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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 107 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 107

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्ताधिकशततमः सर्गः (सर्ग 107)

श्रीराम का भरत को समझाकर उन्हें अयोध्या जाने का आदेश देना

 

पुनरेवं ब्रुवाणं तं भरतं लक्ष्मणाग्रजः।
प्रत्युवाच ततः श्रीमान् ज्ञातिमध्ये सुसत्कृतः॥

जब भरत पुनः इस प्रकार प्रार्थना करने लगे, तब कुटुम्बीजनों के बीच में सत्कारपूर्वक बैठे हुए लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीमान् रामचन्द्रजी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१॥

उपपन्नमिदं वाक्यं यस्त्वमेवमभाषथाः।
जातः पुत्रो दशरथात् कैकेय्यां राजसत्तमात्॥ २॥

‘भाई! तुम नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ के द्वारा केकयराज कन्या माता कैकेयी के गर्भसे उत्पन्न हुए हो; अतःतुमने जो ऐसे उत्तम वचन कहे हैं, वे सर्वथा तुम्हारे योग्य हैं।

पुरा भ्रातः पिता नः स मातरं ते समुद्रहन्।
मातामहे समाश्रौषीद् राज्यशुल्कमनुत्तमम्॥३॥

‘भैया ! आज से बहुत पहले की बात है—पिताजी का जब तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था, तभी उन्होंने तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी॥३॥

देवासुरे च संग्रामे जनन्यै तव पार्थिवः।
सम्प्रहृष्टो ददौ राजा वरमाराधितः प्रभुः ॥४॥

‘इसके बाद देवासुर-संग्राम में तुम्हारी माता ने प्रभावशाली महाराज की बड़ी सेवा की; इससे संतुष्ट होकर राजा ने उन्हें वरदान दिया॥४॥

ततः सा सम्प्रतिश्राव्य तव माता यशस्विनी।
अयाचत नरश्रेष्ठं द्वौ वरौ वरवर्णिनी॥५॥

‘उसी की पूर्ति के लिये प्रतिज्ञा कराकर तुम्हारी श्रेष्ठ वर्णवाली यशस्विनी माता ने उन नरश्रेष्ठ पिताजी से दो वर माँगे॥५॥

तव राज्यं नरव्याघ्र मम प्रव्राजनं तथा।
तच्च राजा तथा तस्यै नियुक्तः प्रददौ वरम्॥६॥

‘पुरुषसिंह ! एक वर के द्वारा इन्होंने तुम्हारे लिये राज्य माँगा और दूसरे के द्वारा मेरा वनवास। इनसे इस प्रकार प्रेरित होकर राजा ने वे दोनों वर इन्हें दे दिये॥

तेन पित्राहमप्यत्र नियुक्तः पुरुषर्षभ।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वरदानिकम्॥७॥

‘पुरुषप्रवर! इस प्रकार उन पिताजी ने वरदान के रूप में मुझे चौदह वर्षों तक वनवास की आज्ञा दी है।

सोऽयं वनमिदं प्राप्तो निर्जनं लक्ष्मणान्वितः।
सीतया चाप्रतिद्वन्द्वः सत्यवादे स्थितः पितुः॥ ८॥

‘यही कारण है कि मैं सीता और लक्ष्मण के साथ इस निर्जन वन में चला आया हूँ। यहाँ मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। मैं यहाँ पिताजी के सत्य की रक्षा में स्थित रहूँगा॥

भवानपि तथेत्येव पितरं सत्यवादिनम्।
कर्तुमर्हसि राजेन्द्र क्षिप्रमेवाभिषिञ्चनात्॥९॥

‘राजेन्द्र ! तुम भी उनकी आज्ञा मानकर शीघ्र ही राज्य पद पर अपना अभिषेक करा लो और पिता को सत्यवादी बनाओ—यही तुम्हारे लिये उचित है॥९॥

ऋणान्मोचय राजानं मत्कृते भरत प्रभुम्।
पितरं त्राहि धर्मज्ञ मातरं चाभिनन्दय॥१०॥

‘धर्मज्ञ भरत! तुम मेरे लिये पूज्य पिता राजा दशरथ को कैकेयी के ऋण से मुक्त करो, उन्हें नरक में गिरने से बचाओ और माता का भी आनन्द बढ़ाओ॥ १०॥

श्रूयते धीमता तात श्रुतिर्गीता यशस्विना।
गयेन यजमानेन गयेष्वेव पितॄन् प्रति॥११॥

‘तात! सुना जाता है कि बुद्धिमान्, यशस्वी राजा गयने गय-देश में ही यज्ञ करते हुए पितरों के प्रति एक कहावत कही थी॥ ११॥

पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितॄन् यः पाति सर्वतः॥ १२॥

‘(वह इस प्रकार है-) बेटा पुत् नामक नरक से पिता का उद्धार करता है, इसलिये वह पुत्र कहा गया है। वही पुत्र है, जो पितरों की सब ओर से रक्षा करता

एष्टव्या बहवः पुत्रा गुणवन्तो बहुश्रुताः।
तेषां वै समवेतानामपि कश्चिद् गयां व्रजेत्॥ १३॥

‘बहुत-से गुणवान् और बहुश्रुत पुत्रों की इच्छा करनी चाहिये। सम्भव है कि प्राप्त हुए उन पुत्रों में से कोई एक भी गया की यात्रा करे ? ॥ १३॥

एवं राजर्षयः सर्वे प्रतीता रघुनन्दन।
तस्मात् त्राहि नरश्रेष्ठ पितरं नरकात् प्रभो॥१४॥

‘रघुनन्दन! नरश्रेष्ठ भरत! इस प्रकार सभी राजर्षियों ने पितरों के उद्धार का निश्चय किया है, अतः प्रभो! तुम भी अपने पिता का नरक से उद्धार करो॥ १४॥

अयोध्यां गच्छ भरत प्रकृतीरुपरञ्जय।
शत्रुघ्नसहितो वीर सह सर्वैर्द्विजातिभिः॥१५॥

‘वीर भरत! तुम शत्रुघ्न तथा समस्त ब्राह्मणों को साथ लेकर अयोध्या को लौट जाओ और प्रजा को सुख दो॥

प्रवेक्ष्ये दण्डकारण्यमहमप्यविलम्बयन्।
आभ्यां तु सहितो वीर वैदेह्या लक्ष्मणेन च॥

‘वीर! अब मैं भी लक्ष्मण और सीता के साथ शीघ्र ही दण्डकारण्य में प्रवेश करूँगा॥१६॥

त्वं राजा भरत भव स्वयं नराणां वन्यानामहमपि राजराण्मृगाणाम्।
गच्छ त्वं पुरवरमद्य सम्प्रहृष्टः संहृष्टस्त्वहमपि दण्डकान् प्रवेक्ष्ये॥१७॥

‘भरत! तुम स्वयं मनुष्यों के राजा बनो और मैं जंगली पशुओं का सम्राट बनूँगा। अब तुम अत्यन्त हर्षपूर्वक श्रेष्ठ नगर अयोध्या को जाओ और मैं भी प्रसन्नतापूर्वक दण्डक-वन में प्रवेश करूँगा॥ १७ ॥

छायां ते दिनकरभाः प्रबाधमानं वर्षत्रं भरत करोतु मूर्ध्नि शीताम्।
एतेषामहमपि काननद्रुमाणां छायां तामतिशयिनीं शनैः श्रयिष्ये॥१८॥

‘भरत ! सूर्य की प्रभा को तिरोहित कर देने वाला छत्र तुम्हारे मस्तक पर शीतल छाया करे। अब मैं भी धीरे-धीरे इन जंगली वृक्षों की घनी छाया का आश्रय लूँगा। १८॥

शत्रुघ्नस्त्वतुलमतिस्तु ते सहायः सौमित्रिर्मम विदितः प्रधानमित्रम्।
चत्वारस्तनयवरा वयं नरेन्द्र सत्यस्थं भरत चराम मा विषीद॥१९॥

‘भरत! अतुलित बुद्धिवाले शत्रुघ्न तुम्हारी सहायता में रहें और सुविख्यात सुमित्राकुमार लक्ष्मण मेरे प्रधान मित्र (सहायक) हैं; हम चारों पुत्र अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा करें। तुम विषाद मत करो’ ॥ १९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्ताधिकशततमः सर्गः॥ १०७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १०७॥


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