्मात्मा भरत ने मन्दाकिनी के तट पर प्रजावत्सल धर्मात्मा श्रीराम से यह विचित्र बात कही —’शत्रुदमन रघुवीर! इस जगत् में जैसे आप हैं, वैसा दूसरा कौन हो सकता है ? ॥ १-२॥

न त्वां प्रव्यथयेद दुःखं प्रीतिर्वा न प्रहर्षयेत्।
सम्मतश्चापि वृद्धानां तांश्च पृच्छसि संशयान्॥ ३॥

‘कोई भी दुःख आपको व्यथित नहीं कर सकता। कितनी ही प्रिय बात क्यों न हो, वह आपको हर्षोत्फुल्ल नहीं कर सकती। वृद्ध पुरुषों के सम्माननीय होकर भी आप उनसे संदेह की बातें पूछते हैं॥३॥

यथा मृतस्तथा जीवन् यथासति तथा सति।
यस्यैष बुद्धिलाभः स्यात् परितप्येत केन सः॥ ४॥

‘जैसे मरे हुए जीवका अपने शरीर आदि से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, उसी प्रकार जीते-जी भी वह उनके सम्बन्धसे रहित है। जैसे वस्तु के अभाव में उसके प्रति राग-द्वेष नहीं होता, वैसे ही उसके रहने पर भी मनुष्य को राग-द्वेष से शुन्य होना चाहिये। जिसे ऐसी विवेकयुक्त बुद्धि प्राप्त हो गयी है, उसको संताप क्यों होगा? ॥ ४॥

परावरज्ञो यश्च स्याद् यथा त्वं मनुजाधिप।
स एव व्यसनं प्राप्य न विषीदितुमर्हति॥५॥

‘नरेश्वर! जिसे आपके समान आत्मा और अनात्माका ज्ञान है, वही संकट में पड़ने पर भी विषाद नहीं कर सकता॥५॥

अमरोपमसत्त्वस्त्वं महात्मा सत्यसंगरः।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च बुद्धिमांश्चासि राघव॥६॥

‘रघुनन्दन! आप देवताओं की भाँति सत्त्वगुण से सम्पन्न, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, सर्वज्ञ, सबके साक्षी और बुद्धिमान् हैं॥६॥

न त्वामेवंगुणैर्युक्तं प्रभवाभवकोविदम्।
अविषह्यतमं दुःखमासादयितुमर्हति॥७॥

‘ऐसे उत्तम गुणों से युक्त और जन्म-मरण के रहस्य को जानने वाले आपके पास असह्य दुःख नहीं आ सकता॥ ७॥

प्रोषिते मयि यत् पापं मात्रा मत्कारणात् कृतम्।
क्षुद्रया तदनिष्टं मे प्रसीदतु भवान् मम॥८॥

‘जब मैं परदेश में था, उस समय नीच विचार रखने वाली मेरी माता ने मेरे लिये जो पाप कर डाला, वह मुझे अभीष्ट नहीं है; अतः आप उसे क्षमा करके मुझ पर प्रसन्न हों॥८॥

धर्मबन्धेन बद्धोऽस्मि तेनेमां नेह मातरम्।
हन्मि तीव्रण दण्डेन दण्डाहाँ पापकारिणीम्॥

‘मैं धर्म के बन्धन में बँधा हूँ, इसलिये इस पाप करने वाली एवं दण्डनीय माता को मैं कठोर दण्ड देकर मार नहीं डालता॥९॥

कथं दशरथाज्जातः शुभाभिजनकर्मणः।
जानन् धर्ममधर्मं च कुर्यां कर्म जुगुप्सितम्॥ १०॥

‘जिनके कुल और कर्म दोनों ही शुभ थे, उन महाराज दशरथ से उत्पन्न होकर धर्म और अधर्म को जानता हुआ भी मैं मातृवधरूपी लोकनिन्दित कर्म कैसे करूँ? ॥ १०॥

गुरुः क्रियावान् वृद्धश्च राजा प्रेतः पितेति च।
तातं न परिगर्हेऽहं दैवतं चेति संसदि॥११॥

‘महाराज मेरे गुरु, श्रेष्ठ यज्ञकर्म करने वाले, बड़ेबूढ़े, राजा, पिता और देवता रहे हैं और इस समय परलोकवासी हो चुके हैं, इसीलिये इस भरी सभा में मैं उनकी निन्दा नहीं करता हूँ॥ ११ ॥

को हि धर्मार्थयो नमीदृशं कर्म किल्बिषम्।
स्त्रियः प्रियचिकीर्षुः सन् कुर्याद् धर्मज्ञ धर्मवित्॥ १२॥

‘धर्मज्ञ रघुनन्दन! कौन ऐसा मनुष्य है, जो धर्म को जानते हुए भी स्त्री का प्रिय करने की इच्छा से ऐसा धर्मऔर अर्थ से हीन कुत्सित कर्म कर सकता है ? ॥ १२॥

अन्तकाले हि भूतानि मुह्यन्तीति पुरा श्रुतिः।
राज्ञैवं कुर्वता लोके प्रत्यक्षा सा श्रुतिः कृता॥ १३॥

‘लोक में एक प्राचीन किंवदन्ती है कि अन्तकाल में सब प्राणी मोहित हो जाते हैं उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। राजा दशरथ ने ऐसा कठोर कर्म करके उस किंवदन्ती की सत्यता को प्रत्यक्ष कर दिखाया॥ १३ ॥

साध्वर्थमभिसंधाय क्रोधान्मोहाच्च साहसात्।
तातस्य यदतिक्रान्तं प्रत्याहरतु तद् भवान्॥१४॥

‘पिताजी ने क्रोध, मोह और साहस के कारण ठीक समझ कर जो धर्म का उल्लङ्घन किया है, उसे आप पलट दें—उसका संशोधन कर दें॥१४॥

पितुर्हि समतिक्रान्तं पुत्रो यः साधु मन्यते।
तदपत्यं मतं लोके विपरीतमतोऽन्यथा॥१५॥

‘जो पुत्र पिताकी की हुई भूल को ठीक कर देता है, वही लोक में उत्तम संतान माना गया है। जो इसके विपरीत बर्ताव करता है, वह पिताकी श्रेष्ठ संतति नहीं है॥ १५ ॥

तदपत्यं भवानस्तु मा भवान् दुष्कृतं पितुः।
अति यत् तत् कृतं कर्म लोके धीरविगर्हितम्॥

‘अतः आप पिताकी योग्य संतान ही बने रहें। उनके अनुचित कर्म का समर्थन न करें। उन्होंने इस समय जो कुछ किया है, वह धर्म की सीमा से बाहर है। संसार में धीर पुरुष उसकी निन्दा करते हैं॥ १६ ॥

कैकेयीं मां च तातं च सुहृदो बान्धवांश्च नः।
पौरजानपदान् सर्वांस्त्रातुं सर्वमिदं भवान्॥१७॥

‘कैकेयी, मैं, पिताजी, सुहृद्गुण, बन्धु-बान्धव, पुरवासी तथा राष्ट्र की प्रजा-इन सबकी रक्षा के लिये आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें॥ १७॥

क्व चारण्यं क्व च क्षात्रं क्व जटाः क्व च
पालनम्। ईदृशं व्याहतं कर्म न भवान् कर्तुमर्हति॥१८॥

‘कहाँ वनवास और कहाँ क्षात्रधर्म? कहाँ जटाधारण और कहाँ प्रजा का पालन? ऐसे परस्परविरोधी कर्म आपको नहीं करने चाहिये ॥ १८ ॥

एष हि प्रथमो धर्मः क्षत्रियस्याभिषेचनम्।
येन शक्यं महाप्राज्ञ प्रजानां परिपालनम्॥१९॥

‘महाप्राज्ञ! क्षत्रिय के लिये पहला धर्म यही है कि उसका राज्यपर अभिषेक हो, जिससे वह प्रजा का भलीभाँति पालन कर सके॥१९॥

कश्च प्रत्यक्षमुत्सृज्य संशयस्थमलक्षणम्।
आयतिस्थं चरेद् धर्मं क्षत्रबन्धुरनिश्चितम्॥ २०॥

‘भला कौन ऐसा क्षत्रिय होगा, जो प्रत्यक्ष सुख के साधनभूत प्रजापालन रूप धर्म का परित्याग करके संशय में स्थित, सुखके लक्षणसे रहित, भविष्य में फल देने वाले अनिश्चित धर्मका आचरण करेगा?॥ २०॥

अथ क्लेशजमेव त्वं धर्मं चरितुमिच्छसि।
धर्मेण चतुरो वर्णान् पालयन् क्लेशमाप्नुहि ॥ २१॥

‘यदि आप क्लेशसाध्य धर्म का ही आचरण करना चाहते हैं तो धर्मानुसार चारों वर्गों का पालन करते हुए ही कष्ट उठाइये॥ २१॥

चतुर्णामाश्रमाणां हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमुत्तमम्।
आहुर्धर्मज्ञ धर्मज्ञास्तं कथं त्यक्तुमिच्छसि ॥२२॥

“धर्मज्ञ रघुनन्दन! धर्म के ज्ञाता पुरुष चारों आश्रमों में गार्हस्थ्य को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं, फिर आप उसका परित्याग क्यों करना चाहते हैं? ॥ २२॥

श्रुतेन बालः स्थानेन जन्मना भवतो ह्यहम्।
स कथं पालयिष्यामि भूमिं भवति तिष्ठति॥ २३॥

‘मैं शास्त्रज्ञान और जन्मजात अवस्था दोनों ही दृष्टियों से आपकी अपेक्षा बालक हूँ, फिर आपके रहते हुए मैं वसुधा का पालन कैसे करूँगा? ।। २३॥

हीनबुद्धिगुणो बालो हीनस्थानेन चाप्यहम्।
भवता च विनाभूतो न वर्तयितुमुत्सहे॥२४॥

‘मैं बुद्धि और गुण दोनों से हीन हूँ, बालक हूँ तथा मेरा स्थान आपसे बहुत छोटा है; अतः मैं आपके बिना जीवन-धारण भी नहीं कर सकता, राज्य का पालन तो दूरकी बात है॥२४॥

इदं निखिलमप्यग्रयं राज्यं पित्र्यमकण्टकम्।
अनुशाधि स्वधर्मेण धर्मज्ञ सह बान्धवैः॥ २५॥

‘धर्मज्ञ रघुनन्दन! पिताका यह सारा राज्य श्रेष्ठ और निष्कण्टक है, अतः आप बन्धु-बान्धवों के साथ स्वधर्मानुसार इसका पालन कीजिये॥ २५ ॥

इहैव त्वाभिषिञ्चन्तु सर्वाः प्रकृतयः सह।
ऋत्विजः सवसिष्ठाश्च मन्त्रविन्मन्त्रकोविदाः॥ २६॥

‘मन्त्रज्ञ रघुवीर! मन्त्रों के ज्ञाता महर्षि वसिष्ठ आदि सभी ऋत्विज् तथा मन्त्री, सेनापति और प्रजा आदि सारी प्रकृतियाँ यहाँ उपस्थित हैं। ये सब लोग यहीं आपका राज्याभिषेक करें॥ २६॥

अभिषिक्तस्त्वमस्माभिरयोध्यां पालने व्रज।
विजित्य तरसा लोकान् मरुद्भिरिव वासवः॥ २७॥

‘हमलोगों के द्वारा अभिषिक्त होकर आप मरुद्गणों से अभिषिक्त हुए इन्द्र की भाँति वेगपूर्वक सब लोकों को जीतकर प्रजा का पालन करने के लिये अयोध्या को चलें॥

ऋणानि त्रीण्यपाकुर्वन् दुहृदः साधु निर्दहन्।
सुहृदस्तर्पयन् कामैस्त्वमेवात्रानुशाधि माम्॥ २८॥

‘वहाँ देवता, ऋषि और पितरों का ऋण चुकायें, दुष्ट शत्रुओं का भलीभाँति दमन करें तथा मित्रों को उनके इच्छानुसार वस्तुओं द्वारा तृप्त करते हुए आप ही अयोध्या में  मुझे धर्म की शिक्षा देते रहें॥२८॥

अद्यार्य मुदिताः सन्तु सुहृदस्तेऽभिषेचने।
अद्य भीताः पलायन्तु दुष्प्रदास्ते दिशो दश॥ २९॥

‘आर्य! आपका अभिषेक सम्पन्न होने पर सुहृद्गण प्रसन्न हों और दुःख देने वाले आपके शत्रु भयभीत होकर दसों दिशाओं में भाग जायें ॥ २९॥

आक्रोशं मम मातुश्च प्रमृज्य पुरुषर्षभ।
अद्य तत्रभवन्तं च पितरं रक्ष किल्बिषात्॥३०॥

‘पुरुषप्रवर! आज आप मेरी माता के कलङ्क को धो-पोंछकर पूज्य पिताजी को भी निन्दा से बचाइये। ३०॥

शिरसा त्वाभियाचेऽहं कुरुष्व करुणां मयि।
बान्धवेषु च सर्वेषु भूतेष्विव महेश्वरः॥३१॥

‘मैं आपके चरणों में माथा टेककर याचना करता हूँ। आप मुझपर दया कीजिये। जैसे महादेवजी सब प्राणियों पर अनुग्रह करते हैं, उसी प्रकार आप भी अपने बन्धु-बान्धवों पर कृपा कीजिये॥३१॥

अथवा पृष्ठतः कृत्वा वनमेव भवानितः।
गमिष्यति गमिष्यामि भवता सार्धमप्यहम्॥३२॥

‘अथवा यदि आप मेरी प्रार्थना को ठुकराकर यहाँ से वन को ही जायँगे तो मैं भी आपके साथ जाऊँगा’। ३२॥

तथाभिरामो भरतेन ताम्यता प्रसाद्यमानः शिरसा महीपतिः।
न चैव चक्रे गमनाय सत्त्ववान् मतिं पितुस्तद् वचने प्रतिष्ठितः॥३३॥

ग्लानि में पड़े हुए भरत ने मनोभिराम राजा श्रीराम को उनके चरणों में माथा टेककर प्रसन्न करने की चेष्टा की तथापि उन सत्त्वगुणसम्पन्न रघुनाथजी ने  पिताकी आज्ञा में ही दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर अयोध्या जाने का विचार नहीं किया॥३३॥

तदद्भुतं स्थैर्यमवेक्ष्य राघवे समं जनो हर्षमवाप दुःखितः।
न यात्ययोध्यामिति दुःखितोऽभवत् स्थिरप्रतिज्ञत्वमवेक्ष्य हर्षितः॥३४॥

श्रीरामचन्द्रजी की वह अद्भुत दृढ़ता देखकर सबलोग एक ही साथ दुःखी भी हुए और हर्ष को भी प्राप्त हुए। ये अयोध्या नहीं जा रहे हैं—यह सोचकर वे दुःखी हुए और प्रतिज्ञा-पालन में उनकी दृढ़ता देखकर उन्हें हर्ष हुआ॥

तमृत्विजो नैगमयूथवल्लभास्तथा विसंज्ञाश्रुकलाश्च मातरः।
तथा ब्रुवाणं भरतं प्रतुष्टवुः प्रणम्य रामं च ययाचिरे सह ॥ ३५॥

उस समय ऋत्विज् पुरवासी, भिन्न-भिन्न समुदाय के नेता और माताएँ अचेत-सी होकर आँस बहाती हुई पूर्वोक्त बातें कहने वाली भरत की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगी और सबने उनके साथ ही योग्यतानुसार श्रीरामजी के सामने विनीत होकर उनसे अयोध्या लौट चलने की याचना की॥ ३५ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षडधिकशततमः सर्गः॥ १०६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ छवाँ सर्ग पूराहुआ॥ १०६॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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