वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 110 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 110
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
दशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 110)
वसिष्ठजी का ज्येष्ठ के ही राज्याभिषेक का औचित्य सिद्ध करना और श्रीराम से राज्य ग्रहण करने के लिये कहना
क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठः प्रत्युवाच ह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्य गतागतिम्॥
श्रीरामचन्द्रजी को रुष्ट जानकर महर्षि वसिष्ठजी ने उनसे कहा—’रघुनन्दन ! महर्षि जाबालि भी यह जानते हैं कि इस लोक के प्राणियों का परलोक में जाना और आना होता रहता है (अतः ये नास्तिक नहीं हैं)॥१॥
निवर्तयितुकामस्तु त्वामेतद् वाक्यमब्रवीत्।
इमां लोकसमुत्पत्तिं लोकनाथ निबोध मे॥२॥
‘जगदीश्वर ! इस समय तुम्हें लौटाने की इच्छा से ही इन्होंने यह नास्तिकतापूर्ण बात कही थी। तुम मुझसे इस लोक की उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनो॥२॥
सर्वं सलिलमेवासीत् पृथिवी तत्र निर्मिता।
ततः समभवद् ब्रह्मा स्वयंभूर्दैवतैः सह ॥३॥
‘सृष्टि के प्रारम्भकाल में सब कुछ जलमय ही था। उस जल के भीतर ही पृथ्वी का निर्माण हुआ। तदनन्तर देवताओं के साथ स्वयंभू ब्रह्मा प्रकट हुए।
स वराहस्ततो भूत्वा प्रोज्जहार वसुंधराम्।
असृजच्च जगत् सर्वं सह पुत्रैः कृतात्मभिः॥४॥
‘इसके बाद उन भगवान् विष्णु स्वरूप ब्रह्मा ने ही वराह रूप से प्रकट होकर जल के भीतर से इस पृथ्वी को निकाला और अपने कृतात्मा पुत्रों के साथ इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि की॥४॥
आकाशप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः।
तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः॥५॥
‘आकाश स्वरूप परब्रह्म परमात्मा से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ है, जो नित्य, सनातन एवं अविनाशी हैं। उनसे मरीचि उत्पन्न हुए और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए।
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्वयम्।
स तु प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुस्तु मनोः सुतः॥६॥
‘कश्यप से विवस्वान् का जन्म हुआ। विवस्वान् के पुत्र साक्षात् वैवस्वत मनु हुए, जो पहले प्रजापति थे। मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए॥६॥
यस्येयं प्रथमं दत्ता समृद्धा मनुना मही।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम्॥
जिन्हें मनु ने सबसे पहले इस पृथ्वी का समृद्धिशाली राज्य सौंपा था, उन राजा इक्ष्वाकु को तुम अयोध्या का प्रथम राजा समझो॥७॥
इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान् कुक्षिरित्येव विश्रुतः।
कुक्षेरथात्मजो वीरो विकुक्षिरुदपद्यत॥८॥
‘इक्ष्वाकु के पुत्र श्रीमान् कुक्षि के नाम से विख्यात हुए। कुक्षि के वीर पुत्र विकुक्षि हुए॥ ८॥
विकुक्षेस्तु महातेजाः बाणः पुत्रः प्रतापवान्।
बाणस्य च महाबाहुरनरण्यो महातपाः॥९॥
‘विकुक्षि के महातेजस्वी प्रतापी पुत्र बाण हुए। बाण के महाबाहु पुत्र अनरण्य हुए, जो बड़े भारी तपस्वी थे॥
नानावृष्टिर्बभूवास्मिन् न दुर्भिक्षः सतां वरे।
अनरण्ये महाराजे तस्करो वापि कश्चन॥१०॥
‘सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महाराज अनरण्य के राज्य में कभी अनावृष्टि नहीं हुई, अकाल नहीं पड़ा और कोई चोर भी नहीं उत्पन्न हुआ॥१०॥
अनरण्यान्महाराज पृथू राजा बभूव ह।
तस्मात् पृथोर्महातेजास्त्रिशङ्करुदपद्यत॥११॥
‘महाराज! अनरण्यसे राजा पृथु हुए। उन पृथु से महातेजस्वी त्रिशंकु की उत्पत्ति हुई॥ ११ ॥
स सत्यवचनाद् वीरः सशरीरो दिवं गतः।
त्रिशङ्कोरभवत् सूनुधुन्धुमारो महायशाः॥१२॥
‘वे वीर त्रिशंकु विश्वामित्र के सत्य वचन के प्रभाव से सदेह स्वर्गलोक को चले गये थे। त्रिशंकु के महायशस्वी धुन्धुमार हुए॥ १२ ॥
धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो व्यजायत।
युवनाश्वसुतः श्रीमान् मान्धाता समपद्यत॥१३॥
‘धुन्धुमार से महातेजस्वी युवनाश्व का जन्म हुआ। युवनाश्व के पुत्र श्रीमान् मान्धाता हुए॥ १३ ॥
मान्धातुस्तु महातेजाः सुसंधिरुदपद्यत।
सुसंधेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसंधिः प्रसेनजित्॥१४॥
‘मान्धाता के महान् तेजस्वी पुत्र सुसंधि हुए। सुसंधि के दो पुत्र हुए-ध्रुवसंधि और प्रसेनजित्॥ १४॥
यशस्वी ध्रुवसंधेस्तु भरतो रिपुसूदनः।
भरतात् तु महाबाहोरसितो नाम जायत॥१५॥
‘ध्रुवसंधि के यशस्वी पुत्र शत्रुसूदन भरत थे। महाबाहु भरत से असित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। १५॥
यस्यैते प्रतिराजान उदपद्यन्त शत्रवः।
हैहयास्तालजङ्घाश्च शूराश्च शशबिन्दवः॥
‘जिसके शत्रुभूत प्रतिपक्षी राजा ये हैहय, तालजंघ और शूर शशबिन्दु उत्पन्न हुए थे॥ १६ ॥
तांस्तु सर्वान् प्रतिव्यूह्य युद्धे राजा प्रवासितः।
स च शैलवरे रम्ये बभूवाभिरतो मुनिः॥१७॥
‘उन सबका सामना करने के लिये सेना का व्यूह बनाकर युद्ध के लिये डटे रहने पर भी शत्रुओं की संख्या अधिक होने के कारण राजा असित को हारकर परदेश की शरण लेनी पड़ी। वे रमणीय शैल-शिखर पर प्रसन्नतापूर्वक रहकर मुनिभाव से परमात्मा का मन नचिन्तन करने लगे।
ढे चास्य भार्ये गर्भिण्यौ बभूवतुरिति श्रुतिः।
तत्र चैका महाभागा भार्गवं देववर्चसम्॥१८॥
ववन्दे पद्मपत्राक्षी कांक्षिणी पुत्रमुत्तमम्।
एका गर्भविनाशाय सपत्न्यै गरलं ददौ॥१९॥
“सुना जाता है कि असित की दो पत्नियाँ गर्भवती थीं। उनमें से एक महाभागा कमललोचना राजपत्नी नेउत्तम पुत्र पाने की अभिलाषा रखकर देवतुल्य तेजस्वी भृगुवंशीच्यवन मुनि के चरणों में वन्दना की और दूसरी रानी ने अपनी सौत के गर्भ का विनाश करने के लिये उसे जहर दे दिया।
भार्गवश्च्यवनो नाम हिमवन्तमुपाश्रितः।
तमृषिं साभ्युपागम्य कालिन्दी त्वभ्यवादयत्॥ २०॥
‘उन दिनों भृगुवंशी च्यवन मुनि हिमालय पर रहते थे। राजा असित की कालिन्दी नामवाली पत्नी ने ऋषि के चरणों में पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया॥ २० ॥
स तामभ्यवदत् प्रीतो वरेप्सुं पुत्रजन्मनि।
पुत्रस्ते भविता देवि महात्मा लोकविश्रुतः॥ २१॥
धार्मिकश्च सुभीमश्च वंशकर्तारिसूदनः।
‘मुनि ने प्रसन्न होकर पुत्र की उत्पत्ति के लिये वरदान चाहने वाली रानी से इस प्रकार कहा—’देवि! तुम्हें एक महामनस्वी लोकविख्यात पुत्र प्राप्त होगा, जो धर्मात्मा, शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर, अपने वंश को चलाने वाला और शत्रुओं का संहारक होगा’। २१ १/२॥
श्रुत्वा प्रदक्षिणं कृत्वा मुनिं तमनुमान्य च॥२२॥
पद्मपत्रसमानाक्षं पद्मगर्भसमप्रभम्।
ततः सा गृहमागम्य पत्नी पुत्रमजायत ॥२३॥
‘यह सुनकर रानी ने मुनि की परिक्रमा की और उनसे विदा लेकर वहाँ से अपने घर आने पर उस रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसकी कान्ति कमल के भीतरी भाग के समान सुन्दर थी और नेत्र कमलदल के समान मनोहर थे॥ २२-२३॥
सपत्न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भजिघांसया।
गरेण सह तेनैव तस्मात् स सगरोऽभवत्॥२४॥
‘सौत ने उसके गर्भ को नष्ट करने के लिये जो गर (विष) दिया था, उस गर के साथ ही वह बालक प्रकट हुआ; इसलिये सगर नाम से प्रसिद्ध हुआ॥ २४॥
स राजा सगरो नाम यः समुद्रमखानयत्।
इष्ट्वा पर्वणि वेगेन त्रासयान इमाः प्रजाः॥२५॥
‘राजा सगर वे ही हैं, जिन्होंने पर्व के दिन यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करके खुदाई के वेग से इन समस्त प्रजाओं को भयभीत करते हुए अपने पुत्रों द्वारा समुद्र को खुदवाया था॥ २५ ॥
असमञ्जस्तु पुत्रोऽभूत् सगरस्येति नः श्रुतम्।
जीवन्नेव स पित्रा तु निरस्तः पापकर्मकृत्॥ २६॥
‘हमारे सुनने में आया है कि सगर के पुत्र असमञ्ज हुए, जिन्हें पापकर्म में प्रवृत्त होने के कारण पिताने जीते-जी ही राज्य से निकाल दिया था॥ २६ ॥
अंशुमानपि पुत्रोऽभूदसमञ्जस्य वीर्यवान्।
दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः॥ २७॥
‘असमञ्ज के पुत्र अंशुमान् हुए, जो बड़े पराक्रमी थे। अंशुमान् के दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए।॥ २७॥
भगीरथात् ककुत्स्थश्च काकुत्स्था येन तु स्मृताः।
ककुत्स्थस्य तु पुत्रोऽभूद् रघुर्येन तु राघवाः॥ २८॥
‘भगीरथ से ककुत्स्थ का जन्म हुआ, जिनसे उनके वंशवाले ‘काकुत्स्थ’ कहलाते हैं। ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, जिनसे उस वंश के लोग ‘राघव’ कहलाये। २८॥
रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः।
कल्माषपादः सौदास इत्येवं प्रथितो भवि॥२९॥
‘रघु के तेजस्वी पुत्र कल्माषपाद हुए, जो बड़े होने पर शापवश कुछ वर्षों के लिये नरभक्षी राक्षस हो गये थे। वे इस पृथ्वी पर सौदास नाम से विख्यात थे।
कल्माषपादपुत्रोऽभूच्छङ्खणस्त्विति नः श्रुतम्।
यस्तु तदीर्यमासाद्य सहसैन्यो व्यनीनशत्॥३०॥
‘कल्माषपाद के पुत्र शङ्खण हुए, यह हमारे सुनने में आया है, जो युद्ध में सुप्रसिद्ध पराक्रम प्राप्त करके भी सेनासहित नष्ट हो गये थे॥ ३०॥
शङ्खणस्य तु पुत्रोऽभूच्छूरः श्रीमान् सुदर्शनः।
सुदर्शनस्याग्निवर्ण अग्निवर्णस्य शीघ्रगः॥३१॥
‘शङ्खण के शूरवीर पुत्र श्रीमान् सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण और अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग थे॥
शीघ्रगस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रशुश्रुवः।
प्रशुश्रुवस्य पुत्रोऽभूदम्बरीषो महामतिः॥३२॥
‘शीघ्रग के पुत्र मरु, मरु के पुत्र प्रशुश्रुव तथा प्रशुश्रुव के महाबुद्धिमान् पुत्र अम्बरीष हुए॥ ३२॥
अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषः सत्यविक्रमः।
नहुषस्य च नाभागः पुत्रः परमधार्मिकः॥३३॥
‘अम्बरीष के पुत्र सत्यपराक्रमी नहुष थे। नहुष के पुत्र नाभाग हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे॥३३॥
अजश्च सुव्रतश्चैव नाभागस्य सुतावुभौ।
अजस्य चैव धर्मात्मा राजा दशरथः सुतः॥३४॥
‘नाभाग के दो पुत्र हुए-अज और सुव्रत। अज के धर्मात्मा पुत्र राजा दशरथ थे॥ ३४ ॥
तस्य ज्येष्ठोऽसि दायादो राम इत्यभिविश्रुतः।
तद् गृहाण स्वकं राज्यमवेक्षस्व जगन्नृप॥ ३५॥
‘दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र तुम हो, जिसकी ‘श्रीराम’ के नाम से प्रसिद्धि है। नरेश्वर! यह अयोध्या का राज्य तुम्हारा है, इसे ग्रहण करो और इसकी देखभाल करते रहो॥ ३५॥
इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां राजा भवति पूर्वजः।
पूर्वजे नावरः पुत्रो ज्येष्ठो राजाभिषिच्यते॥३६॥
‘समस्त इक्ष्वाकुवंशियों के यहाँ ज्येष्ठ पुत्र ही राजा होता आया है। ज्येष्ठ के होते हुए छोटा पुत्र राजा नहीं होता है। ज्येष्ठ पुत्र का ही राजा के पद पर अभिषेक होता है॥ ३६॥
स राघवाणां कुलधर्ममात्मनः सनातनं नाद्य विहन्तुमर्हसि।
प्रभूतरत्नामनुशाधि मेदिनी प्रभूतराष्ट्रां पितृवन्महायशः॥३७॥
‘महायशस्वी श्रीराम! रघुवंशियों का जो अपना सनातन कुलधर्म है, उसको आज तुम नष्ट न करो। बहुत-से अवान्तर देशोंवाली तथा प्रचुर रत्नराशि से सम्पन्न इस वसुधा का पिता की भाँति पालन करो’। ३७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे दशाधिकशततमः सर्गः॥ ११०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ दसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ११०॥