वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 11 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 11
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकादशः सर्गः (सर्ग 11)
कैकेयी का राजा को दो वरों का स्मरण दिलाकर भरत के लिये अभिषेक और राम के लिये चौदह वर्षों का वनवास माँगना
तं मन्मथशरैर्विद्धं कामवेगवशानुगम्।
उवाच पृथिवीपालं कैकेयी दारुणं वचः॥१॥
भूपाल दशरथ कामदेव के बाणों से पीड़ित तथा कामवेग के वशीभूत हो उसी का अनुसरण कर रहे थे। उनसे कैकेयी ने यह कठोर वचन कहा- ॥१॥
नास्मि विप्रकृता देव केनचिन्नावमानिता।
अभिप्रायस्तु मे कश्चित् तमिच्छामि त्वया कृतम्॥२॥
‘देव! न तो किसी ने मेरा अपकार किया है और न किसी के द्वारा मैं अपमानित या निन्दित ही हुई हूँ। मेरा कोई एक अभिप्राय (मनोरथ) है और मैं आपके द्वारा उसकी पूर्ति चाहती हूँ॥२॥
प्रतिज्ञा प्रतिजानीष्व यदि त्वं कर्तुमिच्छसि।
अथ ते व्याहरिष्यामि यथाभिप्रार्थितं मया॥३॥
‘यदि आप उसे पूर्ण करना चाहते हों तो प्रतिज्ञा कीजिये। इसके बाद मैं अपना वास्तविक अभिप्राय आपसे कहूँगी’॥३॥
तामुवाच महाराजः कैकेयीमीषदुत्स्मयः।
कामी हस्तेन संगृह्य मूर्धजेषु भुवि स्थिताम्॥४॥
महाराज दशरथ काम के अधीन हो रहे थे। वे कैकेयी की बात सुनकर किंचित् मुस्कराये और पृथ्वी पर पड़ी हुई उस देवी के केशों को हाथ से पकड़कर उसके सिर को अपनी गोद में रखकर उससे इस प्रकार बोले- ॥४॥
अवलिप्ते न जानासि त्वत्तः प्रियतरो मम।
मनुजो मनुजव्याघ्राद् रामादन्यो न विद्यते॥५॥
‘अपने सौभाग्य पर गर्व करने वाली कैकेयी! क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि नरश्रेष्ठ श्रीराम के अतिरिक्त दूसरा कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो मुझे तुमसे अधिक प्रिय हो॥
तेनाजय्येन मुख्येन राघवेण महात्मना।
शपे ते जीवनाण ब्रूहि यन्मनसेप्सितम्॥६॥
‘जो प्राणों के द्वारा भी आराधनीय हैं और जिन्हें जीतना किसी के लिये भी असम्भव है, उन प्रमुख वीर महात्मा श्रीराम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारी कामना पूर्ण होगी; अतः तुम्हारे मन की जो इच्छा हो उसे बताओ॥६॥
यं मुहूर्तमपश्यंस्तु न जीवे तमहं ध्रुवम्।
तेन रामेण कैकेयि शपे ते वचनक्रियाम्॥७॥
‘कैकेयि! जिन्हें दो घड़ी भी न देखनेपर निश्चय ही मैं जीवित नहीं रह सकता, उन श्रीरामकी शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उसे पूर्ण करूँगा॥७॥
आत्मना चात्मजैश्चान्यैर्वृणे यं मन्जर्षभम्।
तेन रामेण कैकेयि शपे ते वचनक्रियाम्॥८॥
‘केकयनन्दिनि! अपने तथा अपने दूसरे पुत्रों को निछावर करके भी मैं जिन नरश्रेष्ठ श्रीराम का वरण करने को उद्यत हूँ, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारी कही हुई बात पूरी करूँगा॥ ८॥
भद्रे हृदयमप्येतदनुमृश्योद्धरस्व मे।
एतत् समीक्ष्य कैकेयि ब्रूहि यत् साधु मन्यसे॥
‘भद्रे ! केकयराजकुमारी! मेरा यह हृदय भी तुम्हारे वचनों की पूर्ति के लिये तत्पर है। ऐसा सोचकर तुम अपनी इच्छा व्यक्त करके इस दुःख से मेरा उद्धार करो। श्रीराम सबको अधिक प्रिय हैं—इस बातपर दृष्टिपात करके तुम्हें जो अच्छा जान पड़े, वह कहो॥ ९॥
बलमात्मनि पश्यन्ती न विशङ्कितुमर्हसि।
करिष्यामि तव प्रीतिं सुकृतेनापि ते शपे॥१०॥
‘अपने बलको देखते हुए भी तुम्हें मुझ पर शङ्का नहीं करनी चाहिये। मैं अपने सत्कर्मो की शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य सिद्ध करूँगा’ ॥ १०॥
सा तदर्थमना देवी तमभिप्रायमागतम्।
निर्माध्यस्थ्याच्च हर्षाच्च बभाषे दुर्वचं वचः॥ ११॥
रानी कैकेयी का मन स्वार्थ की सिद्धि में ही लगा हुआ था। उसके हृदय में भरत के प्रति पक्षपात था और राजा को अपने वश में देखकर हर्ष हो रहा था; अतः यह सोचकर कि अब मेरे लिये अपना मतलब साधने का अवसर आ गया है, वह राजासे ऐसी बात बोली, जिसे मुँह से निकालना (शत्रु के लिये भी) कठिन है॥ ११॥
तेन वाक्येन संहृष्टा तमभिप्रायमात्मनः।
व्याजहार महाघोरमभ्यागतमिवान्तकम्॥१२॥
राजा के उस शपथयुक्त वचन से उसको बड़ा हर्ष हुआ था। उसने अपने उस अभिप्राय को जो पास आये हुए यमराज के समान अत्यन्त भयंकर था, इन शब्दों में व्यक्त किया— ॥ १२॥
यथा क्रमेण शपसे वरं मम ददासि च।
तच्छृण्वन्तु त्रयस्त्रिंशद् देवाः सेन्द्रपुरोगमाः॥ १३॥
‘राजन्! आप जिस तरह क्रमशः शपथ खाकर मुझे वर देने को उद्यत हुए हैं, उसे इन्द्र आदि तैंतीस देवता सुन लें॥ १३॥
चन्द्रादित्यौ नभश्चैव ग्रहा रात्र्यहनी दिशः।
जगच्च पृथिवी चेयं सगन्धर्वाः सराक्षसाः॥ १४॥
निशाचराणि भूतानि गृहेषु गृहदेवताः।
यानि चान्यानि भूतानि जानीयुर्भाषितं तव॥ १५॥
‘चन्द्रमा, सूर्य, आकाश, ग्रह, रात, दिन, दिशा, जगत् , यह पृथ्वी, गन्धर्व, राक्षस, रात में विचरने वाले प्राणी, घरों में रहने वाले गृहदेवता तथा इनके अतिरिक्त भी जितने प्राणी हों, वे सब आपके कथन को जान लें -आपकी बातों के साक्षी बनें॥ १४-१५ ॥
सत्यसंधो महातेजा धर्मज्ञः सत्यवाक्शुचिः।
वरं मम ददात्येष सर्वे शृण्वन्तु दैवताः॥१६॥
‘सब देवता सुनें! महातेजस्वी, सत्यप्रतिज्ञ, धर्मके ज्ञाता, सत्यवादी तथा शुद्ध आचार-विचार वाले ये महाराज मुझे वर दे रहे हैं’ ॥ १६॥
इति देवी महेष्वासं परिगृह्याभिशस्य च।
ततः परमुवाचेदं वरदं काममोहितम्॥१७॥
इस प्रकार काम मोहित होकर वर देने को उद्यत हुए । महाधनुर्धर राजा दशरथ को अपनी मुट्ठी में करके देवीकैकेयी ने पहले उनकी प्रशंसा की; फिर इस प्रकार कहा- ॥ १७॥
स्मर राजन् पुरा वृत्तं तस्मिन् देवासुरे रणे।
तत्र त्वां च्यावयच्छत्रुस्तव जीवितमन्तरा॥१८॥
‘राजन् ! उस पुरानी बात को याद कीजिये, जब कि देवासुरसंग्राम हो रहा था। वहाँ शत्रु ने आपको घायल करके गिरा दिया था, केवल प्राण नहीं लिये थे॥ १८॥
तत्र चापि मया देव यत् त्वं समभिरक्षितः।
जाग्रत्या यतमानायास्ततो मे प्रददौ वरौ॥१९॥
‘देव! उस युद्धस्थल में सारी रात जागकर अनेक प्रकार के प्रयत्न करके जो मैंने आपके जीवन की रक्षा की थी उससे संतुष्ट होकर आपने मुझे दो वर दिये थे॥ १९॥
तौ दत्तौ च वरौ देव निक्षेपौ मृगयाम्यहम्।
तवैव पृथिवीपाल सकाशे रघुनन्दन ॥२०॥
‘देव! पृथ्वीपाल रघुनन्दन! आपके दिये हुए वे दोनों वर मैंने धरोहर के रूप में आपके ही पास रख दिये थे। आज इस समय उन्हीं की मैं खोज करती हूँ॥२०॥
तत् प्रतिश्रुत्य धर्मेण न चेद् दास्यसि मे वरम्।
अद्यैव हि प्रहास्यामि जीवितं त्वद्विमानिता॥ २१॥
‘इस प्रकार धर्मतः प्रतिज्ञा करके यदि आप मेरे उन वरों को नहीं देंगे तो मैं अपनेको आपके द्वारा” अपमानित हुई समझकर आज ही प्राणों का परित्याग कर दूंगी’ ॥ २१॥
वाङ्मात्रेण तदा राजा कैकेय्या स्ववशे कृतः।
प्रचस्कन्द विनाशाय पाशं मृग इवात्मनः॥२२॥
जैसे मृग बहेलिये की वाणीमात्र से अपने ही विनाश के लिये उसके जाल में फँस जाता है, उसी प्रकार कैकेयी के वशीभूत हुए राजा दशरथ उस समयपूर्वकाल के वरदान-वाक्य का स्मरण कराने मात्र से अपने ही विनाशके लिये प्रतिज्ञा के बन्धन में बँध गये। २२॥
ततः परमुवाचेदं वरदं काममोहितम्।
वरौ देयौ त्वया देव तदा दत्तौ महीपते॥२३॥
तौ तावदहमद्यैव वक्ष्यामि शृणु मे वचः।।
अभिषेकसमारम्भो राघवस्योपकल्पितः॥२४॥
अनेनैवाभिषेकेण भरतो मेऽभिषिच्यताम्।
तदनन्तर कैकेयी ने काममोहित होकर वर देने के लिये उद्यत हुए राजा से इस प्रकार कहा—’देव! पृथ्वीनाथ! उन दिनों आपने जो दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी, उन्हें अब मुझे देना चाहिये। उन दोनों वरों को मैं अभी बताऊँगी-आप मेरी बात सुनिये—यह जो श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी की गयी है, इसी अभिषेक-सामग्रीद् वारा मेरे पुत्र भरत का अभिषेक किया जाय॥
यो द्वितीयो वरो देव दत्तः प्रीतेन मे त्वया॥२५॥
तदा देवासुरे युद्धे तस्य कालोऽयमागतः।
‘देव! आपने उस समय देवासुर संग्राम में प्रसन्न होकर मेरे लिये जो दूसरा वर दिया था, उसे प्राप्त करनेका यह समय भी अभी आया है॥२५ १/२॥
नव पञ्च च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः॥
चीराजिनधरो धीरो रामो भवतु तापसः।
भरतो भजतामद्य यौवराज्यमकण्टकम्॥२७॥
‘धीर स्वभाव वाले श्रीराम तपस्वी के वेश में वल्कल तथा मृगचर्म धारण करके चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में जाकर रहें। भरत को आज निष्कण्टक युवराज पद प्राप्त हो जाय॥ २६-२७॥
एष मे परमः कामो दत्तमेव वरं वृणे।
अद्य चैव हि पश्येयं प्रयान्तं राघवं वने ॥२८॥
‘यही मेरी सर्वश्रेष्ठ कामना है। मैं आपसे पहले का दिया हुआ वर ही माँगती हूँ। आप ऐसी व्यवस्था करें, जिससे मैं आज ही श्रीराम को वन की ओर जाते देखें।
स राजराजो भव सत्यसंगरः कुलं च शीलं च हि जन्म रक्ष च।
परत्र वासे हि वदन्त्यनुत्तमं तपोधनाः सत्यवचो हितं नृणाम्॥२९॥
‘आप राजाओं के राजा हैं; अतः सत्यप्रतिज्ञ बनिये और उस सत्य के द्वारा अपने कुल, शील तथा जन्म की रक्षा कीजिये। तपस्वी पुरुष कहते हैं कि सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ धर्म है। वह परलोक में निवास होने पर मनुष्यों के लिये परम कल्याणकारी होता है॥ २९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकादशः सर्गः॥११॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।११॥
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